मित्रों, हमारे बिहार में एक कहावत काफी प्रचलित है कि हर बहे से खर खाए बकरी अंचार खाए अर्थात जो बैल दिनभर हल में जुतता है वो घास खाता है और जो बकरी दिनभर बैठी रहती है वो अंचार यानि स्वादिष्ट खाना खाती रहती है. आप कहेंगे कि यह तो अंधेर है और जहाँ ऐसा हो उसे अंधेर नगरी कहा जाना चाहिए. जी हाँ श्रीमान हमारा देश इन दिनों अंधेर नगरी ही तो है. जो लोग दिनभर काम कर रहे हैं, उनके हाथ खाली हैं और जो कुछ नहीं करते उनको बैंकों से हजारों करोड़ यूं ही पॉकेट खर्च के लिए दे दिए जाते हैं. कहने को तो ग्रामीण मजदूरों यानि मजबूरों के लिए मनरेगा योजना चल रही है लेकिन अगर जाँच हो तो पता चलेगा कि उसका बारह आना पंचायत का प्रधान, वार्ड सदस्य आदि खा जाते हैं इसके बावजूद कि मजदूरी यानि मजबूरी खाते में जाती है. इतना ही नहीं इट्स हप्पेंस ओनली इन इंडिया कि जो योग्य हैं वे ८० प्रतिशत अंक लाकर भी अयोग्य हैं और जो अयोग्य हैं वे शून्य प्रतिशत अंक लाने पर भी योग्य हैं. इसी तरह सिर्फ और सिर्फ भारत में जो दलित धनवान हैं वे गरीब हैं और जो सवर्ण गरीब हैं वे सत्ता की नजरों में महाधनवान हैं. दुनिया के किसी अन्य देश में ऐसा होता है क्या? जातिवादी राजनीति करके राज भोगनेवालों ने तो अब क्रिकेट टीम में भी जातीय आरक्षण की मांग कर दी है. देखना है कि परम देशभक्त मोदी सरकार इस मांग को कब पूरा करती है और कब संसद से इस आशय का कानून पारित करवाती है. वैसे ऐसा वो करेगी जरूर.
मित्रों, पिछले दिनों मुझे दो तरह के परम ज्ञान प्राप्त हुए हैं. हम बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं, आपने भी पढ़ा होगा कि अब्राहम लिंकन ने कहा था कि लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन होता है और भारत में भी लोकतंत्र है. लेकिन जबसे परम तपस्वी विजय माल्या जी ने खुलासा किया है कि हजारों करोड़ लेकर भागने से पहले उन्होंने भारत के वित्त मंत्री अरुण जेटली जी से गहन विचार-विमर्श किया था और जबसे सीबीआई ने कहा है कि उसने गलती से माल्या को माल लेकर भागते समय ढील बरती थी तबसे मेरी समझ में आ गया है कि लिंकन की परिभाषा भले ही अमेरिका के लिए सही हो भारत के लिए सफ़ेद झूठ से ज्यादा कुछ और नहीं है. तथापि भारतीय लोकतंत्र की दो अनूठी विशेषताएं हैं-पहली भारत में अमीरों का,अमीरों द्वारा और अमीरों के लिये शासन है और दूसरी भारत में भ्रष्टों का,भ्रष्टों द्वारा और भ्रष्टों के लिए शासन है,बांकी सब भाषण है। कहने को तो भारत में सारे लोग समान हैं पर कुछ लोग ज्यादा समान हैं इसलिए उनके पास ज्यादा सामान है और उनका ज्यादा सम्मान है। नहीं समझे तो निश्चित रूप से आप भी मूर्खिस्तान के निवासी हैं।
मित्रों, आपको याद होगा कि अटल जी की सरकार ने सरकारी नौकरों का यानि देश के नौकरों का यहाँ तक कि देश पर जान देनेवालों सीमा सुरक्षा बल और सीआरपीएफ के जवानों का भी पेंशन समाप्त कर दिया था। मगर क्या देश के मालिकों का यानि माननीयों का पेंशन समाप्त हुआ? नहीं न, क्यों? क्योंकि वे बकरी हैं बैल नहीं। इसी तरह आजकल धीरे-धीरे कोयला खदानों सहित पूरा देश अमीरों को सौंपा जा रहा है, राष्ट्रीयकरण को पलट दिया गया हैै, केेंद्र सरकार भी संविदा पर नियुक्ति कर रही है देश के मजदूूूर यह गाकर अपने मन को तसल्ली दे रहे हैं कि हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे एक बाग़ नहीं एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे। उधर अमीरों की सरकार उनको मेहनतकश से भिखारी बनाती जा रही है. यहाँ तक कि अब पूरी दुनिया में अन्याय से लड़नेवाले पत्रकारों को भी भारत में उनका हक़, नया वेतनमान नहीं मिलता और सरकार इस दिशा में अनजान-तटस्थ बनी रहती है. फिर दूसरे लोगों को कौन न्याय दिलाए और कहाँ से मिले. जिनका भरपूरा बैंक बैलेंस है जनता भी उनके लिए बस वोट बैंक है. बैंक बैलेंस के बल पर वोट ख़रीदे और बेचे जाते हैं जैसे बोहराओं के वोट पिछले दिनों ख़रीदे गए और खरीदने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री खाली पाँव उनके दर पर चलकर गए. अब तो चुनाव आयोग भी कह रहा है कि चुनावों में काले धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए वर्तमान कानून पर्याप्त नहीं हैं. अर्थात उस संवैधानिक बेचारे को भी पता है कि देश में पैसों से बल पर चुनाव लडे और जीते जाते हैं यानि देश में अमीरों का ………(कितनी बार एक ही बात को दोहराया जाए) लेकिन वो भी कुछ नहीं कर सकता. जब वो संवैधानिक संस्था होकर कुछ नहीं कर सकता तो हम क्या कर सकते हैं? क्रांति???
मित्रों, आपको याद होगा कि अटल जी की सरकार ने सरकारी नौकरों का यानि देश के नौकरों का यहाँ तक कि देश पर जान देनेवालों सीमा सुरक्षा बल और सीआरपीएफ के जवानों का भी पेंशन समाप्त कर दिया था। मगर क्या देश के मालिकों का यानि माननीयों का पेंशन समाप्त हुआ? नहीं न, क्यों? क्योंकि वे बकरी हैं बैल नहीं। इसी तरह आजकल धीरे-धीरे कोयला खदानों सहित पूरा देश अमीरों को सौंपा जा रहा है, राष्ट्रीयकरण को पलट दिया गया हैै, केेंद्र सरकार भी संविदा पर नियुक्ति कर रही है देश के मजदूूूर यह गाकर अपने मन को तसल्ली दे रहे हैं कि हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे एक बाग़ नहीं एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे। उधर अमीरों की सरकार उनको मेहनतकश से भिखारी बनाती जा रही है. यहाँ तक कि अब पूरी दुनिया में अन्याय से लड़नेवाले पत्रकारों को भी भारत में उनका हक़, नया वेतनमान नहीं मिलता और सरकार इस दिशा में अनजान-तटस्थ बनी रहती है. फिर दूसरे लोगों को कौन न्याय दिलाए और कहाँ से मिले. जिनका भरपूरा बैंक बैलेंस है जनता भी उनके लिए बस वोट बैंक है. बैंक बैलेंस के बल पर वोट ख़रीदे और बेचे जाते हैं जैसे बोहराओं के वोट पिछले दिनों ख़रीदे गए और खरीदने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री खाली पाँव उनके दर पर चलकर गए. अब तो चुनाव आयोग भी कह रहा है कि चुनावों में काले धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए वर्तमान कानून पर्याप्त नहीं हैं. अर्थात उस संवैधानिक बेचारे को भी पता है कि देश में पैसों से बल पर चुनाव लडे और जीते जाते हैं यानि देश में अमीरों का ………(कितनी बार एक ही बात को दोहराया जाए) लेकिन वो भी कुछ नहीं कर सकता. जब वो संवैधानिक संस्था होकर कुछ नहीं कर सकता तो हम क्या कर सकते हैं? क्रांति???
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