रविवार, 2 सितंबर 2012

सीरिया संकट और संयुक्त राष्ट्र संघ

मित्रों,सीरिया में इन दिनों जो कुछ हो रहा है वह किसी भी तरह न तो सीरिया के हित में है और न ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के हित में। दुर्भाग्यवश सीरिया इन दिनों विश्व की विभिन्न महाशक्तियों के लिए शक्ति-प्रदर्शन की प्रयोग-भूमि बन गया है। एक पक्ष जिसमें अमेरिकादि पश्चिमी देश हैं किसी भी कीमत पर सीरिया के तानाशाह राष्ट्रपति बशर अल असद को उखाड़ फेंकना चाहते हैं वहीं दूसरा पक्ष जिसका नेतृत्व चीन और रूस कर रहे हैं चाहे कितने भी मानव जीवन की कीमत पर असद को सत्ता में बनाए रखना चाहते हैं। रोजाना पक्ष और विपक्ष दोनों की सेनाएँ थोक में मानव-हत्याएँ कर रही हैं। एक-एक ईमारत से 200-250 तक लाशों का बरामद होना हमें एक बार फिर हिटलर के यंत्रणा-शिविरों की याद दिला रहा है। ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसका मन इस तरह की खबरों से व्यथित न हो जाए,निराशा से न भर जाए। क्या ईन्सान की कीमत अब टिड्डों से भी कम है? यह निराशा तब और भी घनीभूत हो जाती है जब हम देखते हैं कि वैश्विक व्यवस्था बनाए रखने के लिए गठित संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ के पास इस कत्लेआम को चुपचाप देखते रहने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है। तो क्या यह संगठन अब पूरी तरह से अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुँच चुका है? अगर नहीं तो फिर क्यों वह अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पा रहा है? क्यों अपने गठन के बाद से ही संयुक्त राष्ट्र संघ वियतनाम,कोरिया,चीन,ईरान-ईराक,भारत-पाक,अफगानिस्तान और अब सीरिया में खून की नदियों को देखकर भी मूकदर्शक बने रहने को बाध्य है?
                      मित्रों,वास्तविकता तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अब तक सही मायनों में एक वैश्विक संस्था बन ही नहीं पाई है बल्कि यह तो सुरक्षा-परिषद के 5 स्थाई सदस्यों का बंधक है। महासभा हालाँकि किसी भी मुद्दे पर प्रस्ताव पारित कर सकता है जैसा कि उसने सीरिया के मामले में भी किया लेकिन दुर्भाग्यवश उसके प्रस्ताव संबद्ध राष्ट्रों के लिए बाध्यकारी नहीं होते इसलिए उनका कोई वास्तविक मूल्य या महत्त्व नहीं होता। सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थायी सदस्य जब तक एकमत नहीं होते तब तक संयुक्त राष्ट्र कुछ कर ही नहीं सकता। परिणामतः हमारी दुनिया में फिर से वैसी ही अराजकता और अव्यवस्था कायम होती जा रही है जैसी कभी प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले कायम हो गई थी। हालाँकि भारत सहित कई देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के विस्तार को इस समस्या का हल मानते हैं परन्तु मुझे नहीं लगता कि इससे कोई खास लाभ होगा। अच्छा तो होता कि सुरक्षा परिषद को ही समाप्त कर दिया जाता और संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी सेना गठित कर दी जाती। साथ ही सारे कार्यकारी अधिकार महासभा को ही दे दिए जाते लेकिन इसमें भी एक बाधा है कि ऐसा होने पर वोटों की खरीद-बिक्री शुरू हो जाएगी जो एक नई समस्या होगी।
                        मित्रों,इस तरह दुनिया के सामने बड़ी विकट समस्या है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में किस तरह के परिवर्तन किए जाएँ जिससे इसकी प्रासंगिकता बचे ही नहीं बल्कि बढ़ सके। बात सिर्फ एक सीरिया या उत्तर कोरिया की नहीं है बल्कि प्रश्न यह है कि कैसे पूरे भूपटल पर मानवाधिकारों की रक्षा हो,मानव-जीवन को कैसे उच्चस्तरीय बनाया जाए और यह महती कार्य तब तक संभव ही नहीं है जब तक संयुक्त राष्ट्र संघ को हर तरह से सक्षम नहीं बना दिया जाए। इस दिशा में एक उपाय यह भी हो सकता है कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों का निषेधाधिकार समाप्त कर दिया जाए और इसमें सारे फैसले स्थायी और अस्थायी सदस्यों के मतों को मिलाकर बहुमत से हो। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी सेना होनी चाहिए या नहीं का प्रश्न भी कम जटिल नहीं है। इसकी अपनी सेना नहीं होने से तो नुकसान है ही परन्तु कुछ परिस्थितियों में ऐसा भी संभव है कि इसकी अपनी सेना का होना भी नुकसानदेह हो जाए। फिर यह सेना बनेगी तो सदस्य राष्ट्रों के लोगों से ही और उन्होंने योगदान देने से मना कर दिया तो?
                              मित्रों,समस्या जटिल है और वैश्विक स्थिति चीन के क्रमशः उभार के साथ काफी विस्फोटक होती जा रही है। अभी तक तो हमलोगों के सौभाग्यवश या फिर संयोगवश दुनिया की परमाणु हथियारयुक्त महाशक्तियों के बीच सीधा टकराव नहीं हुआ है लेकिन जिस तरह के आसार बन रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि बहुत दिनों तक इसे टाला जा सकेगा। अगर ऐसा हुआ तो तीसरा विश्वयुद्ध हुआ ही समझिए और तब संयुक्त राष्ट्र संघ तो समाप्त हो ही जाएगा शायद मानवता भी धरती पर बीते दिनों की बात हो जाए सलिए अब हाथ-पर-हाथ ऱखकर बैठने का समय नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ को अधिक शक्तिशाली बनाने का मार्ग खोजना ही पड़ेगा और नहीं मिले तो नया रास्ता बनाना पड़ेगा।                                                            

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