मंगलवार, 1 जुलाई 2014

इराक में इस्लाम कहाँ है?

1 जुलाई,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,जहाँ तक मैं जानता हूँ कि इस्लाम का अर्थ शांति होता है लेकिन विडंबना यह है कि जहाँ-जहाँ भी इस्लाम है वहाँ-वहाँ ही शांति नहीं है। पूरी दुनिया में मुसलमान दूसरे धर्मवालों से तो संघर्ष कर ही रहे हैं जहाँ जिस देश में सिर्फ मुसलमान ही हैं वहाँ आपस में ही लड़ रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में हमने इराक में इस्लाम की जो क्रूरता देखी,जो स्वरूप देखा वह बिल्कुल भी इस्लाम के प्रति श्रद्धा या प्रेम नहीं जगाता बल्कि जुगुप्सा और घृणा उत्पन्न करता है। क्या कोई व्यक्ति या धर्म इतना हिंसक और बेरहम हो सकता है कि 1700 निहत्थों को पंक्तिबद्ध करके गोलियों से भून दे? क्या कोई धर्म तब भी धर्म कहलाने का अधिकारी हो सकता है जब सैंकड़ों लोगों के सिरों को धड़ों से अलग करके ढेर लगा दे और फिर पूरी प्रक्रिया का वीडियो जारी करे? इतनी निर्दयता तो अपनी प्रजाति के लिए मांसाहारी पशुओं में भी नहीं होती फिर इंसान में कहाँ से आ गई और यह सब उस धर्म के नाम पर किया गया जिसका शाब्दिक अर्थ ही शांति होता है? तो क्या इस्लाम का नाम कुछ और रखना पड़ेगा क्योंकि अब यह नाम अपने अर्थ को खो चुका है?

मित्रों,हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सारा रक्तपात फिर से उसी धरती पर किया गया,उसी देश में किया गया जहाँ के एक शहर कर्बला में कभी यजीद नामक रक्तपिपासु की क्रूरता का विरोध करते हुए इमाम हुसैन शहीद हुए थे। अफगानिस्तान से लेकर सीरिया तक जहाँ देखिए मुसलमानों के कबीले आपस में खून की होली खेल रहे हैं। कहीँ सुन्नी हजारा को मार रहा है तो कहीं शिया सुन्नी को। हर मुस्लिम संप्रदाय यही समझता है कि उसका मत ही सही है और दूसरे मतवालों को जीने का कोई अधिकार नहीं है। यह असहिष्णुता और असहअस्तित्व ही सारे झगड़ों की जड़ है और इस झगड़े में इस्लाम को तो नुकसान हुआ ही है पूरी मानवता शर्मसार हुई है। इराक के नरपिशाचों ने तो छोटे-छोटे मासूम बच्चों तक की हत्या निहायत पशुता के साथ की है। कभी एलटीटीई प्रमुख प्रभाकरण के बेटे की श्रीलंकाई सैनिकों द्वारा की गई हत्या की तस्वीरों ने पूरी दुनिया को विचलित कर दिया था लेकिन इराक में तो न जाने कितने मासूमों के गले पर बेहरमी से चाकू चलाए गए।

मित्रों,सवाल उठता है कि अफगानिस्तान,इराक और सीरिया में इस्लाम इतना बेरहम क्यों है? धर्म को मानव ने बनाया है धर्म ने मानव को नहीं बनाया फिर धर्म के नाम पर नरसंहार का क्या औचित्य है? अगर कुरान-शरीफ या किसी अन्य इस्लामिक पुस्तक में हिंसा को बढ़ावा देनेवाले वाक्य मौजूद हैं तो निश्चित रूप से उनको हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अब सामयिक नहीं रह गए हैं। धर्म का काम शांति स्थापित करना होना चाहिए न कि खूरेंजी को बढ़ावा देना। पूरी दुनिया में सिर्फ सुन्नी या शिया ही शेष रह जाएँ तो क्या गारंटी है कि दुनिया में शांति स्थापित हो जाएगी और सुन्नी और शियाओं के गुट आपस में ही नहीं लड़ेंगे? याद रखिए दुनिया का प्रत्येक मानव प्रकृति की ओर से दुनिया को व मानवता को एक अमूल्य देन है। एक समय था जब मानव मानव के लिए मर रहा था और आज मानव मानव को मार रहा है? मानव का मानव के साथ प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है और जो भी धर्म इस धर्म को नहीं मानता है वह धर्म नहीं अधर्म है।

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

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