मित्रों,जब भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव सिर पर होता है तब एक खास तरह के बैंक पर चर्चा तेज हो जाती है। जी हाँ,मैं वोट बैंक की ही बात कर रहा हूँ। भारत में वोट बैंक भी कई तरह के हैं और पिछले कई दशकों से उनमें से सबसे प्रमुख है मुस्लिम वोट बैंक। कहने को तो यह वोट-बैंक अल्पसंख्यक है लेकिन बकौल कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर यही वह वोट बैंक है जो भारत में शासक और विपक्ष का निर्धारण करता है। पूरा दुनिया में ईट हैप्पेन्स ऑनली इन ईंडिया। है न अजीब बात कि जो अल्पसंख्यक है वही निर्णायक है और जो बहुसंख्यक है वो मुँहतका,चुनाव से पहले भी और चुनाव के बाद में भी। क्या आप जानते हैं कि वर्तमान सरकार को देश और देशवासियों की चिंता क्यों नहीं है? क्योंकि सरकार बनाने में सक्षम जो मुख्य अल्पसंख्यक या तथाकथित अल्पसंख्यक है उसकी संस्कृति अभारतीय है,आयातित है,उसके लिए भारत एक निवास-स्थान मात्र है माता नहीं है,उसके अधिकांश अनुयायियों को भारत से ज्यादा सऊदी अरब से प्यार है,वो भारत की स्वतंत्रता के लिए कम खिलाफत प्रथा को बनाए रखने के लिए ज्यादा चिंतित रहता है,उसकी पितृ या मातृभूमि भारत नहीं सऊदी अरब है,उसको भारतभूमि की वंदना में वंदे मातरम् गाने या कहने में हिचक है फिर उसके बल पर चुनी जानेवाली सरकार क्यों कर भारत और भारतीयों की संस्कृति और हितों की चिंता करे? केंद्र सरकार तो सऊदी अरब की भक्ति में इस कदर अंधी हो गई है कि उसे सऊदी सरकार द्वारा भारतीय श्रमिकों के हितों के विरुद्ध कदम उठाने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती जबकि इस नए तरह के आरक्षण से सबसे ज्यादा छँटनी भारतीय मुसलमानों की ही होनेवाली है और इससे देश में विदेशी मुद्रा की आवक में कमी आएगी सो अलग।
मित्रों,प्रश्न उठता है कि भारत में हिन्दुओं को वोट बैंक क्यों नहीं माना जाता जबकि उनकी आबादी देश की कुल आबादी की लगभग 80 प्रतिशत है? क्यों बहुसंख्यक होने पर भी राजनैतिक दलों को हिन्दुओं को खुश करने की वैसी चिंता नहीं है जैसी कि मुसलमानों के लिए है? कारण कई सारे हैं जिनमें से कुछ के लिए हमारा इतिहास जिम्मेदार है तो कुछ के लिए वर्तमान हिन्दू नेता। इतिहास या पूर्वज इसलिए क्योंकि हिन्दू धर्म में सदियों से अति अमानवीय जाति-प्रथा प्रचलित है। इस प्रथा में कुछ इस तरह की कमियाँ रहीं कि कुछ लोग जन्म लेते ही सबकुछ से स्वामी हो जाते थे और कुछ लोगों के पास कुछ भी नहीं रह जाता था। यहाँ तक कि वे भविष्य में अपनी योग्यता के बल पर भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकते थे। यद्यपि ऋग्वैदिक काल में जन्म जाति का निर्धारक नहीं था लेकिन बाद में जाति-प्रथा इतनी कठोर होती गई कि व्यक्ति अपने पूर्वजों के पेशे से इतर कोई वृत्ति अपना ही नहीं सकता था चाहे इसके चलते उसका जीवन नारकीय ही क्यों न बन जाए। इन कारणों से हिन्दू या सनातन धर्म एक एकांगी धर्म रह ही नहीं गया और छोटे-छोटे जातीय हितसमूहों का अंतर्विभाजित समूह बनकर रह गया। इन्हीं परिस्थितियों में जब इस्लाम का भारत में आगमन और आक्रमण हुआ तो वंचितों का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ हो लिया क्योंकि इस्लाम इस तरह के भेदभावों से पूर्णतया मुक्त था। आज भी भारतीय मुसलमानों का 90 प्रतिशत से भी ज्यादा बड़ा हिस्सा उन्हीं वंचित हिन्दुओं की संतानें हैं।
मित्रों,भारत में आधुनिकता के आगमन के बाद से ही हिन्दू धर्म में जातिप्रथा काफी तेजी से कमजोर होने लगी। तार्किकता और वैज्ञानिकता ने छुआछूत को लगभग मिटाकर ही रख दिया। ऋग्वैदिक काल के बाद पहली बार सभी हिन्दुओं के आर्थक,सामाजिक और राजनैतिक हित एक होने लग गए थे कि तभी मेरे ही सजातीय व 1989 में प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल राजनीति ने हिन्दू जनमानस को बुरी तरह से बाँटकर रख दिया। उस बँटवारे की जड़ें इतनी गहरी थी कि आज 23 सालों के बाद भी हिन्दू धर्म में जातीय कटुता लगभग जस-की-तस है। कभी बिहार में माई समीकरण के प्रणेता लालू प्रसाद यादव ने 1995 के विधानसभा चुनावों के समय महनार की जनसभा में कहा था कि उनके मतदाता तो अविभाजित होकर मतदान करते हैं जबकि सवर्णों के मत तो सत्यनारायण भगवान के प्रसाद की तरह सभी राजनैतिक दलों में बँट जाते हैं। कुछ साल तक तो भारतीय राजनीति में सबसे निर्णायक भूमिका निभानेवाले यूपी-बिहार में अगड़ी जाति के हिन्दुओं को छोड़कर बाँकी पूरा-का-पूरा जनमत एकमत रहा लेकिन धीरे-धीरे विभिन्न हिन्दू पिछड़ी और दलित जातियों के मतों के अलग-अलग ठेकेदार उभरने लगे।
मित्रों,इस प्रकार इस समय ठीक वही स्थिति हिन्दू मतों की हो गई है जो 1995 में बिहार में सवर्ण मतों की थी जबकि मुस्लिम इस मामले में पहले भी एकजुट थे और आज भी एकजुट हैं। अगर हम हिन्दुओं को राजनैतिक दलों की नीतियों को अपने सापेक्ष बनाना है तो एक होकर मत देना ही होगा। ऐसा कैसे संभव होगा मैं नहीं जानता क्योंकि कुछ राज्यों में कई राजनैतिक दल कुछ जातियों के वोटों के स्वाभाविक हकदार बन गए हैं। दुर्भाग्यवश ऐसे जातिआधारित राजनैतिक दलों का झुकाव भी अपनी जाति-विशेष से ज्यादा मुस्लिम मतों के प्रति ही ज्यादा है। इस समय भारत में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर ऐसा कोई राजनैतिक दल नहीं है जिसकी पहली प्राथमिकता हिन्दू हित या हिन्दू मत हों। बल्कि बाँकी सारे राजनैतिक दलों का पहला उद्देश्य मुस्लिम मतों को पाना है और दूसरा उद्देश्य हिन्दू धर्म के किसी जाति-विशेष का मत प्राप्त करना। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी जिस पर कभी जिन्ना ने हिन्दुओं की पार्टी होने का आरोप लगाया था,भी इन दिनों मुस्लिम मतों के लिए मरी जा रही है और जैसे हिन्दू मतों से उसका कोई लेना-देना ही नहीं है।
मित्रों,भारत के सभी हिन्दुओं को यह अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि जब तक वे एकमत होकर मतदान नहीं करेंगे,जब तक उनके आर्थिक,सामाजिक व राजनैतिक हित एक नहीं होंगे तब तक वे हाशिए पर ही बने रहेंगे। इतना ही नहीं तब तक भारत का विकास भी अवरुद्ध रहेगा क्योंकि हिन्दुओं के लिए भारत जमीन का एक टुकड़ा-मात्र नहीं है बल्कि अपनी माता से भी हजारों गुना बढ़कर भारतमाता है। जाहिर है कि जब हिन्दू भी एक वोट बैंक बन जाएंगे तभी जाकर उनको मान मिलेगा,उनके हितों को ध्यान में रखा जाएगा और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा भारत को लूट का चारागाह समझ लेने की गुस्ताखियों का अंत हो सकेगा। याद रखिए-यूनाईटेड वी स्टैंड,डिवाईडेड वी फॉल।
मित्रों,प्रश्न उठता है कि भारत में हिन्दुओं को वोट बैंक क्यों नहीं माना जाता जबकि उनकी आबादी देश की कुल आबादी की लगभग 80 प्रतिशत है? क्यों बहुसंख्यक होने पर भी राजनैतिक दलों को हिन्दुओं को खुश करने की वैसी चिंता नहीं है जैसी कि मुसलमानों के लिए है? कारण कई सारे हैं जिनमें से कुछ के लिए हमारा इतिहास जिम्मेदार है तो कुछ के लिए वर्तमान हिन्दू नेता। इतिहास या पूर्वज इसलिए क्योंकि हिन्दू धर्म में सदियों से अति अमानवीय जाति-प्रथा प्रचलित है। इस प्रथा में कुछ इस तरह की कमियाँ रहीं कि कुछ लोग जन्म लेते ही सबकुछ से स्वामी हो जाते थे और कुछ लोगों के पास कुछ भी नहीं रह जाता था। यहाँ तक कि वे भविष्य में अपनी योग्यता के बल पर भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकते थे। यद्यपि ऋग्वैदिक काल में जन्म जाति का निर्धारक नहीं था लेकिन बाद में जाति-प्रथा इतनी कठोर होती गई कि व्यक्ति अपने पूर्वजों के पेशे से इतर कोई वृत्ति अपना ही नहीं सकता था चाहे इसके चलते उसका जीवन नारकीय ही क्यों न बन जाए। इन कारणों से हिन्दू या सनातन धर्म एक एकांगी धर्म रह ही नहीं गया और छोटे-छोटे जातीय हितसमूहों का अंतर्विभाजित समूह बनकर रह गया। इन्हीं परिस्थितियों में जब इस्लाम का भारत में आगमन और आक्रमण हुआ तो वंचितों का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ हो लिया क्योंकि इस्लाम इस तरह के भेदभावों से पूर्णतया मुक्त था। आज भी भारतीय मुसलमानों का 90 प्रतिशत से भी ज्यादा बड़ा हिस्सा उन्हीं वंचित हिन्दुओं की संतानें हैं।
मित्रों,भारत में आधुनिकता के आगमन के बाद से ही हिन्दू धर्म में जातिप्रथा काफी तेजी से कमजोर होने लगी। तार्किकता और वैज्ञानिकता ने छुआछूत को लगभग मिटाकर ही रख दिया। ऋग्वैदिक काल के बाद पहली बार सभी हिन्दुओं के आर्थक,सामाजिक और राजनैतिक हित एक होने लग गए थे कि तभी मेरे ही सजातीय व 1989 में प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल राजनीति ने हिन्दू जनमानस को बुरी तरह से बाँटकर रख दिया। उस बँटवारे की जड़ें इतनी गहरी थी कि आज 23 सालों के बाद भी हिन्दू धर्म में जातीय कटुता लगभग जस-की-तस है। कभी बिहार में माई समीकरण के प्रणेता लालू प्रसाद यादव ने 1995 के विधानसभा चुनावों के समय महनार की जनसभा में कहा था कि उनके मतदाता तो अविभाजित होकर मतदान करते हैं जबकि सवर्णों के मत तो सत्यनारायण भगवान के प्रसाद की तरह सभी राजनैतिक दलों में बँट जाते हैं। कुछ साल तक तो भारतीय राजनीति में सबसे निर्णायक भूमिका निभानेवाले यूपी-बिहार में अगड़ी जाति के हिन्दुओं को छोड़कर बाँकी पूरा-का-पूरा जनमत एकमत रहा लेकिन धीरे-धीरे विभिन्न हिन्दू पिछड़ी और दलित जातियों के मतों के अलग-अलग ठेकेदार उभरने लगे।
मित्रों,इस प्रकार इस समय ठीक वही स्थिति हिन्दू मतों की हो गई है जो 1995 में बिहार में सवर्ण मतों की थी जबकि मुस्लिम इस मामले में पहले भी एकजुट थे और आज भी एकजुट हैं। अगर हम हिन्दुओं को राजनैतिक दलों की नीतियों को अपने सापेक्ष बनाना है तो एक होकर मत देना ही होगा। ऐसा कैसे संभव होगा मैं नहीं जानता क्योंकि कुछ राज्यों में कई राजनैतिक दल कुछ जातियों के वोटों के स्वाभाविक हकदार बन गए हैं। दुर्भाग्यवश ऐसे जातिआधारित राजनैतिक दलों का झुकाव भी अपनी जाति-विशेष से ज्यादा मुस्लिम मतों के प्रति ही ज्यादा है। इस समय भारत में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर ऐसा कोई राजनैतिक दल नहीं है जिसकी पहली प्राथमिकता हिन्दू हित या हिन्दू मत हों। बल्कि बाँकी सारे राजनैतिक दलों का पहला उद्देश्य मुस्लिम मतों को पाना है और दूसरा उद्देश्य हिन्दू धर्म के किसी जाति-विशेष का मत प्राप्त करना। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी जिस पर कभी जिन्ना ने हिन्दुओं की पार्टी होने का आरोप लगाया था,भी इन दिनों मुस्लिम मतों के लिए मरी जा रही है और जैसे हिन्दू मतों से उसका कोई लेना-देना ही नहीं है।
मित्रों,भारत के सभी हिन्दुओं को यह अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि जब तक वे एकमत होकर मतदान नहीं करेंगे,जब तक उनके आर्थिक,सामाजिक व राजनैतिक हित एक नहीं होंगे तब तक वे हाशिए पर ही बने रहेंगे। इतना ही नहीं तब तक भारत का विकास भी अवरुद्ध रहेगा क्योंकि हिन्दुओं के लिए भारत जमीन का एक टुकड़ा-मात्र नहीं है बल्कि अपनी माता से भी हजारों गुना बढ़कर भारतमाता है। जाहिर है कि जब हिन्दू भी एक वोट बैंक बन जाएंगे तभी जाकर उनको मान मिलेगा,उनके हितों को ध्यान में रखा जाएगा और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा भारत को लूट का चारागाह समझ लेने की गुस्ताखियों का अंत हो सकेगा। याद रखिए-यूनाईटेड वी स्टैंड,डिवाईडेड वी फॉल।
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