गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

जातिवादी राजनीति का घिनौना चेहरा रमई राम

मित्रों, कहने को तो बिहार जातीय राजनीति को ७ साल पीछे छोड़कर विकास की राजनीति के मार्ग पर चल पड़ा है लेकिन वास्तव में यह कथन एक अर्द्धसत्य मात्र है. पूरा सच यह है कि कहीं-न-कहीं आज भी जातीय वोटबैंक के ठेकेदारों को प्रदेश और प्रदेश सरकार में पर्याप्त सम्मान प्राप्त है. ऐसे ही दलितों के वोट बैंक के एक ठेकेदार का नाम है-रमई राम, राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री, बिहार सरकार. इनकी कुलजमा योग्यता इतनी ही है कि ये जाति से चमार हैं यानि महादलित हैं. अन्यथा न तो काम करने की तमीज और न ही बोलने का शऊर. कब और कहाँ जुबान फिसल जाए और कब क्या बोल जाएँ खुद रमई बाबू को भी नहीं पता. जाने पढ़े-लिखे भी हैं या नहीं परन्तु दुर्भाग्यवश बिहार में दलितों-महादलितों के बड़े ही नहीं बहुत बड़े और शायद राम विलास पासवान के बाद सबसे बड़े नेता के रूप में जाने और माने जाते हैं. माननीय के बारे में सबसे बड़ी और बुरी बात यह है कि श्रीमान में ईन्सानियत नाम की चीज ही नहीं है. जनाब की तंगदिली का ताजातरीन नायाब नमूना है अपने नौकर अनंदू पासवान के साथ हुजुर का क्रूर और शातिराना व्यवहार जिसे देखकर शायद एकबारगी शैतान भी काँप जाए. हुआ यूं कि मंत्री रमई बाबू के विधानसभा क्षेत्र का एक महादलित मतदाता जब अपने और अपने परिवार को भूखो मरते नहीं देख सका तो जा पहुँचा मंत्री जी के पटना स्थित आवास पर काम की तलाश में. चूँकि उसकी हालत जानवरों से मिलती-जुलती थी इसलिए उसे मंत्री जी ने अपने पालतू जानवरों की देखभाल का जिम्मा सौंप दिया. दुर्भाग्य, अभी उसे पहला वेतन मिला भी नहीं था कि इसी बीच बेचारे के साथ हादसा हो गया. विगत 9 अप्रैल को मंत्री जी की गाय ने सींग मार कर उसके पापी पेट को फाड़ डाला. परन्तु मंत्री जी भी जानवर से कम जानवर तो थे नहीं. इसलिए उस अपने ही खून में नहाए हुए मजलूम का ईलाज कराने के बदले उसे उसके घर पर यानि मुजफ्फरपुर के मुशहरी प्रखंड के मणिका चौक पर फेंकवा दिया.
                  मित्रों, इस अप्रत्याशित वज्रपात से हैरान-परेशान अनंदू के चाँद तक को रोटी समझनेवाले परिजनों ने पहले तो उसे सरकारी अस्पताल एस.के.एम.सी.एच.में भर्ती करवाया परन्तु हालत नहीं सुधरने पर उसे एक निजी अस्पताल माँ जानकी अस्पताल में ले आए जहाँ उस पेट के मारे के पेट का आपरेशन हुआ. सबसे बड़े आश्चर्य की स्थिति तो यह थी कि सड़क दुर्घटना में घायल की चिकित्सा करवाले वाले को भी चाय-पानी के लिए तंग-परेशान करनेवाली बिहार पुलिस मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज ही नहीं कर रही थी. जब मामला मीडिया में आ गया तब जाकर मुजफ्फरपुर पुलिस ने मरणासन्न पीड़ित का फर्द बयान लिया और अब गेंद पटना सचिवालय थाने के पाले में है. पुलिस के कदम भले ही नहीं उठ रहे हों लेकिन मौत के कदम नहीं रुके हैं और वह अब भी अहिस्ता-अहिस्ता अनंदू की तरफ बढती आ रही है. बाद में कई राजनेता और राजनैतिक दल सामने आए. हंगामा भी खूब हुआ लेकिन आर्थिक सहायता नहीं मिली. मंत्री का तो पुलिस अब तक स्वाभाविक तौर पर बाल भी बांका नहीं कर पाई है और शायद अनंदू के मर जाने के बाद भी कुछ नहीं कर पाएगी.
                         मित्रों, इसी बीच २० अप्रैल को जब मंत्री जी अपने विधानसभा क्षेत्र पहुंचे तो अनंदू के ग्रामीण उग्र हो उठे और मंत्री की गाड़ी को घेर लिया. मंत्री समर्थकों ने खुद को खुद ही घायल कर लिया और इल्ज़ाम अनंदू के ग्रामीणों पर लगा दिया. इस मामले में जरूर पुलिस बहुत ज्यादा सक्रिय है. बात भी मामूली नहीं है. माननीय पर हमला हुआ है, भारतीय लोकतंत्र के सम्मान और प्रतिष्ठा पर प्राणघातक आक्रमण हुआ है. आम लोगों की इतनी हिम्मत कि वे अपने द्वारा ही चुने गए मंत्री के अत्याचार का विरोध करने की हिमाकत करें.
             मित्रों, यह कहने की बात नहीं है कि मानवता के प्रति ऐसा अपराध अगर किसी सवर्ण मंत्री ने किया होता हो वह सामंतवादी होता और उसका कृत्य सामंतवाद. परन्तु महादलित नेता रमई बाबू चूँकि जन्म से महादलित हैं इसलिए वे सामंतवादी तो हो ही नहीं सकते; परन्तु अगर वे सामंतवादी नहीं हैं तो हैं क्या? क्या वे वास्तव में दलितों के मसीहा हैं या हमदर्द हैं? क्या उनका कुकर्म उन्हें उस महान विशेषण के निकट भी सिद्ध करता है जिससे कभी बाबा साहेब को विभूषित किया गया था. या फिर क्या वे कर्म से आदमी हैं या आदमी साबित किए जा सकते हैं? गाय तो फिर भी पशु थी और इसलिए उसने पशुता दिखाई लेकिन क्या रमई उससे भी बड़े पशु नहीं साबित हो चुके हैं? ऐसे मंत्री अगर सरकार व शासन का सञ्चालन करेंगे तो उसमें फिर हुमेनटेरियन यानि मानवतावादी टच कहाँ से आएगा? कहते हैं कि मटके में पक रहे चावल की हकीकत जानने के लिए पूरी हांड़ी को उलटने की जरुरत नहीं होती बस एक चावल को निकालिए और समझ जाईए. ठीक उसी तरह अगर आपको यह जानना हो कि बिहार में सुशासन किस प्रकार काम कर रहा है तो अपने रमई बाबू के इस महान और मसीहाई कृत्य को देखकर खुद ही जान लीजिए. कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनता के बीच सेवायात्रा पर निकले हुए हैं तो वहीं दूसरी और उनके चहेते मंत्री मानवता की ही शवयात्रा निकालने में पिले हुए हैं. मैं यह नहीं चाहता कि मंत्री को सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए और मामले को समाप्त समझ लिया जाए बल्कि पहले अनंदू पासवान के ईलाज की समुचित व्यवस्था सरकारी खर्चे पर की जाए और फिर बाद में मंत्री को निकालना हो तो निकाल बाहर किया जाए. वैसे ऐसे मंत्री को जो मानवता के नाम पर काला टीका हो; को मंत्रिमंडल में रखने का क्या फायदा? उस पर इन जनाब की तो दलित नेता और मसीहा वाली कलई भी उतर चुकी है. क्या पता अब माननीय खुद की विधानसभा सीट भी निकाल पाएंगे कि नहीं? अंत में आदतन मंत्रीजी रमई बाबू को निःशुल्क सीख कि चाहे उन्हें जितने पशु पालना हो पालें लेकिन कृपया पशुता नहीं पालें क्योंकि जब उनके भीतर मानवता ही नहीं बचेगी तो वे आदमी तो नहीं ही रह जाएँगे और शायद मंत्री भी नहीं.

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

शासन का पहला साल पूरा, ममता बंगाल की हितैषी या शत्रु?

मित्रों, ममता बहुत ही महान शब्द है, महान भाव है और महान अनुभूति तो है ही. परन्तु इस आलेख में हम जिस ममता का नीर-क्षीर-विश्लेषण करने बैठे हैं वह ममता शब्द नहीं ईन्सान है, भारत की एक महान नेता है. एक ऐसी नेता जिसकी संघर्षशीलता अपने आपमें एक उदाहरण है, एक ऐसी नेता जिसने अपनी निर्भीकता, जिद और जुझारूपन से भारत का इतिहास बदलकर रख दिया. लोगबाग जिस साम्यवाद को प. बंगाल का पर्यायवाची मानने लगे थे ममता ने उसे लम्बे संघर्ष के बाद प. बंगाल से उखाड़ फेंका. बेशक उनके संघर्ष करने का तरीका और तेवर वही था जो साम्यवादियों का था परन्तु जनता ने यह सोंचकर कदाचित उनके पक्ष में मतदान नहीं किया था कि सत्ता में आने के बाद वे छद्म या अघोषित साम्यवादी की तरह व्यवहार करेंगी. बल्कि माना तो यह जा रहा था कि वे नए ममतामयी तरीके से जनता को एक माँ की तरह अपनी निज संतान मानते हुए शासन करेंगी और बंगाल उनके नेतृत्व में रिवर्स गियर से टॉप गियर में आ जाएगा. परन्तु ऐसा हुआ नहीं. शायद ममता में जोश ज्यादा से भी बहुत ज्यादा था और होश था कम से भी बहुत कम.
               मित्रों, आप ममता के एक साल के शासन पर निगाहें डालिए तो खुद-ब-खुद समझ जाएँगे कि ममता ने बंगाल की जनता को माँ का प्यार नहीं सिर्फ पिता की प्रताड़ना ही दी है. पिता के कठोर शासन में तो जनता उनसे पहले भी थी फिर सत्ता के बदलने से बदला क्या? कुछ भी तो नहीं, कुछ भी नहीं. तब भी एक दलीय शासन था और वास्तविक लोकतंत्र दूर की कौड़ी थी आज भी एक दलीय शासन है और वास्तविक लोकतंत्र एक स्वप्न है. तब भी पार्टी कैडरों की रंगदारी थी आज भी है. केवल नाम बदल गए हैं शासन का चरित्र नहीं बदला.
                  मित्रों, ममता ने तानाशाही की दिशा में पिछले शासन से एक कदम और आगे निकलते हुए आदेश जारी किया है कि हम जिसे अखबार कहेंगे वही अख़बार माना जाएगा और जनता को सिर्फ उन्हें ही पढना पड़ेगा. जो वाकया जाधवपुर के एक प्रोफ़ेसर के साथ हुआ उससे यह भी स्पष्ट है कि उनके खिलाफ अगर किसी ने कार्टून बनाने या व्यंग्य लिखने की हिमाकत की तो पार्टी कैडर उससे उसकी जिंदगी छीन लेंगे और अगर जीने दिया भी तो वह बस नाममात्र की जिंदगी होगी. इतना ही नहीं ममता ने अपने पार्टी कैडरों के लिए यह फरमान भी जारी किया है कि वे माकपा सदस्यों व उनके परिजनों से न तो सम्बन्ध ही रखें और न ही विवाह करें. परन्तु अगर किसी तृणमूल कार्यकर्ता का दिल किसी माकपा कार्यकर्ता पर आ गया तो? तो क्या वह इस बात का इंतजार करेगा कि कब ममता अपने आदेश को परिवर्तित करती है? वैसे दिल पर हुकूमत का आइडिया बुरा नहीं है परन्तु तरीका निहायत अफसोसनाक है. दिल और दिलदार मौत को भी ठेंगा दिखा देते हैं डंडों से क्या डरेंगे, इसलिए उन्हें प्यार से जीतना पड़ेगा.
                  मित्रों, यदि आप राष्ट्रीय समाचार-पत्रों के नियमित पाठक और राष्ट्रीय समाचार-चैनलों के नियमित दर्शक हैं तो आपने पाया होगा कि ममता जबसे प. बंगाल में सत्तारूढ़ हुई हैं बंगाल से अच्छी ख़बरों की आमद ही रूक गयी है. जब भी ख़बरें आती हैं तो या तो रेल दुर्घटना की या फिर अस्पतालों में बच्चों की थोक के भाव में दम तोड़ने की या अस्पताल में आग लग जाने की या फिर राज्य में गरीबों द्वारा किडनी बेचने की. परन्तु अपनी-हम सबकी ममता दीदी न जाने किस दुनिया में खोई हुई हैं? उन्हें तो बस केंद्र सरकार की कान ऐंठने या बाहें मरोड़ने में या फिर तुगलकी आदेश जारी करने में ही मजा आ रहा है. जोश अच्छी बात है, युद्धप्रियता भी बुरी नहीं लेकिन जोश तभी अच्छा होता है जब उसके पीछे होश भी हो और युद्धप्रियता युद्धकाल में ही फब्ती है. शांतिकाल में भी, निर्माण-काल में भी अगर सैनिक या शासक विध्वंस और मारने-काटने पर ही उतारू रहे तो ऐसी वीरता के वरदान के बदले अभिशाप बन जाने के आसार ही ज्यादा होते हैं. ममता जी की भी वही समस्या लगती है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चर्चिल की थी और इसलिए इंग्लैंड की प्रबुद्ध जनता ने उन्हें युद्ध में विजयी कराने का श्रेय देते हुए भी विपक्ष में बिठा दिया था. ममता जी भी अगर ऐसा ही चाहती हैं तो फिर उन्हें अपने में किसी तरह का बदलाव लाने की आवश्यकता नहीं है. जिस तरह से वे काम कर रही हैं करती रहें और अगले विधानसभा चुनाव का इंतजार करें. परन्तु अगर उन्हें बंगाल का पुनर्निर्माण करना है, कंगाल बंगाल को बदलना है और लम्बे समय तक मुख्यमंत्री बने रहना है तो कृपया अपनी तुनुकमिज़ाज़ी को परे रखें और सबको यहाँ तक कि साम्यवादियों को भी साथ में लेते हुए राज्य का विकास करें. युद्ध का समय जा चुका है अब निर्माण की बेला है और निर्माण में प्रतिकार नहीं सहकार की जरुरत होती है. भारत में किसी की तानाशाही न तो चली है और न चलेगी, न तो रही है और न तो रहेगी. देश-प्रदेश की असली मालिक जनता है नेता नहीं इसलिए ममताजी को जनता के दुःख-दर्द में शरीक होकर उसे कम करना चाहिए न कि डंडा दिखाकर उनको इच्छित दिशा में हांकने के प्रयास करने चाहिए.

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

समान नागरिक संहिता लागू करे सरकार

मित्रों, किसी भी सभ्य और लोकतान्त्रिक राष्ट्र की आधारशिला यह है कि वह अपने नागरिकों में लिंग, धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सबके साथ समान व्यवहार करे. वास्तव में राज्य द्वारा नागरिकों से समान व्यवहार की यह प्रक्रिया समाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन तार्किक सामाजिक मूल्यों की स्थापना करती है जो किसी भी राष्ट्र के जीवन और विकास की आधारभूत आवश्यकता होती है. परन्तु जब समान व्यवहार की यह प्रक्रिया समाज के रूढ़िवादी विचारों, धार्मिक कट्टरता, व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वार्थों से बाधित होती है तो इसकी परिणति एक शोषणकारी व्यवस्था के सृजन के रूप में होती है. और तब इस शोषण के लिए जिम्मेदार न सिर्फ स्वार्थपूर्ण धार्मिक एवं सामाजिक मूल्य होते हैं बल्कि राज्य भी इस शोषण का संरक्षक बन जाता है.
                मित्रों, भारतीय संविधान-निर्माताओं ने लोकतान्त्रिक आदर्शों एवं मूल्यों से प्रेरित होकर प्रत्येक नागरिक को समान व्यवहार का आश्वासन दिया. संविधान के अनुच्छेद १४ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समानता का अधिकार होगा अर्थात राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति लिंग, धर्म आदि के भेद के बिना एक जैसी विधि द्वारा शासित होगा और भविष्य में यह अवधारणा और भी सुदृढ़ हो सके इसलिए अनुच्छेद ४४ में राज्य को यह निर्देश दिया गया कि वह इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समान नागरिक संहिता की स्थापना करे. परन्तु लगता है कि राज्य इस निर्देश को पूरी तरह भूल गया है और समान नागरिक संहिता के द्वारा देश की एकता और अखंडता को और भी मजबूत करने के बदले नागरिकों को बाँटने में लीन हो गया है. जहाँ पहले हिन्दुओं और सिखों के लिए एक नागरिक संहिता थी अब इन पर अलग-अलग संहिताएँ लागू होंगी. इस तरह के कदमों से न सिर्फ जनता बँटेगी वरन विभाजनकारी शक्तियों और विचारधाराओं को भी प्रश्रय प्राप्त होगा.
                   मित्रों, वास्तव में संविधान-निर्माताओं में समानता की भावना राष्ट्रीय आन्दोलनों की विभिन्न घटनाओं तथा एक सुदृढ़ राष्ट्र की स्थापना के उच्च आदर्शों से प्रेरित थी. राष्ट्रीय नेताओं का यह मत था कि समान नागरिक संहिता के माध्यम से परंपरागत एवं रूढ़िवादी सामाजिक तथा धार्मिक मूल्यों का तार्किकीकरण किया जा सकेगा जिससे एक समता आधारित राष्ट्र कि स्थापना हो सकेगी. साथ ही साम्प्रदायिकता, जातिवाद, लिंगभेद जैसी समस्याओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा.
                मित्रों, यद्यपि पूरे भारत में अंग्रेजों के ज़माने से ही समान आपराधिक संहिता लागू है लेकिन समान नागरिक संहिता के प्रयास राजनैतिक तथा धार्मिक स्वार्थों में फँस कर रह गए हैं. वास्तव में यह मुद्दा स्त्री-पुरुष समानता का है जबकि तुच्छ स्वार्थों के कारण इसे संप्रदाय-विरोध से जोड़ दिया गया है. संपत्ति उत्तराधिकार, विवाह, तलाक, गोद लेना जैसे मुद्दे प्रत्येक धर्म की धार्मिक विधियों से नियमित होते हैं. विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों के कारण स्त्रियों को इन विषयों पर या तो बहुत सीमित अधिकार है या फिर कोई अधिकार ही नहीं दिया गया है. इस प्रकार लगभग आधा राष्ट्र इन रूढ़ियों के कारण मूल व स्वाभाविक अधिकारों से वंचित है. ऐसे में समान नागरिक संहिता का उद्देश्य मात्र यह है कि विभिन्न धर्मों की विधियों को तार्किक रूप दिया जाए ताकि स्त्रियों को उनके स्वाभाविक मानव-अधिकार प्राप्त हो सके.
               मित्रों, यह महत्वपूर्ण है कि समान नागरिक संहिता किसी धार्मिक विधि को समाप्त नहीं करती बल्कि सिर्फ विभेदकारी रूढ़ियों को समाप्त करती है. इस सन्दर्भ में हिन्दू तथा ईसाई धार्मिक विधियों को संहिताबद्ध करके इन धर्मों से विभेद समाप्त करने के प्रयास नेहरु के काल में ही हुए थे. अभी कुछ ही दिन पहले सिखों के लिए उनको हिन्दुओं से अलग मानते हुए उनके लिए अलग नागरिक संहिता बना दी गयी है. यानि समान नागरिक संहिता के सन्दर्भ में देश की गाड़ी और भी पीछे रिवर्स गियर में चलाई जा रही है.
                  मित्रों, जहाँ तक मुस्लिम धार्मिक विधियों के संहिताकरण के प्रयासों का सवाल है तो वे धार्मिक स्वतंत्रता के हनन, अल्पसंख्यकों के अस्तित्व संकट जैसे व्यक्तिगत व राजनैतिक कुतर्कों के कारण असफल ही रहे हैं. परंतु समानता का इस दिशा में किया गया कोई भी प्रयास क्या वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की भावना के विपरीत है? भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक विषयों पर पूर्ण स्वतंत्रता होगी, राज्य का स्वयं का कोई धर्म नहीं होगा और वह धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप भी नहीं करेगा. परन्तु यह स्पष्ट होना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में किसी के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता है. स्वयं शाहबानो वाद (१९८५) में उच्चतम न्यायालय का भी यही मत था कि महज कुछ अमानवीय धार्मिक रूढ़ियों के आधार पर किसी को इतना अधिकारविहीन कर देना कि उसका अस्तित्व ही संकटमय हो जाए, पूर्णतः अन्यायपूर्ण है. वास्तव में समान नागरिक संहिता धर्म को तार्किक और उदार बनाती है. अतः हमें यह समझना होगा कि एक ऐसे धर्म को संरक्षण देना जो कि लिंग के आधार पर किसी से उसकी समानता तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार ही छीन लेता हो, धर्मनिरपेक्षता नहीं है. वास्तव में आज के परिवेश में किसी धर्म की अतार्किक एवं रूढ़िवादी भावनाओं के संरक्षण हेतु राष्ट्र का बलिदान नहीं दिया जा सकता है. धर्मनिरपेक्षता, जो भेदभाव और शोषण को मौन समर्थन दे; उसे राष्ट्रहित में छोड़ देना ही उचित होगा.
               मित्रों, सत्य तो यह है कि समान नागरिक संहिता का न होना ही हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के विरुद्ध है. समान नागरिक संहिता सभी धर्मों की स्त्रियों को समान दर्जा देती है, इस प्रकार देश का लगभग आधा मानव संसाधन जो गलत धार्मिक रूढ़ियों के कारण अनुत्पादक पड़ा था अब राष्ट्र-निर्माण में अपनी योग्यता व क्षमता का योगदान दे सकेगा. वास्तव में जब तक जन-जन का विकास नहीं होगा तब तक एक लोकतान्त्रिक एवं दृढ राष्ट्र की स्थापना असंभव है. समान नागरिक संहिता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से सामाजिक विकास को भी सुनिश्चित करती है. सम्पूर्ण समाज का विकास तभी संभव है जबकि प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अधिकार एवं अवसर मिले. दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति स्वविकास करता हुआ सामाजिक विकास में अपना योगदान देने में सक्षम हो. ऐसे में समान नागरिक संहिता विभिन्न भेदभाव आधारित बाधाओं को दूर कर प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम बनाती है. इस तरह संहिता के अभाव में सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी बाधित हुई है. आज सैद्धांतिक और कानूनी रूप से हिन्दू या ईसाई स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, भरण-पोषण आदि के समान अधिकार प्राप्त हैं जो महिला सशक्तिकरण में सहायक तो हैं ही लेकिन साथ-ही-साथ उन्हें समाज पर आश्रित वस्तु के बजाए एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित करते हैं. साथ ही हिन्दू या ईसाई धर्म अपने अनुनायियों के विवाह, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, व्यवसाय आदि के विषय में कोई लिंगाधारित प्रतिबन्ध नहीं लगाता है. लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम धर्म में समान नागरिक संहिता के अभाव में जहाँ पुरुषों को विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के अतार्किक अधिकार मिले हुए हैं वहीं स्त्रियों को शोषण से कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है. पुरुषों के इन अतार्किक अधिकारों का परिणाम है कि स्त्रियाँ पूर्णतः सामाजिक असुरक्षा की भावना में जीवन व्यतीत करती हैं. क्या इसके लिए समान नागरिक संहिता का न होना जिम्मेदार नहीं है? विवाद का कारण भी यही है कि संहिता के आने के बाद मुस्लिम पुरुषों द्वारा अधिकारों के मनमाने प्रयोग पर प्रतिबन्ध लग जाएगा. उन्हें स्त्रियों को भरण-पोषण, उत्तराधिकार जैसे समान अधकार देने होंगे क्योंकि समान नागरिक संहिता में मुस्लिम महिलाओं के संरक्षण के लिए तार्किक नियम-कानून होंगे. लेकिन राजनैतिक स्वार्थों ने मुद्दे को समानता के स्थान पर साम्प्रदायिकता तथा धार्मिक हस्तक्षेप का आवरण पहना दिया है. परिणामस्वरूप समाज को दोहरा नुकसान हो रहा है. पहला यह कि मुस्लिम स्त्रियाँ जो देश की जनसंख्या का लगभग ८-१० प्रतिशत हैं अभी भी समाज की मुख्यधारा से कटी हुई हैं तथा शिक्षा एवं अधिकारों के अभाव में हर तरह से समाज पर आश्रित हैं. इस प्रकार देश का लगभग ८-१०% मानव-संसाधन अनुत्पादक होने के साथ-साथ सामाजिक विकास में समस्या बना हुआ है. दूसरा नुकसान यह है समान नागरिक संहिता की राजनीति ने समाज में बिखराव पैदा किया है तथा लोकतंत्र का आधार अर्थात विधि का शासन अतार्किक धार्मिक कुरीतियों के समक्ष लाचार-सा हो गया है.
                       मित्रों, आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्या का जो मुख्य कारण है उसी में से समाधान की खोज की जाए. अर्थात धर्म के उदारवादी दृष्टिकोण की स्थापना एवं प्रचार हो, उदार धार्मिक नेताओं और बुद्धिजीवियों को इस विषय पर विश्वास में लेते हुए उनके माध्यम से सामान्य जन के मध्य समान नागरिक संहिता के उद्देश्य और आवश्यकता को स्पष्ट किया जाए. शिक्षा को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष स्वरुप दिया जाए ताकि नई पीढी में सामाजिक तथा धार्मिक विषयों पर उदारता की भावना का विकास हो. साथ ही शिक्षा-व्यवस्था ऐसी हो कि सभी धर्मों तथा सभी व्यक्तियों को आसानी से सुलभ हो सके. इन सबका परिणाम यह होगा कि सभी वर्गों में उदारता तथा राष्ट्रीय हित की भावना दृढ होगी और वे स्वयं अतार्किक अधिकारों का त्याग कर नए सामाजिक परिवर्तन हेतु स्वयं को तैयार कर सकेंगे.
                    मित्रों, अंततः निष्कर्ष यही निकलता है कि राष्ट्रहित में आवश्यक प्रत्येक प्रक्रिया का पालन होना चाहिए. राष्ट्र किसी भी धर्म से श्रेष्ठ है, अतः ऐसी अतार्किक धार्मिक रूढ़ियाँ जो हमारे राष्ट्रीय मूल्यों के विपरीत हों तथा उसके विकास में बाधा उत्पन्न कर रही हों उन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. समान नागरिक संहिता का किसी भी आधार पर विरोध उचित नहीं है अतः सभी विरोधों के बावजूद इसको शीघ्रातिशीघ्र लागू किया जाना चाहिए.         
                        

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

रामू काका होंगे भारत के अगले राष्ट्रपति

मित्रों, भारत में अबसे कुछ ही सप्ताह बाद राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मी शुरू होनेवाली है. कुछ दूर की सोंच रखनेवाले पत्रकारों ने इस बात पर बहस शुरू कर भी दी है कि भारत का अगला राष्ट्रपति कैसा होना चाहिए. किसको होना चाहिए और कौन हो सकता है तक उनकी दूरदर्शी नजर अभी नहीं पहुँच पाई है. कुछ नामचीनों का कहना है कि राष्ट्रपति पद के लिए कोई योग्यता निर्धारित की जानी चाहिए, मसलन उसे मिड्ल फेल होना चाहिए, उसका कद ४ फीट ११.७५ ईंच से अधिक न हो, वो बिना मुँह ऐंठे फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सके, आँखों से कम दिखता हो, बहुत बड़ा घोटाला कर चुका हो, उसके सारे दाँत सही-सलामत हों और उम्र इतनी हो कि कम-से-कम आधे बाल काले हों इत्यादि-इत्यादि.
        मित्रों, इस तरह की जनक-प्रतिज्ञा सदृश कठिन शर्तें अगर रखेंगे तो हो सकता है कि यह कुर्सी खाली ही रह जाए ठीक उसी तरह जैसे बतौर मनमोहन अगर हम ईमानदार ढूँढने लगें तो भारत में प्रधानमंत्री सहित ज्यादातर महत्वपूर्ण पद खाली ही रह जाएँगे. फिर भी प्रस्तावों में दम है इसलिए ये विचारणीय हैं. मेरे हिसाब से हमारे राष्ट्रपति को मिड्ल फेल तो होना ही चाहिए. उसे तो जब पार्टी आलाकमान जहाँ कहे वहाँ हस्ताक्षर कर देना है, पढ़ने का उसे न तो अवकाश मिलेगा और न ही अवसर; फिर पढ़ा-लिखा राष्ट्रपति लेकर क्या अँचार डालना है? अब आते है लम्बाई वाले प्रस्ताव पर तो आपलोग भी जानते हैं कि राष्ट्रपति का पद अपने देश का सर्वोच्च पद है. पद सबसे बड़ा और कद छोटा; बात कुछ जमती नहीं. है न? मगर इसमें भी एक बड़ा भारी रहस्य छिपा हुआ है और वो रहस्य है कि हमारे नाटे उस्ताद जब भी किसी समकक्षी से बात करेंगे तो उसे सिर झुका कर बात करनी पड़ेगी और बदले में इनके साथ-साथ हमारे देश का माथा भी हमेशा ऊँचा बना रहेगा, तना रहेगा क्योंकि इन्हें तो ऊपर की तरफ मुँह करके बोलना पड़ेगा.
                    दोस्तों, यह जानी हुई बात है कि कोई भी व्यक्ति बिना मुँह ऐंठे फर्राटे के साथ अंग्रेजी बोल ही नहीं सकता इसलिए हमेशा कोई-न-कोई आम जनता के मध्य का आम आदमी ही राष्ट्रपति बनेगा. चूँकि संवैधानिक दृष्टि से रबर स्टाम्प जैसा यह पद अब गरिमाहीन भी हो चुका है और इसलिए जब सरकार का किसी खुशगवार-नागवार मसले पर विरोध करना ही नहीं है तो तो ऑंखें किस काम की? होंगी तो हो सकता है कि बहुत-कुछ अनपेक्षित भी देखना पड़े और मन व्यथित हो जाए. घोटाला करना निश्चित रूप से आज हमारे राजनेताओं की सबसे बड़ी खूबी बन चुकी है. दाग अच्छे हैं, अच्छे होते हैं इसलिए हमारी पार्टी आलाकमान को दागदार छवि के लोग कुछ ज्यादा ही अच्छे लगते हैं, अपनी बिरादरी के लगते हैं. ईमानदार व्यक्ति अगर राष्ट्रपति बन गया तो रोज-रोज संवैधानिक संकट उत्पन्न होने का खतरा रहेगा. सरकार के साथ मिलकर ऐसा व्यक्ति मिले सुर मेरा तुम्हारा गा ही नहीं सकता जिससे सरकारी कामकाज के ठप्प पड़ जाने की आशंका हमेशा बनी रहेगी और जीडीपी में गिरावट आ जाएगी. राजनीति के स्तर में, राजनीतिज्ञों के स्तर में, नौकरशाहों की नैतिकता के स्तर में, उनके काम-काज के स्तर में, पुल-पुलियों-सड़कों की गुणवत्ता के स्तर में, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर में, आम जनता के जीवन-स्तर में, गरीबी रेखा को मापने के पैमाने के स्तर में, कृषि-उत्पादकता के स्तर में, नदियों में, जनसाधारण की आँखों में और जमीन के भीतर स्थिर पानी के स्तर में भले ही गंभीर और चिंताजनक गिरावट आ जाए जीडीपी में गिरावट हरगिज नहीं आनी चाहिए. जीडीपी देश की मूँछ होती है और मूँछ नहीं तो कुछ नहीं. दांतों की सलामती इसलिए जरुरी है ताकि बंदा विदेशी दौरों पर कठोर-मुलायम व्यंजनों का बेरोकटोक आनंद ले सके. उम्र के बारे में तो कहना ही क्या? उम्र कम होगी तो हमउम्र समकक्षी तितलियों को या उनकी पत्नियों को लुभाने में, मनाने में आसानी रहेगी और इस तरह राजनयिकों का काम आसान हो जाएगा और अगर ऐसा हुआ तो हो सकता है कि २४वीं शताब्दी के अंत तक भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थाई सदस्य बन ही जाए.
                    मित्रों, इस तरह हमने देखा और पाया कि उपरलिखित सारे-के-सारे प्रस्ताव लाजवाब हैं और स्वीकारणीय तो हैं ही प्रशंसनीय भी हैं. अब राष्ट्रपति कैसा हो की समस्या तो हल हो ही गई समझिए. क्योंकि संसद के चालू सत्र में यह संशोधन विधेयक गारंटी के साथ बिना बहस के पास हो जाएगा. वैसे सरकार ने अभी संशोधन-प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं किया है लेकिन अंदरखाने की खबर यह है कि हमारे साथ-साथ पार्टी आलाकमान की भी यही ईच्छा है. विपक्ष तो इस समय है ही नहीं विपक्ष में तो सिर्फ हमारी कलम है; इसलिए संशोधन तो हुआ ही समझिए.
                         दोस्तों, अब बच गया दूसरा सवाल जो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कौन भारत का अगला राष्ट्रपति बननेवाला है? और किसी को पता हो या नहीं हो मुझे तो पता है. बिलकुल पता है और वह शख्स कोई और नहीं है बल्कि वह शख्स हैं रामू काका. अरे आपके या हमारे वाले रामू काका नहीं बल्कि पार्टी आलाकमान के घर में बर्तन-पोछा का महान कार्य संभालनेवाले रामू काका होंगे मेरा भारत महान के अगले महान राष्ट्रपति. दस बार मिड्ल फेल हैं, नाटे हैं, अंग्रेजी से सपने में भी उनकी मुक्का-लात नहीं हुई है, आँखों से दिन में कम दिखता है अलबत्ता रात की नजर ठीक है, कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित करते हुए कितने रुपयों के और कितने घोटाले कर चुके हैं कि दैवो न जानाति; मुँह के बत्तीसों दाँत दुरुस्त हैं और बड़ी-बड़ी जुल्फें रखते हैं, कलंक से भी ज्यादा काली और बला की कातिल. इसलिए मुझे नहीं लगता कि उनके आलावा कोई और भारत का अगला राष्ट्रपति बन भी सकता है या बनने के लायक है भी. आलाकमान के चाटुकार हैं, प्रिय-पात्र हैं और इन दिनों बेकार हैं. उनके राष्ट्रपति बनने से देश की जीडीपी बढ़ेगी, संवैधानिक संकट का तो प्रश्न ही नहीं उठता, देश का माथा ऊँचा होगा, कूटनीतिक सम्मान बढेगा, भ्रष्टाचार और घोटाले बढ़ेंगे और हम भ्रष्ट देशों की रैंकिंग में और ऊपर चढ़ेंगे. हर शाख पे उल्लू ही उल्लू बैठे दिखेंगे, भ्रष्टाचार के बगीचे में बहारें ही बहारें होंगी. तो मित्रों आज की सबसे बड़ी एक्सक्लूसिव, फेकिंग और ब्रेकिंग न्यूज़ यह है कि रामू काका होंगे भारत के अगले राष्ट्रपति. रामू काका एक ऐसी शख्सियत जिनकी अपनी कोई शख्सियत ही नहीं है.                 

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

नीतीश कुमार का मीडिया मैनेजमेंट

मित्रों, इसे हम अपनी सुविधानुसार भारतीय प्रजातंत्र की विशेषता कहें या विडम्बना; आजादी के बाद से ही सामूहिक नेतृत्व के स्थान पर इसकी प्रीति व्यक्तिपूजा के प्रति कुछ नहीं बल्कि बहुत ज्यादा रही है. जैसा कि आप सब भी जानते हैं कि व्यक्तिपूजक व्यवस्था में सबसे ज्यादा जिस भौतिक-अभौतिक चीज की कीमत होती है वह होती है उस व्यक्ति की छवि. यह छवि लाजवंती से भी कहीं ज्यादा संवेदनशील और कांच से भी कहीं बढ़कर भंगुर होती है. उस पर यह ऐसी शह होती है जिसको बनाने में तो वर्षों लग जाते हैं और खंडित होने में एक क्षण भी नहीं लगता. शायद इसलिए हमारे राजनेता अपनी छवि चमकाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. यह छवि ही थी जिसने प्रधानमंत्री नेहरु को चाचा नेहरु भी बना डाला वरना बच्चे किस राजनेता को प्रिय नहीं थे-गाँधी को, राजेंद्र प्रसाद को, सरदार पटेल या सुभाष या तिलक इत्यादि किसको नहीं?
                     मित्रों, बिहार में जब घोटाला-दर-घोटाला करने के बाद लालू की गरीबों के मसीहा वाली छवि चूर-चूर हो गयी तब उनके पूर्व राजनीतिक सहयोगी नीतीश कुमार नए मुख्यमंत्री के रूप में सिंहासन पर विराजमान हुए. उन्होंने सत्ता में आते ही सुशासन का नारा दिया और इस शब्द का इतनी फिजूलखर्ची से प्रयोग किया कि उनका नाम ही सुशासन बाबू पड़ गया. परन्तु नारा लगाने और नारों को हकीकत का (पै)जामा पहनाने में हमेशा बड़ा भारी फर्क रहा है. कागज पर और आंकड़ों में तो सुशासन को जबरन ला दिया गया लेकिन जमीनी स्तर पर जनता कहीं पहले से भी ज्यादा बेहाल हो उठी. राज्य का विकास हुआ भी परन्तु उससे कहीं ज्यादा तेज गति से विकास हुआ राज्य में भ्रष्टाचार का. राज्य सरकार ने सामाजिक योजनाओं की राशि में वृद्धि की तो सरकारी बाबुओं और हाकिमों ने और भी अधिक अनुपात में रिश्वत की दर और परिमाण को बढ़ा दिया. जाहिर है जनता जब परेशान होगी तो आक्रोशित भी होगी और अपने आक्रोश को धरना, प्रदर्शन, ज्ञापन, बयानबाजी आदि के द्वारा अभिव्यक्त भी करेगी और उनकी अभिव्यक्ति को शब्द और शक्ति प्रदान करने का दायित्व होता है मीडिया पर. बिहार चूंकि देश का सबसे पिछड़ा प्रदेश है इसलिए स्वाभाविक तौर पर इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अख़बारों की हो जाती है. नीतीश ठहरे चतुर सुजान, चाणक्यावतार सो उन्होंने जनता को खुश करने के बजे मीडिया को ही साध लिया. ऐसा करना अपेक्षाकृत आसान भी था. वो कहते हैं न कि एकहि साधे सब सधै. अब करते रहिए धरना, प्रदर्शन, देते रहिए सरकारी कुनीतियों के विरुद्ध बयान; जब अख़बार उनको और उनसे सम्बंधित ख़बरों को छापेंगे ही नहीं तो सिवाय खून के घूँट पीकर रह जाने के आप कुछ कर ही नहीं पाएंगे.
                         मित्रों, पहले किसी लालच के पुतले को वश में वश में करने के लिए चांदी की खनक सुनानी पड़ती थी अब गाँधी बाबा का दर्शन करवाना पड़ता है. पहले जब मीडिया विकेन्द्रित था तब उसे मैनेज करना खासा मुश्किल अथवा असंभव-सा था परन्तु अब मीडिया का मतलब दो-चार कॉरपोरेट हाउस के आलावा और कुछ नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए अगर बिहार में मीडिया को मैनेज करना है तो सिर्फ दैनिक जागरण, हिंदुस्तान टाइम्स, हिंदुस्तान, प्रभात खबर, आज, टाइम्स ऑफ़ इंडिया और राष्ट्रीय सहारा को मैनेज कर लीजिए फिर जनता के समक्ष सावन के अंधे की तरह शासन-प्रशासन में सिवाय हरियाली को देखने के कोई विकल्प ही नहीं रह जाएगा. जब नीतीश सत्ता में आए तो मीडिया सज-धज कर बिकने को तैयार बैठी थी और नीतीश सरकार खरीदने को आतुर हुई जा रही थी. देखते-देखते लोकतंत्र का वाच डॉग सचमुच के दुम हिलानेवाले कुत्ते की तरह व्यवहार करने लगा. फिर क्या था बिहार में अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अघोषित आपातकाल की स्थिति पैदा हो गयी. सरकार ने जिन्हें झुकने को कहा एकदम से बैठ गए, जिन मीडिया संस्थाओं को बैठने को कहा गया घुटनों पर आ टिके और जिन्हें घुटनों के बल रेंगने का आदेश मिला एकदम से आपत्तिजनक अवस्था में लेट ही गए.
                       मित्रों, सरकारी खजाने में जमा हुई रकम किसी मंत्री-मुख्यमंत्री के बाप की कमाई हुई नहीं होती कि जिसको वे जब चाहें, जहाँ चाहें, जैसे चाहें और जिस पर चाहें उड़ा डालें. सरकार को विज्ञापन जारी करना चाहिए लेकिन सिर्फ जनजागरूकता के लिए न कि मीडिया-घरानों को उपकृत कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए. जब आप आर.टी.आई. कार्यकर्ता शिवप्रकाश राय, राम प्रवेश सिंह यादव और विनय शर्मा जी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त सरकारी आंकड़ों पर स्थूल दृष्टिपात भर करेंगे तो आपकी समझ में आसानी से यह बात आ जाएगी कि प्रिंट मीडिया में क्यों लगातार सरकार की वाहवाही और जयजयकार हो रही है? क्यों जनता द्वारा कानून को अपने हाथ में लेकर लगातार होली और होली के बाद वाले दिन दो स्थानों पर पीट-पीटकर दो अपराधियों को पुलिस की मौजूदगी में सरेआम मृत्युदंड देने और पुलिस के मूकदर्शक बने रहने की खबर भी अख़बारों में स्थान नहीं बना पाती है? बिहार सरकार ने वर्ष २००५ से मई २०११ के बीच मीडिया पर १ अरब, १० करोड़ से भी ज्यादा रूपये न्योछावर कर दिए. वित्तीय वर्ष २००५-०६ से लगातार यह राशि बढती गयी. इस लूट का सबसे ज्यादा फायदा मिला हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, आज और प्रभात खबर को. कुल राशि की लगभग आधी इन चारों के ही हाथ लगी. इनमें भी कुल विज्ञापन व्यय का लगभग एक तिहाई बिहार के सबसे बड़े अख़बार हिंदुस्तान को खुश करने के लिए फूंक दिया गया. कई बार तो एक ही विज्ञापन दो-दो पृष्ठों पर छापे गए. उदाहरण के लिए १६ जुलाई, २०११ को हिंदुस्तान में एक ही विज्ञापन दो पृष्ठों पृष्ठ संख्या ९ और १० पर क्रमशः सादा और रंगीन रूपों में दे दिया गया. इस तरह जब पानी की तरह पैसा बहाया जाएगा तो इस धनयुग में कौन ऐसा मूर्ख सत्यनिष्ठ होगा जो फिसल और मचल नहीं जाएगा और हुक्मफरमानी करने की सोंचेगा भी. ई.टी.वी. के प्रवीण बागी ने की और टीम सहित बाहर कर दिए गए, सुभाष पाण्डे ने की और जागरण परिवार ने उनका तबादला कर दिया. ऐसे अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं जो यह बताते हैं कि बिहार की मीडिया पर किस कदर नीतीश कुमार का प्रभाव कायम हो चुका है. लेकिन सावधान, हे दुश्शासन (सुशासन)!! झूठ के हाथ भले ही हजार होते हों पाँव आज भी नहीं होते. हर चीज की एक हद होती है तो सच को छिपाने की भी होती होगी. पब्लिक को कब तक बरगलाईयेगा; वो तो खुद ही भुक्तभोगी भी है और द्रष्टा भी? दुनियावालों से भले ही इस तिकड़म से सच्चाई छिप भी जाए परन्तु बिहार के गाँव-गाँव, शहर-शहर में रहनेवाली जनता तो सब कुछ जानती है. इसलिए सरकार के लिए श्रेयस्कर यही रहेगा कि बिहार अभिव्यक्तिक आपातकाल को तीन दशक बाद फिर से जीवन्त करने के बजाए अपने प्रदर्शन में सुधार करे. अपनी सोंच, नीति और नीयत में बदलाव करे. आईने को डराने-धमकाने और ललचाने से किसी को कुछ हासिल न तो हुआ है और न ही भविष्य में कभी होनेवाला ही है; बेहतर यही होगा कि अपनी सूरत को ही संवारने की भरपूर कोशिश की जाए. अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब जनता झूठ बोलनेवाले दर्पण को तो तोड़ डालेगी ही झूठी बाइस्कोपी सरकार को भी अपदस्थ कर देगी. शायद बहुत जल्द राज्य सरकार और राज्य के प्रेस पर काटजू साहब और भारतीय प्रेस परिषद् का डंडा भी चले और सड़े हुए प्याज की शल्कों की तरह वीभत्स सच्चाई की परतें नजर आने लगे. सरकार को समझना चाहिए कि बिहार की जनता ने उसे अभूतपूर्व बहुमत देकर एक अमूल्य अवसर दिया है राज्य और राज्यवासियो का यथार्थपरक विकास करने के लिए न कि जबरदस्ती सबकुछ ठीक-ठाक है का झूठा अहसास करवाने के लिए. मीडिया को भी अपने कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए अन्यथा सरकार की छवि तो उसके सुधारने से सुधरेगी नहीं खुद मीडिया की छवि भी विकृत हो जाएगी और तब शायद फिर से उसे बनाने में सदियों का समय लग जाए. अंत में मैं एक बार फिर नीतीश जी को सावधान करना चाहूँगा कि वक़्त रहते संभल जाईए, नहीं संभले तो हो सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव के बाद आपको मुख्यमंत्री की ड्राइविंग सीट के बदले विपक्ष के नेता की कुर्सी पर यानि बैकसीट पर बैठना पड़े या फिर मायावती जी की तरह दिल्ली का रूख करना पड़े और ऐसा आप पहले कर भी चुके हैं. याद कीजिए, याद आ जाएगा.