शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
भारत में लोकतंत्र नहीं भ्रष्टतंत्र
अमेरिका के १६वें राष्ट्रपति और दुनिया के सार्वकालिक महान नेताओं में से एक अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र की सबसे प्रसिद्ध परिभाषा देते हुए कहा था कि प्रजातंत्र जनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है.शायद अमेरिका में आज भी प्रजातंत्र लिंकन के इन मानदंडों पर खरा है.लेकिन दुनिया के अधिकतर विकासशील देशों में प्रजातंत्र का मतलब वह नहीं रह गया है जो लिंकन के लिए था.भारतीय संविधान सभा ने बहुत ही सोंच-समझकर ब्रिटिश मॉडल की नक़ल करते हुए संसदीय प्रजातंत्र को अपनाया था और मान लिया था कि जिस तरह यह प्रयोग इंग्लैंड में सफल रहा उसी तरह भारत में भी सफल रहेगा.लेकिन वो कहावत है न कि नक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए.दूसरे आम चुनाव में ही मतदान केन्द्रों पर कब्जे की घटनाएँ सामने आने लगीं.चुनावों में धन का दुरुपयोग भी होने लगा.विधायिका जो संसदीय लोकतंत्र में सर्वोपरि होती है में भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमिवाले प्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढती गई.अब जब रक्षक ही भक्षक हो गए तो समाज का नैतिक पतन तो होना ही था.श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है कि समाज अपने संचालकों और समर्थ लोगों का अनुकरण करता है.आज स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक को कहना पड़ रहा है कि जब सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना चाहती ही नहीं तो क्यों नहीं इसे वैधानिक स्वीकृति दे देती?प्रत्येक कार्यालय में क्यों नहीं रिश्वत का रेट लिस्ट लगा दिया जाता जैसे भोजनालयों में रोटी-भात के दर की सूची लगी होती है?सच्चाई से भागने से क्या लाभ?इससे जनता की परेशानी भी कम हो जाएगी.सर्वोच्च न्यायालय की सलाह पर निश्चित रूप से अमल किए जाने की जरुरत है.आप सड़कों पर किसी भी आदमी से बात करके देख लीजिए हर कोई यही कहेगा कि बिना पैसा दिए कार्यालयों से कोई काम नहीं कराया जा सकता.हमारा पूरा तंत्र जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि जनता से रिश्वत (लेवी) की उगाही के लिए है.दुनिया के सभी देशों में पारदर्शिता का स्तर बताने वाली सूची में हमारा देश पिछले साल ८४वें स्थान पर था इस साल ३ स्थान लुढ़ककर ८७वें स्थान पर पहुँच गया है.वैसे यह संतोष की बात है कि हमसे नीचे भी कई देश हैं और अभी सूची में हमारे और नीचे खिसकने की गुंजाईश बची हुई है.वास्तविक प्रजातंत्र शक्तियों के विकेंद्रीकरण से आता है लेकिन हमारे यहाँ संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के माध्यम से शक्तियों का ही विकेंद्रीकरण नहीं किया गया बल्कि बड़े ही धूम से भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण किया गया.कोई पश्चिमी देश होता तो भ्रष्टाचार का मामला उजागर होते ही राजनेताओं का राजनैतिक जीवन ही समाप्त हो जाता लेकिन हमारे यहाँ राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से करते हैं.पहले उल्टे-सीधे किसी भी तरीके से टिकट और वोट खरीदने लायक पैसा जमा किया जाता है,तब जाकर चुनाव लड़ने का अवसर प्राप्त होता है.अगर विधायक का चुनाव लड़ना है तो कम-से-कम १ करोड़ तो चाहिए ही,संसाद बनने के लिए और भी ज्यादा.चुनाव आयोग उम्मीदवारों का बैंकों में खाता खुलवाता है और यह झूठी उम्मीद करता है कि उम्मीदवार इसी खाते में से खर्च करेगा.ऐसा भी नहीं है आयोग को असलियत नहीं पता लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार के हाथों में होती है.चुनाव जीतने के बाद शुरू होता है वन-टू का फोर का खेल.अगर कर्नाटक और झारखण्ड की तरह विधानसभा त्रिशंकु हो गई तो और भी पौ-बारह.फ़िर मंत्री-मुख्यमंत्री बनकर राज्य के खजाने पर भ्रष्टाचार का (मधु) कोड़ा जमकर चलाया जाता है.जब राजा ही चोर-लुटेरा हो जाएगा तो उसके अधिकारी-कर्मचारी तो यमराज हो ही जाएँगे और इस तरह तंत्र शासन का नहीं शोषण का माध्यम बन जाता है.चपरासी से लेकर सचिव तक और वार्ड आयुक्त से से लेकर मंत्री तक सभी हमारे देश में भ्रष्ट हो चुके हैं.यदि कोई सत्येन्द्र दूबे की श्रेणी का सिरफिरा ईमानदारी की खुजली से ग्रस्त व्यक्ति तंत्र में घुस भी आता है तो उसे किनारे हो जाना पड़ता है नहीं तो हमारा तंत्र बड़ी आसानी से उसे दुनिया से ही कल्टी कर देता है हमेशा के लिए.अगर अर्थशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो हमारे देश में अमीरों का,अमीरों के लिए,अमीरों के द्वारा गरीबों पर शासन है.गरीबों को बार-बार यह भुलावा जरूर दिया जा रहा है कि अंततः शासन की बागडोर आपके ही हाथों में है.इसी तरह अगर हम राजनीति शास्त्र के दृष्टिकोण से लिंकन की उपरोक्त परिभाषा को मद्देनजर रखते हुए वर्तमान भारत पर विचार करें तो भारत में भ्रष्टों का,भ्रष्टों के द्वारा और भ्रष्टों के लिए शासन है.हमारे यहाँ एक सर्वथा नई शासन-प्रणाली है जिसे हम संसदीय भाषा में भ्रष्टतंत्र कह सकते हैं.लगभग सबका ईमान बिकाऊ है सिर्फ सही कीमत देनेवाला चाहिए.यह मैं ही नहीं कह रहा बल्कि हमारे लिए सबसे बड़े शर्म की बात तो यह है कि माननीय उच्चतम न्यायालय का भी यही मानना है.तालियाँ.
बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
खतरे में मानवता,करो या मरो
बात ८० के दशक की है.तब मैं मिडिल स्कूल में पढता था.मेरा स्कूल मेरे गाँव से ३ किलोमीटर की दूरी पर था.रास्ते में कई घरों पर गेरूए रंग से लिखा हुआ था:-कलियुग जाएगा,सतयुग आएगा,जय गुरुदेव.मैं सोंचता क्या सचमुच निकट भविष्य में ऐसा होनेवाला है?कब आएगा और कैसा होगा सतयुग?मैं अकसर सतयुग की कल्पनाओं में खो जाता.फ़िर वक़्त आया १९९७-९८ का.पूरी दुनिया में नास्त्रेदमस की ३०० साल पहले की गई भविष्यवाणियों की चर्चा थी.दावे किए जा रहे थे कि अब तक इस फ़्रांसिसी की कोई भी भविष्यवाणी गलत साबित नहीं हुई है इसलिए वर्ष २००० में दुनिया का अंत निश्चित है.संयोग से उस समय मेरा मन भी दुनिया से कुछ उचटा हुआ था.परिणाम यह हुआ कि मैंने भी इस अफवाह पर विश्वास कर लिया और पढाई छोड़ी तो नहीं, कम जरुर कर दी.जब दुनिया समाप्त ही होनी है तो पढ़कर क्या फायदा?वर्ष २००० आया भी और गया भी.लेकिन प्रलय का कहीं अता-पता नहीं था.अभी पिछले कुछ दिनों से अन्धविश्वास बढ़ाने के लिए विख्यात कई टी.वी. चैनलों पर सदियों पहले नष्ट हो चुकी माया सभ्यता के हवाले से यह भविष्यवाणी प्रसारित की जा रही है कि २०१२ दुनिया के लिए अंतिम साल साबित होने जा रहा है.हालांकि यह भी वक़्त आने पर एक अफवाह ही सिद्ध होगी.क्योंकि इस तरह की किसी भी भविष्यवाणी का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.लेकिन इसका यह मतलब हरगिज नहीं कि हम धरती पर पूरी तरह सुरक्षित हैं.क्योंकि इन भविष्यवाणियों के साथ-साथ दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक स्टीफन हॉकिंग ने भी कुछ कहा है जिसे हम कोरी भविष्यवाणी की श्रेणी में नहीं रख सकते.क्योंकि यह एक महान वैज्ञानिक द्वारा दी गई चेतावनी है और इसलिए इसका वैज्ञानिक आधार भी है.उन्होंने आशंका व्यक्त की है कि अगले दो सौ सालों में धरती इंसानों के रहने लायक नहीं रह जाएगी.चेतावनी में दो तरह के खतरों की बात की गई है.उनके अनुसार मानवता को परग्रहवासी एलियंस,क्षुद्र ग्रहों और धूमकेतुओं से खतरा है.उनका मानना है कि धरती से बाहर भी जीवन है क्योंकि जीवन उबलते पानी और जमी हुई बर्फ में भी संभव है,यह प्रमाणित भी हो चुका है.इन खतरों को हम अन्तरिक्षीय खतरों की श्रेणी में रख सकते हैं.इन पर मानव का कोई नियंत्रण भी नहीं है इसलिए इन पर विस्तार से विचार करने का कोई मतलब नहीं.दूसरी तरह के खतरे वे हैं जिन्हें हम मानवों ने खुद ही पैदा किया है.इनमें बढती जनसंख्या,घटते संसाधन,पर्यावरणीय विनाश,जलवायु परिवर्तन,भूमंडलीय ताप-वृद्धि और परमाणु बम शामिल हैं.जिस रफ़्तार में धरती पर मानवों की तादाद बढ़ रही है वह निकट भविष्य में मानवों के लिए ही नुकसानदेह साबित होनेवाली है.प्रत्येक २०-३० सालों में १ अरब लोग बढ़ जा रहे हैं.इनके लिए भोजन तो चाहिए ही,रहने के लिए आवास भी चाहिए.आवास के लिए उपजाऊ जमीन में घर बनाये जा रहे हैं.अब अगर कृषि-भूमि कम होगी तो खाद्यान्न भी कम पैदा होगा.कितना भीषण दुष्चक्र है?एक तरफ जनसंख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ी जा रही है तो दूसरी ओर अनाज-उत्पादन कम होता जा रहा है.पूरी दुनिया में इस समय जो अनाजों के दाम चढ़े हुए हैं वह इसी दुष्चक्र का दुष्परिणाम है.हम जानते हैं कि धरती पर उपलब्ध जल में से सिर्फ ३ प्रतिशत हमारे काम के लायक है.आदमी बढ़ रहे हैं लेकिन पानी की मात्रा तो सीमित है.धीरे-धीरे इस शताब्दी के अंत तक स्थितियां ऎसी हो जानेवाली हैं कि पीने के लिए भी पानी पूरा नहीं पड़ेगा फ़िर खेती के लिए कहाँ से आएगा?आदमी बसने के लिए धड़ल्ले-से पेड़ काट रहा है.एक घर बनाने के लिए औसतन ३ पेड़ काटे जा रहे हैं.आदमी एक साल में जितने ऑक्सीजन का उपयोग कर जाता है उतना ऑक्सिजन बनाने के लिए ४ पेड़ चाहिए.लेकिन यहाँ तो स्थितियां उल्टी है.हम पेड़ लगाने के बदले काट रहे हैं.धीरे-धीरे धरती पर ऑक्सीजन भी कम होता जाएगा और वह दिन भी आएगा जब धरती मानवों के रहने लायक रह ही नहीं जाएगी.हमने पारंपरिक खेती को छोड़कर बहुत बड़ी गलती की है.रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग से अन्न-पानी दूषित हो गए हैं जिससे मधुमेह और रक्तचाप जैसी बीमारियाँ आम हो गई है.इतना ही नहीं भूमि का तात्विक संतुलन भी बिगाड़ गया है जिससे जमीन ऊसर होने लगी है.निकट भविष्य में धरती से कोयला और खनिज तेल भी समाप्त होनेवाला है.बांकी खनिज-अयस्कों के साथ भी यही होनेवाला है.भगवान न करें अगर तीसरे विश्वयुद्ध की नौबत आई तो दो सौ साल से पहले भी मानवता समाप्त हो सकती है.क्योंकि धरती पर जितने परमाणु बम उपलब्ध हैं वे धरती को एक बार तो क्या कई बार विनष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं.खतरों की सूची में अगला नाम है धरती की ताप-वृद्धि और उसके कारण होनेवाले जलवायु परिवर्तन का.धरती लगातार गरम हो रही है.इस साल तो वैश्विक औसत तापमान के सामान्य १५ डिग्री सेंटीग्रेड से डेढ़ डिग्री ऊपर हो जाने का अनुमान है.अगर ताप-वृद्धि की यही रफ़्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम घर में बैठे-बैठे उबल जाएँगे.रेगिस्तान में बाढ़ आएगी और चेरापूंजी रेगिस्तान बन जाएगा.पूरी कृषि विनष्ट हो जाएगी.गंगा और अन्य हिमालीय नदियाँ सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएंगी.वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि पहले इंसान के आनुवांशिक कोड में जो आक्रामक प्रवृत्तियां थी,वे अब नहीं है.यानी अब इन्सान का खुद को बदलती प्राकृतिक स्थितियों के अनुसार ढाल पाना संभव नहीं है.हौन्किंग साहब की चेतावनी से पूरी तरह निराश होने की जरुरत नहीं है.ऐसा करने से कुछ नहीं हासिल होनेवाला.जो हमारे हाथों में है वह तो हम कर ही सकते हैं.जनसंख्या नियंत्रण,जैविक कृषि,वृक्षारोपण,परमाणु बमों की समाप्ति,पारंपरिक जल-संरक्षण विधियों को अपनाना,प्लास्टिक के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध,बिजली की बचत,उद्योगों को एको-फ्रेंडली बनना और नवीकरणीय बिजली-उत्पादन आदि कई कदम उठाये जा सकते हैं.लेकिन क्या हम ऐसा करेंगे?करेंगे तो बचेंगे,नहीं तो प्रलय दूर नहीं.
सोमवार, 18 अक्टूबर 2010
समय के साथ बदलता एक गाँव-भाग एक
मेरा जन्म ७० के दशक के उत्तरार्द्ध में बिहार के वैशाली जिले के एक मध्यमवर्गीय राजपूत परिवार में हुआ.मेरा परिवार उस समय मेरे ननिहाल में रहता था.पिताजी पास के ही गाँव में एक प्राईवेट कॉलेज में अवैतनिक व्याख्याता थे.हमारी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब थी कि मेरे जन्म से समय माँ को एक ग्राम भी दूध के दर्शन नहीं हुए.काफी समय तक,जब तक मैं ६-७ साल का नहीं हो गया मुझे यह पता नहीं था कि हमारा समाज जातियों में विभाजित है.तब तक मेरी गतिविधियाँ ज्यादातर अपनी ही जाति के बच्चों तक ही सीमित थी.बीच-बीच में जब बगल के गाँव से डोमिन सूप-टोकरी लेकर आती तब जरूर मुझे उसके स्पर्श से बचने के लिए सचेत किया जाता.मैंने उस अस्पृश्य वृद्धा को अपने छोटे नाना के श्राद्ध में जूठे पत्तलों में से खाद्य-सामग्री इकठ्ठा करते भी देखा और दुखी हुआ.कितनी विचित्र प्रथा थी यह वह महिला अन्य लोगों के साथ बैठकर भोजन भी नहीं कर सकती थी और उसे भोज-भात में जब अच्छे भोजन के मौके आते थे बांकी जातियों की जूठन खानी पड़ती थी.बाद में मुझे बताया गया कि जब मैं नवजात था तो ग्रह-दोष-निवारण के लिए उसे मुझे स्तनपान कराने का अवसर भी दिया गया था.गाँव में राजपूतों के अलावा ब्राह्मण,चमार,मल्लाह,हज्जाम,दुसाध,धोबी,कानू,कहार और कुम्हार थे.मेरी नानी राजपूतों के बीच बड़की माई के नाम से जानी जाती थी.मेरे नाना भाइयों में सबसे बड़े थे.उनका देहांत मेरे जन्म से पहले ही हो गया था.मामा नहीं थे और चचेरे मामा नानी को वक़्त-वेवक्त पीटते रहते इसलिए हमें यहीं रह जाना पड़ा.आज भी मैं इसे ही अपना गाँव कहता हूँ.नानी लगभग रोज चूहेदानी में रोटी लगाती और जगह बदल-बदल रख देती.कभी-कभी चूहे फंस भी जाते.रोजाना एक बार कुम्हार पंडित की वृद्धा पत्नी नानी से मिलने आती.नानी उसे कभी रोटी तो कभी भात खाने और घर ले जाने के लिए देती और जब चूहे पकड़े जाते तो चूहे भी दे देती.मैंने जब नानी से पूछा कि ये लोग चूहे का क्या करेंगे तो उसने बताया कि पका कर खा जाएँगे.साथ ही यह भी बताया कि मेरे एक चचेरे नाना भी चूहा खाते हैं.मेरा मन घृणा से भर गया था छिः चूहे भी कोई खाने की चीज हैं.मेरी नानी के रैयतों में एक की दृष्टि युवावस्था में ही चली गई थी.अब उनकी उम्र यही कोई ७० की होगी .वे जाति के चमार थे.रोज हमारे दरवाजे पर आते.उनका दोपहर का भोजन हमारे यहाँ ही होता.नानी कहती रैयत-प्रजा है यहाँ नहीं आएगा तो कहाँ जाएगा?भोजन के बाद सूरदास निर्गुण सुनाते.बड़ा ही मीठा स्वर था उनका.वे कभी 'सिया ओढले चदरिया राम नाम के' तो कभी 'चलु-चलु सखिया यशोदा जी के बगिया,बगिया में झुलुआ लगवले बानी' गाते तो सारा वातावरण भक्तिमय हो गाता.हम अक्सर उनकी लाठी पकड़ उन्हें घर छोड़ आते.नानी उन्हें प्यार से फूल (कांसे) के बर्तन में घर ले जाने के लिए खाना देती जैसे कोई माँ बेटे को देता है.जब बरतन वापस आता तो उसका शुद्धिकरण संस्कार भी करती आग में तपाकर,उपले की लाल आग में और मान लेती कि बरतन से सारा स्पर्श दोष निकाल गया है और वह शुद्ध है पहले की तरह.
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
आईये हम अपने भीतर के रावण को मारें
राम और रावण भारतीय इतिहास के सबसे चर्चित चरित्र रहे हैं.कल विजयादशमी है और इस अवसर पर हम प्रत्येक वर्ष प्रतीकात्मक रावण वध करते हैं.लेकिन क्या हमारे ऐसा करने से समाज से आसुरी शक्तियों का विनाश हो गया है?अगर रावण सिर्फ एक व्यक्ति होता तो उसका विनाश तो त्रेता में ही हो गया था.लेकिन रावण न तो व्यक्ति था और न ही एक पुतला है.रावण तो एक प्रतीक है आसुरी शक्तियों का,जिस प्रकार राम दैवी (सात्विक) शक्तियों के प्रतीक हैं.राम जहाँ एकपत्नीव्रता हैं वहीँ रावण इन्द्रिय सुख के लिए परस्त्री के हरण से भी नहीं चूकता.रावण सत्ता के लिए भाई पर पद-प्रहार करता है तो राम भाई के लिए सत्ता को ठुकरा कर वनगमन कर जाते हैं.राम अपनी विनम्रता के लिए जाने जाते हैं वहीँ रावण घमंड की पराकाष्ठा है.राम और रावण दोनों महायोद्धा हैं,शस्त्र-संचालन में पारंगत.दोनों महाशक्ति हैं.लेकिन राम की शक्ति जगत-कल्याण के लिए है तो रावण की शक्ति परपीड़ा के निमित्त.रावण विद्वान है,लेकिन इस विद्या से उसमें विनय के बदले अभिमान ही बढ़ता है और अभिमान तो सभी विनाशों का मूल है.राम की विद्या परोपकारी है तो रावण की विद्या परपीड़क.राम और रावण दोनों शिवभक्त हैं.एक की भक्ति सात्विक है तो दूसरे की हठधर्मिता वाली.रावण भक्ति में भी शक्ति-प्रदर्शन का समर्थक है.वह आराधना के समय भी अभिमान का परित्याग नहीं करता ईधर राम में तो अभिमान है ही नहीं.वो तो शत्रुओं का भी आदर करते हैं.राम को त्याग में ख़ुशी मिलती है वहीँ रावण को छीनने में.राम का मार्ग सन्मार्ग है,नैतिकता का मार्ग है;जबकि रावण के लिए साधन की पवित्रता आवश्यक नहीं उसके लिए तो सिर्फ साध्य की प्राप्ति ही अभीष्ठ है.रावण त्रेता में भी आसानी से नहीं मारा था.राम ने जितनी बार उसके सिर काटे वह पुनर्जीवित होता रहा.इसलिए हमें भी अपने भीतर के रावण को अगर मारना है तो उसके उद्गम स्थल यानी नाभि-कुंड पर प्रहार करना पड़ेगा.राम वाले पक्ष यानी सद्गुणों का पलड़ा भारी करना पड़ेगा,रावण खुद ही हार जायेगा और हमारे तन-मन से बाहर निकलने को बाध्य हो जायेगा.तो आप तैयार हैं न अपने भीतर के रावण को मारने के लिए!
गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010
टेढ़े-मेढ़े रास्ते और मंजिल तेरी दूर
राष्ट्रमंडल खेल का समापन समारोह शुरू है.सभी पदकों का फैसला हो चुका है और भारत कुल मिलाकर दूसरे स्थान पर रहा है कुल ३८ स्वर्ण पदकों के साथ. ऐसा पहली बार हुआ है इसलिए खुश हुआ जा सकता है.लेकिन यदि हम २ करोड़ जनसंख्या वाले आस्ट्रेलिया के प्रदर्शन को देखें या तुलना करें तो प्रदर्शन संतोषजनक नहीं कहा जा सकता.उसके पदक हमसे दोगुने से भी ज्यादा हैं.हमारी जनसंख्या १२० करोड़ के लगभग है और हमसे ज्यादा जनसंख्या वाला एकमात्र देश चीन खेलों के मामले हमसे मीलों आगे निकाल चुका है.जबकि १९७० के दशक तक चीन खेलों की दुनिया में हमारा समकक्षी था.हमने इस बार एक मिथक को जरूर तोड़ा है कि साबित किया है कि हम जेनेटिकली कमजोर नहीं हैं और एथलेटिक्स में पदक जीतना हमारे वश में है.हमने न सिर्फ एथलेटिक्स बल्कि भारोत्तोलन और जिम्नास्टिक में भी पदक जीते हैं.शूटिंग,कुश्ती,बैडमिंटन,टेनिस और मुक्केबाजी में तो पहले से भी पदक जीतने की उम्मीदें जतायी जा रही थीं.हालांकि आज हॉकी के फाइनल में हमारी विश्व चैम्पियन आस्ट्रेलिया के हाथों ८-० की हार से हमें निराशा भी हुई है और यह निराशा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि हमारी टीम ने मैच जीतने की बिलकुल भी कोशिश नहीं की.अगर हम इस मैच को अपवाद मान लें तो हमारे सभी खिलाड़ियों ने सभी खेलों में जिस दमखम और उससे भी ज्यादा जिस मनोबल का परिचय दिया वह भविष्य के लिए आशाओं को तो जगाता ही है.१९८२ के दिल्ली एशियाड में चीन ने पहली बार दिखाया कि खेलों की तैयारी कैसे की जाती है और फ़िर २००८ के बीजिंग ओलम्पिक में तो उसके सामने अमेरिका को भी नतमस्तक होना पड़ा.इन २६ सालों में हम भी यह कर सकते थे यदि देश में खेल-संस्कृति को बढ़ावा दिया गया होता.अगर खेल मंत्रालय और भारतीय ओलम्पिक असोशिएशन में तालमेल होता.अगर हम इस प्रतियोगिता में पदक जीतनेवाले अपने खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि को देखें तो हमारे आधे खिलाड़ी गरीब परिवारों से हैं या फ़िर गांवों या छोटे शहरों से हैं.खेलों में बड़े परिवारों के लड़कों को भी आगे लाना होगा और वे इस क्षेत्र में तभी आयेंगे जब उन्हें इस बात के लिए आश्वस्त किया जाए कि उनका आर्थिक भविष्य सुरक्षित रहेगा.ऐसा करना असंभव भी नहीं है क्योंकि हम दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से विकास कर रही अर्थव्यवस्था हैं इसलिए पैसों की कोई कमी नहीं,कमी है तो सिर्फ मनोबल की.खेलों के विकास के लिए राष्ट्रीय खेलों का समय पर आयोजन होना भी जरुरी है.२००७ में ही झारखण्ड में इनका आयोजन होना था लेकिन अब तक नहीं हो पाया और अगले खेलों का समय भी आ गया. इस तरह की लापरवाही खेलों के लिए अच्छी नहीं.साथ ही इन राष्ट्रीय खेलों में जो रहने के और अन्य इंतजाम किये जाएँ वे विश्वस्तरीय हों क्योंकि प्रदर्शन का सीधा सम्बन्ध सुविधाओं से होता है.हम देखते हैं कि राजनीति में बराबर खेल जारी रहता है,सत्ता के लिए.लेकिन हमारी राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे से खेल पूरी तरह गायब है.इस स्थिति को भी बदलना होगा और राजनीतिक पार्टियों को अपने घोषणापत्रों में बताना होगा कि उनके पास खेलों के लिए क्या योजनायें हैं?वर्तमान संतोषजनक भले ही नहीं हो भविष्य जरूर शानदार हो सकता है आखिर हम दुनिया के सबसे युवा देश हैं.
वोटों के लुटेरों से सावधान
बिहारी मतदाताओं,हमारे राज्य में प्रथम चरण के मतदान में अब कुछ ही दिन शेष हैं.नेताओं का आपके दरवाजों पर आना जारी होगा.आप यथार्थ शुभचिंतकों और वोटों के लुटेरों में फर्क करिए अन्यथा आप फ़िर से लूटे जायेंगे और चुनाव-दर-चुनाव यह सिलसिला चलता रहेगा.जिस तरह एक-एक ईंट के जुड़ने से घर बनता है और निर्माण की मजबूती ईटों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है, उसी तरह हमारा राज्य कैसा होगा यह हम मतदाताओं के निर्णय पर निर्भर करता है.हमारा राज्य इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि इसके पास पैसा नहीं है बल्कि राज्य की स्थितियां कहीं-न-कहीं हमारे द्वारा जनप्रतिनिधियों के चयन पर प्रश्न चिन्ह लगाती है.भूतकाल में हम मतदाताओं ने जो गलतियाँ की हैं वर्तमान उसी का प्रतिफल है और उसी प्रकार राज्य का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम इस चुनाव में कितनी बुद्धिमानी से वोट डालते हैं.वैसे आप खुद भी सही-गलत उम्मीदवारों में फर्क कर सकते हैं लेकिन मैं भी इस मामले में आपकी सहायता करना चाहूँगा.सबसे पहले तो आप यह देखें कि उम्मीदवार आपराधिक प्रवृत्ति का तो नहीं है.अगर ऐसा हो तो हरगिज ऐसे व्यक्ति को मत न दें.अगर ऐसा आदमी आपका विधायक बन जाता है तो आप खुद अपनी समस्याओं को उसके पास ले जाने से डरेंगे और क्षेत्र का विकास नहीं हो पायेगा.फ़िर आप उम्मीदवार की शैक्षिक योग्यता देखें.उसके बाद आपको यह देखना चाहिए कि उम्मीदवार के बारे में उसके गाँव के लोगों की क्या राय है.क्या वह ईमानदार है या झूठा-बेईमान है?कहीं उसने गलत तरीके से धन-संपत्ति अर्जित तो नहीं किया है.अगर ऐसा हो तो ऐसे व्यक्ति को हरगिज वोट न दें.नहीं तो वह निश्चित रूप से भविष्य में सार्वजनिक राशि का गबन करेगा और उसे वोट देकर आप भी उसके पापों में भागीदार बन जायेंगे.कई उम्मीदवार और नेता आपको जाति-धर्म के नाम पर बरगलाने का प्रयास भी करेंगे.आप सिर्फ गुण-दोष के आधार पर वोट दीजिए और भावनात्मक बहकावे में नहीं आएं.कई बार आपके वोट को पैसों या शराब या कोई अन्य वस्तु की रिश्वत देकर खरीदने की कोशिश भी की जाती है.मत दान करने की वस्तु है न कि बेचने की.अगर आप इसे बेच देते हैं तब आप आपके मत से विजयी होनेवाले उम्मीदवार के दुष्कृत्यों पर ऊंगली उठाने का नैतिक अधिकार खो देते हैं.अगर आपको किसी भी तरीके से वोट डालने से रोका जाता है तो उसका विरोध करें और चुनाव पर्यवेक्षकों को इसकी सूचना दें.वोट देना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है और अपने इस अधिकार की यथासंभव रक्षा करें.अपने विवेक का इस्तेमाल करें और बुद्धिमानी से मतदान का प्रयोग करें.
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
लौट के बुद्धू घर को आए
कल वह उससे मिला एक लम्बे अरसे के बाद.वैसे एक महीने का वक़्त कोई ज्यादा नहीं होता लेकिन फ़िर भी यह समय एक युग कम भी तो नहीं था उसके लिए.वह उसके भीतर ही तो रहता था पर मुलाकात नहीं होती थी.वह कोई और नहीं था उसकी अंतरात्मा थी,उसका सच्चा स्वरुप.वर्ष २००२ में जब वह पहली बार दिल्ली गया तो यह देखर आश्चर्यचकित हुआ था कि कैसे एक ही कमरे में रहनेवाले दिन और रात की अलग-अलग शिफ्टों में काम करनेवाले लोगों में महीनों मुलाकात नहीं होती थी.एक जब तक ड्यूटी से वापस आता दूसरा ड्यूटी के लिए जा चुका होता था.वह यानी उसका मन और उसकी अंतरात्मा एक ही कमरे यानी शरीर में तो रहते थे.लेकिन वह पिछले एक महीने से अपने-आपमें नहीं था.उसने श्रम के साथ-साथ मन-मस्तिष्क को भी बेच डाला था चंद कागज के टुकड़ों के लिए.उसे लगता था कि यह अख़बार तो अख़बार है ही नहीं बल्कि यह तो घोषित रूप से एक आन्दोलन है.यहाँ उसे पैसों के साथ मानसिक संतुष्टि भी मिलेगी.लेकिन वह कुछ भी तो हासिल नहीं कर पाया.माया मिली न राम.वह कितना खुश था उस दिन जनशताब्दी में सवार होते समय.खुश होता भी क्यों नहीं?उसे भारत के महान पत्रकारों में से एक माने जानेवाले प्रधान सम्पादकजी ने खुद ही मिलने के लिए आमंत्रित किया था.वो भी उसके लेखों से प्रभावित होकर.सम्पादकजी अपने लेखों में हमेशा बड़ी-बड़ी बातें करते.कभी किसी निष्कासित विदेशी क्रांतिकारी के मन की बेचैनी को स्वर देते हुए पाठकों के साथ-साथ खुद अपने-आपसे यह सवाल करते कि हमारे देश में ऐसे लोग क्यों नहीं पैदा होते तो कभी लोकनायक पर पूरा-का-पूरा पृष्ठ ही काला कर डालते.छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी-बड़ी बातें उनके लेखन की विशेषता थी.वह निश्चित समय पर अख़बार के प्रधान कार्यालय में मिलने के लिए उपस्थित भी हुआ था,दिल में हिलोरें लेतीं जवां उमंगों के साथ.करीब एक घंटे के इंतज़ार के बाद ऊपर से बुलावा आया पत्रकारिता जगत के भगवान का.वह इंतजार के इन लम्हों में समझ चुका था कि रहीम कवि ने कितना सही कहा था-रहिमन याचकता गहै बडौ छोट ह्वै जात.भगवान ने मिलते ही कहा आप जो लिखते हैं बहुत अच्छा लिखते हैं लेकिन इसका कहीं कोई प्रभाव नहीं पड़नेवाला.उसके दिल को आघात लगा;हृदयाघात से भी तेज और दर्दनाक.उसने भी टका-सा जवाब दिया कि ऐसा तभी होता है जब लेखक की कथनी और करनी में अंतर हो.जैसे नेताओं की बकवासों पर जनता ध्यान नहीं देती वैसे ही ऐसे दोहरे चरित्रवाले लोगों की वाणी भी खाली जाती है.निराशा हुई कि इतना बड़ा चिन्तक और इतना प्रोफेशनल.फ़िर ऐसे लोग किसलिए लिखते हैं?क्या सिर्फ शब्दों के बाजार में अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए?ये श्रीमान तो बाजारवाद के घोर विरोधी माने जाते हैं और खुद सबसे बड़े बाजारवादी भी हैं.विचारों और व्यवहारों में सीधी शत्रुता.इसके बाद उसकी परीक्षा ली गई कि वह उनके अख़बार के लिए कहाँ तक उपयोगी सिद्ध होगा.अनुवाद करवाया गया,खबर सम्पादित कराई गई और सूचना के अधिकार पर एक लेख भी लिखवाया गया.उसकी एच.आर. प्रमुख से मुलाकात भी करवाई गई जो वास्तव में आदमी को आदमी नहीं बल्कि संसाधन समझते थे.उनका कहना था कि चूंकि उसकी एक साल से आमदनी शून्य थी इसलिए वेतन की शुरुआत फ़िर से यानी शून्य से ही करनी पड़ेगी.वह उन्हें सिर्फ धन्यवाद कह पाया और लौट आया था अपने घर में.लेकिन कुछ ही दिनों बाद उसे सुखद आश्चर्य हुआ जब उसे अख़बार की नई खुल रही यूनिट में काम करने के लिए बुलाया गया.फ़िर से उसकी सूनी आँखों में सपनों के महासागर हिलोरे लेने लगे.नियत समय पर जब दफ्तर पहुंचा तो देखकर हैरान रह गया कि वह तो दफ्तर था ही नहीं.उससे ज्यादा साफ-सुथरा तो तबेला (बिहार में बथान) होता है.ट्यूबलाईटों पर भनभनाते असंख्य कीड़े-मकोड़े,शौचालय में बल्ब नहीं,घुप्प अँधेरा.पीने के लिए टंकी का गन्दा पानी.आधे लोग सिस्टम के खाली होने के इंतजार में खड़े थे.उस पर खून चूसने को तैयार मच्छरों की टोलियाँ.कई दिनों तक तो उसे कम्प्यूटर छूने को भी नहीं मिला.उसे इस बात का भी डर लगने लगा था कि कहीं वह काम करना भी न भूल जाए.वहां का संपादक भी अजीब था.वह कभी भी कहीं भी मिल जाता.कभी चाय की दुकान पर तो कभी पान की दुकान पर.आवाज कड़क और शब्द कभी-२ बदतमीजी की हद से भी ज्यादा गंदे.एक दिन सबके सामने एक संवाददाता को गालियाँ देने लगा.ऐसी गालियाँ जिन्हें सुनकर कोई भी शरमा जाए.अपने लोगों से ज्यादा उन्हें राजधानी कार्यालय के लोगों पर विश्वास था. इन परिस्थियों में उसका स्वास्थ्य बिगड़ना ही था.मानसिक के साथ-२ उसका शारीरिक स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा.फ़िर भी उसने दफ्तर जाना नहीं छोड़ा.हाँ अब वह रोज-२ नहीं जा पा रहा था.वह जाता और बैठकर चला आता.लेकिन जब भी संपादक मिलता तो कहता यार तबियत ठीक करो,तबियत आपकी ख़राब हो रही है और दिल मेरा बैठ रहा है.उसे दुःख तो हटा लेकिन यह जानकार ख़ुशी भी होती कि इस शख्स के पास दिल भी है.फ़िर एक दिन भगवानजी का आगमन हुआ.शौचालय में बल्ब लग गया.बांकी चीजें यथावत रहीं.अब वह कुछ काम भी करने लगा.लौन्चिंग के दिन चार पृष्ठों के विशेषांक की उसी ने प्रूफ रीडिंग की जिसकी प्रशंसा भी की गई.लेकिन अब एक नई मुसीबत सर पर थी.जब भी वह पेज बनाने बैठता चार सीनियर घेर कर बैठ जाते और पेज बनवाने लगते.वह सिर्फ माटी की मूरत था.विरोध करने पर संपादक उसी पर फट पड़ा और कहने लगा यहाँ काम करना है तो इसी तरह काम करना पड़ेगा.वह तत्काल निकल गया.वह समझ चुका था कि यह उसकी दुनिया नहीं है.अब वह आजाद था अपनी दुनिया में निर्भय उड़ान भरने के लिए.उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था और पाने के लिए सारा जहाँ.
शनिवार, 9 अक्टूबर 2010
हिंदी भाषा अवनति अहै टेबुलायड को उन्नति को मूल
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम १५ अगस्त, १९४७ को राजनीतिक रूप से तो आजाद हो गए लेकिन मानसिक स्तर पर हम आज भी अंगेजी के गुलाम हैं.हम आज भी अपनी राष्ट्रभाषा में बोलने में शर्म महसूस करते हैं.आजादी के बाद हमारी सरकारें हिंदी को बढ़ावा देने का झूठा दिखावा करती रही.कभी इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं किया गया.फ़िर भी कम-से-कम हिंदी के समाचार-पत्रों ने शुद्ध मन से इस दिशा में अपना प्रयास जारी रखा.उन्होंने बेशक लम्बे समय तक हिंदी की सेवा की.लेकिन नई शताब्दी आने तक इनकी बागडोर युवाओं के हाथों में आ चुकी थी जिनमें से अधिकतर अमेरिका/यूरोप रिटर्न थे और उनका हिंदी और हिंदी की उन्नति से कोई लेना-देना नहीं था.दूसरी तरफ पूरी दुनिया में एल.पी.जी. यानी लिब्रलाईजेशन ,प्राइवेटाईजेशन और ग्लोबलाइजेशन की धूम मची थी.पैसा भगवान बन चुका था.सारे सामाजिक मानदंड बदल चुके थे.आदर्शवाद अब सिर्फ किताबों में शोभा पा रही थी.अख़बार भी अब मिशन नहीं रह गए थे और विशुद्ध रूप से धंधा का रूप ले चुके थे.उनका उद्देश्य अब समाज या हिंदी की सेवा करना नहीं बल्कि सिर्फ पैसा कमाना रह गया था.उनकी इसी धनलोलुपता ने उनसे शुरू करवाया टेबुलायड अख़बारों का प्रकाशन.उनका मानना है कि अगर हिंदी-अंग्रेजी मिश्रित भाषा में अख़बार निकले जाएँ तो ज्यादा-से-ज्यादा युवाओं को आकर्षित किया जा सकता है.इस तरह हिंदी क्षेत्रों में एक अजीब सी खिचड़ी भाषा का प्रचार शुरू कर दिया गया है और वह भी संस्थागत रूप से.निश्चित रूप से यह हिंदी के लिए नुकसानदेह और अंग्रेजी के लिए लाभकारी होने जा रहा है.कुछ लोग इसका इस आधार पर समर्थन कर रहे हैं कि भाषा को चलायमान रहना चाहिए लेकिन मैं पूछता हूँ कि हिंदी बहुप्रचलित शब्दों के बदले जबरन अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग क्यों किया जा रहा है.हाथी को एलेफैन्त और टोकरी को बास्केट,मैदान को फील्ड कहने से कैसे हिंदी का भला हो रहा है?क्या हिंदीभाषी युवा इन शब्दों के अर्थ रातों-रात भूल गए हैं?इसे जो बिकता है वो दिखता है के फार्मूले पर सही साबित करने की कोशिश की जा रही है.यह प्रवृत्ति भी गलत तर्कों पर आधारित है.हिंदी में तो सस्ते और अश्लील साहित्य का भी अपना पाठक वर्ग रहा है.अन्तर्वासना जैसी वेबसाइटें काफी लोकप्रिय रहीं हैं तो अख़बारवाले क्यों नहीं ऐसे साहित्य बेचते?अगर यह अनैतिक है तो फ़िर हिंदी के साथ सरेआम बलात्कार करना कैसे नैतिक है?जिस हिंदी की ये अखबारवाले लम्बे समय से खाते रहे हैं अब उसी (थाली) में छेद कर रहे हैं और वो भी धूम-धाम से.चाहे इनके जो भी तर्क-कुतर्क हों इन्होंने जिस हिंदी से कभी बिल गेट्स ने खतरा जताया था उस लगातार मजबूत हो रही हिंदी को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है इसमें कोई संदेह नहीं.मैं युवाओं सहित सभी हिंदीभाषियों को सचेत करना चाहूँगा कि इनके नापाक मंसूबों को सफल नहीं होने दीजिये अन्यथा हिंदी संस्कृत आधारित भाषा के बदले अंग्रेजी आधारित भाषा बनकर रह जाएगी और हम भविष्य में इस बात पर गर्व नहीं कर पाएँगे कि हमारी संस्कृति दुनिया की सबसे पुरानी जीवित संस्कृति है.वास्तव में जो संस्कृति-विनाश का काम अंग्रेज अपने २०० सालों के शासन में नहीं कर सके उसी काम का बीड़ा टेबुलायड अख़बारों ने,हमारे कुछ धनपशु भाइयों ने उठा लिया है.सावधान!
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010
हे राम!
धर्म का जन्म चाहे वो कोई भी धर्म क्यों न हो लोगों को उनके कर्तव्यों का ज्ञान करने के लिए हुआ है.लेकिन यथार्थ में ऐसा होता नहीं.लगभग सारे धर्मों के अनुयायी समय-२ पर अपनी राह से भटकते रहे हैं जिससे जन्म होता है टकराव का.बच्चा जब पहली साँस लेता है तब उसे उसके धर्म के बारे में पता नहीं होता.हम उसके मन में भेद के बीज बोते हैं आठों पहर यह बता-बताकर कि तुम इस संप्रदाय से आते हो और वह उस संप्रदाय से.
इतिहास साक्षी है कि भारत में प्राचीन काल से ही भारी संख्या में विदेशियों का आगमन होता रहा है.भिन्न-२ विचारधाराओं और विभिन्न विश्वासों को धारण करनेवाले लोग यहाँ आते रहे हैं और विशाल भारतीय समाज में समाहित होते रहे हैं.कौन बता सकता है प्राचीन काल में भारत आनेवाले हूण,शक,कुषाण और यूनानियों का पता-ठिकाना?हमने अपनी बाँहों को,अपने मन-मस्तिष्क को विस्तार दिया और उन्हें अपने भीतर समाहित करते गए.पहली बार भारतीय समाज का पाला नई तरह के लोगों से तब पड़ा जब भारत में इस्लामी हमलावरों का आगमन हुआ,एक हाथ में कुरान और दूसरे में तलवार लिए.हमारे लिए यह अब तक का पहला ऐसा पंथ था जो मिलने नहीं मिलाने की भाषा बोल रहा था वो भी ताकत के बल पर.लेकिन यह धींगामुश्ती ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी और भारत के प्रभाव में आकर वे भी प्रेम की भाषा बोलने लगे और विकास हुआ सूफी धर्म का.फ़िर तो गंगा-जमुनी संस्कृति पूरे देश में हिलोरे लेने लगी.ढोलक के साथ तबला संगत करने लगा और वीणा के साथ शहनाई.कई मुसलमानों ने खड़ी बोली और अवधि में कवितायेँ लिखीं और क्या खूब लिखी.राम और कृष्ण सिर्फ हिन्दुओं के नहीं रह गए बल्कि उनसे कहीं ज्यादा वे रहीम और रसखान के हो गए.कई हिन्दुओं ने भी सूफियों की शागिर्दी कबूल कर ली.इस्लाम भारतीय संस्कृति में पच तो नहीं पाया लेकिन उसका भारतीयकरण जरुर हो गया.१८५७ का विद्रोह वास्तव में न तो हिन्दुओं का विद्रोह था और न ही मुसलमानों का.तब गंगा और जमुना दोनों में एकसाथ उबाल आया था.इस विद्रोह ने अंग्रेजों को जड़ से हिला दिया.अब वे इस बात को समझ चुके थे कि जब तक हिन्दू और मुसलमान एक हैं भारत को गुलाम बनाए रखना संभव नहीं होगा.लन्दन में दोनों सम्प्रदायों में फुट डालने की साजिश रची जाने लगी.पहले कुछ पढ़े-लिखे मुसलमान उनके बहकावे में आए फ़िर कुछ पढ़े-लिखे हिन्दू.फ़िर तो धीरे-धीरे ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दी गईं कि अनपढ़ ग्रामीण भी साम्प्रदायिकता के रंग में रंगने लगा जिसकी अंतिम परिणति थी देश का विभाजन.विभाजन शांति की अंतिम और पहली शर्त थी जिसे हमने न चाहते हुए भी स्वीकार किया.आजादी की बेला में आँखों में आंसू भी थे तो अनगिनत सपने भी थे.उम्मीद थी कि अब देश में शांति होगी और शांतिपूर्ण माहौल में देश का काफी तेज गति से चतुर्मुखी विकास होगा.लेकिन सपने तो सपने होते हैं उन्हें हकीकत का रूप कौन दे?यहाँ तो हर किसी को तो सिर्फ सत्ता चाहिए थी .भारतीय लोकतंत्र में निहित कमजोरियां भी जल्दी ही दृष्टिगोचर होने लगीं.व्यक्तिगत हितों की बातें पृष्ठभूमि में चली गईं और प्रत्येक स्थान पर जाति और संप्रदाय वोट बैंक के रूप में दबाव समूह बनकर उभरने लगे.सियासतदानों ने सभी महापुरुषों को जातियों में बाँट डाला.यहाँ तक कि उनके इस कुत्सित खेल से राम भी अपने-आपको नहीं बचा पे.अब चुनाव राम के नाम पर लड़े जाने लगे.ध्रुवीकरण सिर्फ सांप्रदायिक आधार पर ही नहीं हुआ,जातीय आधार पर भी हुआ.देश में दंगों की बाढ़ आ गई.मुम्बई से गुजरात तक भारत माँ का आँचल बार-बार लहू-लुहान होता रहा.लेकिन लगता है कि अब राम के नाम पर होनेवाली राजनीति के दिन पूरे हो गए हैं.यह बड़ी ही ख़ुशी की बात है कि इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आ गया है और उसमें सबकी जीत हुई है.अब वहां मंदिर भी बनेगा और मस्जिद भी बनेगी.लेकिन कुछ लोगों ने निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है इस तरह की प्रवृत्ति सहिष्णु भारतीय समाज में अपवाद ही मानी जानी चाहिए.एक साथ परस्पर विरोधी पक्ष अपना अस्तित्व बनाए रखें यही तो सदियों से भारतीय आदर्श रहा है.लेकिन अगर जनता को बाँटने की कोशिशें सफल हो जा रहीं हैं तो दोषी कहीं-न-कहीं जनता भी है.उसे सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों की असली मंशा को समझना होगा.उन्हें समझना होगा कि जाति और धर्म की बातें ये लोग सिर्फ कुर्सी पाने के लिए करते हैं और फ़िर अपनी जेबें भरते हैं.इस तरह तो भारत विकसित देश बनने से रहा.हमारे नेता दरअसल अंग्रेजों के भारतीय संस्करण हैं और फूट डालो और शासन करो इनका सूत्र वाक्य है.वास्तव में मुद्दा देश का विकास होना चाहिए,भ्रष्टाचार का खात्मा होना चाहिए,बेरोजगारी और जनसंख्या-नियंत्रण होना चाहिए,शिक्षा और स्वास्थ्य होना चाहिए लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है की आज भी चुनाव जाति और धर्म के नाम पर लड़े जाते हैं और इसलिए सियासतदानों को गन्दी राजनीति करने का मौका मिल जाता है,साथ ही गलत लोगों को राजनीति में प्रवेश भी.
इतिहास साक्षी है कि भारत में प्राचीन काल से ही भारी संख्या में विदेशियों का आगमन होता रहा है.भिन्न-२ विचारधाराओं और विभिन्न विश्वासों को धारण करनेवाले लोग यहाँ आते रहे हैं और विशाल भारतीय समाज में समाहित होते रहे हैं.कौन बता सकता है प्राचीन काल में भारत आनेवाले हूण,शक,कुषाण और यूनानियों का पता-ठिकाना?हमने अपनी बाँहों को,अपने मन-मस्तिष्क को विस्तार दिया और उन्हें अपने भीतर समाहित करते गए.पहली बार भारतीय समाज का पाला नई तरह के लोगों से तब पड़ा जब भारत में इस्लामी हमलावरों का आगमन हुआ,एक हाथ में कुरान और दूसरे में तलवार लिए.हमारे लिए यह अब तक का पहला ऐसा पंथ था जो मिलने नहीं मिलाने की भाषा बोल रहा था वो भी ताकत के बल पर.लेकिन यह धींगामुश्ती ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी और भारत के प्रभाव में आकर वे भी प्रेम की भाषा बोलने लगे और विकास हुआ सूफी धर्म का.फ़िर तो गंगा-जमुनी संस्कृति पूरे देश में हिलोरे लेने लगी.ढोलक के साथ तबला संगत करने लगा और वीणा के साथ शहनाई.कई मुसलमानों ने खड़ी बोली और अवधि में कवितायेँ लिखीं और क्या खूब लिखी.राम और कृष्ण सिर्फ हिन्दुओं के नहीं रह गए बल्कि उनसे कहीं ज्यादा वे रहीम और रसखान के हो गए.कई हिन्दुओं ने भी सूफियों की शागिर्दी कबूल कर ली.इस्लाम भारतीय संस्कृति में पच तो नहीं पाया लेकिन उसका भारतीयकरण जरुर हो गया.१८५७ का विद्रोह वास्तव में न तो हिन्दुओं का विद्रोह था और न ही मुसलमानों का.तब गंगा और जमुना दोनों में एकसाथ उबाल आया था.इस विद्रोह ने अंग्रेजों को जड़ से हिला दिया.अब वे इस बात को समझ चुके थे कि जब तक हिन्दू और मुसलमान एक हैं भारत को गुलाम बनाए रखना संभव नहीं होगा.लन्दन में दोनों सम्प्रदायों में फुट डालने की साजिश रची जाने लगी.पहले कुछ पढ़े-लिखे मुसलमान उनके बहकावे में आए फ़िर कुछ पढ़े-लिखे हिन्दू.फ़िर तो धीरे-धीरे ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर दी गईं कि अनपढ़ ग्रामीण भी साम्प्रदायिकता के रंग में रंगने लगा जिसकी अंतिम परिणति थी देश का विभाजन.विभाजन शांति की अंतिम और पहली शर्त थी जिसे हमने न चाहते हुए भी स्वीकार किया.आजादी की बेला में आँखों में आंसू भी थे तो अनगिनत सपने भी थे.उम्मीद थी कि अब देश में शांति होगी और शांतिपूर्ण माहौल में देश का काफी तेज गति से चतुर्मुखी विकास होगा.लेकिन सपने तो सपने होते हैं उन्हें हकीकत का रूप कौन दे?यहाँ तो हर किसी को तो सिर्फ सत्ता चाहिए थी .भारतीय लोकतंत्र में निहित कमजोरियां भी जल्दी ही दृष्टिगोचर होने लगीं.व्यक्तिगत हितों की बातें पृष्ठभूमि में चली गईं और प्रत्येक स्थान पर जाति और संप्रदाय वोट बैंक के रूप में दबाव समूह बनकर उभरने लगे.सियासतदानों ने सभी महापुरुषों को जातियों में बाँट डाला.यहाँ तक कि उनके इस कुत्सित खेल से राम भी अपने-आपको नहीं बचा पे.अब चुनाव राम के नाम पर लड़े जाने लगे.ध्रुवीकरण सिर्फ सांप्रदायिक आधार पर ही नहीं हुआ,जातीय आधार पर भी हुआ.देश में दंगों की बाढ़ आ गई.मुम्बई से गुजरात तक भारत माँ का आँचल बार-बार लहू-लुहान होता रहा.लेकिन लगता है कि अब राम के नाम पर होनेवाली राजनीति के दिन पूरे हो गए हैं.यह बड़ी ही ख़ुशी की बात है कि इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आ गया है और उसमें सबकी जीत हुई है.अब वहां मंदिर भी बनेगा और मस्जिद भी बनेगी.लेकिन कुछ लोगों ने निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है इस तरह की प्रवृत्ति सहिष्णु भारतीय समाज में अपवाद ही मानी जानी चाहिए.एक साथ परस्पर विरोधी पक्ष अपना अस्तित्व बनाए रखें यही तो सदियों से भारतीय आदर्श रहा है.लेकिन अगर जनता को बाँटने की कोशिशें सफल हो जा रहीं हैं तो दोषी कहीं-न-कहीं जनता भी है.उसे सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों की असली मंशा को समझना होगा.उन्हें समझना होगा कि जाति और धर्म की बातें ये लोग सिर्फ कुर्सी पाने के लिए करते हैं और फ़िर अपनी जेबें भरते हैं.इस तरह तो भारत विकसित देश बनने से रहा.हमारे नेता दरअसल अंग्रेजों के भारतीय संस्करण हैं और फूट डालो और शासन करो इनका सूत्र वाक्य है.वास्तव में मुद्दा देश का विकास होना चाहिए,भ्रष्टाचार का खात्मा होना चाहिए,बेरोजगारी और जनसंख्या-नियंत्रण होना चाहिए,शिक्षा और स्वास्थ्य होना चाहिए लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है की आज भी चुनाव जाति और धर्म के नाम पर लड़े जाते हैं और इसलिए सियासतदानों को गन्दी राजनीति करने का मौका मिल जाता है,साथ ही गलत लोगों को राजनीति में प्रवेश भी.
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