मित्रों, इसे हम अपनी सुविधानुसार भारतीय प्रजातंत्र की विशेषता कहें या विडम्बना; आजादी के बाद से ही सामूहिक नेतृत्व के स्थान पर इसकी प्रीति व्यक्तिपूजा के प्रति कुछ नहीं बल्कि बहुत ज्यादा रही है. जैसा कि आप सब भी जानते हैं कि व्यक्तिपूजक व्यवस्था में सबसे ज्यादा जिस भौतिक-अभौतिक चीज की कीमत होती है वह होती है उस व्यक्ति की छवि. यह छवि लाजवंती से भी कहीं ज्यादा संवेदनशील और कांच से भी कहीं बढ़कर भंगुर होती है. उस पर यह ऐसी शह होती है जिसको बनाने में तो वर्षों लग जाते हैं और खंडित होने में एक क्षण भी नहीं लगता. शायद इसलिए हमारे राजनेता अपनी छवि चमकाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. यह छवि ही थी जिसने प्रधानमंत्री नेहरु को चाचा नेहरु भी बना डाला वरना बच्चे किस राजनेता को प्रिय नहीं थे-गाँधी को, राजेंद्र प्रसाद को, सरदार पटेल या सुभाष या तिलक इत्यादि किसको नहीं?
मित्रों, बिहार में जब घोटाला-दर-घोटाला करने के बाद लालू की गरीबों के मसीहा वाली छवि चूर-चूर हो गयी तब उनके पूर्व राजनीतिक सहयोगी नीतीश कुमार नए मुख्यमंत्री के रूप में सिंहासन पर विराजमान हुए. उन्होंने सत्ता में आते ही सुशासन का नारा दिया और इस शब्द का इतनी फिजूलखर्ची से प्रयोग किया कि उनका नाम ही सुशासन बाबू पड़ गया. परन्तु नारा लगाने और नारों को हकीकत का (पै)जामा पहनाने में हमेशा बड़ा भारी फर्क रहा है. कागज पर और आंकड़ों में तो सुशासन को जबरन ला दिया गया लेकिन जमीनी स्तर पर जनता कहीं पहले से भी ज्यादा बेहाल हो उठी. राज्य का विकास हुआ भी परन्तु उससे कहीं ज्यादा तेज गति से विकास हुआ राज्य में भ्रष्टाचार का. राज्य सरकार ने सामाजिक योजनाओं की राशि में वृद्धि की तो सरकारी बाबुओं और हाकिमों ने और भी अधिक अनुपात में रिश्वत की दर और परिमाण को बढ़ा दिया. जाहिर है जनता जब परेशान होगी तो आक्रोशित भी होगी और अपने आक्रोश को धरना, प्रदर्शन, ज्ञापन, बयानबाजी आदि के द्वारा अभिव्यक्त भी करेगी और उनकी अभिव्यक्ति को शब्द और शक्ति प्रदान करने का दायित्व होता है मीडिया पर. बिहार चूंकि देश का सबसे पिछड़ा प्रदेश है इसलिए स्वाभाविक तौर पर इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अख़बारों की हो जाती है. नीतीश ठहरे चतुर सुजान, चाणक्यावतार सो उन्होंने जनता को खुश करने के बजे मीडिया को ही साध लिया. ऐसा करना अपेक्षाकृत आसान भी था. वो कहते हैं न कि एकहि साधे सब सधै. अब करते रहिए धरना, प्रदर्शन, देते रहिए सरकारी कुनीतियों के विरुद्ध बयान; जब अख़बार उनको और उनसे सम्बंधित ख़बरों को छापेंगे ही नहीं तो सिवाय खून के घूँट पीकर रह जाने के आप कुछ कर ही नहीं पाएंगे.
मित्रों, पहले किसी लालच के पुतले को वश में वश में करने के लिए चांदी की खनक सुनानी पड़ती थी अब गाँधी बाबा का दर्शन करवाना पड़ता है. पहले जब मीडिया विकेन्द्रित था तब उसे मैनेज करना खासा मुश्किल अथवा असंभव-सा था परन्तु अब मीडिया का मतलब दो-चार कॉरपोरेट हाउस के आलावा और कुछ नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए अगर बिहार में मीडिया को मैनेज करना है तो सिर्फ दैनिक जागरण, हिंदुस्तान टाइम्स, हिंदुस्तान, प्रभात खबर, आज, टाइम्स ऑफ़ इंडिया और राष्ट्रीय सहारा को मैनेज कर लीजिए फिर जनता के समक्ष सावन के अंधे की तरह शासन-प्रशासन में सिवाय हरियाली को देखने के कोई विकल्प ही नहीं रह जाएगा. जब नीतीश सत्ता में आए तो मीडिया सज-धज कर बिकने को तैयार बैठी थी और नीतीश सरकार खरीदने को आतुर हुई जा रही थी. देखते-देखते लोकतंत्र का वाच डॉग सचमुच के दुम हिलानेवाले कुत्ते की तरह व्यवहार करने लगा. फिर क्या था बिहार में अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अघोषित आपातकाल की स्थिति पैदा हो गयी. सरकार ने जिन्हें झुकने को कहा एकदम से बैठ गए, जिन मीडिया संस्थाओं को बैठने को कहा गया घुटनों पर आ टिके और जिन्हें घुटनों के बल रेंगने का आदेश मिला एकदम से आपत्तिजनक अवस्था में लेट ही गए.
मित्रों, सरकारी खजाने में जमा हुई रकम किसी मंत्री-मुख्यमंत्री के बाप की कमाई हुई नहीं होती कि जिसको वे जब चाहें, जहाँ चाहें, जैसे चाहें और जिस पर चाहें उड़ा डालें. सरकार को विज्ञापन जारी करना चाहिए लेकिन सिर्फ जनजागरूकता के लिए न कि मीडिया-घरानों को उपकृत कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए. जब आप आर.टी.आई. कार्यकर्ता शिवप्रकाश राय, राम प्रवेश सिंह यादव और विनय शर्मा जी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त सरकारी आंकड़ों पर स्थूल दृष्टिपात भर करेंगे तो आपकी समझ में आसानी से यह बात आ जाएगी कि प्रिंट मीडिया में क्यों लगातार सरकार की वाहवाही और जयजयकार हो रही है? क्यों जनता द्वारा कानून को अपने हाथ में लेकर लगातार होली और होली के बाद वाले दिन दो स्थानों पर पीट-पीटकर दो अपराधियों को पुलिस की मौजूदगी में सरेआम मृत्युदंड देने और पुलिस के मूकदर्शक बने रहने की खबर भी अख़बारों में स्थान नहीं बना पाती है? बिहार सरकार ने वर्ष २००५ से मई २०११ के बीच मीडिया पर १ अरब, १० करोड़ से भी ज्यादा रूपये न्योछावर कर दिए. वित्तीय वर्ष २००५-०६ से लगातार यह राशि बढती गयी. इस लूट का सबसे ज्यादा फायदा मिला हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, आज और प्रभात खबर को. कुल राशि की लगभग आधी इन चारों के ही हाथ लगी. इनमें भी कुल विज्ञापन व्यय का लगभग एक तिहाई बिहार के सबसे बड़े अख़बार हिंदुस्तान को खुश करने के लिए फूंक दिया गया. कई बार तो एक ही विज्ञापन दो-दो पृष्ठों पर छापे गए. उदाहरण के लिए १६ जुलाई, २०११ को हिंदुस्तान में एक ही विज्ञापन दो पृष्ठों पृष्ठ संख्या ९ और १० पर क्रमशः सादा और रंगीन रूपों में दे दिया गया. इस तरह जब पानी की तरह पैसा बहाया जाएगा तो इस धनयुग में कौन ऐसा मूर्ख सत्यनिष्ठ होगा जो फिसल और मचल नहीं जाएगा और हुक्मफरमानी करने की सोंचेगा भी. ई.टी.वी. के प्रवीण बागी ने की और टीम सहित बाहर कर दिए गए, सुभाष पाण्डे ने की और जागरण परिवार ने उनका तबादला कर दिया. ऐसे अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं जो यह बताते हैं कि बिहार की मीडिया पर किस कदर नीतीश कुमार का प्रभाव कायम हो चुका है. लेकिन सावधान, हे दुश्शासन (सुशासन)!! झूठ के हाथ भले ही हजार होते हों पाँव आज भी नहीं होते. हर चीज की एक हद होती है तो सच को छिपाने की भी होती होगी. पब्लिक को कब तक बरगलाईयेगा; वो तो खुद ही भुक्तभोगी भी है और द्रष्टा भी? दुनियावालों से भले ही इस तिकड़म से सच्चाई छिप भी जाए परन्तु बिहार के गाँव-गाँव, शहर-शहर में रहनेवाली जनता तो सब कुछ जानती है. इसलिए सरकार के लिए श्रेयस्कर यही रहेगा कि बिहार अभिव्यक्तिक आपातकाल को तीन दशक बाद फिर से जीवन्त करने के बजाए अपने प्रदर्शन में सुधार करे. अपनी सोंच, नीति और नीयत में बदलाव करे. आईने को डराने-धमकाने और ललचाने से किसी को कुछ हासिल न तो हुआ है और न ही भविष्य में कभी होनेवाला ही है; बेहतर यही होगा कि अपनी सूरत को ही संवारने की भरपूर कोशिश की जाए. अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब जनता झूठ बोलनेवाले दर्पण को तो तोड़ डालेगी ही झूठी बाइस्कोपी सरकार को भी अपदस्थ कर देगी. शायद बहुत जल्द राज्य सरकार और राज्य के प्रेस पर काटजू साहब और भारतीय प्रेस परिषद् का डंडा भी चले और सड़े हुए प्याज की शल्कों की तरह वीभत्स सच्चाई की परतें नजर आने लगे. सरकार को समझना चाहिए कि बिहार की जनता ने उसे अभूतपूर्व बहुमत देकर एक अमूल्य अवसर दिया है राज्य और राज्यवासियो का यथार्थपरक विकास करने के लिए न कि जबरदस्ती सबकुछ ठीक-ठाक है का झूठा अहसास करवाने के लिए. मीडिया को भी अपने कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए अन्यथा सरकार की छवि तो उसके सुधारने से सुधरेगी नहीं खुद मीडिया की छवि भी विकृत हो जाएगी और तब शायद फिर से उसे बनाने में सदियों का समय लग जाए. अंत में मैं एक बार फिर नीतीश जी को सावधान करना चाहूँगा कि वक़्त रहते संभल जाईए, नहीं संभले तो हो सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव के बाद आपको मुख्यमंत्री की ड्राइविंग सीट के बदले विपक्ष के नेता की कुर्सी पर यानि बैकसीट पर बैठना पड़े या फिर मायावती जी की तरह दिल्ली का रूख करना पड़े और ऐसा आप पहले कर भी चुके हैं. याद कीजिए, याद आ जाएगा.
मित्रों, बिहार में जब घोटाला-दर-घोटाला करने के बाद लालू की गरीबों के मसीहा वाली छवि चूर-चूर हो गयी तब उनके पूर्व राजनीतिक सहयोगी नीतीश कुमार नए मुख्यमंत्री के रूप में सिंहासन पर विराजमान हुए. उन्होंने सत्ता में आते ही सुशासन का नारा दिया और इस शब्द का इतनी फिजूलखर्ची से प्रयोग किया कि उनका नाम ही सुशासन बाबू पड़ गया. परन्तु नारा लगाने और नारों को हकीकत का (पै)जामा पहनाने में हमेशा बड़ा भारी फर्क रहा है. कागज पर और आंकड़ों में तो सुशासन को जबरन ला दिया गया लेकिन जमीनी स्तर पर जनता कहीं पहले से भी ज्यादा बेहाल हो उठी. राज्य का विकास हुआ भी परन्तु उससे कहीं ज्यादा तेज गति से विकास हुआ राज्य में भ्रष्टाचार का. राज्य सरकार ने सामाजिक योजनाओं की राशि में वृद्धि की तो सरकारी बाबुओं और हाकिमों ने और भी अधिक अनुपात में रिश्वत की दर और परिमाण को बढ़ा दिया. जाहिर है जनता जब परेशान होगी तो आक्रोशित भी होगी और अपने आक्रोश को धरना, प्रदर्शन, ज्ञापन, बयानबाजी आदि के द्वारा अभिव्यक्त भी करेगी और उनकी अभिव्यक्ति को शब्द और शक्ति प्रदान करने का दायित्व होता है मीडिया पर. बिहार चूंकि देश का सबसे पिछड़ा प्रदेश है इसलिए स्वाभाविक तौर पर इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अख़बारों की हो जाती है. नीतीश ठहरे चतुर सुजान, चाणक्यावतार सो उन्होंने जनता को खुश करने के बजे मीडिया को ही साध लिया. ऐसा करना अपेक्षाकृत आसान भी था. वो कहते हैं न कि एकहि साधे सब सधै. अब करते रहिए धरना, प्रदर्शन, देते रहिए सरकारी कुनीतियों के विरुद्ध बयान; जब अख़बार उनको और उनसे सम्बंधित ख़बरों को छापेंगे ही नहीं तो सिवाय खून के घूँट पीकर रह जाने के आप कुछ कर ही नहीं पाएंगे.
मित्रों, पहले किसी लालच के पुतले को वश में वश में करने के लिए चांदी की खनक सुनानी पड़ती थी अब गाँधी बाबा का दर्शन करवाना पड़ता है. पहले जब मीडिया विकेन्द्रित था तब उसे मैनेज करना खासा मुश्किल अथवा असंभव-सा था परन्तु अब मीडिया का मतलब दो-चार कॉरपोरेट हाउस के आलावा और कुछ नहीं रह गया है. उदाहरण के लिए अगर बिहार में मीडिया को मैनेज करना है तो सिर्फ दैनिक जागरण, हिंदुस्तान टाइम्स, हिंदुस्तान, प्रभात खबर, आज, टाइम्स ऑफ़ इंडिया और राष्ट्रीय सहारा को मैनेज कर लीजिए फिर जनता के समक्ष सावन के अंधे की तरह शासन-प्रशासन में सिवाय हरियाली को देखने के कोई विकल्प ही नहीं रह जाएगा. जब नीतीश सत्ता में आए तो मीडिया सज-धज कर बिकने को तैयार बैठी थी और नीतीश सरकार खरीदने को आतुर हुई जा रही थी. देखते-देखते लोकतंत्र का वाच डॉग सचमुच के दुम हिलानेवाले कुत्ते की तरह व्यवहार करने लगा. फिर क्या था बिहार में अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अघोषित आपातकाल की स्थिति पैदा हो गयी. सरकार ने जिन्हें झुकने को कहा एकदम से बैठ गए, जिन मीडिया संस्थाओं को बैठने को कहा गया घुटनों पर आ टिके और जिन्हें घुटनों के बल रेंगने का आदेश मिला एकदम से आपत्तिजनक अवस्था में लेट ही गए.
मित्रों, सरकारी खजाने में जमा हुई रकम किसी मंत्री-मुख्यमंत्री के बाप की कमाई हुई नहीं होती कि जिसको वे जब चाहें, जहाँ चाहें, जैसे चाहें और जिस पर चाहें उड़ा डालें. सरकार को विज्ञापन जारी करना चाहिए लेकिन सिर्फ जनजागरूकता के लिए न कि मीडिया-घरानों को उपकृत कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए. जब आप आर.टी.आई. कार्यकर्ता शिवप्रकाश राय, राम प्रवेश सिंह यादव और विनय शर्मा जी के संयुक्त प्रयास से प्राप्त सरकारी आंकड़ों पर स्थूल दृष्टिपात भर करेंगे तो आपकी समझ में आसानी से यह बात आ जाएगी कि प्रिंट मीडिया में क्यों लगातार सरकार की वाहवाही और जयजयकार हो रही है? क्यों जनता द्वारा कानून को अपने हाथ में लेकर लगातार होली और होली के बाद वाले दिन दो स्थानों पर पीट-पीटकर दो अपराधियों को पुलिस की मौजूदगी में सरेआम मृत्युदंड देने और पुलिस के मूकदर्शक बने रहने की खबर भी अख़बारों में स्थान नहीं बना पाती है? बिहार सरकार ने वर्ष २००५ से मई २०११ के बीच मीडिया पर १ अरब, १० करोड़ से भी ज्यादा रूपये न्योछावर कर दिए. वित्तीय वर्ष २००५-०६ से लगातार यह राशि बढती गयी. इस लूट का सबसे ज्यादा फायदा मिला हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, आज और प्रभात खबर को. कुल राशि की लगभग आधी इन चारों के ही हाथ लगी. इनमें भी कुल विज्ञापन व्यय का लगभग एक तिहाई बिहार के सबसे बड़े अख़बार हिंदुस्तान को खुश करने के लिए फूंक दिया गया. कई बार तो एक ही विज्ञापन दो-दो पृष्ठों पर छापे गए. उदाहरण के लिए १६ जुलाई, २०११ को हिंदुस्तान में एक ही विज्ञापन दो पृष्ठों पृष्ठ संख्या ९ और १० पर क्रमशः सादा और रंगीन रूपों में दे दिया गया. इस तरह जब पानी की तरह पैसा बहाया जाएगा तो इस धनयुग में कौन ऐसा मूर्ख सत्यनिष्ठ होगा जो फिसल और मचल नहीं जाएगा और हुक्मफरमानी करने की सोंचेगा भी. ई.टी.वी. के प्रवीण बागी ने की और टीम सहित बाहर कर दिए गए, सुभाष पाण्डे ने की और जागरण परिवार ने उनका तबादला कर दिया. ऐसे अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं जो यह बताते हैं कि बिहार की मीडिया पर किस कदर नीतीश कुमार का प्रभाव कायम हो चुका है. लेकिन सावधान, हे दुश्शासन (सुशासन)!! झूठ के हाथ भले ही हजार होते हों पाँव आज भी नहीं होते. हर चीज की एक हद होती है तो सच को छिपाने की भी होती होगी. पब्लिक को कब तक बरगलाईयेगा; वो तो खुद ही भुक्तभोगी भी है और द्रष्टा भी? दुनियावालों से भले ही इस तिकड़म से सच्चाई छिप भी जाए परन्तु बिहार के गाँव-गाँव, शहर-शहर में रहनेवाली जनता तो सब कुछ जानती है. इसलिए सरकार के लिए श्रेयस्कर यही रहेगा कि बिहार अभिव्यक्तिक आपातकाल को तीन दशक बाद फिर से जीवन्त करने के बजाए अपने प्रदर्शन में सुधार करे. अपनी सोंच, नीति और नीयत में बदलाव करे. आईने को डराने-धमकाने और ललचाने से किसी को कुछ हासिल न तो हुआ है और न ही भविष्य में कभी होनेवाला ही है; बेहतर यही होगा कि अपनी सूरत को ही संवारने की भरपूर कोशिश की जाए. अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब जनता झूठ बोलनेवाले दर्पण को तो तोड़ डालेगी ही झूठी बाइस्कोपी सरकार को भी अपदस्थ कर देगी. शायद बहुत जल्द राज्य सरकार और राज्य के प्रेस पर काटजू साहब और भारतीय प्रेस परिषद् का डंडा भी चले और सड़े हुए प्याज की शल्कों की तरह वीभत्स सच्चाई की परतें नजर आने लगे. सरकार को समझना चाहिए कि बिहार की जनता ने उसे अभूतपूर्व बहुमत देकर एक अमूल्य अवसर दिया है राज्य और राज्यवासियो का यथार्थपरक विकास करने के लिए न कि जबरदस्ती सबकुछ ठीक-ठाक है का झूठा अहसास करवाने के लिए. मीडिया को भी अपने कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए अन्यथा सरकार की छवि तो उसके सुधारने से सुधरेगी नहीं खुद मीडिया की छवि भी विकृत हो जाएगी और तब शायद फिर से उसे बनाने में सदियों का समय लग जाए. अंत में मैं एक बार फिर नीतीश जी को सावधान करना चाहूँगा कि वक़्त रहते संभल जाईए, नहीं संभले तो हो सकता है कि अगले विधानसभा चुनाव के बाद आपको मुख्यमंत्री की ड्राइविंग सीट के बदले विपक्ष के नेता की कुर्सी पर यानि बैकसीट पर बैठना पड़े या फिर मायावती जी की तरह दिल्ली का रूख करना पड़े और ऐसा आप पहले कर भी चुके हैं. याद कीजिए, याद आ जाएगा.
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