मित्रों, ममता बहुत ही महान शब्द है, महान भाव है और महान अनुभूति तो है ही. परन्तु इस आलेख में हम जिस ममता का नीर-क्षीर-विश्लेषण करने बैठे हैं वह ममता शब्द नहीं ईन्सान है, भारत की एक महान नेता है. एक ऐसी नेता जिसकी संघर्षशीलता अपने आपमें एक उदाहरण है, एक ऐसी नेता जिसने अपनी निर्भीकता, जिद और जुझारूपन से भारत का इतिहास बदलकर रख दिया. लोगबाग जिस साम्यवाद को प. बंगाल का पर्यायवाची मानने लगे थे ममता ने उसे लम्बे संघर्ष के बाद प. बंगाल से उखाड़ फेंका. बेशक उनके संघर्ष करने का तरीका और तेवर वही था जो साम्यवादियों का था परन्तु जनता ने यह सोंचकर कदाचित उनके पक्ष में मतदान नहीं किया था कि सत्ता में आने के बाद वे छद्म या अघोषित साम्यवादी की तरह व्यवहार करेंगी. बल्कि माना तो यह जा रहा था कि वे नए ममतामयी तरीके से जनता को एक माँ की तरह अपनी निज संतान मानते हुए शासन करेंगी और बंगाल उनके नेतृत्व में रिवर्स गियर से टॉप गियर में आ जाएगा. परन्तु ऐसा हुआ नहीं. शायद ममता में जोश ज्यादा से भी बहुत ज्यादा था और होश था कम से भी बहुत कम.
मित्रों, आप ममता के एक साल के शासन पर निगाहें डालिए तो खुद-ब-खुद समझ जाएँगे कि ममता ने बंगाल की जनता को माँ का प्यार नहीं सिर्फ पिता की प्रताड़ना ही दी है. पिता के कठोर शासन में तो जनता उनसे पहले भी थी फिर सत्ता के बदलने से बदला क्या? कुछ भी तो नहीं, कुछ भी नहीं. तब भी एक दलीय शासन था और वास्तविक लोकतंत्र दूर की कौड़ी थी आज भी एक दलीय शासन है और वास्तविक लोकतंत्र एक स्वप्न है. तब भी पार्टी कैडरों की रंगदारी थी आज भी है. केवल नाम बदल गए हैं शासन का चरित्र नहीं बदला.
मित्रों, ममता ने तानाशाही की दिशा में पिछले शासन से एक कदम और आगे निकलते हुए आदेश जारी किया है कि हम जिसे अखबार कहेंगे वही अख़बार माना जाएगा और जनता को सिर्फ उन्हें ही पढना पड़ेगा. जो वाकया जाधवपुर के एक प्रोफ़ेसर के साथ हुआ उससे यह भी स्पष्ट है कि उनके खिलाफ अगर किसी ने कार्टून बनाने या व्यंग्य लिखने की हिमाकत की तो पार्टी कैडर उससे उसकी जिंदगी छीन लेंगे और अगर जीने दिया भी तो वह बस नाममात्र की जिंदगी होगी. इतना ही नहीं ममता ने अपने पार्टी कैडरों के लिए यह फरमान भी जारी किया है कि वे माकपा सदस्यों व उनके परिजनों से न तो सम्बन्ध ही रखें और न ही विवाह करें. परन्तु अगर किसी तृणमूल कार्यकर्ता का दिल किसी माकपा कार्यकर्ता पर आ गया तो? तो क्या वह इस बात का इंतजार करेगा कि कब ममता अपने आदेश को परिवर्तित करती है? वैसे दिल पर हुकूमत का आइडिया बुरा नहीं है परन्तु तरीका निहायत अफसोसनाक है. दिल और दिलदार मौत को भी ठेंगा दिखा देते हैं डंडों से क्या डरेंगे, इसलिए उन्हें प्यार से जीतना पड़ेगा.
मित्रों, आप ममता के एक साल के शासन पर निगाहें डालिए तो खुद-ब-खुद समझ जाएँगे कि ममता ने बंगाल की जनता को माँ का प्यार नहीं सिर्फ पिता की प्रताड़ना ही दी है. पिता के कठोर शासन में तो जनता उनसे पहले भी थी फिर सत्ता के बदलने से बदला क्या? कुछ भी तो नहीं, कुछ भी नहीं. तब भी एक दलीय शासन था और वास्तविक लोकतंत्र दूर की कौड़ी थी आज भी एक दलीय शासन है और वास्तविक लोकतंत्र एक स्वप्न है. तब भी पार्टी कैडरों की रंगदारी थी आज भी है. केवल नाम बदल गए हैं शासन का चरित्र नहीं बदला.
मित्रों, ममता ने तानाशाही की दिशा में पिछले शासन से एक कदम और आगे निकलते हुए आदेश जारी किया है कि हम जिसे अखबार कहेंगे वही अख़बार माना जाएगा और जनता को सिर्फ उन्हें ही पढना पड़ेगा. जो वाकया जाधवपुर के एक प्रोफ़ेसर के साथ हुआ उससे यह भी स्पष्ट है कि उनके खिलाफ अगर किसी ने कार्टून बनाने या व्यंग्य लिखने की हिमाकत की तो पार्टी कैडर उससे उसकी जिंदगी छीन लेंगे और अगर जीने दिया भी तो वह बस नाममात्र की जिंदगी होगी. इतना ही नहीं ममता ने अपने पार्टी कैडरों के लिए यह फरमान भी जारी किया है कि वे माकपा सदस्यों व उनके परिजनों से न तो सम्बन्ध ही रखें और न ही विवाह करें. परन्तु अगर किसी तृणमूल कार्यकर्ता का दिल किसी माकपा कार्यकर्ता पर आ गया तो? तो क्या वह इस बात का इंतजार करेगा कि कब ममता अपने आदेश को परिवर्तित करती है? वैसे दिल पर हुकूमत का आइडिया बुरा नहीं है परन्तु तरीका निहायत अफसोसनाक है. दिल और दिलदार मौत को भी ठेंगा दिखा देते हैं डंडों से क्या डरेंगे, इसलिए उन्हें प्यार से जीतना पड़ेगा.
मित्रों, यदि आप राष्ट्रीय समाचार-पत्रों के नियमित पाठक और राष्ट्रीय समाचार-चैनलों के नियमित दर्शक हैं तो आपने पाया होगा कि ममता जबसे प. बंगाल में सत्तारूढ़ हुई हैं बंगाल से अच्छी ख़बरों की आमद ही रूक गयी है. जब भी ख़बरें आती हैं तो या तो रेल दुर्घटना की या फिर अस्पतालों में बच्चों की थोक के भाव में दम तोड़ने की या अस्पताल में आग लग जाने की या फिर राज्य में गरीबों द्वारा किडनी बेचने की. परन्तु अपनी-हम सबकी ममता दीदी न जाने किस दुनिया में खोई हुई हैं? उन्हें तो बस केंद्र सरकार की कान ऐंठने या बाहें मरोड़ने में या फिर तुगलकी आदेश जारी करने में ही मजा आ रहा है. जोश अच्छी बात है, युद्धप्रियता भी बुरी नहीं लेकिन जोश तभी अच्छा होता है जब उसके पीछे होश भी हो और युद्धप्रियता युद्धकाल में ही फब्ती है. शांतिकाल में भी, निर्माण-काल में भी अगर सैनिक या शासक विध्वंस और मारने-काटने पर ही उतारू रहे तो ऐसी वीरता के वरदान के बदले अभिशाप बन जाने के आसार ही ज्यादा होते हैं. ममता जी की भी वही समस्या लगती है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चर्चिल की थी और इसलिए इंग्लैंड की प्रबुद्ध जनता ने उन्हें युद्ध में विजयी कराने का श्रेय देते हुए भी विपक्ष में बिठा दिया था. ममता जी भी अगर ऐसा ही चाहती हैं तो फिर उन्हें अपने में किसी तरह का बदलाव लाने की आवश्यकता नहीं है. जिस तरह से वे काम कर रही हैं करती रहें और अगले विधानसभा चुनाव का इंतजार करें. परन्तु अगर उन्हें बंगाल का पुनर्निर्माण करना है, कंगाल बंगाल को बदलना है और लम्बे समय तक मुख्यमंत्री बने रहना है तो कृपया अपनी तुनुकमिज़ाज़ी को परे रखें और सबको यहाँ तक कि साम्यवादियों को भी साथ में लेते हुए राज्य का विकास करें. युद्ध का समय जा चुका है अब निर्माण की बेला है और निर्माण में प्रतिकार नहीं सहकार की जरुरत होती है. भारत में किसी की तानाशाही न तो चली है और न चलेगी, न तो रही है और न तो रहेगी. देश-प्रदेश की असली मालिक जनता है नेता नहीं इसलिए ममताजी को जनता के दुःख-दर्द में शरीक होकर उसे कम करना चाहिए न कि डंडा दिखाकर उनको इच्छित दिशा में हांकने के प्रयास करने चाहिए.
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