मित्रों,अगर आप गांधी की मृत्यु से जुड़े प्रश्नों के उत्तर किताबों में या गूगल पर ढूंढ़ेगे तो आपको यही बताया जाएगा कि 30 जनवरी,1948 को शाम के 5 बजकर 03 मिनट पर नाथूराम गोडसे नामक एक हिन्दू उन्मादी ने गांधी की हत्या गोली मारकर कर दी थी। झूठ है यह सफेद झूठ और शायद इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ भी। गांधी की हत्या एक बार नहीं अनगिनत बार में की गई है। उनकी पहली बार हत्या तो 1934 में ही उनके चेलों ने कर दी थी। तब गांधी अपने राजनैतिक शिष्यों के रवैये से इस कदर क्षुब्ध हो गए थे कि उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता का हमेशा के लिए परित्याग ही कर दिया था। सन् 1942 में भी नेहरूनीत कांग्रेस आरंभ में भारत छोड़ो आंदोलन के लिए तैयार नहीं थी और तब गांधी ने उसे धमकाते हुए कहा था कि मैं साबरमती के मुट्ठीभर बालू से कांग्रेस से भी बड़ा संगठन खड़ा कर सकता हूँ।
मित्रों,30 जनवरी,1948 को भले ही उनकी जैववैज्ञानिक हत्या हुई हो परन्तु वह उनकी वास्तविक हत्या नहीं थी। उनकी वास्तविक हत्या तो की गई स्वयं उनके चेलों द्वारा और उनके संगठन द्वारा जिसको हम आज भी कांग्रेस के नाम से जानते हैं उनके जीवित रहते भी और उनके मरने के बाद भी,वो भी धीरे-धीरे उनकी विचारधारा को खूंटी पर टांगकर। सबसे पहले तो गांधी के विचारों को उनकी शारीरिक मृत्यु के तत्काल बाद भारतीय संविधान में कोना दिखा दिया गया और उनके कई विचारों को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में (अँचार) डालकर छोड़ दिया गया। उदाहरण के लिए गांधी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में गोहत्या पर पूरी तरह से प्रतिबंध हो। उनका मानना था कि गोमाता जन्म देनेवाली माँ से कहीं बढ़कर है। माँ तो साल दो साल दूध पिलाकर हमसे फिर जीवन-भर सेवा की आशा रखती है। पर गोमाता को तो सिवा दाने और घास के कोई आवश्यकता ही नहीं। (हरिजन सेवक,21-9-1940) इस संबंध में उनका यहाँ तक मानना था कि हिन्दुओं की परीक्षा तिलक करने,स्वरशुद्ध मंत्र पढ़ने,तीर्थयात्रा करने या जात-बिरादरी के छोटे-छोटे नियमों का कट्टरता से पालन करने से नहीं होगी,बल्कि गाय को बचाने की उनकी शक्ति से होगी। (यंग इंडिया,6-1-1921) संविधान-निर्माताओं ने जिनमें से लगभग सारे-के-सारे गांधीजी के शिष्य थे ने गोवध निषेध को संविधान में स्थान जरूर दिया लेकिन कबाड़ अर्थात् नीति निर्देशक तत्वों में (अनुच्छेद 48) और अब तो वर्तमान सरकार का एक मंत्री आनंद शर्मा उल्टे गोहत्या को देशहित में बता रहा है। वाह री गांधी की कांग्रेस और उसकी सरकार खूब सम्मान दिया तुमलोगों ने गांधी को!
मित्रों,ऐसा नहीं है कि गांधी जी को कांग्रेसियों द्वारा भविष्य में की जा सकने वाली करतूतों का पूर्वाभास नहीं था। वे समझ गए थे कि भविष्य में कांग्रेस चरित्रहीनों की पार्टी हो जाएगी। तभी तो उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि अगर कांग्रेस को लोकसेवा की ही संस्था रहना है,तो मंत्री 'साहब लोगों' की तरह नहीं रह सकते और न सरकारी साधनों का उपयोग निजी कामों के लिए ही कर सकते हैं। (हरिजन,29-9-1946) परन्तु हमारे नेता आज सरकारी पैसे पर जमकर विदेश-यात्रा करते हैं और वह भी सपरिवार देसी यात्रा की तो बात ही छोड़िए। उनका सबकुछ फ्री होता है बिजली,पानी,यात्रा,भोजन और टेलीफोन। ऊपर से उनको मनमाफिक घोटाले करने की भी छूट होती है। यहाँ तक कि भूतपूर्व हो जाने के बाद जब वो सरकारी आवास खाली करते हैं तो फर्निचर तक उठा ले जाते हैं चाहे वे राष्ट्रपति के गरिमामय पद पर ही क्यों न हों। राजनीति में भाई-भतीजावाद की आशंका भी गांधीजी की दूरदर्शी और तीक्ष्ण निगाहों से बच नहीं पाई थी। उनका कहना था कि पद-ग्रहण से यदि पद का सदुपयोग किया जाए तो कांग्रेस की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और यदि पद का दुरूपयोग होगा तो वह अपनी पुरानी प्रतिष्ठा भी खो देगी। यदि दूसरे परिणाम से बचना हो तो मंत्रियों और विधानसभा के सदस्यों को अपने वैयक्तिक और सार्वजनिक आचरण की जाँच करते रहना होगा। उन्हें, जैसा अंग्रेजी लोकोक्ति में कहा गया है,सीजर की पत्नी की तरह अपने प्रत्येक व्यवहार में संदेह से परे होना चाहिए। वे अपने पद का उपयोग अपने या अपने रिश्तेदारों अथवा मित्रों के लाभ के लिए नहीं कर सकते। अगर रिश्तेदारों या मित्रों की नियुक्ति किसी पद पर होती है,तो उसका कारण यही होना चाहिए कि उस पद के तमाम उम्मीदवारों में वे सबसे ज्यादा योग्य हैं और बाजार में उनका मूल्य उस सरकारी पद से उन्हें जो कुछ मिलेगा उससे कहीं ज्यादा है। (हरिजन,23-4-1938) मेरा पूरा विश्वास है कि और किसी ने गांधीजी की इन पंक्तियों को भले ही नहीं पढ़ा हो सुबोधकांत सहाय जैसे कांग्रेसियों ने जरूर पढ़ा होगा तभी तो वे इसके ठीक विपरीत आचरण कर रहे हैं। अपने इसी आलेख में गांधीजी आगे फरमाते हैं कि मंत्रियों और कांग्रेस के टिकट पर चुने गए विधान-सभा के सदस्यों को अपने कर्त्तव्य के पालन में निर्भय होना चाहिए। उन्हें हमेशा अपना स्थान या पद खोने के लिए तैयार रहना चाहिए। विधान-सभाओं की सदस्यता या उसके आधार पर मिलनेवाले पद का एकमात्र मूल्य यही है कि वह सम्बन्धित व्यक्तियों को कांग्रेस की प्रतिष्ठा और ताकत बढ़ाने की योग्यता प्रदान करता है;इससे अधिक मूल्य उसका नहीं है। (हरिजन,23-4-1938) लेकिन हमारे वर्तमान नेताओं खासकर कांग्रेस के नेताओं का मानना है जैसा उनके क्रियाकलापों से जाहिर होता है कि जनता ने उनको शासन करने का जनादेश दिया है यानि 5 सालों तक देश और प्रदेश को निर्बाध रूप से लूटने का लाइसेंस दे दिया है इसलिए समय से पहले इस्तीफा देने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? अपने वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को लीजिए श्रीमान् इतने और इतने बड़े-बड़े घोटाले कर चुकने के बाद भी धृष्टतापूर्वक-निर्लज्जतापूर्वक कहते हैं कि अगले चुनाव से पहले वे किसी भी कीमत पर इस्तीफा देंगे ही नहीं। देश की कीमत पर भी नहीं। भारतीय नेताओं (गवर्नर) के बारे में उन्होंने एक आचार संहिता भी बनाई थी हम चाहें तो अपने नेताओं इस कसौटी पर घिस कर देख सकते हैं-
1.हिन्दुस्तानी गवर्नर को चाहिए कि वह खुद पूरे संयम का पालन करे और अपने आसपास संयम का वातावरण खड़ा करे। इसके बिना शराबबंदी के बारे में सोंचा भी नहीं जा सकता।
2.उसे अपने में और आसपास हाथ-कताई और हाथ-बुनाई का वातावरण पैदा करना चाहिए,जो हिन्दुस्तान के करोड़ों गूंगों के साथ उसकी एकता की प्रकट निशानी हो, 'मेहनत की रोटी कमाने' की जरुरत का और संगठित हिंसा के खिलाफ-जिस पर आज का समाज टिका हुआ मालूम होता है-संगठित अहिंसा का जीता-जागता प्रतीक हो।
3.अगर गवर्नर को अच्छी तरह काम करना है,तो उसे लोगों की निगाहों से बचे हुए,फिर भी सबकी पहुँच के लायक,छोटे के मकान में रहना चाहिए। ब्रिटिश गवर्नर स्वभाव से ही ब्रिटिश ताकत को दिखाता था। उसके लिए और उसके लोगों के लिए सुरक्षित महल बनाया गया था-ऐसा महल जिसमें वह और उसके साम्राज्य को टिकाये रखनेवाले उसके सेवक रह सकें। हिन्दुस्तानी गवर्नर राजा-नवाबों और दुनिया के राजदूतों का स्वागत करने के लिए थोड़ी शान-शौकतवाली इमारतें रख सकते हैं। गवर्नर के मेहमान बननेवाले लोगों को उसके व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण से 'ईवन अण्टु दिस लास्ट' (सर्वोदय)-सबके लिए समान बरताव-की सच्ची शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके लिए देसी या विदेशी महंगे फर्नीचर की जरुरत नहीं। 'सादा जीवन और ऊँचे विचार' उसका आदर्श होना चाहिए। यह आदर्श सिर्फ उसके दरवाजे की ही शोभा न बढ़ाये,बल्कि उसके रोज के जीवन में भी दिखाई दे।
4.उसके लिए न तो किसी रूप में छुआछूत हो सकती है और न जाति,धर्म या रंग का भेद। हिन्दुस्तान का नागरिक होने के नाते उसे सारी दुनिया का नागरिक होना चाहिए। हम पढ़ते हैं कि खलीफा उमर इसी तरह सादगी से रहते थे,हालाँकि उनके कदमों पर लाखों-करोड़ों की दौलत लोटती रहती थी। उसी तरह पुराने जमाने में राजा जनक रहते थे। इसी सादगी से ईटन के मुख्याधिकारी,जैसा कि मैंने उन्हें देखा था,अपने भवन में ब्रिटिश द्वीपों के लॉर्ड और नवाबों के बीच रहा करते थे। तब क्या करोड़ों भूखों के देश हिन्दुस्तान के गवर्नर इतनी सादगी से नहीं रहेंगे?
5.वह जिस प्रान्त का गवर्नर होगा,उसकी भाषा और हिन्दुस्तानी बोलेगा,जो हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा है और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है। वह न तो संस्कृत शब्दों से भरी हुई हिन्दी है और न फारसी शब्दों से लदी हुई उर्दू। हिन्दुस्तानी दरअसल वह भाषा है,जिसे विन्ध्याचल के उत्तर में करोड़ों लोग बोलते हैं।
हिन्दुस्तानी गवर्नर में जो गुण होने चाहिए,उनकी यह पूरी सूची नहीं है। यह तो सिर्फ मिसाल के तौर पर दी गई है। (हरिजन सेवक,24-8-1947)
मित्रों,जहाँ तक भाषा का प्रश्न है तो इस बारे में गांधीजी का साफ-साफ मानना था कि इस पद की एकमात्र अधिकारिणी हिंदी ही हो सकती है। वे कहते हैं-अगर हमें एक राष्ट्र होने का अपना दावा सिद्ध करना है,तो हमारी अनेक बातें एकसी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक सूत्र में बांधनेवाली हमारी एक सामान्य संस्कृति है। हमारी त्रुटियाँ और बाधाएँ भी एकसी हैं। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारी पोशाक के लिए एक ही तरह का कपड़ा न केवल वांछनीय है,बल्कि आवश्यक भी है। हमें एक सामान्य भाषा की भी जरुरत है-देसी भाषाओं की जगह पर नहीं परन्तु उनके सिवा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए। हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देसी भाषाओं की कई लिपियाँ हैं। अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रान्तीय लिपि के साथ-साथ मैं सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देसी भाषाओं की मुख्य-मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दशः हिन्दुस्तानी अनुवाद के साथ देवनागरी में छपवा दूँ। (यंग इंडिया,27-8-1925) उन्होंने राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर अंग्रेजी और हिन्दी का विस्तार से तुलनात्मक विश्लेषण किया था और यह साबित कर दिया था कि हिन्दी पहले से ही राष्ट्रभाषा है-हमारे पढ़े-लिखे लोगों की दशा को देखते हुए ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के बिना हमारा कारबार बन्द हो जाएगा।ऐसा होने पर भी जरा गहरे में जाकर देखेंगे,तो पता चलेगा कि अंग्रेजी राष्ट्रभाषा न तो हो सकती है और न होनी चाहिए। तब फिर हम यह देखें कि राष्ट्रभाषा के क्या लक्षण होने चाहिएः
1.वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
2.उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक कामकाज हो सकना चाहिए।
3.उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4.वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो।
5.उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहनेवाली स्थिति पर जोर न दिया जाए।
अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है।
तो फिर कौन-सी भाषा इन पाँचों लक्षणोंवाली है? यह माने बिना काम नहीं चल सकता कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। ये पाँच लक्षण रखने में हिन्दी की होड़ करनेवाली और कोई भाषा नहीं है। हिन्दी के बाद दूसरा दर्जा बंगला का है। फिर भी बंगाली लोग बंगाल के बाहर हिन्दी का ही उपयोग करते हैं। हिन्दी बोलनेवाले जहाँ जाते हैं वहाँ हिन्दी का ही उपयोग करते हैं और इससे किसी को अचम्भा नहीं होता। हिन्दी के धर्मोपदेशक और उर्दू के मौलवी सारे भारत में अपने भाषण हिन्दी में ही देते हैं और अपढ़ जनता उन्हें समझ लेती है। जहाँ अपढ़ गुजराती भी उत्तर में जाकर थोड़ी-बहुत हिन्दी का उपयोग कर लेता है,वहाँ उत्तर का 'भैया' बम्बई के सेठ की नौकरी करते हुए भी गुजराती बोलने से इनकार करता है और सेठ 'भैया' के साथ टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता है। मैंने देखा है कि ठेठ द्राविड़ प्रान्त में भी हिन्दी की आवाज सुनाई देती है। यह कहना ठीक नहीं कि मद्रास प्रान्त में तो अंग्रेजी से ही काम चलता है। वहाँ भी मैंने अपना सारा काम हिन्दी से चलाया है। सैकड़ों मद्रासी मुसाफिरों को मैंने दूसरे लोगों के साथ हिन्दी में बोलते सुना है। इसके सिवा,मद्रास के मुसलमान भाई तो अच्छी तरह हिन्दी बोलना जानते हैं। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि सारे भारत के मुसलमान उर्दू बोलते हैं और उनकी संख्या सारे प्रांतों में कुछ कम नहीं है।
इस तरह हिन्दी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है। हमने वर्षों पहले से उसका राष्ट्रभाषा के रूप में उपयोग किया है। उर्दू भी हिन्दी की इस शक्ति से ही पैदा हुई है। (20 अक्तूबर,1917 को भड़ौच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा-परिषद के अध्यक्ष पद से दिए गए भाषण से।)
(सच्ची शिक्षा,पृ. 19-21, 22-23; 1959)
उनका यह भी मानना था कि अहिंदीभाषी भारतीय जो समय अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं उन्हें उसे हिन्दी सीखने में लगाना चाहिए। उन्होंने अनुरोध भरे स्वर में कहा है कि जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं,उतने महीने भी अगर हम हिन्दुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठाएँ, तो सचमुच कहना होगा कि जन-साधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगे हम हांका करते हैं वे निरी डिंगे ही हैं। (रचनात्मक कार्यक्रम,पृ. 39)
मित्रों,गांधीजी के मरने के बाद कांग्रेस की बहुमतवाली संविधान-सभा ने हिन्दी के साथ क्या किया यह आप सब भी जानते हैं। संविधान के अनुच्छेद 343 में कह दिया गया कि हिन्दी भारत की राजभाषा होगी मगर कब से आज तक भी पता नहीं है। हिन्दी के विकास के लिए अनुच्छेद 344 में आयोग के गठन का प्रावधान कर दिया गया और अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए केंद्र सरकार को प्रयास करने के निर्देश भी दे दिए गए लेकिन इस सारी कवायद का परिणाम क्या हुआ,कुछ भी नहीं। उल्टे हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा,सिविल सेवा परीक्षा आदि की प्रक्रिया में इस तरह के बदलाव करती जा रही है और कर चुकी है जिससे कि हिन्दीभाषी उम्मीदवार कम-से-कम संख्या में सफल हो सकें। वाह रे गांधी के चेले और उनकी गांधी-भक्ति।
मित्रों,गांधीजी जीवनपर्यन्त किसी भी तरह के नशे के खिलाफ रहे। उनका साफ तौर पर मानना था कि शराब पर पूरी पाबंदी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आपको ऊपर से ठीक दिखाई देनेवाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिए कि शराबबंदी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन्हें उसकी सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए। राज्य का यह कोई कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी प्रजा के कुटेवों के लिए अपनी ओर से सुविधाएँ दे। हम वेश्यालयों को अपना व्यापार चलाने के लिए अनुमति-पत्र नहीं देते। इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रवृत्ति पूरी करने की सुविधाएँ नहीं देते। मैं शराब को चोरी और व्यभिचार, दोनों से ज्यादा निन्द्य मानता हूँ। क्या वह अक्सर इन दोनों बुराइयों की जननी नहीं होती? (यंग इंडिया,8-6-1921) उनका यहाँ तक मानना था कि शराब पीना मलेरिया आदि बीमारियों से कहीं ज्यादा हानिकर है। उनको गरीब भारत तो स्वीकार था परन्तु शराबखोर भारत नहीं। उन्होंने कहा था कि शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होनेवाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों से होनेवाली हानि की अपेक्षा असंख्य गुनी ज्यादा है। कारण,बीमारियों से तो केवल शरीर की ही हानि पहुँचती है,जबकि शराब आदि से शरीर और आत्मा,दोनों का नाश हो जाता है। (यंग इंडिया,3-3-27) मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा,लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बन्द करना पड़े तो कोई परवाह नहीं;मैं यह कीमत चुकाकर भी शराबखोरी को बंद करूंगा। (यंग इंडिया,15-9-1927) गांधीजी ने बुलंद स्वर में घोषणा की थी कि यदि मुझे एक घंटे के लिए भारत का डिक्टेटर बना दिया जाए,तो मेरा पहला काम यह होगा कि शराब की दुकानों को बिना मुआवजा दिए बंद करा दिया जाए और कारखानों के मालिकों को अपने मजदूरों के लिए मनुष्योचित परिस्थितियाँ निर्माण करने तथा उनके हित में ऐसे उपहार-गृह और मनोरंजन-गृह खोलने के लिए मजबूर किया जाए,जहाँ मजदूरों को ताजगी देनेवाले निर्दोष पेय और उतने ही निर्दोष मनोरंजन प्राप्त हो सके। (यंग इंडिया,25-6-1931) बीड़ी-सिगरेट को गांधीजी शराब से भी बड़ी बुराई मानते थे। उन्होंने 4 फरवरी 1926 के यंग इंडिया में लिखा था कि एक दृष्टि से बीड़ी और सिगरेठ पीना शराब से भी ज्यादा बड़ी बुराई है,क्योंकि इस व्यसन का शिकार उससे होनेवाली हानि को समय रहते अनुभव नहीं करता। वह जंगलीपन का चिन्ह नहीं मानी जाती,बल्कि लोग तो उसका गुणगान भी करते हैं। मैं इतना कहूँगा कि जो लोग छोड़ सकते हैं वे छोड़ दें और दूसरों के लिए उदाहरण पेश करें। (यंग इंडिया,4-2-1926) अब अगर हम आज की केंद्र सरकार और प्रदेश सरकारों की शराब और तंबाकू नीति पर दृष्टिपात करें तो हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगेगी। कांग्रेससहित लगभग सारी पार्टियों की सरकारें एक तरफ तो गांव-गांव में शराब की दुकानें खोल रही हैं वही दूसरी ओर उन्होंने मद्य-निषेध विभाग भी खोल रखा है। जब शराब की बिक्री को प्रोत्साहित ही करना है तो फिर मद्य-निषेध विभाग का ढोंग क्यों? क्या जरुरत है मद्य-निषेध विभाग की? किसको धोखा दे रहे हैं हमारे नेता गांधीजी की आत्मा को,खुद को या जनता को या एक साथ तीनों को? हद तो यहाँ तक हो गई है कि भारत की सबसे बड़ी शराब कंपनी का मालिक ऐय्याशी का मसीहा विजय माल्या इन दिनों पैसे के बल पर प्रतिष्ठित राज्यसभा का सम्मानित सदस्य बन बैठा है। सिगरेट पर प्रत्येक बजट में लगातार कर बढ़ा कर सरकार अपने तंबाकू-विरोधी होने का दिखावा कर रही है जैसे उसे पता ही नहीं है कि नशेड़ी चाहे नशे की वस्तु कितनी भी महंगी क्यों न हो जाए खरीदेगा ही। अगर सरकार धूम्रपान को रोकने को लेकर सचमुच गंभीर है तो उसे इस बुराई पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए,इससे कम कुछ भी नहीं।
मित्रों,गांधीजी इस बात से भलीभांति अवगत थे कि किसी बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता। बल्कि उनका तो यह भी मानना था कि जबरदस्ती करने से दूसरी अनेक ऐसी बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं जो मूल बुराई से भी ज्यादा हानिकारक होती है। इस बारे में उनका कहना था कि लोग ऐसा सोचते हैं कि किसी बुराई के खिलाफ कानून बना दिया जाए,तो वह अपने-आप निर्मूल हो जाती है। उस सम्बन्ध में और अधिक कुछ करने की जरुरत नहीं रहती। लेकिन इससे ज्यादा बड़ी कोई आत्म-वंचना नहीं हो सकती। कानून तो अज्ञान में फँसे हुए या बुरी वृत्तिवाले अल्पसंख्यक लोगों को ध्यान में रखकर यानि उनसे उनकी बुराई छुड़वाने के उद्देश्य से बनाया जाता है और उसी स्थिति में वह कारगर भी होता है। मेरी राय में आजतक जबरदस्ती के द्वारा कोई भी महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं कराया जा सका है। कारण यह है कि जबरदस्ती के द्वारा ऊपरी सफलता होती दिखाई दे यह तो संभव है,किंतु उससे दूसरी अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं,जो मूल बुराई से ज्यादा हानिकारक सिद्ध होती है। (यंग इंडिया,8-12-1927) मगर इसी छोटी मगर मोटी बात को हमारी सरकारें समझने का प्रयास ही नहीं कर रही है। उनको लगता है कि एक कानून बना दो और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लो। यह देखने की कतई जरुरत नहीं है कि उस कानून का पालन हो भी रहा है या नहीं। आजादी के बाद से ही इस लापरवाही की वजह से हमारे लगभग सारे कानून बेकार सिद्ध हुए हैं चाहे वह दहेज-विरोधी कानून हो या फिर लड़कियों को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा देने संबंधी कानून हो। कमोबेश हमारी सारी योजनाएँ भी सिर्फ कागजों पर ही अंकित होकर रह गई हैं।
मित्रों,गांधीजी तत्कालीन न्याय-व्यवस्था से बिल्कुल भी खुश नहीं थे। इसके बारे में उन्होंने काफी बेबाकी से कहा हैः-यदि हमारे मन पर वकीलों और न्यायालयों का मोह न छाया होता और यदि हमें लुभाकर अदालतों के दलदल में ले जानेवाले तथा हमारी नीच वृत्तियों को उत्साहित करनेवाले दलाल न होते, तो हमारा जीवन आज जैसा है उसकी अपेक्षा ज्यादा सुखी होता। जो लोग अदालतों में ज्यादा आते-जाते हैं उनकी यानि उनमें से अच्छे आदमियों की गवाही लीजिए,तो वे इस बात की पुष्टि करेंगे कि अदालतों का वायुमण्डल बिल्कुल सड़ा हुआ होता है। दोनों पक्षों की ओर से सौगन्ध खाकर झूठ बोलनेवाले गवाह खड़े किए जाते हैं,जो धन या मित्रता के खातिर अपनी आत्मा को बेच डालते हैं। (यंग इंडिया,6-10-1926) आज तो न्यायालयों और न्याय की स्थिति 1926 के मुकाबले काफी खराब हो चुकी है। परदादा मुकदमा करता है और परपोते को भी न्याय नहीं मिल पाता। दीवानी मामलों में तो ऐसा भी होता है कि निर्णय प्राप्त हो जाने के दशकों बाद तक भी निर्णय लागू ही नहीं हो पाता है। कभी जज छुट्टी पर चला जाता है तो कभी पुलिस बल या मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं हो पाता। शायद यह भी एक कारण है कि देश में नक्सलवाद को विस्तार मिल रहा है। इतना ही नहीं अगर मैं यह कहूँ कि आज हमारी न्याय-व्यवस्था अमीरों की रखैल बनकर रह गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज के भारत में न्याय बिकता है,न्यायाधीश बिकते हैं और न्याय विलंबकारी तो है ही। हालाँकि न्यायिक सुधार विधेयक आनेवाला है परन्तु कब तक आएगा और कब तक कानून का रूप अख्तियार करेगा कोई नहीं जानता। हो सकता है तब तक कई-कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा कर ले।
मित्रों,गांधीजी जुआ को भी एक खतरनाक सामाजिक बुराई मानते थे। उनका मानना था कि अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँ ऐसी व्यवस्था की जाती है। कोई कंगाल नहीं होता और मजदूरी करना चाहनेवाले को काम अवश्य मिल जाता है। ऐसी शासन-व्यवस्था में जुआ,शराबखोरी और दुराचार को या वर्ग-विद्वेष को कोई स्थान नहीं होता। (हरिजन,25-3-1939)परन्तु आज हो क्या रहा है? गांधी की विरासत संभालने का दावा कर रही कांग्रेस पार्टी की हरियाणा सरकार में कुछ दिन पहले तक गोपाल कांडा नामक एक मंत्री हुआ करता था। उसका गोवा में बहुत बड़ा अत्याधुनिक जुआघर है। कुछ साल पहले तक जूते की दुकान चलानेवाले मंत्रीजी को नित नई-नई लड़कियों के साथ सेक्स करने की बुरी लत भी थी सो आजकल श्रीमान् जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। मगर देखना यह भी है कि उनको कब तक जेल में रखा जाता है और कब बा(बे)ईज्जत बरी होकर वे बाहर आ जाते हैं और दोबारा मंत्री पद की शोभा बढ़ाते हैं।
मित्रों,गांधीजी के अनुसार सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं,बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में,स्वराज्य जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें है। (हिन्दी नवजीवन,29-1-1925) स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना,फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की पर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें,तो वह स्वराज्य-सरकार किसी काम की नहीं होगी। (यंग इंडिया,6-8-1925) स्वराज्य की रक्षा केवल वहीं हो सकती है,जहाँ देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे देशभक्तों की हो,जिनके लिए दूसरी सब चीजों से-अपने निजी लाभ से भी-देश की भलाई का ज्यादा महत्त्व हो। स्वराज्य का अर्थ है देश की बहुसंख्यक जनता का शासन। जाहिर है कि जहाँ बहुसंख्यक जनता नीतिभ्रष्ट हो या स्वार्थी हो,वहाँ उसकी सरकार अराजकता की स्थिति पैदा कर सकती है,दूसरा कुछ नहीं। (यंग इंडिया,28-7-1921) इस प्रकार गांधीजी भावी भारतीय लोकतंत्र के बारे में स्पष्ट विचार रखते थे और उनका यथा प्रजा तथा राजा में अटूट विश्वास था। गांधीजी का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य था। उन्होंने कहा था कि मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं,वही तुम्हें भी सुलभ होनी चाहिए,इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। (यंग इंडिया,26-3-1931) अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे,अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपव्यय नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं हो सकता,होना नहीं चाहिए,कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहें और लाखों-करोड़ों ऐसी मनहूस झोपड़ियों में,जिनमें हवा और प्रकाश का प्रवेश न हो। (हरिजन,25-3-1939) परन्तु आज सच्चाई यह है कि एक तरफ तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी 80% आबादी 20 रु. प्रतिदिन से कम में गुजारा करता है तो वहीं दूसरी ओर हमारा एक अमीर प्रतिमाह 70 लाख रु. का सिर्फ बिजली बिल भरता है और 4000 करोड़ रु. की लागत से अपने रहने के लिए महामहल बनाता है। गांधीजी भारत में लोकतंत्र के दुरुपयोग के प्रति भी कम सशंकित नहीं थे तभी तो उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है जिसमें खतरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी,उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ भी उतनी ही बड़ी होगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है,इसलिए उसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं,बल्कि दुरुपयोग की संभावना को कम-से-कम करना है। (यंग इंडिया,7-5-1931) जनता की राय के अनुसार चलनेवाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यदि वह जनमत के खिलाफ जाए तो नष्ट हो जाए। अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है। लेकिन राग-द्वेष,अज्ञान और अन्ध-विश्वास आदि दुर्गुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकता के गड्ढे में गिरता है और अपना नाश खुद कर डालता है। (यंग इंडिया,30-7-1931) मैंने अक्सर यह कहा है कि अमुक विचार रखनेवाला कोई भी पक्ष यह दावा नहीं कर सकता कि प्रस्तुत प्रश्नों के सही निर्णय केवल वही कर सकता है। हम सबसे भूलें होती हैं और हमें अक्सर अपने निर्णयों में परिवर्तन करने पड़ते हैं। (यंग इंडिया,17-4-1924) कहना न होगा कि हमारा लोकतंत्र गांधीजी की आशंकाओं पर पूरी तरह से खरी उतरी है। आज हमारा लोकतंत्र विकृत होकर भ्रष्टतंत्र और धनिकतंत्र में परिवर्तित हो गया है लोकतंत्र रहा ही नहीं। यह एक गहरी अंधेरी सुरंग में फँस चुकी है और इससे निकलने का कोई मार्ग सूझ भी नहीं रहा है।
मित्रों,गांधीजी समाज और व्यक्ति दोनों को अपनी-अपनी जगह महत्त्वपूर्ण मानते थे। एक तरफ जहाँ उनका विचार था कि अबाध व्यक्तिवाद वन्य पशुओं का नियम है। हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक संयम के बीज समन्वय करना सीखना है। समस्त समाज के हित के खातिर सामाजिक संयम के आगे स्वेच्छापूर्वक सिर झुकाने से व्यक्ति और समाज,जिसका कि वह एक सदस्य है,दोनों का ही कल्याण होता है। (हरिजन, 27-5-1939) वहीं दूसरी ओर उनका यह भी मानना था कि जब राज्यसत्ता जनता के हाथ में आती है,तब प्रजा की आजादी में होनेवाले हस्तक्षेप की मात्रा कम-से-कम हो जाती है। (हरिजन,11-1-1936) अगर व्यक्ति का महत्त्व न रहे,तो समाज में भी क्या सत्त्व रह जाएगा?वैयक्तिक स्वतंत्रता ही मनुष्य को समाज की सेवा के लिए स्वेच्छापूर्वक अपना सब-कुछ अर्पण करने की प्रेरणा दे सकती है। यदि उससे यह स्वतंत्रता छीन ली जाए,तो वह एक जड़ यंत्र जैसा हो जाता है और समाज की बरबादी होती है। वैयक्तिक स्वतंत्रता को अस्वीकार करके कोई सभ्य समाज नहीं बनाया जा सकता। (हरिजन,1-2-1942) परन्तु हमारी वर्तमान केंद्र सरकार,समाज और व्यक्ति के बीच अजीबोगरीब-पागलपन से भरा असंतुलन स्थापित करना चाहती है। वह एक तरफ तो भारतीय समाज को एकबारगी सेक्स फ्री समाज में बदल देना चाहती है जैसा कि उसके समलैंगिकता और वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने के कुप्रयासों से जाहिर है वहीं दूसरी तरफ वह सोशल मीडिया वेबसाईटों को नियंत्रित कर अपने स्वस्थ आलोचकों का मुँह बंद कर देना चाहती है। क्या इस तरह जो भारत बनेगा गांधी वैसा ही भारत बनाना चाहते थे? बल्कि गांधी तो वेश्यावृत्ति को अभिशाप के समान मानते थे। उन्होंने कहा था-वेश्यावृत्ति दुनिया में हमेशा रही है यह सही है। लेकिन आज की तरह वह कभी शहरी जीवन का अभिन्न अंग भी रही होगी,इसमें मुझे शंका है। जो भी हो,एक समय ऐसा जरूर आना चाहिए और आएगा जब कि मानव-जाति इस अभिशाप के खिलाफ उठ खड़ी होगी,और जिस तरह उसने दूसरे अनेक बुरे रिवाजों को,भले वे कितने भी पुराने रहे हों,मिटा दिया है,उसी तरह वेश्यावृत्ति को भी वह भूतकाल की चीज बना देगी। (यंग इंडिया,28-5-25)
मित्रों,ऐसा भी नहीं है कि गांधीजी सेक्स के विरोधी थे। उन्होंने तो बच्चों को काम-शिक्षा का भी समर्थन किया था परन्तु तब इसका लक्ष्य इस शिक्षा के द्वारा इस मनोविकार पर विजय प्राप्त करना होता। 21 नवंबर,1936 को हरिजन समाचार-पत्र में उन्होंने कहा था कि जिस काम-विज्ञान की शिक्षा के पक्ष में मैं हूँ,उसका लक्ष्य यही होना चाहिए कि इस विकार पर विजय प्राप्त की जाए और उसका सदुपयोग हो। यह सच्चा काम-विज्ञान कौन सिखाए? स्पष्ट है कि वही सिखाए जिसने अपने विकारों पर प्रभुत्व पा लिया है। (हरिजन,21-11-1936) गांधीजी पश्चिम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के भी विरोधी नहीं थे परन्तु उसी सीमा तक जिस सीमा तक भारतीय संस्कृति की मौलिकता अक्षुण्ण बनी रहे। गांधीजी के शब्दों में मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दी जाएँ। मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे। पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ और मैं औंधे मुँह गिर पडूँ। (यंग इंडिया,1-6-1921)
मित्रों,गांधीजी धर्म-परिवर्तन के सख्त खिलाफ थे। इस संबंध में उन्होंने कहा था कि मैं धर्म-परिवर्तन की आधुनिक पद्धति के खिलाफ हूँ। दक्षिण अफ्रीका में और भारत में लोगों का धर्म-परिवर्तन जिस तरह किया जाता है,उसके अनेक वर्षों के अनुभव से मुझे इस बात का निश्चय हो गया है कि उससे नए ईसाइयों की नैतिक भावना में कोई सुधार नहीं होता,वे यूरोपीय सभ्यता की नकल करने लगते हैं,किन्तु ईसा की मूल शिक्षा से अछूते ही रहते हैं। (यंग इंडिया,17-12-1925) मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना कम-से-कम अहितकर तो है ही। (यंग इंडिया,23-4-1931) कोई ईसाई किसी हिन्दू को ईसाई धर्म में लाने की या कोई हिन्दू किसी ईसाई को हिन्दू धर्म में लाने की इच्छा क्यों रखे? वह हिन्दू यदि सज्जन है या भगवद्-भक्त है,तो उक्त ईसाई को इसी बात से सन्तोष क्यों नहीं हो जाना चाहिए?(हरिजन,30-1-1937)
मित्रों,गांधीजी ऐसी अर्थव्यवस्था के समर्थक नहीं थे जिसमें मजदूरों का शोषण करके उद्योगपति अपनी तिजोरियाँ भरें। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं अर्थविद्या और नीतिविद्या न सिर्फ कोई स्पष्ट भेद नहीं करता,बल्कि भेद ही नहीं करता। जिस अर्थविद्या से व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुँचती हो,उसे मैं अनीतिमय और इसलिए पापपूर्ण कहूंगा। उदाहरण के लिए,जो अर्थ-विद्या किसी देश को किसा दूसरे देश का शोषण करने की अनुमति देती है वह अनैतिक है। जो मजदूरों को योग्य मेहनताना नहीं देते और उनके परिश्रम का शोषण करते हैं,उनसे वस्तुएँ खरीदना या उन वस्तुओं का उपयोग करना पापपूर्ण है। (यंग इंडिया,13-10-21) जो अर्थशास्त्र धन की पूजा करना सिखाता है और बलवानों को निर्बलों का शोषण करके धन का संग्रह करने की सुविधा देता है,उसे शास्त्र का नाम नहीं दिया जा सकता। सच्चा अर्थशास्त्र तो सामाजिक न्याय की हिमायत करता है,वह समान भाव से सबकी भलाई का-जिनमें कमजोर भी शामिल हैं-प्रयत्न करता है। (हरिजन,9-10-1937) साथ ही गांधीजी पूंजी के संकेंद्रण के भी सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि भारत की जरुरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाए। पूंजी का ऐसा वितरण होना चाहिए कि वह इस 1900 मील लम्बे और 1500 मील चौड़े विशाल देश को बनानेवाले साढ़े-सात लाख गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। (यंग इंडिया,23-3-1921) परन्तु आज हम देश में क्या होता देख रहे हैं? हमारी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें येन केन प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा पूंजी को आकर्षित करना चाहती हैं जिसके चलते देश के समक्ष कई प्रकार की जटिलताएँ पैदा हो रही हैं। कभी नंदीग्राम सामने आ जाता है तो कभी हमें भट्ठा पारसौल को देखना पड़ता है। आज के भारत में पैसा ही भगवान हो गया है और सत्य और ईमानदारी मुँह छिपाए फिरते हैं।
मित्रों,आज देश बर्बाद होने के कगार पर है। यह वह भारत तो हरगिज नहीं है जिस भारत का सपना कभी हमारे राष्ट्रपिता ने देखा था। अंत में फिर से वही प्रश्न हमारे सामने आता है कि गांधी को किसने मारा? हमने अपने वृहद विश्लेषण में पाया कि गांधी को नाथूराम गोडसे ने अकेले नहीं बल्कि हम सबने मिलकर मारा और इसके लिए सबसे बड़ी दोषी है उनकी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस। चूँकि गांधीजी कांग्रेसी थे और उन्होंने ही कांग्रेस के मृतप्राय संगठन में नई जान डाली थी इसलिए उनके बताए मार्ग पर चलने और देश को चलाने की पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी कांग्रेस की ही थी। मुझे लगता नहीं कि इस कांग्रेस को अब गांधी याद भी हैं जिसका इस हद तक नैतिक पतन हो चुका है कि उसका नाम सुनते ही उबकाई-सी आने लगती है। फिर हम कैसे और क्यों उम्मीद रखें कि कांग्रेस फिर से गांधीजी के आदर्शों और विचारों को अपनाएगी? बांकी राजनीतिक दलों का तो वही हाल है कि बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभानल्लाह। खैर जिसे नहीं अपनाना है नहीं अपनाए हम तो अपने राष्ट्रपिता के आदर्शों पर चलने का प्रण ले ही सकते हैं तो आईए हम सब प्रतिज्ञा करें और अपनों के द्वारा ही मार दिए गए गांधीजी को फिर से जीवन प्रदान करें। यही उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि भी होगी।
मित्रों,30 जनवरी,1948 को भले ही उनकी जैववैज्ञानिक हत्या हुई हो परन्तु वह उनकी वास्तविक हत्या नहीं थी। उनकी वास्तविक हत्या तो की गई स्वयं उनके चेलों द्वारा और उनके संगठन द्वारा जिसको हम आज भी कांग्रेस के नाम से जानते हैं उनके जीवित रहते भी और उनके मरने के बाद भी,वो भी धीरे-धीरे उनकी विचारधारा को खूंटी पर टांगकर। सबसे पहले तो गांधी के विचारों को उनकी शारीरिक मृत्यु के तत्काल बाद भारतीय संविधान में कोना दिखा दिया गया और उनके कई विचारों को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में (अँचार) डालकर छोड़ दिया गया। उदाहरण के लिए गांधी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में गोहत्या पर पूरी तरह से प्रतिबंध हो। उनका मानना था कि गोमाता जन्म देनेवाली माँ से कहीं बढ़कर है। माँ तो साल दो साल दूध पिलाकर हमसे फिर जीवन-भर सेवा की आशा रखती है। पर गोमाता को तो सिवा दाने और घास के कोई आवश्यकता ही नहीं। (हरिजन सेवक,21-9-1940) इस संबंध में उनका यहाँ तक मानना था कि हिन्दुओं की परीक्षा तिलक करने,स्वरशुद्ध मंत्र पढ़ने,तीर्थयात्रा करने या जात-बिरादरी के छोटे-छोटे नियमों का कट्टरता से पालन करने से नहीं होगी,बल्कि गाय को बचाने की उनकी शक्ति से होगी। (यंग इंडिया,6-1-1921) संविधान-निर्माताओं ने जिनमें से लगभग सारे-के-सारे गांधीजी के शिष्य थे ने गोवध निषेध को संविधान में स्थान जरूर दिया लेकिन कबाड़ अर्थात् नीति निर्देशक तत्वों में (अनुच्छेद 48) और अब तो वर्तमान सरकार का एक मंत्री आनंद शर्मा उल्टे गोहत्या को देशहित में बता रहा है। वाह री गांधी की कांग्रेस और उसकी सरकार खूब सम्मान दिया तुमलोगों ने गांधी को!
मित्रों,ऐसा नहीं है कि गांधी जी को कांग्रेसियों द्वारा भविष्य में की जा सकने वाली करतूतों का पूर्वाभास नहीं था। वे समझ गए थे कि भविष्य में कांग्रेस चरित्रहीनों की पार्टी हो जाएगी। तभी तो उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि अगर कांग्रेस को लोकसेवा की ही संस्था रहना है,तो मंत्री 'साहब लोगों' की तरह नहीं रह सकते और न सरकारी साधनों का उपयोग निजी कामों के लिए ही कर सकते हैं। (हरिजन,29-9-1946) परन्तु हमारे नेता आज सरकारी पैसे पर जमकर विदेश-यात्रा करते हैं और वह भी सपरिवार देसी यात्रा की तो बात ही छोड़िए। उनका सबकुछ फ्री होता है बिजली,पानी,यात्रा,भोजन और टेलीफोन। ऊपर से उनको मनमाफिक घोटाले करने की भी छूट होती है। यहाँ तक कि भूतपूर्व हो जाने के बाद जब वो सरकारी आवास खाली करते हैं तो फर्निचर तक उठा ले जाते हैं चाहे वे राष्ट्रपति के गरिमामय पद पर ही क्यों न हों। राजनीति में भाई-भतीजावाद की आशंका भी गांधीजी की दूरदर्शी और तीक्ष्ण निगाहों से बच नहीं पाई थी। उनका कहना था कि पद-ग्रहण से यदि पद का सदुपयोग किया जाए तो कांग्रेस की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और यदि पद का दुरूपयोग होगा तो वह अपनी पुरानी प्रतिष्ठा भी खो देगी। यदि दूसरे परिणाम से बचना हो तो मंत्रियों और विधानसभा के सदस्यों को अपने वैयक्तिक और सार्वजनिक आचरण की जाँच करते रहना होगा। उन्हें, जैसा अंग्रेजी लोकोक्ति में कहा गया है,सीजर की पत्नी की तरह अपने प्रत्येक व्यवहार में संदेह से परे होना चाहिए। वे अपने पद का उपयोग अपने या अपने रिश्तेदारों अथवा मित्रों के लाभ के लिए नहीं कर सकते। अगर रिश्तेदारों या मित्रों की नियुक्ति किसी पद पर होती है,तो उसका कारण यही होना चाहिए कि उस पद के तमाम उम्मीदवारों में वे सबसे ज्यादा योग्य हैं और बाजार में उनका मूल्य उस सरकारी पद से उन्हें जो कुछ मिलेगा उससे कहीं ज्यादा है। (हरिजन,23-4-1938) मेरा पूरा विश्वास है कि और किसी ने गांधीजी की इन पंक्तियों को भले ही नहीं पढ़ा हो सुबोधकांत सहाय जैसे कांग्रेसियों ने जरूर पढ़ा होगा तभी तो वे इसके ठीक विपरीत आचरण कर रहे हैं। अपने इसी आलेख में गांधीजी आगे फरमाते हैं कि मंत्रियों और कांग्रेस के टिकट पर चुने गए विधान-सभा के सदस्यों को अपने कर्त्तव्य के पालन में निर्भय होना चाहिए। उन्हें हमेशा अपना स्थान या पद खोने के लिए तैयार रहना चाहिए। विधान-सभाओं की सदस्यता या उसके आधार पर मिलनेवाले पद का एकमात्र मूल्य यही है कि वह सम्बन्धित व्यक्तियों को कांग्रेस की प्रतिष्ठा और ताकत बढ़ाने की योग्यता प्रदान करता है;इससे अधिक मूल्य उसका नहीं है। (हरिजन,23-4-1938) लेकिन हमारे वर्तमान नेताओं खासकर कांग्रेस के नेताओं का मानना है जैसा उनके क्रियाकलापों से जाहिर होता है कि जनता ने उनको शासन करने का जनादेश दिया है यानि 5 सालों तक देश और प्रदेश को निर्बाध रूप से लूटने का लाइसेंस दे दिया है इसलिए समय से पहले इस्तीफा देने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? अपने वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को लीजिए श्रीमान् इतने और इतने बड़े-बड़े घोटाले कर चुकने के बाद भी धृष्टतापूर्वक-निर्लज्जतापूर्वक कहते हैं कि अगले चुनाव से पहले वे किसी भी कीमत पर इस्तीफा देंगे ही नहीं। देश की कीमत पर भी नहीं। भारतीय नेताओं (गवर्नर) के बारे में उन्होंने एक आचार संहिता भी बनाई थी हम चाहें तो अपने नेताओं इस कसौटी पर घिस कर देख सकते हैं-
1.हिन्दुस्तानी गवर्नर को चाहिए कि वह खुद पूरे संयम का पालन करे और अपने आसपास संयम का वातावरण खड़ा करे। इसके बिना शराबबंदी के बारे में सोंचा भी नहीं जा सकता।
2.उसे अपने में और आसपास हाथ-कताई और हाथ-बुनाई का वातावरण पैदा करना चाहिए,जो हिन्दुस्तान के करोड़ों गूंगों के साथ उसकी एकता की प्रकट निशानी हो, 'मेहनत की रोटी कमाने' की जरुरत का और संगठित हिंसा के खिलाफ-जिस पर आज का समाज टिका हुआ मालूम होता है-संगठित अहिंसा का जीता-जागता प्रतीक हो।
3.अगर गवर्नर को अच्छी तरह काम करना है,तो उसे लोगों की निगाहों से बचे हुए,फिर भी सबकी पहुँच के लायक,छोटे के मकान में रहना चाहिए। ब्रिटिश गवर्नर स्वभाव से ही ब्रिटिश ताकत को दिखाता था। उसके लिए और उसके लोगों के लिए सुरक्षित महल बनाया गया था-ऐसा महल जिसमें वह और उसके साम्राज्य को टिकाये रखनेवाले उसके सेवक रह सकें। हिन्दुस्तानी गवर्नर राजा-नवाबों और दुनिया के राजदूतों का स्वागत करने के लिए थोड़ी शान-शौकतवाली इमारतें रख सकते हैं। गवर्नर के मेहमान बननेवाले लोगों को उसके व्यक्तित्व और आसपास के वातावरण से 'ईवन अण्टु दिस लास्ट' (सर्वोदय)-सबके लिए समान बरताव-की सच्ची शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके लिए देसी या विदेशी महंगे फर्नीचर की जरुरत नहीं। 'सादा जीवन और ऊँचे विचार' उसका आदर्श होना चाहिए। यह आदर्श सिर्फ उसके दरवाजे की ही शोभा न बढ़ाये,बल्कि उसके रोज के जीवन में भी दिखाई दे।
4.उसके लिए न तो किसी रूप में छुआछूत हो सकती है और न जाति,धर्म या रंग का भेद। हिन्दुस्तान का नागरिक होने के नाते उसे सारी दुनिया का नागरिक होना चाहिए। हम पढ़ते हैं कि खलीफा उमर इसी तरह सादगी से रहते थे,हालाँकि उनके कदमों पर लाखों-करोड़ों की दौलत लोटती रहती थी। उसी तरह पुराने जमाने में राजा जनक रहते थे। इसी सादगी से ईटन के मुख्याधिकारी,जैसा कि मैंने उन्हें देखा था,अपने भवन में ब्रिटिश द्वीपों के लॉर्ड और नवाबों के बीच रहा करते थे। तब क्या करोड़ों भूखों के देश हिन्दुस्तान के गवर्नर इतनी सादगी से नहीं रहेंगे?
5.वह जिस प्रान्त का गवर्नर होगा,उसकी भाषा और हिन्दुस्तानी बोलेगा,जो हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा है और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है। वह न तो संस्कृत शब्दों से भरी हुई हिन्दी है और न फारसी शब्दों से लदी हुई उर्दू। हिन्दुस्तानी दरअसल वह भाषा है,जिसे विन्ध्याचल के उत्तर में करोड़ों लोग बोलते हैं।
हिन्दुस्तानी गवर्नर में जो गुण होने चाहिए,उनकी यह पूरी सूची नहीं है। यह तो सिर्फ मिसाल के तौर पर दी गई है। (हरिजन सेवक,24-8-1947)
मित्रों,जहाँ तक भाषा का प्रश्न है तो इस बारे में गांधीजी का साफ-साफ मानना था कि इस पद की एकमात्र अधिकारिणी हिंदी ही हो सकती है। वे कहते हैं-अगर हमें एक राष्ट्र होने का अपना दावा सिद्ध करना है,तो हमारी अनेक बातें एकसी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक सूत्र में बांधनेवाली हमारी एक सामान्य संस्कृति है। हमारी त्रुटियाँ और बाधाएँ भी एकसी हैं। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारी पोशाक के लिए एक ही तरह का कपड़ा न केवल वांछनीय है,बल्कि आवश्यक भी है। हमें एक सामान्य भाषा की भी जरुरत है-देसी भाषाओं की जगह पर नहीं परन्तु उनके सिवा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए। हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देसी भाषाओं की कई लिपियाँ हैं। अगर मेरी चले तो जमी हुई प्रान्तीय लिपि के साथ-साथ मैं सब प्रान्तों में देवनागरी लिपि और उर्दू लिपि का सीखना अनिवार्य कर दूँ और विभिन्न देसी भाषाओं की मुख्य-मुख्य पुस्तकों को उनके शब्दशः हिन्दुस्तानी अनुवाद के साथ देवनागरी में छपवा दूँ। (यंग इंडिया,27-8-1925) उन्होंने राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर अंग्रेजी और हिन्दी का विस्तार से तुलनात्मक विश्लेषण किया था और यह साबित कर दिया था कि हिन्दी पहले से ही राष्ट्रभाषा है-हमारे पढ़े-लिखे लोगों की दशा को देखते हुए ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के बिना हमारा कारबार बन्द हो जाएगा।ऐसा होने पर भी जरा गहरे में जाकर देखेंगे,तो पता चलेगा कि अंग्रेजी राष्ट्रभाषा न तो हो सकती है और न होनी चाहिए। तब फिर हम यह देखें कि राष्ट्रभाषा के क्या लक्षण होने चाहिएः
1.वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
2.उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक कामकाज हो सकना चाहिए।
3.उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।
4.वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो।
5.उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहनेवाली स्थिति पर जोर न दिया जाए।
अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण नहीं है।
तो फिर कौन-सी भाषा इन पाँचों लक्षणोंवाली है? यह माने बिना काम नहीं चल सकता कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। ये पाँच लक्षण रखने में हिन्दी की होड़ करनेवाली और कोई भाषा नहीं है। हिन्दी के बाद दूसरा दर्जा बंगला का है। फिर भी बंगाली लोग बंगाल के बाहर हिन्दी का ही उपयोग करते हैं। हिन्दी बोलनेवाले जहाँ जाते हैं वहाँ हिन्दी का ही उपयोग करते हैं और इससे किसी को अचम्भा नहीं होता। हिन्दी के धर्मोपदेशक और उर्दू के मौलवी सारे भारत में अपने भाषण हिन्दी में ही देते हैं और अपढ़ जनता उन्हें समझ लेती है। जहाँ अपढ़ गुजराती भी उत्तर में जाकर थोड़ी-बहुत हिन्दी का उपयोग कर लेता है,वहाँ उत्तर का 'भैया' बम्बई के सेठ की नौकरी करते हुए भी गुजराती बोलने से इनकार करता है और सेठ 'भैया' के साथ टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता है। मैंने देखा है कि ठेठ द्राविड़ प्रान्त में भी हिन्दी की आवाज सुनाई देती है। यह कहना ठीक नहीं कि मद्रास प्रान्त में तो अंग्रेजी से ही काम चलता है। वहाँ भी मैंने अपना सारा काम हिन्दी से चलाया है। सैकड़ों मद्रासी मुसाफिरों को मैंने दूसरे लोगों के साथ हिन्दी में बोलते सुना है। इसके सिवा,मद्रास के मुसलमान भाई तो अच्छी तरह हिन्दी बोलना जानते हैं। यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि सारे भारत के मुसलमान उर्दू बोलते हैं और उनकी संख्या सारे प्रांतों में कुछ कम नहीं है।
इस तरह हिन्दी भाषा पहले से ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है। हमने वर्षों पहले से उसका राष्ट्रभाषा के रूप में उपयोग किया है। उर्दू भी हिन्दी की इस शक्ति से ही पैदा हुई है। (20 अक्तूबर,1917 को भड़ौच में हुई दूसरी गुजरात शिक्षा-परिषद के अध्यक्ष पद से दिए गए भाषण से।)
(सच्ची शिक्षा,पृ. 19-21, 22-23; 1959)
उनका यह भी मानना था कि अहिंदीभाषी भारतीय जो समय अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं उन्हें उसे हिन्दी सीखने में लगाना चाहिए। उन्होंने अनुरोध भरे स्वर में कहा है कि जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं,उतने महीने भी अगर हम हिन्दुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठाएँ, तो सचमुच कहना होगा कि जन-साधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगे हम हांका करते हैं वे निरी डिंगे ही हैं। (रचनात्मक कार्यक्रम,पृ. 39)
मित्रों,गांधीजी के मरने के बाद कांग्रेस की बहुमतवाली संविधान-सभा ने हिन्दी के साथ क्या किया यह आप सब भी जानते हैं। संविधान के अनुच्छेद 343 में कह दिया गया कि हिन्दी भारत की राजभाषा होगी मगर कब से आज तक भी पता नहीं है। हिन्दी के विकास के लिए अनुच्छेद 344 में आयोग के गठन का प्रावधान कर दिया गया और अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए केंद्र सरकार को प्रयास करने के निर्देश भी दे दिए गए लेकिन इस सारी कवायद का परिणाम क्या हुआ,कुछ भी नहीं। उल्टे हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा,सिविल सेवा परीक्षा आदि की प्रक्रिया में इस तरह के बदलाव करती जा रही है और कर चुकी है जिससे कि हिन्दीभाषी उम्मीदवार कम-से-कम संख्या में सफल हो सकें। वाह रे गांधी के चेले और उनकी गांधी-भक्ति।
मित्रों,गांधीजी जीवनपर्यन्त किसी भी तरह के नशे के खिलाफ रहे। उनका साफ तौर पर मानना था कि शराब पर पूरी पाबंदी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आपको ऊपर से ठीक दिखाई देनेवाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिए कि शराबबंदी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिए और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन्हें उसकी सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए। राज्य का यह कोई कर्तव्य नहीं है कि वह अपनी प्रजा के कुटेवों के लिए अपनी ओर से सुविधाएँ दे। हम वेश्यालयों को अपना व्यापार चलाने के लिए अनुमति-पत्र नहीं देते। इसी तरह हम चोरों को अपनी चोरी की प्रवृत्ति पूरी करने की सुविधाएँ नहीं देते। मैं शराब को चोरी और व्यभिचार, दोनों से ज्यादा निन्द्य मानता हूँ। क्या वह अक्सर इन दोनों बुराइयों की जननी नहीं होती? (यंग इंडिया,8-6-1921) उनका यहाँ तक मानना था कि शराब पीना मलेरिया आदि बीमारियों से कहीं ज्यादा हानिकर है। उनको गरीब भारत तो स्वीकार था परन्तु शराबखोर भारत नहीं। उन्होंने कहा था कि शराब और अन्य मादक द्रव्यों से होनेवाली हानि कई अंशों में मलेरिया आदि बीमारियों से होनेवाली हानि की अपेक्षा असंख्य गुनी ज्यादा है। कारण,बीमारियों से तो केवल शरीर की ही हानि पहुँचती है,जबकि शराब आदि से शरीर और आत्मा,दोनों का नाश हो जाता है। (यंग इंडिया,3-3-27) मैं भारत का गरीब होना पसंद करूंगा,लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबंदी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बन्द करना पड़े तो कोई परवाह नहीं;मैं यह कीमत चुकाकर भी शराबखोरी को बंद करूंगा। (यंग इंडिया,15-9-1927) गांधीजी ने बुलंद स्वर में घोषणा की थी कि यदि मुझे एक घंटे के लिए भारत का डिक्टेटर बना दिया जाए,तो मेरा पहला काम यह होगा कि शराब की दुकानों को बिना मुआवजा दिए बंद करा दिया जाए और कारखानों के मालिकों को अपने मजदूरों के लिए मनुष्योचित परिस्थितियाँ निर्माण करने तथा उनके हित में ऐसे उपहार-गृह और मनोरंजन-गृह खोलने के लिए मजबूर किया जाए,जहाँ मजदूरों को ताजगी देनेवाले निर्दोष पेय और उतने ही निर्दोष मनोरंजन प्राप्त हो सके। (यंग इंडिया,25-6-1931) बीड़ी-सिगरेट को गांधीजी शराब से भी बड़ी बुराई मानते थे। उन्होंने 4 फरवरी 1926 के यंग इंडिया में लिखा था कि एक दृष्टि से बीड़ी और सिगरेठ पीना शराब से भी ज्यादा बड़ी बुराई है,क्योंकि इस व्यसन का शिकार उससे होनेवाली हानि को समय रहते अनुभव नहीं करता। वह जंगलीपन का चिन्ह नहीं मानी जाती,बल्कि लोग तो उसका गुणगान भी करते हैं। मैं इतना कहूँगा कि जो लोग छोड़ सकते हैं वे छोड़ दें और दूसरों के लिए उदाहरण पेश करें। (यंग इंडिया,4-2-1926) अब अगर हम आज की केंद्र सरकार और प्रदेश सरकारों की शराब और तंबाकू नीति पर दृष्टिपात करें तो हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगेगी। कांग्रेससहित लगभग सारी पार्टियों की सरकारें एक तरफ तो गांव-गांव में शराब की दुकानें खोल रही हैं वही दूसरी ओर उन्होंने मद्य-निषेध विभाग भी खोल रखा है। जब शराब की बिक्री को प्रोत्साहित ही करना है तो फिर मद्य-निषेध विभाग का ढोंग क्यों? क्या जरुरत है मद्य-निषेध विभाग की? किसको धोखा दे रहे हैं हमारे नेता गांधीजी की आत्मा को,खुद को या जनता को या एक साथ तीनों को? हद तो यहाँ तक हो गई है कि भारत की सबसे बड़ी शराब कंपनी का मालिक ऐय्याशी का मसीहा विजय माल्या इन दिनों पैसे के बल पर प्रतिष्ठित राज्यसभा का सम्मानित सदस्य बन बैठा है। सिगरेट पर प्रत्येक बजट में लगातार कर बढ़ा कर सरकार अपने तंबाकू-विरोधी होने का दिखावा कर रही है जैसे उसे पता ही नहीं है कि नशेड़ी चाहे नशे की वस्तु कितनी भी महंगी क्यों न हो जाए खरीदेगा ही। अगर सरकार धूम्रपान को रोकने को लेकर सचमुच गंभीर है तो उसे इस बुराई पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए,इससे कम कुछ भी नहीं।
मित्रों,गांधीजी इस बात से भलीभांति अवगत थे कि किसी बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता। बल्कि उनका तो यह भी मानना था कि जबरदस्ती करने से दूसरी अनेक ऐसी बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं जो मूल बुराई से भी ज्यादा हानिकारक होती है। इस बारे में उनका कहना था कि लोग ऐसा सोचते हैं कि किसी बुराई के खिलाफ कानून बना दिया जाए,तो वह अपने-आप निर्मूल हो जाती है। उस सम्बन्ध में और अधिक कुछ करने की जरुरत नहीं रहती। लेकिन इससे ज्यादा बड़ी कोई आत्म-वंचना नहीं हो सकती। कानून तो अज्ञान में फँसे हुए या बुरी वृत्तिवाले अल्पसंख्यक लोगों को ध्यान में रखकर यानि उनसे उनकी बुराई छुड़वाने के उद्देश्य से बनाया जाता है और उसी स्थिति में वह कारगर भी होता है। मेरी राय में आजतक जबरदस्ती के द्वारा कोई भी महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं कराया जा सका है। कारण यह है कि जबरदस्ती के द्वारा ऊपरी सफलता होती दिखाई दे यह तो संभव है,किंतु उससे दूसरी अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं,जो मूल बुराई से ज्यादा हानिकारक सिद्ध होती है। (यंग इंडिया,8-12-1927) मगर इसी छोटी मगर मोटी बात को हमारी सरकारें समझने का प्रयास ही नहीं कर रही है। उनको लगता है कि एक कानून बना दो और अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लो। यह देखने की कतई जरुरत नहीं है कि उस कानून का पालन हो भी रहा है या नहीं। आजादी के बाद से ही इस लापरवाही की वजह से हमारे लगभग सारे कानून बेकार सिद्ध हुए हैं चाहे वह दहेज-विरोधी कानून हो या फिर लड़कियों को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा देने संबंधी कानून हो। कमोबेश हमारी सारी योजनाएँ भी सिर्फ कागजों पर ही अंकित होकर रह गई हैं।
मित्रों,गांधीजी तत्कालीन न्याय-व्यवस्था से बिल्कुल भी खुश नहीं थे। इसके बारे में उन्होंने काफी बेबाकी से कहा हैः-यदि हमारे मन पर वकीलों और न्यायालयों का मोह न छाया होता और यदि हमें लुभाकर अदालतों के दलदल में ले जानेवाले तथा हमारी नीच वृत्तियों को उत्साहित करनेवाले दलाल न होते, तो हमारा जीवन आज जैसा है उसकी अपेक्षा ज्यादा सुखी होता। जो लोग अदालतों में ज्यादा आते-जाते हैं उनकी यानि उनमें से अच्छे आदमियों की गवाही लीजिए,तो वे इस बात की पुष्टि करेंगे कि अदालतों का वायुमण्डल बिल्कुल सड़ा हुआ होता है। दोनों पक्षों की ओर से सौगन्ध खाकर झूठ बोलनेवाले गवाह खड़े किए जाते हैं,जो धन या मित्रता के खातिर अपनी आत्मा को बेच डालते हैं। (यंग इंडिया,6-10-1926) आज तो न्यायालयों और न्याय की स्थिति 1926 के मुकाबले काफी खराब हो चुकी है। परदादा मुकदमा करता है और परपोते को भी न्याय नहीं मिल पाता। दीवानी मामलों में तो ऐसा भी होता है कि निर्णय प्राप्त हो जाने के दशकों बाद तक भी निर्णय लागू ही नहीं हो पाता है। कभी जज छुट्टी पर चला जाता है तो कभी पुलिस बल या मजिस्ट्रेट उपलब्ध नहीं हो पाता। शायद यह भी एक कारण है कि देश में नक्सलवाद को विस्तार मिल रहा है। इतना ही नहीं अगर मैं यह कहूँ कि आज हमारी न्याय-व्यवस्था अमीरों की रखैल बनकर रह गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज के भारत में न्याय बिकता है,न्यायाधीश बिकते हैं और न्याय विलंबकारी तो है ही। हालाँकि न्यायिक सुधार विधेयक आनेवाला है परन्तु कब तक आएगा और कब तक कानून का रूप अख्तियार करेगा कोई नहीं जानता। हो सकता है तब तक कई-कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा कर ले।
मित्रों,गांधीजी जुआ को भी एक खतरनाक सामाजिक बुराई मानते थे। उनका मानना था कि अहिंसा पर आधारित स्वराज्य में बीमारी और रोग कम-से-कम हो जाएँ ऐसी व्यवस्था की जाती है। कोई कंगाल नहीं होता और मजदूरी करना चाहनेवाले को काम अवश्य मिल जाता है। ऐसी शासन-व्यवस्था में जुआ,शराबखोरी और दुराचार को या वर्ग-विद्वेष को कोई स्थान नहीं होता। (हरिजन,25-3-1939)परन्तु आज हो क्या रहा है? गांधी की विरासत संभालने का दावा कर रही कांग्रेस पार्टी की हरियाणा सरकार में कुछ दिन पहले तक गोपाल कांडा नामक एक मंत्री हुआ करता था। उसका गोवा में बहुत बड़ा अत्याधुनिक जुआघर है। कुछ साल पहले तक जूते की दुकान चलानेवाले मंत्रीजी को नित नई-नई लड़कियों के साथ सेक्स करने की बुरी लत भी थी सो आजकल श्रीमान् जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। मगर देखना यह भी है कि उनको कब तक जेल में रखा जाता है और कब बा(बे)ईज्जत बरी होकर वे बाहर आ जाते हैं और दोबारा मंत्री पद की शोभा बढ़ाते हैं।
मित्रों,गांधीजी के अनुसार सच्चा स्वराज्य थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं,बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में,स्वराज्य जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें है। (हिन्दी नवजीवन,29-1-1925) स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना,फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने पर लोग अपने जीवन की पर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुँह ताकना शुरू कर दें,तो वह स्वराज्य-सरकार किसी काम की नहीं होगी। (यंग इंडिया,6-8-1925) स्वराज्य की रक्षा केवल वहीं हो सकती है,जहाँ देशवासियों की ज्यादा बड़ी संख्या ऐसे देशभक्तों की हो,जिनके लिए दूसरी सब चीजों से-अपने निजी लाभ से भी-देश की भलाई का ज्यादा महत्त्व हो। स्वराज्य का अर्थ है देश की बहुसंख्यक जनता का शासन। जाहिर है कि जहाँ बहुसंख्यक जनता नीतिभ्रष्ट हो या स्वार्थी हो,वहाँ उसकी सरकार अराजकता की स्थिति पैदा कर सकती है,दूसरा कुछ नहीं। (यंग इंडिया,28-7-1921) इस प्रकार गांधीजी भावी भारतीय लोकतंत्र के बारे में स्पष्ट विचार रखते थे और उनका यथा प्रजा तथा राजा में अटूट विश्वास था। गांधीजी का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य था। उन्होंने कहा था कि मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं,वही तुम्हें भी सुलभ होनी चाहिए,इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। (यंग इंडिया,26-3-1931) अमीर लोग अपने धन का उपयोग बुद्धिपूर्वक उपयोगी कार्यों में करेंगे,अपनी शान-शौकत बढ़ाने में या शारीरिक सुखों की वृद्धि में उसका अपव्यय नहीं करेंगे। उसमें ऐसा नहीं हो सकता,होना नहीं चाहिए,कि चंद अमीर तो रत्न-जटित महलों में रहें और लाखों-करोड़ों ऐसी मनहूस झोपड़ियों में,जिनमें हवा और प्रकाश का प्रवेश न हो। (हरिजन,25-3-1939) परन्तु आज सच्चाई यह है कि एक तरफ तो सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारी 80% आबादी 20 रु. प्रतिदिन से कम में गुजारा करता है तो वहीं दूसरी ओर हमारा एक अमीर प्रतिमाह 70 लाख रु. का सिर्फ बिजली बिल भरता है और 4000 करोड़ रु. की लागत से अपने रहने के लिए महामहल बनाता है। गांधीजी भारत में लोकतंत्र के दुरुपयोग के प्रति भी कम सशंकित नहीं थे तभी तो उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है जिसमें खतरा न हो। संस्था जितनी बड़ी होगी,उसके दुरुपयोग की संभावनाएँ भी उतनी ही बड़ी होगी। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है,इसलिए उसका दुरुपयोग भी बहुत हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं,बल्कि दुरुपयोग की संभावना को कम-से-कम करना है। (यंग इंडिया,7-5-1931) जनता की राय के अनुसार चलनेवाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यदि वह जनमत के खिलाफ जाए तो नष्ट हो जाए। अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है। लेकिन राग-द्वेष,अज्ञान और अन्ध-विश्वास आदि दुर्गुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकता के गड्ढे में गिरता है और अपना नाश खुद कर डालता है। (यंग इंडिया,30-7-1931) मैंने अक्सर यह कहा है कि अमुक विचार रखनेवाला कोई भी पक्ष यह दावा नहीं कर सकता कि प्रस्तुत प्रश्नों के सही निर्णय केवल वही कर सकता है। हम सबसे भूलें होती हैं और हमें अक्सर अपने निर्णयों में परिवर्तन करने पड़ते हैं। (यंग इंडिया,17-4-1924) कहना न होगा कि हमारा लोकतंत्र गांधीजी की आशंकाओं पर पूरी तरह से खरी उतरी है। आज हमारा लोकतंत्र विकृत होकर भ्रष्टतंत्र और धनिकतंत्र में परिवर्तित हो गया है लोकतंत्र रहा ही नहीं। यह एक गहरी अंधेरी सुरंग में फँस चुकी है और इससे निकलने का कोई मार्ग सूझ भी नहीं रहा है।
मित्रों,गांधीजी समाज और व्यक्ति दोनों को अपनी-अपनी जगह महत्त्वपूर्ण मानते थे। एक तरफ जहाँ उनका विचार था कि अबाध व्यक्तिवाद वन्य पशुओं का नियम है। हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक संयम के बीज समन्वय करना सीखना है। समस्त समाज के हित के खातिर सामाजिक संयम के आगे स्वेच्छापूर्वक सिर झुकाने से व्यक्ति और समाज,जिसका कि वह एक सदस्य है,दोनों का ही कल्याण होता है। (हरिजन, 27-5-1939) वहीं दूसरी ओर उनका यह भी मानना था कि जब राज्यसत्ता जनता के हाथ में आती है,तब प्रजा की आजादी में होनेवाले हस्तक्षेप की मात्रा कम-से-कम हो जाती है। (हरिजन,11-1-1936) अगर व्यक्ति का महत्त्व न रहे,तो समाज में भी क्या सत्त्व रह जाएगा?वैयक्तिक स्वतंत्रता ही मनुष्य को समाज की सेवा के लिए स्वेच्छापूर्वक अपना सब-कुछ अर्पण करने की प्रेरणा दे सकती है। यदि उससे यह स्वतंत्रता छीन ली जाए,तो वह एक जड़ यंत्र जैसा हो जाता है और समाज की बरबादी होती है। वैयक्तिक स्वतंत्रता को अस्वीकार करके कोई सभ्य समाज नहीं बनाया जा सकता। (हरिजन,1-2-1942) परन्तु हमारी वर्तमान केंद्र सरकार,समाज और व्यक्ति के बीच अजीबोगरीब-पागलपन से भरा असंतुलन स्थापित करना चाहती है। वह एक तरफ तो भारतीय समाज को एकबारगी सेक्स फ्री समाज में बदल देना चाहती है जैसा कि उसके समलैंगिकता और वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने के कुप्रयासों से जाहिर है वहीं दूसरी तरफ वह सोशल मीडिया वेबसाईटों को नियंत्रित कर अपने स्वस्थ आलोचकों का मुँह बंद कर देना चाहती है। क्या इस तरह जो भारत बनेगा गांधी वैसा ही भारत बनाना चाहते थे? बल्कि गांधी तो वेश्यावृत्ति को अभिशाप के समान मानते थे। उन्होंने कहा था-वेश्यावृत्ति दुनिया में हमेशा रही है यह सही है। लेकिन आज की तरह वह कभी शहरी जीवन का अभिन्न अंग भी रही होगी,इसमें मुझे शंका है। जो भी हो,एक समय ऐसा जरूर आना चाहिए और आएगा जब कि मानव-जाति इस अभिशाप के खिलाफ उठ खड़ी होगी,और जिस तरह उसने दूसरे अनेक बुरे रिवाजों को,भले वे कितने भी पुराने रहे हों,मिटा दिया है,उसी तरह वेश्यावृत्ति को भी वह भूतकाल की चीज बना देगी। (यंग इंडिया,28-5-25)
मित्रों,ऐसा भी नहीं है कि गांधीजी सेक्स के विरोधी थे। उन्होंने तो बच्चों को काम-शिक्षा का भी समर्थन किया था परन्तु तब इसका लक्ष्य इस शिक्षा के द्वारा इस मनोविकार पर विजय प्राप्त करना होता। 21 नवंबर,1936 को हरिजन समाचार-पत्र में उन्होंने कहा था कि जिस काम-विज्ञान की शिक्षा के पक्ष में मैं हूँ,उसका लक्ष्य यही होना चाहिए कि इस विकार पर विजय प्राप्त की जाए और उसका सदुपयोग हो। यह सच्चा काम-विज्ञान कौन सिखाए? स्पष्ट है कि वही सिखाए जिसने अपने विकारों पर प्रभुत्व पा लिया है। (हरिजन,21-11-1936) गांधीजी पश्चिम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के भी विरोधी नहीं थे परन्तु उसी सीमा तक जिस सीमा तक भारतीय संस्कृति की मौलिकता अक्षुण्ण बनी रहे। गांधीजी के शब्दों में मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दी जाएँ। मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे। पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ और मैं औंधे मुँह गिर पडूँ। (यंग इंडिया,1-6-1921)
मित्रों,गांधीजी धर्म-परिवर्तन के सख्त खिलाफ थे। इस संबंध में उन्होंने कहा था कि मैं धर्म-परिवर्तन की आधुनिक पद्धति के खिलाफ हूँ। दक्षिण अफ्रीका में और भारत में लोगों का धर्म-परिवर्तन जिस तरह किया जाता है,उसके अनेक वर्षों के अनुभव से मुझे इस बात का निश्चय हो गया है कि उससे नए ईसाइयों की नैतिक भावना में कोई सुधार नहीं होता,वे यूरोपीय सभ्यता की नकल करने लगते हैं,किन्तु ईसा की मूल शिक्षा से अछूते ही रहते हैं। (यंग इंडिया,17-12-1925) मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना कम-से-कम अहितकर तो है ही। (यंग इंडिया,23-4-1931) कोई ईसाई किसी हिन्दू को ईसाई धर्म में लाने की या कोई हिन्दू किसी ईसाई को हिन्दू धर्म में लाने की इच्छा क्यों रखे? वह हिन्दू यदि सज्जन है या भगवद्-भक्त है,तो उक्त ईसाई को इसी बात से सन्तोष क्यों नहीं हो जाना चाहिए?(हरिजन,30-1-1937)
मित्रों,गांधीजी ऐसी अर्थव्यवस्था के समर्थक नहीं थे जिसमें मजदूरों का शोषण करके उद्योगपति अपनी तिजोरियाँ भरें। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं अर्थविद्या और नीतिविद्या न सिर्फ कोई स्पष्ट भेद नहीं करता,बल्कि भेद ही नहीं करता। जिस अर्थविद्या से व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण को हानि पहुँचती हो,उसे मैं अनीतिमय और इसलिए पापपूर्ण कहूंगा। उदाहरण के लिए,जो अर्थ-विद्या किसी देश को किसा दूसरे देश का शोषण करने की अनुमति देती है वह अनैतिक है। जो मजदूरों को योग्य मेहनताना नहीं देते और उनके परिश्रम का शोषण करते हैं,उनसे वस्तुएँ खरीदना या उन वस्तुओं का उपयोग करना पापपूर्ण है। (यंग इंडिया,13-10-21) जो अर्थशास्त्र धन की पूजा करना सिखाता है और बलवानों को निर्बलों का शोषण करके धन का संग्रह करने की सुविधा देता है,उसे शास्त्र का नाम नहीं दिया जा सकता। सच्चा अर्थशास्त्र तो सामाजिक न्याय की हिमायत करता है,वह समान भाव से सबकी भलाई का-जिनमें कमजोर भी शामिल हैं-प्रयत्न करता है। (हरिजन,9-10-1937) साथ ही गांधीजी पूंजी के संकेंद्रण के भी सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि भारत की जरुरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाए। पूंजी का ऐसा वितरण होना चाहिए कि वह इस 1900 मील लम्बे और 1500 मील चौड़े विशाल देश को बनानेवाले साढ़े-सात लाख गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। (यंग इंडिया,23-3-1921) परन्तु आज हम देश में क्या होता देख रहे हैं? हमारी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार और तमाम राज्य सरकारें येन केन प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा पूंजी को आकर्षित करना चाहती हैं जिसके चलते देश के समक्ष कई प्रकार की जटिलताएँ पैदा हो रही हैं। कभी नंदीग्राम सामने आ जाता है तो कभी हमें भट्ठा पारसौल को देखना पड़ता है। आज के भारत में पैसा ही भगवान हो गया है और सत्य और ईमानदारी मुँह छिपाए फिरते हैं।
मित्रों,आज देश बर्बाद होने के कगार पर है। यह वह भारत तो हरगिज नहीं है जिस भारत का सपना कभी हमारे राष्ट्रपिता ने देखा था। अंत में फिर से वही प्रश्न हमारे सामने आता है कि गांधी को किसने मारा? हमने अपने वृहद विश्लेषण में पाया कि गांधी को नाथूराम गोडसे ने अकेले नहीं बल्कि हम सबने मिलकर मारा और इसके लिए सबसे बड़ी दोषी है उनकी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस। चूँकि गांधीजी कांग्रेसी थे और उन्होंने ही कांग्रेस के मृतप्राय संगठन में नई जान डाली थी इसलिए उनके बताए मार्ग पर चलने और देश को चलाने की पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी कांग्रेस की ही थी। मुझे लगता नहीं कि इस कांग्रेस को अब गांधी याद भी हैं जिसका इस हद तक नैतिक पतन हो चुका है कि उसका नाम सुनते ही उबकाई-सी आने लगती है। फिर हम कैसे और क्यों उम्मीद रखें कि कांग्रेस फिर से गांधीजी के आदर्शों और विचारों को अपनाएगी? बांकी राजनीतिक दलों का तो वही हाल है कि बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुभानल्लाह। खैर जिसे नहीं अपनाना है नहीं अपनाए हम तो अपने राष्ट्रपिता के आदर्शों पर चलने का प्रण ले ही सकते हैं तो आईए हम सब प्रतिज्ञा करें और अपनों के द्वारा ही मार दिए गए गांधीजी को फिर से जीवन प्रदान करें। यही उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि भी होगी।
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