रविवार, 17 जनवरी 2010
नीतीश सरकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
बिहार में इन दिनों रामराज्य है.यह कहना है बिहार की मीडिया का.भले ही नीतीश कुमार पर हत्या के मामले में सम्मन जारी हो या फ़िर दवा घोटाले में मुकदमा दर्ज कराया जाए क्या मजाल कि बिहार से प्रकाशित किसी भी प्रमुख समाचार पत्र में इस बारे में एक भी पंक्ति छप जाए.ऐसा नहीं है कि यहाँ के सभी पत्रकारों को सरकार ने खरीद लिया हो.कुव्यवस्था सम्बन्धी समाचार वे बराबर भेजते हैं.हाँ यह अलग बात है कि उन्हें छापा नहीं जाता.संविधान के अनुच्छेद १९ क के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है.प्रेस की स्वतंत्रता भी इसी में निहित है.संविधान के अनुसार भले ही प्रेस स्वतंत्र हो बिहार में वह हरगिज स्वतंत्र नहीं है.इसके लिए नीतीश सरकार की नीतियां तो जिम्मेदार है ही कहीं-न-कहीं प्रेस संस्था भी जिम्मेदार हैं.बिहार सरकार ने अपने पास अनियंत्रित अधिकार रखें हैं कि वह जब चाहे तब किसी भी मीडिया संस्थान का विज्ञापन बिना कारण बताये रोक सकती है.इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं कि अखबारों की आमदनी में मुख्य हिस्सा सरकारी विज्ञापन का ही होता है.ऐसे में कोई भी अख़बार तब तक सरकार के खिलाफ समाचार छापने का दुस्साहस नहीं कर सकता जब तक उसमें आर्थिक हानि उठाने का साहस न हो.वैसे भी अख़बार अब मिशन की जगह प्रोफेशन बन चुके हैं यानी धंधा मात्र.ऊपर से नीतीश सरकार उन्हें फांसने के लिए दोनों हाथों से जनता का धन विज्ञापन में लुटा रही है.उदाहरण के लिए सरकार के चार साल पूरा होने के अवसर पर बिहार के सबसे बड़े अख़बार हिंदुस्तान में १० पृष्ठों का सरकारी विज्ञापन प्रकाशित किया गया.दैनिक जागरण के पटना संस्करण को 9 पृष्ठों और दिल्ली संस्करण को ८ पृष्ठों का विज्ञापन प्राप्त हुआ.राष्ट्रीय सहारा भी इस मौके पर खासे लाभ में रहा और उसे पांच फुल और तीन हाफ पृष्ठों का विज्ञापन मिला.इतना ही नहीं बिहार से प्रकाशित होने वाले प्रमुख अंग्रेजी अख़बारों को भी डेढ़-डेढ़ पेज का विज्ञापन दिया गया.और इस प्रकार बिहार सरकार ने जनता का करोड़ों रूपया अपना चेहरा चमकाने में बर्बाद कर दिया.यह दास्ताँ है उस कालखंड की जब मीडिया सरकारी बीन पर नाच रही होती है.लेकिन जब-जब मीडिया ने सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखने की जुर्रत की है तब-तब उसका विज्ञापन रोक दिया गया है.उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के बटाईदारों को केसीसी देने सम्बन्धी बयान को छापने पर हिंदुस्तान का सरकारी विज्ञापन एक-डेढ़ महीने तक रोक दिया गया जिससे उसे करोड़ों रूपये का नुकसान हुआ.इसी तरह ममता बनर्जी के श्वेत पत्र प्रकाशन के समय लालू का बचाव करने को लेकर दैनिक जागरण को सुशासनी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा और उसे भी एक महीने से ज्यादा समय के लिए सरकारी विज्ञापन से वंचित होना पड़ा.कहने का मतलब यह कि बिहार में कलम फिसलने का सीधा अर्थ है सरकारी विज्ञापन पर रोक.पहले जहाँ रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव, रसायन मंत्री रामविलास पासवान द्वारा भी समाचार पत्रों को सरकारी विज्ञापन प्राप्त होता था अब सिर्फ नीतीश जी ही बचे हैं जो सरकारी विज्ञापन दे सकते हैं.दूसरी ओर अख़बारों के मालिकों में वह नैतिक बल भी नहीं है कि वे सरकार को नाराज कर आर्थिक क्षति उठा सकें.उनको तो बैलेंस शीट में बढ़ते लाभ को देखकर ही ख़ुशी होती है. चाहे इसके लिए सरकारी बीन पर नाचना ही क्यों न पड़े और नौकरशाही की लालफीताशाही का निर्मम शिकार बन रहे इस गरीब राज्य के बारे में सबकुछ हरा-हरा क्यों न छापना पड़े.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
बहुत खूब लिखा है ब्रजभाई आज ऐसे ही विचारों की जरुरत है क्योंकि विचार ही कर्म बनते है और कर्म ही क्रांति और क्रांति ही बदलाव लाती है मैं आपका ब्लॉग हमेशा ही पढता रहूंगा
मैं संत भाई
एक टिप्पणी भेजें