मित्रों,माँ की बात मानकर अब तक सत्ता को जहर के समान समझनेवाले राष्ट्रीय पुत्र राहुल गांधी अब 2014 के संसदीय चुनावों में कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने के लिए राजी हो गए हैं। इतना ही नहीं कल उन्होंने अपनी ऐतिहासिक चुप्पी तोड़ते हुए राजस्थान में अपना ऐतिहासिक भाषण भी दे डाला। परसों जो महाज्ञानी टेलीवीजन पर नरेन्द्र मोदी की वक्तृता-कला पर यह कहकर कटाक्ष कर रहे थे कि उनके भाषण में तथ्य भी था या नहीं अथवा इस प्रश्न पर मगजमारी कर रहे थे कि क्या अच्छा वक्ता अच्छा नेता भी होता है वही लोग अभी राहुल के भाषण में अलंकार,छंद,यति,गति,लक्षणा और व्यंजना की तलाश कर रहे हैं।
मित्रों,भारत के लोकतांत्रिक राजतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक,भारत के सबसे बड़े राजनैतिक परिवार के चश्मो चिराग राहुल गांधी कल के अपने भाषण में त्याग करने के लिए आतुर दिख रहे थे। दरअसल त्याग करना उनका खानदानी पेशा है। वर्ष 2004 में उनकी माँ ने भी त्याग किया था। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रिमोट से चलनेवाले एक यंत्र को बैठा दिया था और त्याग का फल भी प्राप्त कर लिया था। कदाचित् उसी फल को विदेशी बैंकों में जमा करने के लिए बेचारी को बार-बार बीमार होना पड़ता है। देश की अर्थव्यवस्था को जो राजरोग लगा है वह भी शायद उनके ही त्याग का और उसके फल का प्रतिफल है। मगर मैं जहाँ तक समझता हूँ कि राहुल जी दूसरी तरह के त्याग की बातें कर रहे थे। वे तो शायद जनता को यह बता रहे थे कि उन्होंने उनकी सेवा के लिए ही विवाह नहीं किया और 43 साल की बाली उम्र में भी कँवारे बने हुए हैं। पिछले सालों में राहुल जी जिस तरह विभिन्न महिलाओं के साथ भावपूर्ण मुद्रा में देखे जाते रहे हैं उससे तो यह नहीं लगता कि वे कँवारे भी हैं और ब्रह्मचारी भी बल्कि उससे तो यही लगता है कि वे आम खाने से मतलब रखते हैं पेड़ गिनने से नहीं। हो तो यह भी सकता है कि उन्होंने अमेरिका जैसे किसी दूरस्थ देश में शादी भी कर रखी हो और भविष्य में कभी पत्नी और बच्चों को जनता के सामने लाएँ वह भी तब जब त्याग करने या उसका दिखावा करने से कुछ भी लाभ होने की संभावना न रह जाए।
मित्रों,कल राहुल जी ने एक नारा भी दिया दो-चार रोटी खाएंगे,कांग्रेस को वापस लाएंगे। मुझे लगता है कि नारा देने में उन्होंने जल्दीबाजी कर दी। मोबाईल बँटने देते तब नारा देते कि दो-चार रोटी खाएंगे,मोबाईल से बतियाएंगे,कांग्रेस की लतियाएंगे। आश्चर्य में पड़ गए क्या? हमारे बिहार की जनता तो ऐसा ही करती है भाई। पैसा और सामान तो सबसे ले लेती है और सबसे कहती है कि हम तो आपको ही वोट देंगे और देती उनको ही है जिनको देना चाहिए सो बिहार में तो राहुल जी वाला नहीं मेरा वाला नारा चलनेवाला है।
मित्रों,राहुल जी के कल के भाषण में एक और बात स्पष्ट हो जाती है कि खाद्य सुरक्षा और भूमि-अधिग्रहण विधेयक उन्होंने ही पारित करवाया है। मैं तो समझता हूँ कि दूसरी पारी में मनमोहन सिंह ने बिल्कुल भी शासन किया ही नहीं माँ-बेटों ने ही देश को चलाया। पहली पारी में जरूर मनमोहन सिंह सक्रिय थे तो देश की हालत भी कोई बुरी नहीं थी। जबसे माँ-बेटे ने मनमोहन को पूरी तरह से निष्क्रिय कर स्वयं को सक्रिय किया है तभी से देश का बंटाधार हुआ जा रहा है। सारी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह को दे दी और सारे निर्णय स्वयं लेने लगे। अभी-अभी दो-तीन दिन पहले अखबार में पढ़ने को मिला कि सरकार सोनिया गांधी के अमेरिका से लौटने का इंतजार कर रही है। लौटने के बाद वही निर्णय लेंगी कि डीजल,पेट्रोल और गैस के दाम कितने बढ़ाएँ जाएँ। जब सारे फैसले वही ले रही हैं तो यह मनमोहन क्या कागजात पर ढोराई सिंह की तरह सिर्फ अंगूठा लगा रहा है? अभी तो गर्भ से ही प्रधानमंत्री पद धारण करने की योग्यता धारण करनेवाले राहुल गांधी तो भारत में ही थे क्या वो इस बारे में स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते थे? फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद कौन निर्णय लेगा वे या उनकी रहस्यमयी विदेशी यात्राओं वाली माँ जिसके निर्णयों ने भारत को मात्र पाँच सालों में सोने की चिड़िया से अंतर्राष्ट्रीय भिखारी बना दिया? जो काम आईएसआई कठिन परिश्रम करके भी 50 सालों में नहीं कर सकी वही काम इन्होंने मात्र 5 सालों में बड़ी ही आसानी से करके दिखा दिया।
मित्रों,जाहिर है कि राहुल प्रधानमंत्री बनें या न बनें देश की स्थिति में कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए कोई बदलाव नहीं आनेवाला है। कांग्रेस के राज में देश की जो हालत अभी है वही या उससे भी बुरी हालत राहुल के प्रधानमंत्री बनने के बाद होनेवाली है। हम सब जानते हैं कि राहुल जी की पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथ छाप है। पहले जहाँ उनकी पार्टी हर हाथ को काम देने के वादे करती थी आजकल हर हाथ को भीख देने की बात कर रही है-दो-चार रोटी। देश का खजाना तो खा गए रोजगार तो दे नहीं सकते तो वे अब जनता को ईज्जत की रोटी के स्थान पर भीख की रोटी ही दे सकते हैं। इस बार अगर कांग्रेस जीत गई और राहुल प्रधानमंत्री बन गए तो निश्चित रूप से 2019 के संसदीय चुनावों में वे नया नारा कुछ इस तरह बनाएंगे-लाशों को कफन ओढ़ाएंगे,कांग्रेस को चौथी बार जिताएंगे क्योंकि तब तो खजाने में भीख की रोटी देने लायक भी पैसा नहीं रहेगा। हाँ,सोनिया जी की विदेश-यात्राओं में कई गुना की बढ़ोतरी जरूर हो जाएगी।
मित्रों,भारत के लोकतांत्रिक राजतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक,भारत के सबसे बड़े राजनैतिक परिवार के चश्मो चिराग राहुल गांधी कल के अपने भाषण में त्याग करने के लिए आतुर दिख रहे थे। दरअसल त्याग करना उनका खानदानी पेशा है। वर्ष 2004 में उनकी माँ ने भी त्याग किया था। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रिमोट से चलनेवाले एक यंत्र को बैठा दिया था और त्याग का फल भी प्राप्त कर लिया था। कदाचित् उसी फल को विदेशी बैंकों में जमा करने के लिए बेचारी को बार-बार बीमार होना पड़ता है। देश की अर्थव्यवस्था को जो राजरोग लगा है वह भी शायद उनके ही त्याग का और उसके फल का प्रतिफल है। मगर मैं जहाँ तक समझता हूँ कि राहुल जी दूसरी तरह के त्याग की बातें कर रहे थे। वे तो शायद जनता को यह बता रहे थे कि उन्होंने उनकी सेवा के लिए ही विवाह नहीं किया और 43 साल की बाली उम्र में भी कँवारे बने हुए हैं। पिछले सालों में राहुल जी जिस तरह विभिन्न महिलाओं के साथ भावपूर्ण मुद्रा में देखे जाते रहे हैं उससे तो यह नहीं लगता कि वे कँवारे भी हैं और ब्रह्मचारी भी बल्कि उससे तो यही लगता है कि वे आम खाने से मतलब रखते हैं पेड़ गिनने से नहीं। हो तो यह भी सकता है कि उन्होंने अमेरिका जैसे किसी दूरस्थ देश में शादी भी कर रखी हो और भविष्य में कभी पत्नी और बच्चों को जनता के सामने लाएँ वह भी तब जब त्याग करने या उसका दिखावा करने से कुछ भी लाभ होने की संभावना न रह जाए।
मित्रों,कल राहुल जी ने एक नारा भी दिया दो-चार रोटी खाएंगे,कांग्रेस को वापस लाएंगे। मुझे लगता है कि नारा देने में उन्होंने जल्दीबाजी कर दी। मोबाईल बँटने देते तब नारा देते कि दो-चार रोटी खाएंगे,मोबाईल से बतियाएंगे,कांग्रेस की लतियाएंगे। आश्चर्य में पड़ गए क्या? हमारे बिहार की जनता तो ऐसा ही करती है भाई। पैसा और सामान तो सबसे ले लेती है और सबसे कहती है कि हम तो आपको ही वोट देंगे और देती उनको ही है जिनको देना चाहिए सो बिहार में तो राहुल जी वाला नहीं मेरा वाला नारा चलनेवाला है।
मित्रों,राहुल जी के कल के भाषण में एक और बात स्पष्ट हो जाती है कि खाद्य सुरक्षा और भूमि-अधिग्रहण विधेयक उन्होंने ही पारित करवाया है। मैं तो समझता हूँ कि दूसरी पारी में मनमोहन सिंह ने बिल्कुल भी शासन किया ही नहीं माँ-बेटों ने ही देश को चलाया। पहली पारी में जरूर मनमोहन सिंह सक्रिय थे तो देश की हालत भी कोई बुरी नहीं थी। जबसे माँ-बेटे ने मनमोहन को पूरी तरह से निष्क्रिय कर स्वयं को सक्रिय किया है तभी से देश का बंटाधार हुआ जा रहा है। सारी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह को दे दी और सारे निर्णय स्वयं लेने लगे। अभी-अभी दो-तीन दिन पहले अखबार में पढ़ने को मिला कि सरकार सोनिया गांधी के अमेरिका से लौटने का इंतजार कर रही है। लौटने के बाद वही निर्णय लेंगी कि डीजल,पेट्रोल और गैस के दाम कितने बढ़ाएँ जाएँ। जब सारे फैसले वही ले रही हैं तो यह मनमोहन क्या कागजात पर ढोराई सिंह की तरह सिर्फ अंगूठा लगा रहा है? अभी तो गर्भ से ही प्रधानमंत्री पद धारण करने की योग्यता धारण करनेवाले राहुल गांधी तो भारत में ही थे क्या वो इस बारे में स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते थे? फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद कौन निर्णय लेगा वे या उनकी रहस्यमयी विदेशी यात्राओं वाली माँ जिसके निर्णयों ने भारत को मात्र पाँच सालों में सोने की चिड़िया से अंतर्राष्ट्रीय भिखारी बना दिया? जो काम आईएसआई कठिन परिश्रम करके भी 50 सालों में नहीं कर सकी वही काम इन्होंने मात्र 5 सालों में बड़ी ही आसानी से करके दिखा दिया।
मित्रों,जाहिर है कि राहुल प्रधानमंत्री बनें या न बनें देश की स्थिति में कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए कोई बदलाव नहीं आनेवाला है। कांग्रेस के राज में देश की जो हालत अभी है वही या उससे भी बुरी हालत राहुल के प्रधानमंत्री बनने के बाद होनेवाली है। हम सब जानते हैं कि राहुल जी की पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथ छाप है। पहले जहाँ उनकी पार्टी हर हाथ को काम देने के वादे करती थी आजकल हर हाथ को भीख देने की बात कर रही है-दो-चार रोटी। देश का खजाना तो खा गए रोजगार तो दे नहीं सकते तो वे अब जनता को ईज्जत की रोटी के स्थान पर भीख की रोटी ही दे सकते हैं। इस बार अगर कांग्रेस जीत गई और राहुल प्रधानमंत्री बन गए तो निश्चित रूप से 2019 के संसदीय चुनावों में वे नया नारा कुछ इस तरह बनाएंगे-लाशों को कफन ओढ़ाएंगे,कांग्रेस को चौथी बार जिताएंगे क्योंकि तब तो खजाने में भीख की रोटी देने लायक भी पैसा नहीं रहेगा। हाँ,सोनिया जी की विदेश-यात्राओं में कई गुना की बढ़ोतरी जरूर हो जाएगी।
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