गुरुवार, 30 दिसंबर 2010
पड़ोसियों से सावधान
भाजपा के शीर्षस्थ नेता अपनी विशेष भाषण-शैली के लिए प्रसिद्ध अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधानमंत्री थे तब अक्सर कहा करते थे कि आप मित्र बदल सकते है,शत्रु भी बदल सकते हैं मगर पड़ोसी नहीं बदल सकते.लेकिन मेरा दुर्भाग्य कुछ ऐसा रहा है कि हर साल-दो-साल पर मुझे नए पड़ोसियों का सामना करना पड़ता है.वर्ष १९९२ से ही मेरा परिवार किराये के मकानों में रहता आ रहा है.एक-दो सालों तक तो मकान मालिक के साथ हनीमून पीरियड चलता है और फ़िर उसका हमसे मन उबने लगता है.फ़िर वह भाड़ा बढ़ाने की बात करने लगता है और हम भाड़ा में मनमाना वृद्धि करने के बजाए डेरा ही बदल लेते हैं.एक झटके में मोहल्ले का नाम,पता-ठिकाना सब बदल जाता है और साथ ही बदल जाते हैं पड़ोसी भी.१९९२ में जब हम स्वर्ग से सुन्दर अपने गाँव को छोड़कर महनार आए तब हमारे मोहल्ले यानी चकबंदी कालोनी से ज्यादा वी.आई.पी. कोई मोहल्ला नहीं था.एक पूर्व प्रिंसिपल,दो प्रोफ़ेसर और एक बैंक क्लर्क हमारे पड़ोसी बने.प्रिन्सिपलाईन को पड़ोसियों से सामान मांगने की बुरी बीमारी थी.उनकी दूत यानी नातिन भी एक ही जिद्दी थी.मना करने पर कहती कि नहीं देंगे कैसे?मैं तो चीनी या चायपत्ती या कुछ और लेकर ही जाऊंगी.एक और पड़ोसी थे प्रोफ़ेसर साहब.आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया वाले आदमी थे.रंग भैंसे से भी ज्यादा गहरा.उनके एक सहकर्मी की राय थी कि जब वे पान खा लेते हैं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने भैंसे की लाद में भाला मार दिया है.उनकी पत्नी को एक अजीबोगरीब बीमारी थी.अगर उनका कोई बच्चा टी.वी. देखने दूसरे घरों में या सिनेमा हॉल में सिनेमा देखने चला जाता तो रात के १२ बजे भी पूस में भी उसे बिना स्नान के घर में नहीं घुसने देती.कोई अगर उनका स्पर्श कर जाता तो ठण्ड की परवाह किए बिना शीघ्र स्नान कर लेतीं.यहाँ तक कि कोई अगर उनके बिछावन पर बैठ जाता तो बिछावन बदल देतीं और अगर कोई कुर्सी पर बैठ जाता तो कुर्सियों को भी चाहे कंपकंपाती ठण्ड ही क्यों न हो धोने लगतीं.दुर्भाग्यवश उनकी इसी छुआछूत की बीमारी के चलते हमें डेरा-परिवर्तन करना पड़ा.हुआ यह कि एक दिन माँ ने मेरे नवजात भांजे का पेशाब किया हुआ बिछावन सार्वजनिक अलगनी पर सूखने को डाल दिया.इस पर वे इतनी आगबबुला हुईं और गालियों की ऐसी बौछार कर दीं कि हमने डेरा बदल लेने में ही अपनी भलाई समझी.गाँव से हम शांति की तलाश में ही शहर आए थे और अशांति यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही थी सो हमने ही उनसे पीछा छुड़ा लिया.वहीँ पर एक ऐसे पड़ोसी भी थे जो प्यादा से फर्जी हुए थे इसलिए जनाब हमेशा टेढो-टेढो जाते थे.पहले स्टेट बैंक में चपरासी थे अब क्लर्क कम कैशियर बन गए थे.दुर्योगवश उनकी सुन्दर बिटिया को हमसे प्रथम दृष्टया प्रेम हो गया वो भी एकतरफा.मुझे तो वो फूटी आँखों भी नहीं सुहाती थी.गाहे-बगाहे मेरे इर्द-गिर्द मंडराती रहती.अंत में जब मेरी ओर से कोई ग्रीन सिग्नल नहीं मिला तो जा पहुंची मेरी माँ के पास.एक सप्ताह बाद उसकी शादी होनी थी और मोहतरमा फार्म रही थीं कि काकी अगर आप मुझे बहू बनना स्वीकार कर लें तो मैं यह शादी रूकवा दूँगी.माँ ठहरी ग्रामीण संस्करोंवाली महिला सो आश्चर्यचकित-सी रह गई और साफ तौर पर मना कर दिया.नए डेरे में भी हम ज्यादा समय तक नहीं टिक सके.यहाँ से भागने का कारण बनी मकान-मालकिन जो पूरे महनार में अपनी यौन-स्वच्छंदता के लिए बदनाम थी.इस डेरे में छः महीने रहने के बाद हमने सिनेमा रोड में किराये पर मकान ले लिया.वर्ष १९९५ की बात है तब हम इसका ६०० रूपये मासिक किराया देते थे जो पूरे महनार में सबसे ज्यादा था.यहाँ निकट के पड़ोसी नहीं थे.दूर के दो पड़ोसी थे और दोनों प्रोफ़ेसर थे.इन दोनों में से जो निकट में थे एक पुरसाहाल इन्सान थे.परन्तु उनके पूरे परिवार को अपनी बर्बादी का रंचमात्र भी अफ़सोस नहीं था.अफ़सोस था तो इस बात पर कि कोई दूसरा प्रोफ़ेसर आगे कैसे बढ़ रहा है.दिनभर वे और उनकी पत्नी निंदा-पुराण के पाठ में लगे रहते और हमें भी अक्सर उनलोगों के सौजन्य से निंदा रस में सराबोर होने का दुर्लभ अवसर मिल जाता.ईधर ज्यादा दूर के पड़ोसी प्रोफ़ेसर साहब का बेटा मेरा मित्र बन गया था,अच्छा या बुरा पता नहीं.वह मेरी जेब में से १-२ रूपया का सिक्का जबरन निकल लेता और उसका गुटखा खा जाता.मैं इस कैंसरकारी आत्मभोज में शामिल होने से मना कर देता तो वह और भी खुश होता कि हिस्सा नहीं बाँटना पड़ेगा.बाद में मेरी छोटी दीदी की शादी में उसने शराब पीकर जो नाटक किया कि दोस्ती दुश्मनी में तो नहीं बदली लेकिन टूट जरूर गई.उसके बाद फ़िर से हमारा घोंसला बदला और इस बार निकट पड़ोसी बने दो परिवार.एक तो बनिए का परिवार था जिसकी चौक पर दुकान थी किराने की.बनिए की बहू उन्मुक्त स्वभाव वाली थी.चापाकल पर पूरी तरह अनावृत्त होकर स्नान करती और मुझे छेड़ा भी करती.मैं अब तक जवान हो चुका था सो यह तो नहीं कह सकता कि वह मुझे अच्छी नहीं लगती थी लेकिन मेरा कभी साझेदारी में विश्वास रहा ही नहीं है.एक अन्य पड़ोसी बिजली विभाग में एस.डी.ओ. थे.दिनभर घूस खाते लेकिन पेट नहीं भरता था,आत्मा भी अतृप्त रह जाती थी.सो एक दिन हमारे गरीब मुसलमान पड़ोसी का मुर्गा चुरा बैठे और रंगे हाथों पकड़ भी लिए गए.परिणाम यह हुआ कि उन्होंने महनार से तबादला ही करवा लिया.बाद में सामनेवाली भाभी के परिवार ने भी अपना आशियाना बदल लिया और करीब डेढ़ साल तक तक हमें पड़ोसीविहीनता की दर्दनाक स्थिति में गुजारा करना पड़ा.उसके बाद मेरा परिवार हाजीपुर आ गया.यहाँ भी हम तीन बार डेरा बदल चुके हैं.वैसे संयोग यह भी रहा इन डेरों में रहते हुए किसी पड़ोसी से हम ज्यादा घुलमिल नहीं पाए.खैर पिछले डेरे में जरूर दो पड़ोसी मिले थे.एक प्रोफ़ेसर था वो भी गणित का.परीक्षा के लिए आवेदन करते समय भाई साहब मेरे पास आते उम्र निकलवाने.हाँ उनका हिसाब-किताब तिकड़म में खूब अच्छा था और दिनभर इसी चक्कर में मोटरसाइकिल का धुआं उड़ाते रहते.उनकी पत्नी को भी मांगने की बुरी आदत थी जिससे मेरी माँ बहुत परेशान रहा करती.नीचे के माले में एक शिक्षिका का सपति निवास था.इन दिनों बिहार में मुखियापति,पंचायत सदस्यपति जैसे शब्दों का खूब प्रचलन है.तो ये श्रीमान जीवन में कुछ नहीं कर सकने की मजबूरी के कारण शिक्षिकापति कहलाने लगे.चपर जिले के हैं और राजपूत भी हैं इसलिए झूठ बोलने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं.उनकी पत्नी उत्क्रमित मध्य विद्यालय,दाऊदनगर हरिजन,अंचल-बिदूपुर,जिला-वैशाली में प्रधानाध्यापिका हैं.अजी प्रधानाध्यापिका तो नाममात्र की हैं वास्तव में वे घोटाला-विशेषज्ञ हैं.दोनों परले दर्जे के कंजूस भी हैं.मैडमजी के स्कूल में ७वीं और ८वीं कक्षा के छात्र-छात्राओं को पिछले सालभर से सिर्फ कागज पर ही खिचड़ी खिलाई जा रही है.भाई साब यह तो बस नमूनाभर है उनकी कलाकारी का और भी अनगिनत मद हैं उनकी अवैध कलाकारी के उनके स्कूल में.सो वे घोटाला कर रही है और पति उसका हिसाब रखते हैं.ठीक उसी तरह जैसे बिहार में मुखियापति आदि पति रखते हैं.मियां अक्सर घर में पड़े रहते हैं और बीबी स्कूल में घोटाला-प्रशासन चलती हैं.हीनभावना से ग्रस्त मियां पूछने पर खुद को भी शिक्षक बताते हैं.घर में पड़े-पड़े बोर हो जाते तो पहुँच जाते हमारे पास हमें बोर करने.फ़िर शुरू होता पुत्रचरितमानस और रिश्तेदार पुराण.उनके अनुसार उनके बेटे दिल्ली में लाखों कमाते हैं लेकिन श्रीमान रहते हैं हाजीपुर में किराया के मकान में.न जाने कौन-सी मजबूरी है?हर महीने कहीं-न-कहीं जमीन देखते हैं लेकिन खरीदते नहीं हैं.अब मैं आता हूँ उन पड़ोसियों पर जो वर्तमान में मेरे पड़ोसी हैं.मेरे बगलवाले कमरे में मेरी पड़ोसन रहती है तीन बड़े-बड़े बच्चों के साथ.उसे हरदम बोलने की बीमारी है और वह भी फुल वॉल्यूम में.जब मैं प्रभात खबर में था तो उसने मेरी नींद हराम कर दी थी.सुबह जब मैं सोने जाता तब उसके जागने और बकवास शुरू करने का समय हो जाता.बार-बार मना करने का भी कोई असर नहीं हुआ तो मैंने हारकर नौकरी छोड़ दी.उस पर श्रीमतीजी को गंदे फ़िल्मी गाने सुनने का चस्का लगा हुआ है.मुन्नी बदनाम हुई उनके घर में इस प्रकार बजता है और वे इसे इस तरह भाव-विभोर होकर सुनते हैं जैसे हनुमान जी या दुर्गा माता की आरती हो.डी.वी.डी. पर अश्लील गाना बजने पर उनके पुत्रगण भी साथ-साथ गाते रहते हैं.मना करने पर बेटे अगर मान भी गए तो वह कहती है बंद मत करना मैं सुन रही हूँ.उनके तीनों जवान हो चुके बेटे रूम से लेकर मकान के दरवाजे तक हाफ कच्छा पहने चहलकदमी करते रहते हैं.शायद यह उनका लेटेस्ट फैशन है या फ़िर युगों का सफ़र दिनों में व्यतीत करते हुए उल्टी दिशा में एंटीक्लॉकवाईज सफ़र करते हुए वे फ़िर से आदिम युग में पहुँच गए है.वह पहले से मकान में रहने के कारण हमारे साथ कुछ इस तरह से पेश आती है जैसे वही मकान-मालकिन हो.जबकि हमारे वर्तमान मकान-मालिक परिवारसहित दिल्ली में रहते हैं.पड़ोसन का बड़ा बेटा चाचा की कमाई पर मोटरसाईकिल का धुआं उडाता है.उसकी कथित तौर पर ग्राम-फतिकवारा जो देसरी स्टेशन के पास है के रहनेवाले एक नवनियुक्त आई.ए.एस. से जान-पहचान है.गरीब कुर्मी परिवार में जन्मे इस युवक ने जब सिविल सेवा परीक्षा पास करने का कारनामा किया था तो जिले के सभी समाचार-पत्रों ने उसे प्रमुखता से छापा था.जैसा कि यह लड़का बताता है कि फैक्टरी खोलने के लिए जिलाधिकारी महोदय को हाजीपुर में एक बीघा जमीन की तलाश है.इतनी जल्दी इतनी तरक्की!श्रीमान जब पास हुए थे तब तो उनके सिर पर पक्की छत तक नहीं थी.बतौर मेरा पड़ोसी अगर सौदा पट गया तो उसे दलाली में १ लाख रूपये कट्ठा की दर से २० लाख रूपये बैठे-बिठाए मिल जाएँगे.वैसे मैं यह बताता चलूँ कि मेरे वर्तमान मोहल्ले संत कबीर नगर के ज्यादातर लोग जमीन की दलाली में ही लगे हैं.ठगी उनका धर्म है और बेईमानी उनका ईमान.तो भाइयों लगातार बदलते रंग-बिरंगे पड़ोसियों से परेशान होकर हमने खुद की जमीन खरीद ली है और अब जनवरी-फरवरी से घर बनना शुरू करनेवाले हैं.वैसे तो मैं समझता हूँ कि मेरी व्यथा से जो सीख लेनी चाहिए आपने स्वतःस्फूर्त भाव से थोक के भाव में ले ली होगी.फ़िर भी आपको सावधान करना अपना लेखकीय धर्म समझते हुए मैं आपको लाख टके की सलाह बिलकुल मुफ्त में देना चाहूँगा कि भाई मेरे,बहना मेरी जब भी किराये का मकान देखने जाना तो मकान में कितनी जगह है और वास्तुशास्त्र के मुताबिक है या नहीं बाद में देखना;पहले यह देखना कि पड़ोसी कौन लोग हैं और कैसे लोग हैं.तो भाइयों और भाइयों की बहनों पड़ोसियों से सावधान!!!
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