मित्रों,अभी भारत के नवीनतम मित्र और दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आई हुई थीं.वो भी ऐसे समय में जब भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई पर आतंकवादी हमला हुआ है.ऐसे में हरेक भारतवासी की तरह मुझे भी ऐसी उम्मीद थी कि चूंकि वे भारत को अपना स्वाभाविक मित्र कहते नहीं अघातीं इसलिए वे आतंक के केंद्र पाकिस्तान को कड़क संकेत देकर भारत के जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास करेंगी या फिर लगाते हुए दिखना चाहेंगी.लेकिन हुआ इसका उल्टा.कहाँ तो हम कह रहे थे कि वे आए हमारे घर खुदा की कुदरत;कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं और कहाँ उनके जाने के बाद अपने रिसते हुए जख्मों को अपने जख्मी हाथों से सहलाते हुए कहे जा रहे हैं कि तुम आए हमारे घर खुदा की कुदरत;हमने अपने घर को देखा एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद.
मित्रों,हिलेरी क्लिंटन के आने-जाने के बाद अगर हम यात्रा से होने वाले हानि-लाभ पर नजर डालें तो नतीजा सिफ़र पाएँगे.यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि १३ जुलाई के तार पाकिस्तान से जुड़े होने के स्पष्ट संकेत मिलने के बावजूद भारत सरकार अगर उसका नाम खुलकर नहीं ले पा रही थी तो या तो वह ऐसा हिलेरी को खुश करने के लिए कर रही थी या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे दगाबाज लोगों के दबाव में आकर.लेकिन हाय रे नसीब!गोरी मेम ने तो कुछ ऐसा दिल तोड़ा कि अब कूटनीति के जीरो कृष्णा साहब सिर्फ यही कह सकते हैं कि न जी भरके देखा न कुछ बात की,बड़ी आरजू थी मुलाकात की.
मित्रों,यह बात,यह तथ्य आईने पर लिखी ईबारत की तरह कल भी साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी और आज भी पढ़ी जा सकती है कि भारत को आतंकवाद के खिलाफ अपनी लडाई खुद ही लड़नी होगी.इस लड़ाई में ट्रिगर पर टिकी ऊंगली भी हमारी होगी,कुंदे से लगा कन्धा भी हमारा होगा और गोली खानेवाला सीना तो हमारा होगा ही.नहीं आनेवाला बाहर से कोई देश हमारा उद्धारक बनकर.लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार अंधी हो रही है या दीवानी कि इतनी-सी बात उसके भेजे में नहीं आ रही?क्यों वह सबकुछ लुटाकर भी होश में नहीं आ रही?क्या उसका देशहित से कुछ भी लेना-देना रह गया है और अगर ऐसा नहीं है तो इसके लिए क्या हम मतदाता भी समान रूप से या राजनेताओं से भी कहीं बढ़कर दोषी नहीं हैं?
मित्रों,भारत में इस समय समस्त अव्यवस्था और अराजकता के बावजूद जिस तरह की मरघट की शांति छाई हुई है उससे तो यही लगता है कि अतीत में यह भले ही वीरों का देश रहा हो आज यह नपुंसकों का देश बनकर रह गया है.हम भारतवासियों की हड्डियों में खून के बदले पानी भर गया है.हम नितांत कायर बन गए हैं और अपनी कायरता को ढंकने के लिए कभी चीन तो कभी पाकिस्तान के प्रति उलटे-सीधे बयान देते रहते हैं,अनाप-शनाप तर्क खोजते रहते हैं.सीमापार से भारत हजार साल पहले भी सुरक्षित नहीं था और आज आजादी के ६३ सालों के बाद भी नहीं है.
मित्रों,जिस तरह से भारत सरकार आतंकवाद से लड़ रही है उस तरह से तो इसे रोकने की हजारों सालों में भी फुलप्रूफ व्यवस्था नहीं की जा सकती.जब राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को मुम्बई पुलिस जाँच ही नहीं करने देगी तो फिर इससे लड़ने की फुलप्रूफ एकीकृत व्यवस्था हो पाने की सोंची भी नहीं जा सकती.हद तो यह है कि ऐसा तब हो रहा है जब प्रदेश में व केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार है.हमले के एक सप्ताह बाद भी बदमिजाज मुम्बई पुलिस और भारत सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इन हमलों के पीछे किन संगठनों का हाथ था और इनसे पाकिस्तान कहाँ तक सम्बंधित है.आखिर क्यों?कब रूकेगा इस तरह आतंकी कृत्यों की जाँच में असफलताओं का सिलसिला?जो पुलिस और एजंसियां हमले के बाद हमलावरों का पता तक नहीं लगा सकती उस पर किस आधार पर हमले को होने से पूर्व ही रोक लेने का ऐतबार किया जाए?पुलिस और सुरक्षा पर करोड़ों रूपये खर्च करने के क्या कोई मतलब भी है?क्यों नहीं जन-उत्पीड़क पुलिस व ख़ुफ़िया संगठनों को भंग कर दिया जाए?क्यों बर्बाद किया जाए इनके वेतन और पेंशन पर करोड़ों रूपये और क्यों इनको घूस खा-खाकर तोंद फुलाने का कुअवसर दिया जाए?क्यों???
मित्रों,हिलेरी क्लिंटन के आने-जाने के बाद अगर हम यात्रा से होने वाले हानि-लाभ पर नजर डालें तो नतीजा सिफ़र पाएँगे.यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि १३ जुलाई के तार पाकिस्तान से जुड़े होने के स्पष्ट संकेत मिलने के बावजूद भारत सरकार अगर उसका नाम खुलकर नहीं ले पा रही थी तो या तो वह ऐसा हिलेरी को खुश करने के लिए कर रही थी या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे दगाबाज लोगों के दबाव में आकर.लेकिन हाय रे नसीब!गोरी मेम ने तो कुछ ऐसा दिल तोड़ा कि अब कूटनीति के जीरो कृष्णा साहब सिर्फ यही कह सकते हैं कि न जी भरके देखा न कुछ बात की,बड़ी आरजू थी मुलाकात की.
मित्रों,यह बात,यह तथ्य आईने पर लिखी ईबारत की तरह कल भी साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी और आज भी पढ़ी जा सकती है कि भारत को आतंकवाद के खिलाफ अपनी लडाई खुद ही लड़नी होगी.इस लड़ाई में ट्रिगर पर टिकी ऊंगली भी हमारी होगी,कुंदे से लगा कन्धा भी हमारा होगा और गोली खानेवाला सीना तो हमारा होगा ही.नहीं आनेवाला बाहर से कोई देश हमारा उद्धारक बनकर.लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या हमारी सरकार अंधी हो रही है या दीवानी कि इतनी-सी बात उसके भेजे में नहीं आ रही?क्यों वह सबकुछ लुटाकर भी होश में नहीं आ रही?क्या उसका देशहित से कुछ भी लेना-देना रह गया है और अगर ऐसा नहीं है तो इसके लिए क्या हम मतदाता भी समान रूप से या राजनेताओं से भी कहीं बढ़कर दोषी नहीं हैं?
मित्रों,भारत में इस समय समस्त अव्यवस्था और अराजकता के बावजूद जिस तरह की मरघट की शांति छाई हुई है उससे तो यही लगता है कि अतीत में यह भले ही वीरों का देश रहा हो आज यह नपुंसकों का देश बनकर रह गया है.हम भारतवासियों की हड्डियों में खून के बदले पानी भर गया है.हम नितांत कायर बन गए हैं और अपनी कायरता को ढंकने के लिए कभी चीन तो कभी पाकिस्तान के प्रति उलटे-सीधे बयान देते रहते हैं,अनाप-शनाप तर्क खोजते रहते हैं.सीमापार से भारत हजार साल पहले भी सुरक्षित नहीं था और आज आजादी के ६३ सालों के बाद भी नहीं है.
मित्रों,जिस तरह से भारत सरकार आतंकवाद से लड़ रही है उस तरह से तो इसे रोकने की हजारों सालों में भी फुलप्रूफ व्यवस्था नहीं की जा सकती.जब राष्ट्रीय जाँच एजेंसी को मुम्बई पुलिस जाँच ही नहीं करने देगी तो फिर इससे लड़ने की फुलप्रूफ एकीकृत व्यवस्था हो पाने की सोंची भी नहीं जा सकती.हद तो यह है कि ऐसा तब हो रहा है जब प्रदेश में व केंद्र में एक ही पार्टी की सरकार है.हमले के एक सप्ताह बाद भी बदमिजाज मुम्बई पुलिस और भारत सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि इन हमलों के पीछे किन संगठनों का हाथ था और इनसे पाकिस्तान कहाँ तक सम्बंधित है.आखिर क्यों?कब रूकेगा इस तरह आतंकी कृत्यों की जाँच में असफलताओं का सिलसिला?जो पुलिस और एजंसियां हमले के बाद हमलावरों का पता तक नहीं लगा सकती उस पर किस आधार पर हमले को होने से पूर्व ही रोक लेने का ऐतबार किया जाए?पुलिस और सुरक्षा पर करोड़ों रूपये खर्च करने के क्या कोई मतलब भी है?क्यों नहीं जन-उत्पीड़क पुलिस व ख़ुफ़िया संगठनों को भंग कर दिया जाए?क्यों बर्बाद किया जाए इनके वेतन और पेंशन पर करोड़ों रूपये और क्यों इनको घूस खा-खाकर तोंद फुलाने का कुअवसर दिया जाए?क्यों???
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