मित्रों, किसी भी सभ्य और लोकतान्त्रिक राष्ट्र की आधारशिला यह है कि वह अपने नागरिकों में लिंग, धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सबके साथ समान व्यवहार करे. वास्तव में राज्य द्वारा नागरिकों से समान व्यवहार की यह प्रक्रिया समाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन तार्किक सामाजिक मूल्यों की स्थापना करती है जो किसी भी राष्ट्र के जीवन और विकास की आधारभूत आवश्यकता होती है. परन्तु जब समान व्यवहार की यह प्रक्रिया समाज के रूढ़िवादी विचारों, धार्मिक कट्टरता, व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वार्थों से बाधित होती है तो इसकी परिणति एक शोषणकारी व्यवस्था के सृजन के रूप में होती है. और तब इस शोषण के लिए जिम्मेदार न सिर्फ स्वार्थपूर्ण धार्मिक एवं सामाजिक मूल्य होते हैं बल्कि राज्य भी इस शोषण का संरक्षक बन जाता है.
मित्रों, भारतीय संविधान-निर्माताओं ने लोकतान्त्रिक आदर्शों एवं मूल्यों से प्रेरित होकर प्रत्येक नागरिक को समान व्यवहार का आश्वासन दिया. संविधान के अनुच्छेद १४ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समानता का अधिकार होगा अर्थात राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति लिंग, धर्म आदि के भेद के बिना एक जैसी विधि द्वारा शासित होगा और भविष्य में यह अवधारणा और भी सुदृढ़ हो सके इसलिए अनुच्छेद ४४ में राज्य को यह निर्देश दिया गया कि वह इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समान नागरिक संहिता की स्थापना करे. परन्तु लगता है कि राज्य इस निर्देश को पूरी तरह भूल गया है और समान नागरिक संहिता के द्वारा देश की एकता और अखंडता को और भी मजबूत करने के बदले नागरिकों को बाँटने में लीन हो गया है. जहाँ पहले हिन्दुओं और सिखों के लिए एक नागरिक संहिता थी अब इन पर अलग-अलग संहिताएँ लागू होंगी. इस तरह के कदमों से न सिर्फ जनता बँटेगी वरन विभाजनकारी शक्तियों और विचारधाराओं को भी प्रश्रय प्राप्त होगा.
मित्रों, वास्तव में संविधान-निर्माताओं में समानता की भावना राष्ट्रीय आन्दोलनों की विभिन्न घटनाओं तथा एक सुदृढ़ राष्ट्र की स्थापना के उच्च आदर्शों से प्रेरित थी. राष्ट्रीय नेताओं का यह मत था कि समान नागरिक संहिता के माध्यम से परंपरागत एवं रूढ़िवादी सामाजिक तथा धार्मिक मूल्यों का तार्किकीकरण किया जा सकेगा जिससे एक समता आधारित राष्ट्र कि स्थापना हो सकेगी. साथ ही साम्प्रदायिकता, जातिवाद, लिंगभेद जैसी समस्याओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा.
मित्रों, यद्यपि पूरे भारत में अंग्रेजों के ज़माने से ही समान आपराधिक संहिता लागू है लेकिन समान नागरिक संहिता के प्रयास राजनैतिक तथा धार्मिक स्वार्थों में फँस कर रह गए हैं. वास्तव में यह मुद्दा स्त्री-पुरुष समानता का है जबकि तुच्छ स्वार्थों के कारण इसे संप्रदाय-विरोध से जोड़ दिया गया है. संपत्ति उत्तराधिकार, विवाह, तलाक, गोद लेना जैसे मुद्दे प्रत्येक धर्म की धार्मिक विधियों से नियमित होते हैं. विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों के कारण स्त्रियों को इन विषयों पर या तो बहुत सीमित अधिकार है या फिर कोई अधिकार ही नहीं दिया गया है. इस प्रकार लगभग आधा राष्ट्र इन रूढ़ियों के कारण मूल व स्वाभाविक अधिकारों से वंचित है. ऐसे में समान नागरिक संहिता का उद्देश्य मात्र यह है कि विभिन्न धर्मों की विधियों को तार्किक रूप दिया जाए ताकि स्त्रियों को उनके स्वाभाविक मानव-अधिकार प्राप्त हो सके.
मित्रों, यह महत्वपूर्ण है कि समान नागरिक संहिता किसी धार्मिक विधि को समाप्त नहीं करती बल्कि सिर्फ विभेदकारी रूढ़ियों को समाप्त करती है. इस सन्दर्भ में हिन्दू तथा ईसाई धार्मिक विधियों को संहिताबद्ध करके इन धर्मों से विभेद समाप्त करने के प्रयास नेहरु के काल में ही हुए थे. अभी कुछ ही दिन पहले सिखों के लिए उनको हिन्दुओं से अलग मानते हुए उनके लिए अलग नागरिक संहिता बना दी गयी है. यानि समान नागरिक संहिता के सन्दर्भ में देश की गाड़ी और भी पीछे रिवर्स गियर में चलाई जा रही है.
मित्रों, जहाँ तक मुस्लिम धार्मिक विधियों के संहिताकरण के प्रयासों का सवाल है तो वे धार्मिक स्वतंत्रता के हनन, अल्पसंख्यकों के अस्तित्व संकट जैसे व्यक्तिगत व राजनैतिक कुतर्कों के कारण असफल ही रहे हैं. परंतु समानता का इस दिशा में किया गया कोई भी प्रयास क्या वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की भावना के विपरीत है? भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक विषयों पर पूर्ण स्वतंत्रता होगी, राज्य का स्वयं का कोई धर्म नहीं होगा और वह धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप भी नहीं करेगा. परन्तु यह स्पष्ट होना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में किसी के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता है. स्वयं शाहबानो वाद (१९८५) में उच्चतम न्यायालय का भी यही मत था कि महज कुछ अमानवीय धार्मिक रूढ़ियों के आधार पर किसी को इतना अधिकारविहीन कर देना कि उसका अस्तित्व ही संकटमय हो जाए, पूर्णतः अन्यायपूर्ण है. वास्तव में समान नागरिक संहिता धर्म को तार्किक और उदार बनाती है. अतः हमें यह समझना होगा कि एक ऐसे धर्म को संरक्षण देना जो कि लिंग के आधार पर किसी से उसकी समानता तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार ही छीन लेता हो, धर्मनिरपेक्षता नहीं है. वास्तव में आज के परिवेश में किसी धर्म की अतार्किक एवं रूढ़िवादी भावनाओं के संरक्षण हेतु राष्ट्र का बलिदान नहीं दिया जा सकता है. धर्मनिरपेक्षता, जो भेदभाव और शोषण को मौन समर्थन दे; उसे राष्ट्रहित में छोड़ देना ही उचित होगा.
मित्रों, सत्य तो यह है कि समान नागरिक संहिता का न होना ही हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के विरुद्ध है. समान नागरिक संहिता सभी धर्मों की स्त्रियों को समान दर्जा देती है, इस प्रकार देश का लगभग आधा मानव संसाधन जो गलत धार्मिक रूढ़ियों के कारण अनुत्पादक पड़ा था अब राष्ट्र-निर्माण में अपनी योग्यता व क्षमता का योगदान दे सकेगा. वास्तव में जब तक जन-जन का विकास नहीं होगा तब तक एक लोकतान्त्रिक एवं दृढ राष्ट्र की स्थापना असंभव है. समान नागरिक संहिता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से सामाजिक विकास को भी सुनिश्चित करती है. सम्पूर्ण समाज का विकास तभी संभव है जबकि प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अधिकार एवं अवसर मिले. दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति स्वविकास करता हुआ सामाजिक विकास में अपना योगदान देने में सक्षम हो. ऐसे में समान नागरिक संहिता विभिन्न भेदभाव आधारित बाधाओं को दूर कर प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम बनाती है. इस तरह संहिता के अभाव में सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी बाधित हुई है. आज सैद्धांतिक और कानूनी रूप से हिन्दू या ईसाई स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, भरण-पोषण आदि के समान अधिकार प्राप्त हैं जो महिला सशक्तिकरण में सहायक तो हैं ही लेकिन साथ-ही-साथ उन्हें समाज पर आश्रित वस्तु के बजाए एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित करते हैं. साथ ही हिन्दू या ईसाई धर्म अपने अनुनायियों के विवाह, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, व्यवसाय आदि के विषय में कोई लिंगाधारित प्रतिबन्ध नहीं लगाता है. लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम धर्म में समान नागरिक संहिता के अभाव में जहाँ पुरुषों को विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के अतार्किक अधिकार मिले हुए हैं वहीं स्त्रियों को शोषण से कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है. पुरुषों के इन अतार्किक अधिकारों का परिणाम है कि स्त्रियाँ पूर्णतः सामाजिक असुरक्षा की भावना में जीवन व्यतीत करती हैं. क्या इसके लिए समान नागरिक संहिता का न होना जिम्मेदार नहीं है? विवाद का कारण भी यही है कि संहिता के आने के बाद मुस्लिम पुरुषों द्वारा अधिकारों के मनमाने प्रयोग पर प्रतिबन्ध लग जाएगा. उन्हें स्त्रियों को भरण-पोषण, उत्तराधिकार जैसे समान अधकार देने होंगे क्योंकि समान नागरिक संहिता में मुस्लिम महिलाओं के संरक्षण के लिए तार्किक नियम-कानून होंगे. लेकिन राजनैतिक स्वार्थों ने मुद्दे को समानता के स्थान पर साम्प्रदायिकता तथा धार्मिक हस्तक्षेप का आवरण पहना दिया है. परिणामस्वरूप समाज को दोहरा नुकसान हो रहा है. पहला यह कि मुस्लिम स्त्रियाँ जो देश की जनसंख्या का लगभग ८-१० प्रतिशत हैं अभी भी समाज की मुख्यधारा से कटी हुई हैं तथा शिक्षा एवं अधिकारों के अभाव में हर तरह से समाज पर आश्रित हैं. इस प्रकार देश का लगभग ८-१०% मानव-संसाधन अनुत्पादक होने के साथ-साथ सामाजिक विकास में समस्या बना हुआ है. दूसरा नुकसान यह है समान नागरिक संहिता की राजनीति ने समाज में बिखराव पैदा किया है तथा लोकतंत्र का आधार अर्थात विधि का शासन अतार्किक धार्मिक कुरीतियों के समक्ष लाचार-सा हो गया है.
मित्रों, आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्या का जो मुख्य कारण है उसी में से समाधान की खोज की जाए. अर्थात धर्म के उदारवादी दृष्टिकोण की स्थापना एवं प्रचार हो, उदार धार्मिक नेताओं और बुद्धिजीवियों को इस विषय पर विश्वास में लेते हुए उनके माध्यम से सामान्य जन के मध्य समान नागरिक संहिता के उद्देश्य और आवश्यकता को स्पष्ट किया जाए. शिक्षा को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष स्वरुप दिया जाए ताकि नई पीढी में सामाजिक तथा धार्मिक विषयों पर उदारता की भावना का विकास हो. साथ ही शिक्षा-व्यवस्था ऐसी हो कि सभी धर्मों तथा सभी व्यक्तियों को आसानी से सुलभ हो सके. इन सबका परिणाम यह होगा कि सभी वर्गों में उदारता तथा राष्ट्रीय हित की भावना दृढ होगी और वे स्वयं अतार्किक अधिकारों का त्याग कर नए सामाजिक परिवर्तन हेतु स्वयं को तैयार कर सकेंगे.
मित्रों, अंततः निष्कर्ष यही निकलता है कि राष्ट्रहित में आवश्यक प्रत्येक प्रक्रिया का पालन होना चाहिए. राष्ट्र किसी भी धर्म से श्रेष्ठ है, अतः ऐसी अतार्किक धार्मिक रूढ़ियाँ जो हमारे राष्ट्रीय मूल्यों के विपरीत हों तथा उसके विकास में बाधा उत्पन्न कर रही हों उन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. समान नागरिक संहिता का किसी भी आधार पर विरोध उचित नहीं है अतः सभी विरोधों के बावजूद इसको शीघ्रातिशीघ्र लागू किया जाना चाहिए.
मित्रों, भारतीय संविधान-निर्माताओं ने लोकतान्त्रिक आदर्शों एवं मूल्यों से प्रेरित होकर प्रत्येक नागरिक को समान व्यवहार का आश्वासन दिया. संविधान के अनुच्छेद १४ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समानता का अधिकार होगा अर्थात राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति लिंग, धर्म आदि के भेद के बिना एक जैसी विधि द्वारा शासित होगा और भविष्य में यह अवधारणा और भी सुदृढ़ हो सके इसलिए अनुच्छेद ४४ में राज्य को यह निर्देश दिया गया कि वह इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु समान नागरिक संहिता की स्थापना करे. परन्तु लगता है कि राज्य इस निर्देश को पूरी तरह भूल गया है और समान नागरिक संहिता के द्वारा देश की एकता और अखंडता को और भी मजबूत करने के बदले नागरिकों को बाँटने में लीन हो गया है. जहाँ पहले हिन्दुओं और सिखों के लिए एक नागरिक संहिता थी अब इन पर अलग-अलग संहिताएँ लागू होंगी. इस तरह के कदमों से न सिर्फ जनता बँटेगी वरन विभाजनकारी शक्तियों और विचारधाराओं को भी प्रश्रय प्राप्त होगा.
मित्रों, वास्तव में संविधान-निर्माताओं में समानता की भावना राष्ट्रीय आन्दोलनों की विभिन्न घटनाओं तथा एक सुदृढ़ राष्ट्र की स्थापना के उच्च आदर्शों से प्रेरित थी. राष्ट्रीय नेताओं का यह मत था कि समान नागरिक संहिता के माध्यम से परंपरागत एवं रूढ़िवादी सामाजिक तथा धार्मिक मूल्यों का तार्किकीकरण किया जा सकेगा जिससे एक समता आधारित राष्ट्र कि स्थापना हो सकेगी. साथ ही साम्प्रदायिकता, जातिवाद, लिंगभेद जैसी समस्याओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा.
मित्रों, यद्यपि पूरे भारत में अंग्रेजों के ज़माने से ही समान आपराधिक संहिता लागू है लेकिन समान नागरिक संहिता के प्रयास राजनैतिक तथा धार्मिक स्वार्थों में फँस कर रह गए हैं. वास्तव में यह मुद्दा स्त्री-पुरुष समानता का है जबकि तुच्छ स्वार्थों के कारण इसे संप्रदाय-विरोध से जोड़ दिया गया है. संपत्ति उत्तराधिकार, विवाह, तलाक, गोद लेना जैसे मुद्दे प्रत्येक धर्म की धार्मिक विधियों से नियमित होते हैं. विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़ियों के कारण स्त्रियों को इन विषयों पर या तो बहुत सीमित अधिकार है या फिर कोई अधिकार ही नहीं दिया गया है. इस प्रकार लगभग आधा राष्ट्र इन रूढ़ियों के कारण मूल व स्वाभाविक अधिकारों से वंचित है. ऐसे में समान नागरिक संहिता का उद्देश्य मात्र यह है कि विभिन्न धर्मों की विधियों को तार्किक रूप दिया जाए ताकि स्त्रियों को उनके स्वाभाविक मानव-अधिकार प्राप्त हो सके.
मित्रों, यह महत्वपूर्ण है कि समान नागरिक संहिता किसी धार्मिक विधि को समाप्त नहीं करती बल्कि सिर्फ विभेदकारी रूढ़ियों को समाप्त करती है. इस सन्दर्भ में हिन्दू तथा ईसाई धार्मिक विधियों को संहिताबद्ध करके इन धर्मों से विभेद समाप्त करने के प्रयास नेहरु के काल में ही हुए थे. अभी कुछ ही दिन पहले सिखों के लिए उनको हिन्दुओं से अलग मानते हुए उनके लिए अलग नागरिक संहिता बना दी गयी है. यानि समान नागरिक संहिता के सन्दर्भ में देश की गाड़ी और भी पीछे रिवर्स गियर में चलाई जा रही है.
मित्रों, जहाँ तक मुस्लिम धार्मिक विधियों के संहिताकरण के प्रयासों का सवाल है तो वे धार्मिक स्वतंत्रता के हनन, अल्पसंख्यकों के अस्तित्व संकट जैसे व्यक्तिगत व राजनैतिक कुतर्कों के कारण असफल ही रहे हैं. परंतु समानता का इस दिशा में किया गया कोई भी प्रयास क्या वास्तव में धर्मनिरपेक्षता की भावना के विपरीत है? भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक विषयों पर पूर्ण स्वतंत्रता होगी, राज्य का स्वयं का कोई धर्म नहीं होगा और वह धार्मिक विषयों में हस्तक्षेप भी नहीं करेगा. परन्तु यह स्पष्ट होना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में किसी के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता है. स्वयं शाहबानो वाद (१९८५) में उच्चतम न्यायालय का भी यही मत था कि महज कुछ अमानवीय धार्मिक रूढ़ियों के आधार पर किसी को इतना अधिकारविहीन कर देना कि उसका अस्तित्व ही संकटमय हो जाए, पूर्णतः अन्यायपूर्ण है. वास्तव में समान नागरिक संहिता धर्म को तार्किक और उदार बनाती है. अतः हमें यह समझना होगा कि एक ऐसे धर्म को संरक्षण देना जो कि लिंग के आधार पर किसी से उसकी समानता तथा सामाजिक सुरक्षा का अधिकार ही छीन लेता हो, धर्मनिरपेक्षता नहीं है. वास्तव में आज के परिवेश में किसी धर्म की अतार्किक एवं रूढ़िवादी भावनाओं के संरक्षण हेतु राष्ट्र का बलिदान नहीं दिया जा सकता है. धर्मनिरपेक्षता, जो भेदभाव और शोषण को मौन समर्थन दे; उसे राष्ट्रहित में छोड़ देना ही उचित होगा.
मित्रों, सत्य तो यह है कि समान नागरिक संहिता का न होना ही हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के विरुद्ध है. समान नागरिक संहिता सभी धर्मों की स्त्रियों को समान दर्जा देती है, इस प्रकार देश का लगभग आधा मानव संसाधन जो गलत धार्मिक रूढ़ियों के कारण अनुत्पादक पड़ा था अब राष्ट्र-निर्माण में अपनी योग्यता व क्षमता का योगदान दे सकेगा. वास्तव में जब तक जन-जन का विकास नहीं होगा तब तक एक लोकतान्त्रिक एवं दृढ राष्ट्र की स्थापना असंभव है. समान नागरिक संहिता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से सामाजिक विकास को भी सुनिश्चित करती है. सम्पूर्ण समाज का विकास तभी संभव है जबकि प्रत्येक व्यक्ति को विकास के समान अधिकार एवं अवसर मिले. दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति स्वविकास करता हुआ सामाजिक विकास में अपना योगदान देने में सक्षम हो. ऐसे में समान नागरिक संहिता विभिन्न भेदभाव आधारित बाधाओं को दूर कर प्रत्येक व्यक्ति को सक्षम बनाती है. इस तरह संहिता के अभाव में सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी बाधित हुई है. आज सैद्धांतिक और कानूनी रूप से हिन्दू या ईसाई स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, भरण-पोषण आदि के समान अधिकार प्राप्त हैं जो महिला सशक्तिकरण में सहायक तो हैं ही लेकिन साथ-ही-साथ उन्हें समाज पर आश्रित वस्तु के बजाए एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित करते हैं. साथ ही हिन्दू या ईसाई धर्म अपने अनुनायियों के विवाह, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, व्यवसाय आदि के विषय में कोई लिंगाधारित प्रतिबन्ध नहीं लगाता है. लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम धर्म में समान नागरिक संहिता के अभाव में जहाँ पुरुषों को विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के अतार्किक अधिकार मिले हुए हैं वहीं स्त्रियों को शोषण से कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है. पुरुषों के इन अतार्किक अधिकारों का परिणाम है कि स्त्रियाँ पूर्णतः सामाजिक असुरक्षा की भावना में जीवन व्यतीत करती हैं. क्या इसके लिए समान नागरिक संहिता का न होना जिम्मेदार नहीं है? विवाद का कारण भी यही है कि संहिता के आने के बाद मुस्लिम पुरुषों द्वारा अधिकारों के मनमाने प्रयोग पर प्रतिबन्ध लग जाएगा. उन्हें स्त्रियों को भरण-पोषण, उत्तराधिकार जैसे समान अधकार देने होंगे क्योंकि समान नागरिक संहिता में मुस्लिम महिलाओं के संरक्षण के लिए तार्किक नियम-कानून होंगे. लेकिन राजनैतिक स्वार्थों ने मुद्दे को समानता के स्थान पर साम्प्रदायिकता तथा धार्मिक हस्तक्षेप का आवरण पहना दिया है. परिणामस्वरूप समाज को दोहरा नुकसान हो रहा है. पहला यह कि मुस्लिम स्त्रियाँ जो देश की जनसंख्या का लगभग ८-१० प्रतिशत हैं अभी भी समाज की मुख्यधारा से कटी हुई हैं तथा शिक्षा एवं अधिकारों के अभाव में हर तरह से समाज पर आश्रित हैं. इस प्रकार देश का लगभग ८-१०% मानव-संसाधन अनुत्पादक होने के साथ-साथ सामाजिक विकास में समस्या बना हुआ है. दूसरा नुकसान यह है समान नागरिक संहिता की राजनीति ने समाज में बिखराव पैदा किया है तथा लोकतंत्र का आधार अर्थात विधि का शासन अतार्किक धार्मिक कुरीतियों के समक्ष लाचार-सा हो गया है.
मित्रों, आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्या का जो मुख्य कारण है उसी में से समाधान की खोज की जाए. अर्थात धर्म के उदारवादी दृष्टिकोण की स्थापना एवं प्रचार हो, उदार धार्मिक नेताओं और बुद्धिजीवियों को इस विषय पर विश्वास में लेते हुए उनके माध्यम से सामान्य जन के मध्य समान नागरिक संहिता के उद्देश्य और आवश्यकता को स्पष्ट किया जाए. शिक्षा को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष स्वरुप दिया जाए ताकि नई पीढी में सामाजिक तथा धार्मिक विषयों पर उदारता की भावना का विकास हो. साथ ही शिक्षा-व्यवस्था ऐसी हो कि सभी धर्मों तथा सभी व्यक्तियों को आसानी से सुलभ हो सके. इन सबका परिणाम यह होगा कि सभी वर्गों में उदारता तथा राष्ट्रीय हित की भावना दृढ होगी और वे स्वयं अतार्किक अधिकारों का त्याग कर नए सामाजिक परिवर्तन हेतु स्वयं को तैयार कर सकेंगे.
मित्रों, अंततः निष्कर्ष यही निकलता है कि राष्ट्रहित में आवश्यक प्रत्येक प्रक्रिया का पालन होना चाहिए. राष्ट्र किसी भी धर्म से श्रेष्ठ है, अतः ऐसी अतार्किक धार्मिक रूढ़ियाँ जो हमारे राष्ट्रीय मूल्यों के विपरीत हों तथा उसके विकास में बाधा उत्पन्न कर रही हों उन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. समान नागरिक संहिता का किसी भी आधार पर विरोध उचित नहीं है अतः सभी विरोधों के बावजूद इसको शीघ्रातिशीघ्र लागू किया जाना चाहिए.
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