भारतीय कृषि पर जलवायु परिवर्तन का तात्कालिक प्रभाव-जुलाई-अगस्त तक चलने वाले दक्षिण-पश्चिमी या बारिश का मौसम दरअसल भारतीय कृषि के लिए जीवन रेखा है.व्यापक सन्दर्भ में कहें तो यह बारिश देश की अर्थव्यवस्था की भी जीवन रेखा है क्योंकि भारतीय कृषि पर करीब ६० फीसदी आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है.भारत में कुल १४ करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से ६५ फीसदी मानव सिंचित (जैसे ट्यूब वेळ या नहरी सिंचाई की सुविधा) नहीं है.यह भूक्षेत्र वास्तव में ड्राई लैंड है जो विशुद्ध रूप से वर्षा पर निर्भर है.अगर बारिश नहीं होती है या देरी होती है तो भारत में आधे से ज्यादा खेतिहर जमीन ऊसर रह जाती है.ऐसी स्थिति में सरकार को सूखा घोषित करना पड़ता है जो अकाल से पहले की स्थिति है.भारत हर वक़्त अकाल के कगार पर रहता है.इतिहास में ऐसे कई अकाल दर्ज हैं.विश्लेषकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत को बराबर मानसून की अनियमितता को झेलना पड़ सकता है.इस साल भी देश के कुछ इलाकों में बाढ़ आई और कुछ इलाके सूखे रह गए.आईसीएआर के अनुसार मात्र १ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में ४० प्रतिशत से ५० लाख टन गेहूं की उपज कम हो जाएगी.जिस तरह धरती के गर्माने का सिलसिला जारी है विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष २०१० से २०३९ के बीच आज के मुकाबले कृषि उत्पादन ४.५ प्रतिशत तक कम हो जाएगी.वहीँ २०७० और २०९९ ई. के बीच तो यह वर्तमान उपज से २५ प्रतिशत तक कम तो जाएगी.इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेंट रिसर्च के वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर जलवायु परिवर्तन पर बने अंतरसरकारी पैनल द्वारा जारी कि गई चेतावनी सही साबित होती है तो भारतीय अर्थव्यवस्थ को जीडीपी पर ९ प्रतिशत की गिरावट झेलनी पड़ेगी.क्योंकि इससे चावल और गेहूं की उपज में ४० प्रतिशत तक की गंभीर गिरावट आने की आशंका है.इससे प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता कम होगी जिससे खाद्य असुरक्षा और कुपोषण बढेगा.
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के उपाय-भारत में मौसम में बदलाव के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में बाढ़ व सूखे को देखा जा सकता है.तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तेज होने के परिणामस्वरुप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं.मौसमी बदलाव के चलते वर्षा समय पर नहीं हो रही है और उसकी मात्रा में भी कमी आई है.आनेवाले १५ वर्षों में भारत के खाद्यान्न का कटोरा यानि पंजाब और हरियाणा सूखाग्रस्त हो जायेंगे.वहां की धरती में सिंचाई के लिए पानी ही नहीं रह जायेगा.केद्रीय भूमिगत जल बोर्ड की २००७ में जरिएक रिपोर्ट के अनुसार २०२५ में सिंचाई के लिए भूमिगत जल उपलब्धता ऋणात्मक हो जाएगी.उदाहरण के पंजाब में जितना जल जमीन में समता है उससे ४५ प्रतिशत अधिक खींच लिया जाता है.वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार २० से २५ प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए वनों का कटाव उत्तरदायी है.इसलिए वनों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाना चाहिए.जलवायु परिवर्तन के चलते सूखे एवं बढ़ में वृद्धि से पानी की उपलब्धता प्रभावित होगी.भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होनेवाली स्थितियों पर नियंत्रण से सम्बंधित योजनाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब ढाई प्रतिशत खर्च करता है जो कि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है.भारत में गैर परंपरागत स्रोतों जैसे सूर्य, जल एवं पवन ऊर्जा कि काफी बड़ी सम्भावना है.पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता में भारत विश्व में चौथे स्थान पर है. इन साधनों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहन से भी वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड को सोखने एवं जलवायु-परिवर्तन को कम करने में काफी सहायता मिलेगी.चूंकि पुराने वृक्षों में सीओटू को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए जलवायु-परिवर्तनों के नियंत्रण के लिए प्रत्येक स्तर पर अधिकाधिक वृक्षारोपण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की जरूरत है.एक यह कि जलवायु-परिवर्तन से कृषि चक्र पर क्या फर्क पड़ रहा है.दूसरा क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसलें लगाकर पूरी की जा सकती है.साथ ही हमें ऐसी फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु-परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हों-मसलन ऐसी फसलें जो ज्यादा गर्मी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हों.
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