मित्रों,माँ की बात मानकर अब तक सत्ता को जहर के समान समझनेवाले राष्ट्रीय पुत्र राहुल गांधी अब 2014 के संसदीय चुनावों में कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने के लिए राजी हो गए हैं। इतना ही नहीं कल उन्होंने अपनी ऐतिहासिक चुप्पी तोड़ते हुए राजस्थान में अपना ऐतिहासिक भाषण भी दे डाला। परसों जो महाज्ञानी टेलीवीजन पर नरेन्द्र मोदी की वक्तृता-कला पर यह कहकर कटाक्ष कर रहे थे कि उनके भाषण में तथ्य भी था या नहीं अथवा इस प्रश्न पर मगजमारी कर रहे थे कि क्या अच्छा वक्ता अच्छा नेता भी होता है वही लोग अभी राहुल के भाषण में अलंकार,छंद,यति,गति,लक्षणा और व्यंजना की तलाश कर रहे हैं।
मित्रों,भारत के लोकतांत्रिक राजतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक,भारत के सबसे बड़े राजनैतिक परिवार के चश्मो चिराग राहुल गांधी कल के अपने भाषण में त्याग करने के लिए आतुर दिख रहे थे। दरअसल त्याग करना उनका खानदानी पेशा है। वर्ष 2004 में उनकी माँ ने भी त्याग किया था। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रिमोट से चलनेवाले एक यंत्र को बैठा दिया था और त्याग का फल भी प्राप्त कर लिया था। कदाचित् उसी फल को विदेशी बैंकों में जमा करने के लिए बेचारी को बार-बार बीमार होना पड़ता है। देश की अर्थव्यवस्था को जो राजरोग लगा है वह भी शायद उनके ही त्याग का और उसके फल का प्रतिफल है। मगर मैं जहाँ तक समझता हूँ कि राहुल जी दूसरी तरह के त्याग की बातें कर रहे थे। वे तो शायद जनता को यह बता रहे थे कि उन्होंने उनकी सेवा के लिए ही विवाह नहीं किया और 43 साल की बाली उम्र में भी कँवारे बने हुए हैं। पिछले सालों में राहुल जी जिस तरह विभिन्न महिलाओं के साथ भावपूर्ण मुद्रा में देखे जाते रहे हैं उससे तो यह नहीं लगता कि वे कँवारे भी हैं और ब्रह्मचारी भी बल्कि उससे तो यही लगता है कि वे आम खाने से मतलब रखते हैं पेड़ गिनने से नहीं। हो तो यह भी सकता है कि उन्होंने अमेरिका जैसे किसी दूरस्थ देश में शादी भी कर रखी हो और भविष्य में कभी पत्नी और बच्चों को जनता के सामने लाएँ वह भी तब जब त्याग करने या उसका दिखावा करने से कुछ भी लाभ होने की संभावना न रह जाए।
मित्रों,कल राहुल जी ने एक नारा भी दिया दो-चार रोटी खाएंगे,कांग्रेस को वापस लाएंगे। मुझे लगता है कि नारा देने में उन्होंने जल्दीबाजी कर दी। मोबाईल बँटने देते तब नारा देते कि दो-चार रोटी खाएंगे,मोबाईल से बतियाएंगे,कांग्रेस की लतियाएंगे। आश्चर्य में पड़ गए क्या? हमारे बिहार की जनता तो ऐसा ही करती है भाई। पैसा और सामान तो सबसे ले लेती है और सबसे कहती है कि हम तो आपको ही वोट देंगे और देती उनको ही है जिनको देना चाहिए सो बिहार में तो राहुल जी वाला नहीं मेरा वाला नारा चलनेवाला है।
मित्रों,राहुल जी के कल के भाषण में एक और बात स्पष्ट हो जाती है कि खाद्य सुरक्षा और भूमि-अधिग्रहण विधेयक उन्होंने ही पारित करवाया है। मैं तो समझता हूँ कि दूसरी पारी में मनमोहन सिंह ने बिल्कुल भी शासन किया ही नहीं माँ-बेटों ने ही देश को चलाया। पहली पारी में जरूर मनमोहन सिंह सक्रिय थे तो देश की हालत भी कोई बुरी नहीं थी। जबसे माँ-बेटे ने मनमोहन को पूरी तरह से निष्क्रिय कर स्वयं को सक्रिय किया है तभी से देश का बंटाधार हुआ जा रहा है। सारी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह को दे दी और सारे निर्णय स्वयं लेने लगे। अभी-अभी दो-तीन दिन पहले अखबार में पढ़ने को मिला कि सरकार सोनिया गांधी के अमेरिका से लौटने का इंतजार कर रही है। लौटने के बाद वही निर्णय लेंगी कि डीजल,पेट्रोल और गैस के दाम कितने बढ़ाएँ जाएँ। जब सारे फैसले वही ले रही हैं तो यह मनमोहन क्या कागजात पर ढोराई सिंह की तरह सिर्फ अंगूठा लगा रहा है? अभी तो गर्भ से ही प्रधानमंत्री पद धारण करने की योग्यता धारण करनेवाले राहुल गांधी तो भारत में ही थे क्या वो इस बारे में स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते थे? फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद कौन निर्णय लेगा वे या उनकी रहस्यमयी विदेशी यात्राओं वाली माँ जिसके निर्णयों ने भारत को मात्र पाँच सालों में सोने की चिड़िया से अंतर्राष्ट्रीय भिखारी बना दिया? जो काम आईएसआई कठिन परिश्रम करके भी 50 सालों में नहीं कर सकी वही काम इन्होंने मात्र 5 सालों में बड़ी ही आसानी से करके दिखा दिया।
मित्रों,जाहिर है कि राहुल प्रधानमंत्री बनें या न बनें देश की स्थिति में कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए कोई बदलाव नहीं आनेवाला है। कांग्रेस के राज में देश की जो हालत अभी है वही या उससे भी बुरी हालत राहुल के प्रधानमंत्री बनने के बाद होनेवाली है। हम सब जानते हैं कि राहुल जी की पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथ छाप है। पहले जहाँ उनकी पार्टी हर हाथ को काम देने के वादे करती थी आजकल हर हाथ को भीख देने की बात कर रही है-दो-चार रोटी। देश का खजाना तो खा गए रोजगार तो दे नहीं सकते तो वे अब जनता को ईज्जत की रोटी के स्थान पर भीख की रोटी ही दे सकते हैं। इस बार अगर कांग्रेस जीत गई और राहुल प्रधानमंत्री बन गए तो निश्चित रूप से 2019 के संसदीय चुनावों में वे नया नारा कुछ इस तरह बनाएंगे-लाशों को कफन ओढ़ाएंगे,कांग्रेस को चौथी बार जिताएंगे क्योंकि तब तो खजाने में भीख की रोटी देने लायक भी पैसा नहीं रहेगा। हाँ,सोनिया जी की विदेश-यात्राओं में कई गुना की बढ़ोतरी जरूर हो जाएगी।
मित्रों,एक बार फिर से जिन्ना का जिन्न इतिहास की बोतल से बाहर आ गया है। एक बार फिर से यह बहस परवान पर है कि जिन्ना क्या थे और उनकी विचारधारा क्या थी? निस्संदेह जिन्ना एक पढ़े-लिखे और सुसंस्कृत व्यक्ति थे। शुरू में उनके विचार भी समन्यवादी थे। 1916 का लीग-कांग्रेस समझौता उनके ही मस्तिष्क की उपज थी लेकिन उसके बाद जिन्ना की सोंच और विचारधारा में लगातार स्खलन होता गया और 24 मार्च,1940 आते-आते जिन्ना का एक समन्वयक से विभाजक में पूरी तरह से रूपान्तरण हो चुका था। अब जिन्ना यह नहीं कहते थे कि हिन्दू और मुसलमान भारतमाता के दो बेटे हैं बल्कि वे तो अब यह कहते और मानते थे कि हिन्दू और मुसलमान सिर्फ दो संप्रदाय नहीं हैं बल्कि दो राष्ट्र हैं और वे एक साथ भारत में रह ही नहीं सकते। बाद में जब पाकिस्तान बन गया तो एक बार फिर उन्होंने विचारधारात्मक यू टर्न लिया और यह कहते हुए पाए गए कि आधुनिक इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान में सभी संप्रदायों को मिलजुल कर रहना होगा और एक साथ मिलकर नए और आधुनिकता से ओतप्रोत पाकिस्तान की रचना करनी होगी। मतलब जो हिन्दू और मुसलमान अविभाजित भारत में एक साथ नहीं रह सकते थे उन्हीं हिन्दू और मुसलमानों का धर्म के आधार पर बने नए राष्ट्र पाकिस्तान में एक साथ रहना जिन्ना की दृष्टि में बिल्कुल संभव था। इतना ही नहीं जिन्ना का यह भी मानना था कि इस नवोदित राष्ट्र में सभी धर्मों के माननेवालों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता होगी लेकिन होगा वह इस्लामिक राष्ट्र ही। अर्थात् जिन्ना पाकिस्तान को तुर्की के पदचिन्हों पर चलाना तो चाहते थे लेकिन सीमित संदर्भों में ही। वे उसे तुर्की की तरह पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भी घोषित नहीं करना चाहते थे और न ही कर सकते थे। दरअसल ऐसा करना उनकी मजबूरी भी थी। उन्होंने कांग्रेस की तरह देश के नाम पर आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी थी उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी धर्म के नाम पर। वे सिर्फ अंग्रेजों से ही आजादी की मांग नहीं कर रहे थे बल्कि उनके अनुसार उनकी असली आजादी की लड़ाई तो हिन्दुओं की पार्टी कांग्रेस से थी जबकि सच्चाई तो यह थी कि उस समय भी कांग्रेस सिर्फ हिन्दुओं की संस्था नहीं थी बल्कि उसके समर्थकों में मुसलमान भी भारी तादाद में थे। फिर सवाल उठता है कि जिन्ना अचानक इस तरह के सपने क्यों देखने लगे थे जिनको सच करना संभव ही नहीं था।
मित्रों,समस्या जिन्ना के सपने में नहीं बल्कि खालिश समस्या उनके व्यक्तित्व और सोंच में थी। जिन्ना मिर्च की मिठाई बनाना चाहते थे। वे एक तरफ तो यह चाहते थे कि अभूतपूर्व खून खराबी कराके भी मुसलमानों के लिए एक अलग देश का निर्माण करवा लें वहीं दूसरी ओर उनकी हार्दिक ईच्छा थी कि नवनिर्मित राष्ट्र आधुनिकता की राह पर चलनेवाला हो। जब मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं मिल रहा था तब तो कहा अल्लाह हो अकबर का नारा लगाने को और दंगा करने को। 16 अगस्त,1946 की तिथि निर्धारित की सीधी कार्रवाई के लिए। उनके अनुयायी मुसलमानों ने किस प्रकार सीधी कार्रवाई की इसका प्रमाण उस ब्रिटिश रिपोर्ट में मिलता है जो यह कहता है कि 16 अगस्त,1946 के सूर्योदय से लेकर तीन दिन उपरान्त सूर्यास्त तक कलकत्ता के लोगों को निर्ममतापूर्वक पीटा गया,कुचल-कुचल करके मारा गया,जलाया गया,छुरों से घायल किया गया या 6000 लोगों को गोलियों से भून दिया गया और 20000 लोगों के साथ या तो बलात्कार किया गया या उन्हें मार-मार कर अपंग बना दिया गया। वही जिन्ना जब पाकिस्तान मिल गया तो शांति,सद्भाव,सहअस्तित्व और तुर्की की तरह के प्रगतिशील पाकिस्तान की बातें करने लगे। जबकि जिन्ना को यह अच्छी तरह से पता था कि उनको कैंसर है और इसलिए उनके पास अपने इन नए तरह के सपनों को साकार करने की मोहलत ही नहीं है जो भी करना है उनके उत्तराधिकारियों को करना है।
मित्रों,इस प्रकार हम पाते हैं कि जिन्ना घोर अवसरवादी थे और उनकी ही तरह उनके सपने भी अवसरवादी थे जो हमेशा रंग बदलते रहते थे। दरअसल जिन्ना एक हिन्दी फिल्म के पात्र अपरिचित की तरह विभाजित व्यक्तित्व की बीमारी से ग्रस्त थे। जिस कालखंड में नंदी हावी रहता वो शांति और सद्भाव की बातें करते और जब अपरिचित हावी हो जाता तो सिर्फ विध्वंस और बाँटने की। अपने जीवन के अंतिम काल में जिन्ना यह समझ चुके थे कि नए तरह के पाकिस्तान के निर्माण का जो सपना वे देख रहे हैं वह कभी पूरा नहीं होगा और पाकिस्तान भविष्य में एक मध्यकालीन इस्लामिक राष्ट्र बनकर रह जाएगा जिसकी बुनियाद होगी शरियत और कट्टरवाद। वह पाकिस्तान एक ऐसा पाकिस्तान होगा जहाँ चारों तरफ फिजाओं में सिर्फ और सिर्फ बारूद की गंध होगी और जमीन पर पड़ी होगी गोलियों से छलनी मलाला युसुफजई। हम सभी यह जानते हैं कि मरने के समय जिन्ना ने अपने डॉक्टर कर्नल इलाही बख्श से कहा था कि पाकिस्तान का निर्माण उनकी जिन्दगी की सबसे बड़ी गलती थी। काश,जिन्ना को अपनी इस सबसे बड़ी गलती का अहसास 24 मार्च,1940 से पहले हो गया होता!
मित्रों,जब भी किसी प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होते हैं तो वहाँ की जनता इस उम्मीद में सत्ता-परिवर्तन करती है कि आनेवाली सरकार निवर्तमान सरकार की तरह भ्रष्ट नहीं होगी और कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार लाएगी। परंतु मेरी समझ में यह नहीं आता कि उत्तर प्रदेश की जनता ने किस उम्मीद पर 17 महीने पहले समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत देकर जिताया। पुराने रिकार्ड तो यही बता रहे थे कि जब भी समाजबाँटी पार्टी यूपी में सत्ता में आती है भ्रष्टाचार बढ़ता है और पूरी तरह से गुंडा-राज कायम हो जाता है। बात यहीं तक रहती तो फिर भी गनीमत थी इस बार तो जबसे सपा की सरकार बनी है राज्य में हर हफ्ते कहीं-न-कहीं जेहादी दंगे हो रहे हैं। 17 महीने में 104 से भी ज्यादा सांप्रदायिक दंगे वो राज्य के 30 विभिन्न जिलों में। आखिर उत्तर प्रदेश को इन 17 महीनों में हो क्या गया है? क्या उसका नाम बदलकर अब दंगा प्रदेश रखना पड़ेगा?
मित्रों,जब भी दंगों की बात चलती है तो मीडिया और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी दलों की जुबान पर सिर्फ एक ही नाम होता है-2002 के गुजरात के दंगे। मानो न तो उसके पहले भारत ने कभी सांप्रदायिक दंगा देखा था और न तो उसके बाद ही दंगे हुए। पिछले आठ दिनों से मुसलमान मुजफ्फरनगर में जो कुछ भी कर रहे हैं क्या वो सांप्रदायिकता नहीं है या उन्हें दंगों की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? जब 21 में से 16 मरनेवाले हिन्दू हों तो सिर्फ हिंसक झड़प या हिंसा और जब 12 में से 7 मुसलमान हों तब सांप्रदायिक दंगा,फासिज्म वगैरह।
मित्रों,मैं यहाँ यह कामना नहीं कर रहा हूँ कि जब भी दंगे हों तो ज्यादा संख्या में मुस्लिम मारे जाएँ परंतु मैं यह भी नहीं चाहता हूँ कि हम इस तथ्य से मुँह चुराने लगें कि पिछले 100 सालों में भारत में क्यों दंगे होते रहे हैं। इतिहास गवाह है कि ये मुसलमान ही थे जिन्होंने 16 अगस्त,1946 की तिथि निर्धारित करके बाजाप्ता दंगों की शुरुआत की थी और उसके बाद तो 40 लाख लोग उन दंगों में मारे गए। मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह दावा करता हूँ कि दंगे चाहे मुजफ्फरनगर में हों या आजाद मैदान में या फिर गुजरात या भागलपुर में हों दंगों की शुरुआत हमेशा मुसलमान करते हैं क्योंकि उनका धर्म सिर्फ नाम से ही शांतिवादी है व्यवहार में तो घनघोर असहिष्णुतावादी और असहअस्तित्ववादी है। मुगल सल्तनत के कुछेक सालों और बाद के टीपू सुल्तान सरीखे गिनती के शासकों को छोड़कर उसके दोनों हाथों में कभी कुरान नहीं रहा बल्कि उसके एक हाथ में हमेशा कुरान रहा तो दूसरे हाथ में तलवार। आज जो लोग पानी पी-पीकर मोदी को गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं उनको भी यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि अगर 27 फरवरी,2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के 59 रामसेवकों जिनमें से अधिकतर महिलाएँ और बच्चे थे को स्थानीय मुसलमानों द्वारा जिंदा जलाया नहीं गया होता तो कदापि गुजरात में 28 फरवरी से 2 मार्च तक दंगे नहीं हुए होते। उनको यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उसके बाद गुजरात में फिर कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए जबकि घनघोर अल्पसंख्यकवादी समाजबाँटी पार्टी की सरकार में यह रोजाना की बात हो गई है।
मित्रों,अभी कुछ दिनों पहले समाजबाँटी पार्टी के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा था कि उनकी पार्टी यूपी को गुजरात नहीं बनने देगी। मैं उनसे बिल्कुल सहमत हूँ कि वे लोग यूपी को कभी गुजरात बना ही नहीं सकते बल्कि उनकी पार्टी की सत्तालोलुप नीतियाँ उत्तर प्रदेश को अफगानिस्तान जरूर बना देगी। वो दिन दूर नहीं जब हिन्दू यूपी में न तो पूजा-पाठ ही कर पाएंगे और न ही श्मशानों में अंतयेष्टि ही संपन्न कर सकेंगे। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह हिन्दुओं की बहू-बेटियों को जबर्दस्ती घरों से उठा लिया जाएगा। ज्ञातव्य हो कि मुजफ्फरनगर के दंगों की शुरुआत भी मुस्लिम शोहदों द्वारा हिन्दू दलित लड़कियों से छेड़खानी के कारण हुई। इस सिलसिले में हुई हिंसा में 27 अगस्त को कावल गाँव में दो लोग मारे गए। कई दिनों तक लगातार परेशान किए जाने के बाद जब हिन्दुओं ने महापंचायत का आयोजन किया तो पहले तो यूपी पुलिस ने उनके हथियार जब्त कर लिए और बाद में मुसलमानों ने आग्नेयास्त्रों से उन पर हमला कर दिया जिससे कम-से-कम आधा दर्जन हिन्दू घटनास्थल पर ही मारे गए। बाद में जब हिन्दू भड़क उठे तब मुसलमानों की रक्षा के लिए तुरंत सेना बुला ली गई।
मित्रों,क्या इस घृणित कृत्य के बाद भी मुल्ला यम सिंह यादव परिवार को हिन्दू बिरादरी का सदस्य मानते हैं और अगर मानते हैं तो क्या मानना चाहिए? यह परिवार जबसे 15 मार्च,2012 से सत्ता में आया है इसने जेहादियों को अपने धर्मभाइयों को निबटाने का ठेका दे दिया है। पहले इसने गोवधशालाओं में गायों को काटने का लाइसेंस दिया और अब जैसे अपने धर्मभाइयों के संहार का परमिट दे दिया है। मैं उत्तर प्रदेश में रहनेवाले उन हिन्दुओं से पूछना चाहता हूँ जो अभी भी सपा,बसपा और कांग्रेस के समर्थक हैं कि मुजफ्फरनगर क्या गुजरात में स्थित है? क्या उन्होंने तब तक होश में नहीं आने की कसम ले रखी है जब तक कि जेहादी हिंसा की लपटें उनके परिवार को झुलसाने न लगे? आँखे खोलिए और न सिर्फ यूपी बल्कि पूरे भारत को गुजरात बनाईए और नरेन्द्र मोदी को उसका पीएम तभी सांप्रदायिक दंगों से स्थायी रूप से मुक्ति मिल पाएगी। अभी तो यूपी में 20% ही मुस्लिम जनसंख्या है जब यह 45-50% हो जाएगी तब आपकी बहन-बेटियों का क्या होगा आपलोग खुद ही समझ सकते हैं। आपने मुंबई के शक्ति मिल गैंग रेप के बारे में वो खबर तो जरूर पढ़ी होगी कि इन बलात्कारियों (जिनमें से कम-से-कम 4 बांग्लादेशी मुसलमान घुसपैठिए हैं) ने बलात्कारों की एक स्वर्णिम शृंखला कायम की है और हमारी अतिथि देवो भव के महान विश्वास की पूरी तरह से गलत ठहराते हुए अब तक हमारी कम-से-कम 10 बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार जैसे नृशंस अपराध को अंजाम दे चुके हैं।
मित्रों,क्या आपको मेरी बातें अटपटी लग रही हैं? हो भी सकता है लेकिन मैं किसी भी तरह का नशा नहीं करता हूँ और चौबीसों घंटे होशोहवाश में रहता हूँ। यह पूरी तरह से सच है कि चीन भारत पर हमला कर चुका है। इतना ही नहीं उसके आक्रमण का पहला चरण पूरा हो भी चुका है और उसका हमला अब दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है। पहले चरण में चीनी सेना बार-बार हमारे इलाके में घुसती थी और फिर वापस चली जाती थी। ऐसा वो बार-बार करती रही। दूसरे चरण में चीनी सेना जिस इलाके में दाखिल हो रही है उस पर कब्जा कर ले रही है और फिर हमारी सेना को उस इलाके में गस्त भी नहीं करने दे रही है। जब हम इसका विरोध करेंगे तो सैनिक झड़पें होंगी और फिर चीनी हमले का तीसरा और निर्णायक चरण शुरू होगा जिसमें वो हमारे खिलाफ इस आरोप के साथ पूर्ण युद्ध की घोषणा कर देगा कि हमने ही उनके इलाकों पर हमला किया है। अगर आपने पिछले दो दिनों के अखबार पढ़े हैं या समाचार चैनल देखे हैं तो आप इस बात से अच्छी तरह वाकिफ होंगे कि चीनी सेना ने लद्दाख में हमारे 640 वर्ग किमी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया है और अब हमारे सैनिकों को वो उस इलाके में गस्त भी नहीं करने दे रही है। इस तरह मेरा यह कहना शत-प्रतिशत सही है कि चीन का हमारे देश पर हमला अब दूसरे चरण में पहुँच चुका है और आगे तीसरा चरण बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहा है।
मित्रों,ऐसा मैं किसी स्वप्न के आधार पर नहीं कह रहा हूँ और न ही मैं कोई भविष्यवक्ता ही हूँ बल्कि ऐसा मैं 1962 के भारत-चीन युद्ध के आधार पर कह रहा हूँ। परन्तु हम इस बात से बेखबर हैं और हमारी केंद्र सरकार अगंभीर कि चीनी सेना धीरे-धीरे दिल्ली की तरफ बढ़ने लगी है। आपने कभी सोंचा है कि हमारी सरकार ऐसा क्यों कर रही है? जिस तरह से हमारी इस सरकार ने चीन की सारी गुस्ताखियों पर मिट्टी डालकर चीन के साथ रिश्ते प्रगाढ़ किए हैं और जिस तरह से इस सरकार के द्वारा पिछले सालों में सैन्य व्यय में चीन के समानुपात में भारी कटौती की गई और जिस तरह जानबूझकर हमारी तीव्रगामी अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया गया उससे तो एक अलग ही तरह का संदेह मेरे मन में पैदा हो रहा है। अभी भी जबकि चीन की हमारी सीमाओं पर आक्रामकता खुलकर सामने आ चुकी है तब भी हमारी केंद्र सरकार चीन को भारत में सड़कें और रेल फैक्ट्री बनाने का ठेका दे रही है। मैं देश के कथित प्रधानमंत्री जी से यह पूछना चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री जी क्या दुनिया के किसी दूसरे देश में ऐसा होता है क्या? अभी-अभी कुछ ही दिन पहले बिहार के मधेपुरा में चीन को रेलवे फैक्ट्री बनाने का काम दिया गया है।
मित्रों, हम सभी जानते हैं कि सीमांचल का वह इलाका जिसमें मधेपुरा आता है सामरिक दृष्टि से हमारे लिए काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि किशनगंज के पास हमारा गलियारा मात्र 32 किमी चौड़ा है जिस पर अगर चीन कब्जा कर लेता है तो हमारा पूर्वोत्तर इलाका हमसे छिन जाएगा। फिर क्यों उस इलाके में चीनियों को आने-जाने के अवसर दिए जा रहे हैं? सवाल यह भी उठता है कि ऐसा हमारी केंद्र सरकार कहीं जानबूझकर तो नहीं कर रही है? मैं नहीं मानता कि हमारी सरकार के मंत्री इन तथ्यों से पूरी तरह से अनजान हैं और बच्चे हैं। आश्चर्य होता है कि हमारी सरकार को हो क्या गया है? क्यों उसे चीनी हमला नहीं दिखाई दे रहा? उसे तेल और सोने के आयात का बिल तो दिख रहा है लेकिन चीन-भारत के बीच लगातार बढ़ता और 2012-13 में 40.77 अरब डॉलर तक पहुँच गया व्यापार घाटा दिखाई नहीं दे रहा? आपको यह जानकर अचरज होगा कि 2001-02 में भारत और चीन के बीच व्यापार घाटा मात्र 1.08 अरब डॉलर था। हमारी कीमत पर चीन फल-फूल रहा है और हमारी सरकार कोई सार्थक कदम उठाने के बदले उसके साथ प्यार की पींगे पढ़ रही हैं? केंद्र सरकार ने अब तक क्यों चीन से आयात होनेवाले 30000 करोड़ रुपए के मोबाइलों और हजारों करोड़ रुपए के अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के आयात पर रोक नहीं लगाई या आयात-कर नहीं बढ़ाया? कहीं हमारी केंद्र सरकार ने हमें और हमारे देश के हितों को चीन के हाथों बेच तो नहीं दिया है? जो लोग कागज के चंद टुकड़ों की खातिर भारत के पाताल,जमीन और आकाश पर अनगिनत घोटाले कर सकते हैं और फिर सबूत मिटाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय जैसे अतिसुरक्षित क्षेत्र से भी फाइलें चोरी करवा सकते हैं या कर सकते हैं वे क्या कुछ ज्यादा पैसा मिल जाने पर देश का ही एकमुश्त सौदा नहीं कर सकते? हमारे देश में कुछ लोग ईमान का सौदा करते हैं लेकिन जिनके पास ईमान है ही नहीं वे किसका सौदा करेंगे? क्या वो बेहिचक अपनी माँ और मातृभूमि को भी नहीं बेच डालेंगे?
मित्रों,याद कीजिए कि जब वर्ष 2004 में यूपीए की सरकार सत्ता में आई थी तब नेपाल में राजतंत्र हुआ करता था जो भारत के लिए मुफीद भी था परन्तु न जाने क्यों हमारी आत्मघाती सरकार ने सबकुछ समझते-बूझते हुए भी नेपाल में राजतंत्र का अंत हो जाने दिया और उसे थाली में सजाकर माओवादियों को उपहार में दे दिया। आज यह एक कटु सच्चाई है कि आज का नेपाल हमसे ज्यादा चीन के निकट है। इसी तरह से वर्ष 2004 में हम आर्थिक मोर्चे पर चीन से बहुत पीछे नहीं थे लेकिन आज हम उससे कई दशक पीछे हो चुके हैं। चीन जहाँ आज दुनिया की दूसरी आर्थिक महाशक्ति है हम फिर से अंतर्राष्ट्रीय भिखारी बन गए हैं। आज हमारी हालत 1991 से भी कहीं ज्यादा खराब हो चुकी है। क्या हमारी केंद्र सरकार का पूरा-का-पूरा मंत्रीमंडल पिछले साढ़े चार सालों में देश को आर्थिक मोर्चे पर कमजोर करने में जानबूझकर नहीं लगा हुआ है? क्या गार (General Anti Avoidance Rules) कानून लाते समय हमारे तत्कालीन वित्त मंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पता नहीं था कि यह कानून विदेशी निवेशकों को बिदका देगा? क्या 2005 में मनरेगा लाते समय हमारे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम नहीं जानते थे कि इसके माध्यम से दोबारा सत्ता भले ही प्राप्त हो जाए देश की अर्थव्यवस्था को कोई लाभ नहीं होगा बल्कि उल्टे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा? जहाँ 1930 के दशक में अमेरिका में लागू किए गए न्यू डील से अमेरिका की सिंचाई-व्यवस्था को अभूतपूर्व लाभ हुआ मनरेगा से भारतीय अर्थव्यवस्था को सिर्फ हानि हुई लाभ कुछ भी नहीं हुआ और यह योजना राशि की बंदरबाँट बनकर रह गई।
मित्रों,क्या हमारी वर्तमान सरकार नहीं जानती है कि खाद्य सुरक्षा कानून से जहाँ गरीबों को मिलनेवाले खाद्यान्न में कमी आएगी वहीं सरकार का खर्च भी 30-40 हजार करोड़ रुपए तक बढ़ जाएगा जिसके परिणामस्वरूप पहले राजकोषीय घाटा बढ़ेगा और फिर बाद में महँगाई भी। इतना ही नहीं हमारी केंद्र सरकार यह भी भलीभाँति जानती है कि अभी संसद में विचाराधीन भूमि अधिग्रहण विधेयक के आने से अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी के इस घनघोर संकट काल में नए उद्योग स्थापित करने में न केवल बाधा आएगी बल्कि नए उद्योगों की स्थापना पूरी तरह से असंभव ही हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने जब सिर्फ गोवा में लौह-अयस्क की खुदाई पर रोक लगाई तो क्या कारण था कि भारत सरकार ने पूरे देश में इसकी खुदाई और निर्योत रोक दिया और व्यापार-घाटे को जान-बूझकर बढ़ जाने दिया? जबकि भारत में कोयले का अकूत भंडार है तब भी भारत सरकार ने कोयले के उत्पादन को क्यों नहीं बढ़ाया और उल्टे कोयले के आयात को क्यों प्रोत्साहित किया गया? आज हम बेवजह 20 हजार करोड़ रुपए का कोयला आयात करते हैं। हमारे रक्षा मंत्री किसी पेशेवर झूठे की तरह फरमा रहे हैं कि चीन सैन्य-मोर्चे पर हमसे डरने लगा है। क्या डरा हुआ पक्ष उल्टे जमीन पर कब्जा करता है?
मित्रों,अब तक आप यह अच्छी तरह से समझ गए होंगे कि हमारी अर्थव्यवस्था की बदहाली के लिए अंतर्राष्ट्रीय हालात कतई जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि उसे तो षड्यंत्रपूर्वक हमारी केंद्र सरकार द्वारा बर्बाद किया गया है। हमारी सैन्य-क्षेत्र में आत्मनिर्भरता स्वतः नष्ट नहीं हुई है َऔर हम आज दुनिया के सबसे बड़े हथियार-आयातक यूँ ही नहीं बने हैं वरन् इन सबके पीछे कमीशनखोरी तो है ही कदाचित् हमारी सुरक्षा को हमें धोखा देकर हमारे नीति-निर्माताओं ने चीन के हाथों बेच दिया है। अगर ऐसा नहीं है और हमारी सरकार अभी से भी मुझे और मेरे आरोपों को गलत साबित करना चाहती है तो मैं उसे खुली चुनौती देता हूँ कि वो अविलंब चीन से भारत में होनेवाले आयात पर प्रभावी रोक लगाए। याद रहे कि आज हम चीन के हाथों जितने रुपए का सामान बेचते हैं वो हमारे हाथों उससे कहीं 8 गुना ज्यादा का बेचता है। इतना ही नहीं जिस तरह से चीनी सेना हमारे क्षेत्रों पर कब्जा कर रही है जैसे कि उसने अभी लद्दाख में किया है वैसे ही भारतीय सेना को भी चीनी कब्जेवाले क्षेत्रों पर कब्जा करने की छूट दी जानी चाहिए। सीमा पर हमारी तैयारियों को पुख्ता किया जाए और युद्ध-स्तर पर सड़कें और रेलवे-लाईन बिछाई जाए। इन सबके लिए अगर देश में वित्तीय आपातकाल भी लगाना पड़े तो वो भी लगाया जाए। इतना ही नहीं केंद्र सरकार को भारत में भी विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण के लिए हरसंभव प्रयास करने चाहिए। इसके लिए अगर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को 100 प्रतिशत तक भी करना पड़े तो करना चाहिए।
मित्रों,मैं जानता हूँ कि हमारी वर्तमान सरकार कभी ऐसा नहीं करेगी। बल्कि मुझे तो यह भी लगता है कि आईएनएस सिंधुरक्षक दुर्घटना में भी चीन-पाक का हाथ है और हमारी सरकार मिलीभगत के चलते मामले को दबा रही है। हमारी सरकार बिक चुकी है और साथ ही हमें भी बेच चुकी है। अब तो इस सरकार ने एक घोटाला मास्टर को ही सीएजी बना दिया है। अब तो सीएजी कोई घोटाला उजागर करेगी ही नहीं। सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का? करो घोटाले,खूब करो,नंगा नृत्य करो देश की अर्थव्यवस्था के सीने पर क्योंकि अब घर की बात घर में ही रह जानेवाली है। भैया दाग अच्छे ही नहीं बहुत अच्छे हैं। ढूंढ़ों और दागियों को और बिठाओ सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर।
मित्रों,ऐसे में अगर 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी व पारिवारिक पार्टियाँ जिनमें जदयू,राजद,बसपा,सपा,सीपीएम,सीपीआई आदि शामिल हैं जीत जाती हैं तो यकीन मानिए कि हमारे प्यारे भारत को एक बार फिर से आर्थिक,भौगोलिक और राजनैतिक रूप से गुलाम होने से कोई नहीं बचा सकता है। फैसला आपके हाथों में हे कि आप एक आजाद देश का आजाद नागरिक बनकर रहना चाहते हैं या एक गुलाम राष्ट्र का गुलाम नागरिक बनकर?
मित्रों,इन दिनों दुर्भाग्यवश मीडिया से लेकर नुक्कड़ तक पर सबसे ज्यादा चर्चा जिस व्यक्ति की हो रही है वह एक प्रतिष्ठित हिन्दू संत है और उसका नाम है आशाराम बापू। मुझे इस व्यक्ति पर संदेह करीब दो दशक पहले पहले-पहले तब हुआ था जब मैंने बनारस में उसका पंचसितारा आश्रम देखा परंतु मैंने यह कभी सोंचा भी नहीं था कि यह आदमी इतना घृणित निकलेगा। आशाराम जैसे ढोंगी,पाखंडी और व्यभिचारी का इस कदर हिन्दुओं के बीच लोकप्रिय हो जाना कि उसके 2 करोड़ शिष्य हों हिन्दुओं के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाता है। जब रुपया गिरता है,जब चीन-पाकिस्तान हमारे देश की सीमाओं पर घुसपैठ करते हैं,जब कोई नेता महाघोटाला करता है या जब किसी नेता के खिलाफ सीबीआई आय से बहुत अधिक संपत्ति रखने के मामले को बंद करने की दिशा में पहल करती है तब तो भारत की गलियों में कोई इन्सान तो क्या कुत्ता तक नहीं भूँकता है और जब आशाराम जैसे पामर पर बलात्कार का मामला दर्ज भर होता है तो हजारों जनता उमड़ पड़ती है सड़कों पर लाठी-डंडा लेकर। जिस देश में इस तरह की अंधी जनता रहती हो और सरकार चुनती हो उस देश की दुर्गति नहीं होगी तो और क्या होगा?
मित्रों,आज सुबह आजतक पर मैंने भी आशाराम का एक स्टिंग ऑपरेशन देखा जिससे यह प्रमाणित हो जाता है कि आशाराम एक निहायत लंपट और कामुक ड्रैकुला है। इस वीडियो में उसने सचमुच अपनी पोती की उम्र की महिला पत्रकार को अपने साथ में अकेले जंगल जाने और सोने का आमंत्रण दिया है। प्रश्न उठता है कि क्या आशाराम को आदमी की श्रेणी में रखा जा सकता है? क्या वो राक्षस नहीं है? क्या कोई शैतान,अपराधी,नरपिशाच केवल संत का बाना धारण कर लेने से संत हो जाता है? क्या हम हिन्दुओं को अपना गुरू चुनने और उससे दीक्षा लेने में पूरी सावधानी नहीं रखनी चाहिए? क्या ईश्वर हमारे बाहर हैं,हमारे भीतर नहीं हैं जो हम उसे दर-दर ढूंढते फिरते हैं? क्या कोई दूसरा व्यक्ति किसी के ग्रह-नक्षत्रों को ठीक कर सकता है? क्या ईश्वर और भक्त के बीच किसी बिचौलिये की उपस्थिति अनिवार्य है? क्या भक्ति पूर्णतया व्यक्तिगत मामला नहीं है?
मित्रों,आजकल एक बार फिर से निर्मल बाबा के कृपा बेचने का धंधा चल निकला है। हमारे टीवी चैनलों की धनलोलुपता से फायदा उठाकर यह शैतान फिर से जनता को ठगने में सफल होने लगा है। जिस दिन हम हिन्दू यह समझ लेंगे कि सफलता को कोई शॉर्ट कट नहीं होता और परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता उसी दिन चाहे आशाराम हों या निर्मल बाबा या फिर कोई और इन सभी ठगों,साधू के वेश में छिपे राक्षसों की दुकानों पर ताला लग जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है कि सर्वधर्मपरित्यज्यमामेकंशरणंब्रज फिर हम क्यों किसी हाड़-मांस के पुतले को भगवान मान लेते हैं?
मित्रों,मुझे महनार में गंगा तट पर एक बार कोई ढाई दशक पहले परम संत स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती के साक्षात्कार का अवसर मिला था। सरस्वती जी प्रत्येक मनुष्य,प्रत्येक जीव को साक्षात् नारायण समझते थे और नारायण कहकर ही संबोधित भी करते थे। अति विनम्र और मृदुभाषी थे सरस्वती जी। पूरी तरह से निराभिमानी। उनके मन में न तो कभी मुख्यमंत्रियों से मिलने की अभिलाषा जागी और न तो ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की। उनके मन में काम या अर्थ वासना के लिए तो दूर-दूर तक कोई स्थान ही नहीं था। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लेते वरना भूखे सो जाते। किसी भक्त की दी हुई एक नाव ही उनका घर और सबकुछ था। लोग उनको नैया वाला बाबा कहते। उन्होंने किसी को दीक्षा नहीं दी और न तो शिष्य ही बनाया। जो हर इन्सान को नारायण समझेगा वह भला ऐसा कर भी कैसे सकता है?
मित्रों,संत ऐसे होते हैं। संन्यासी का मतलब होता है पूर्ण त्यागी। जिसके सैंकड़ों आश्रम हों,जिसके पास हजारों एकड़ महँगी जमीन हो,राजाओं की तरह जिसके हजारों सेवक-सेविकाएँ हों और जो एकांत में किशोर-युवा लड़कियों के साथ कथित साधना करता हो वह कैसे संत या संन्यासी हो सकता है? सवाल यह भी उठता है कि आशाराम तो लगातार विवादों में घिरे रहे हैं। उन पर कभी जमीन हड़पने तो कभी तंत्र-साधना के दौरान मासूम बच्चों की बलि देने तो कभी किसी श्रद्धालु को लात मारने और गालियाँ देने के आरोप लगातार लगते रहे हैं। अब जबकि उनका सबसे विकृत और घिनौना रूप भी अनावृत हो गया है तब भी उनके करोड़ों कथित भक्तों की आँखें क्यों नहीं खुल रही हैं? धिक्कार है ऐसे अंधे भक्तों पर,धिक्कार है ऐसे धर्म पर भी जिसके करोड़ों अनुयायी ऐसे महामूर्ख हों,आदमी नहीं भेड़ हों।
मित्रों,भारतीय अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फंसने की आशंका सच साबित हो रही है। सरकार में छाये भ्रष्टाचार,नीतिगत जड़ता और फैसले लेने में देरी के चलते चालू वित्त वर्ष 2013-14 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर ने भी रुपये की तरह गोता लगा दिया है। इस अवधि में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर घटकर मात्र 4.4 फीसद पर सिमट गई है। बीते चार साल में किसी एक तिमाही में अर्थव्यवस्था की यह सबसे कम रफ्तार है। बीते एक साल में आर्थिक हालात तेजी से खराब हुए हैं। वित्त वर्ष 2012-13 की पहली तिमाही में आर्थिक विकास दर 5.4 फीसद रही थी। महंगे कर्ज और रुपये के गोता लगाने से न सिर्फ औद्योगिक उत्पादन व खनन क्षेत्र की रफ्तार घटाई, बल्कि सरकार के फैसलों की सुस्ती का असर देश में होने वाले निवेश पर भी पड़ा है। बीते वित्त वर्ष के मुकाबले चालू साल की पहली तिमाही में कुल निवेश 1.4 फीसद घट गया है। पहली तिमाही में कारखानों की सुस्ती से विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर 1.2 फीसद नीचे आ गई है। यही हाल खनन क्षेत्र का भी रहा है। इसकी विकास दर 2.8 फीसदी गिर गई। बीते साल विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर में एक फीसद की कमी आई थी। खनन क्षेत्र की विकास दर 0.4 फीसद रही थी। सरकार द्वारा जारी पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों के मुताबिक कृषि से भी जीडीपी को बहुत अधिक मदद नहीं मिली और इस क्षेत्र की विकास दर 2.7 फीसद पर सिमट गई। बीते वित्त वर्ष की इस अवधि में कृषि क्षेत्र ने 2.9 फीसद की बढ़त हासिल की थी। वित्तीय और सामाजिक सेवा क्षेत्रों ने अवश्य सरकार को कुछ राहत दी है। लेकिन ऊर्जा और कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की विकास दर ने सरकार को निराश किया है। बिजली, गैस क्षेत्र की विकास दर बीते साल के 6.2 से घटकर पहली तिमाही में 3.7 फीसद पर आ गई है। कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की विकास दर सात फीसद से लुढ़कती हुई 2.8 फीसद पर आ टिकी है। अर्थव्यवस्था में बदहाली का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहली तिमाही में सकल पूंजी निर्माण की रफ्तार भी धीमी हुई है। बीते साल की पहली तिमाही में पूंजी निर्माण यानी निवेश की दर 33.8 फीसद रही थी। लेकिन चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में यह 32.6 फीसद पर रुक गई है। इसका मतलब है कि देश में घरेलू निवेश की रफ्तार रुक गई है। यह गिरावट निजी और सरकारी दोनों तरह के निवेश में हुई है।
मित्रों, हमारी केंद्र सरकार किसी अफीमची की तरह अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार और शर्मनाक हालत के बावजूद पांच करोड़ लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की बात कर रही है। जबकि सच तो यह है कि अर्थव्यवस्था में नरमी के चलते भारत में रोजगार के नए अवसरों के सृजन में कमी आई है। 2012-13 की अक्टूबर-मार्च अवधि के दौरान देश में रोजगार के नए अवसरों के सृजन की रफ्तार 14.1 प्रतिशत तक घट गई और इस दौरान 2.72 लाख रोजगार पैदा हुए। उद्योग मंडल एसोचैम द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, अक्टूबर-मार्च, 2011 -12 के दौरान 3.17 लाख नौकरियां पैदा हुई थीं। सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत की नरम पड़ती आर्थिक वृद्धि दर और नीतिगत अनिश्चितताओं से नए निवेश आने की रफ्तार धीमी पड़ी है जिससे देशभर में रोजगार सृजन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इतना ही नहीं हमारी सर्वनाशी केंद्र सरकार इस लोकसभा चुनावों में 1971 की तरह एक बार फिर गरीबी हटाओ का नारा देनेवाली है। सिर्फ नारों से अगर गरीबी को भागना होता तो वो कब की भाग चुकी होती। सरकार को खैरात बाँटने के बदले देश के लिए लाभकारी रोजगारों के सृजन के उपाय करने चाहिए क्योंकि दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र भारत में बेराजगारी बढ़ने लगी है। कोरे नारों से न तो आज तक गरीबी का बाल बाँका हुआ है और न ही भविष्य में होने वाला ही है।
मित्रों,सरकार ने अर्थव्यवस्था के इस संक्रमण काल में राजकोषीय घाटा और मुद्रास्फीति को बढ़ानेवाला खाद्य सुरक्षा बिल और नए उद्योगों की स्थापना को लगभग असंभव बना देना वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक अभी-अभी पारित करवाया है। ये तो वही बात हुई कि कोई डायबिटीज का मरीज हो और डॉक्टर उसको जान-बूझकर चीनी खिलाए या कोई सरे बाजार लुट रहा हो और लोगों से मदद की गुहार लगा रहा हो और लोग बजाए उसकी मदद करने के उसको पीटने लगें। अर्थव्यवस्था की वर्तमान दुरावस्था ने सार्वकालिक सत्य को जरूर हमारे सामने एक बार फिर से प्रकट कर दिया है और वो यह है कि हम चाहे जितना भी आर्थिक सुधार कर लें परन्तु तब तक हमारे देश का कुछ भी भला नहीं हो सकता जब तक कि उनको लागू करनेवाले हाथ ईमानदार न हों। वरना सुधारों की बटलोही से देश का कल्याण बाहर नहीं निकलेगा,निकलेगा तो सिर्फ आर्थिक घोटाला।
मित्रों,मैं अपने पूर्व के दो आलेखों समय की जरुरत है अध्यक्षीय शासन प्रणाली (15 जनवरी,2013) और लोकतंत्र का मंदिर नहीं कैदखाना है संसद (6 अगस्त,2013) में निवेदन कर चुका हूँ कि हमारी संसद और संसदीय प्रणाली अब देश पर छाये संकटों से निबटने में सर्वथा असमर्थ है और उसने हमारे लोकतंत्र को ही बंधक बना लिया है। अगर सरकार द्वारा उठाया गया कदम देशविरोधी या सामयिक नहीं था तो फिर विपक्ष ने संसद में सरकार का समर्थन क्यों किया? अगर खाद्य सुरक्षा विधेयक में कोई नई बात नहीं थी बल्कि वह भोजन छीनने वाला कानून था या वोट सुरक्षा बिल था या उससे राजकोषीय घाटा के बढ़ने की संभावना थी तो फिर क्या मजबूरी थी विपक्ष की उसके पक्ष में मतदान करने की? इसी तरह विपक्ष ने सरकार से कदम मिलाते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक,सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक (जिसके द्वारा राजनैतिक दलों को इसकी परिधि से बाहर कर दिया गया) और जन प्रतिनिधित्व कानून संशोधन विधेयक (जिससे दागी नेताओं के चुनाव लड़ने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का आदेश निरस्त हो गया) पर भी विधेयकों के पक्ष में मतदान किया और यह साबित कर दिया कि आज की तारीख में पूरा-का-पूरा संसद देशविरोधी मानसिकता से ग्रस्त है। ऐसे में हम कैसे यह उम्मीद रख सकते हैं कि भविष्य में सत्ता में आने के बाद विपक्ष देशोद्धार की दिशा में अलोकप्रिय व कड़वे कदम उठाएगा? अच्छा तो होता कि हम अगले चुनावों में सरकार के बदलने का इंतजार करने के बजाए भारत में नए तरह का अमेरिका सदृश अध्यक्षीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक वृहत आंदोलन शुरू करते। परन्तु सवाल यह उठता है कि ऐसा करेगा कौन? कहाँ से आएगा ऐसा विश्वसनीय नेतृत्व? बेशक अन्ना हजारे ऐसा कर सकते थे। उन्होंने कुछ दिन पहले अमेरिका की धरती से मेरे इन विचारों का समर्थन भी किया है लेकिन वे जिस तरह बार-बार हमारे वर्तमान भारत के सत्तालोलुप नेताओं कभी नीतीश तो कभी केजरीवाल पर मोहित हो जा रहे हैं उससे एक आम भारतीय का मन उनको लेकर सशंकित हो उठा है। फिर भी मैं समझता हूँ कि अब हम देशभक्तों के लिए वेट एंड वाच का समय नहीं रहा अब कुछ कर गुजरने का समय आ गया है। हमें अब दूसरे स्वतंत्रता संग्राम के लिए कमर कस लेना होगा जो होगा संसद से हमारे लोकतंत्र की आजादी के लिए। ऐसा करके ही हम चीन और पाकिस्तान जैसे गद्दार पड़ोसियों से अपनी सीमाओं व सोनिया,मनमोहन जैसे देशद्रोही नेताओं से अपनी राष्ट्रीय संपदा की रक्षा कर सकते हैं और यह साबित भी कर सकते हैं कि भारत की आजादी के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने गलत कहा था कि अभी भारतीय अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा करने के योग्य नहीं हुए हैं।
अंत में एक ताजातरीन दोहा अर्ज कर रहा हूँ-
रुपया मरा बाजार में
मांगे सरकार का साथ।
सरकार ने की गजब मदद
गले पर रक्खा हाथ।।