मित्रों, हो सकता है कि आप भी कुछ महीने पहले तक राफेल नाम से नावाकिफ रहे हों. मैं था और नहीं भी था. क्योंकि मेरे लिए तब राफेल का मतलब राफेल नडाल से था आज भी है लेकिन कम है. अब आपकी तरह मेरे लिए भी राफेल का मतलब एक लड़ाकू विमान ज्यादा है जो दुनिया में सबसे उन्नत श्रेणी का है, जो एक साथ हवा से जमीन, हवा और जल पर कहीं भी हर तरह से अस्त्र से हमले कर सकता है और हमले का जवाब भी दे सकता है. अर्थात यह एक ऐसा विमान है जिसको खरीदना वायु सेना के लिए अत्यावश्यक था. फिर विवाद है कहाँ?
मित्रों, विवाद है इसके दाम में और अनिल अम्बानी को इसका ठेका दिलवाने में. जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पिछले दिनों आज तक चैनल पर जिस तरह से इसके मूल्य को लेकर रिपोर्ट आ चुकी है कि यह यूपीए के मुकाबले १० प्रतिशत कम दाम पर ख़रीदा गया है इस विवाद को समाप्त ही कर देना चाहिए. नैतिकता का यही तकाजा भी है. वैसे भारत सरकार ने भी फ्रांस की सरकार से इसके दाम उजागर करने की अनुमति मांगी है.
मित्रों, अब विवाद बचता है कि इसके ठेके में अनिल अम्बानी कैसे घुसे? इस बात पर मैं शुरू से मोदी सरकार की आलोचना करता रहा हूँ कि वो सरकारी कंपनियों की कीमत पर पूंजीपतियों को बढ़ावा दे रही है जिससे बचा जाना चाहिए था. वैसे शोध का विषय यह भी है कि अनिल इसमें कब घुसे.
मित्रों, आपको कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों को कोई अंतर दीखता है क्या? मुझे तो वाजपेयी के ज़माने में भी नहीं दिखा था और आज भी नजर नहीं आता. हो सकता है कि अगर कांग्रेस की सरकार होती तो अनिल अम्बानी की जगह मुकेश होते, लेकिन होते.
मित्रों, अब बच गया सबसे बड़ा सवाल कि राहुल इस मामले को इतना उछाल क्यों रहे हैं? मैं जबसे दिल्ली में मनमोहन की सरकार थी तभी से देखता आ रहा हूँ कि कांग्रेस को हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान से नफरत की हद तक लगाव है. आईएएस की परीक्षा में अंग्रेजी अनिवार्य नहीं थी मनमोहन सरकार ने किया. इसी तरह से कांग्रेस ने हिन्दू-विरोधी सांप्रदायिक दंगा विधेयक पारित करवाने का प्रयास किया. साथ ही भगवा आतंकवाद को न सिर्फ हवा में परिकल्पित किया बल्कि विश्वव्यापी जेहादी आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक साबित करने की भरपूर कोशिश भी की. इसी तरह कई बार उसने चीन और पाकिस्तान का इस तरह से पक्ष लिया कि भारतीयों को शक होने लगा कि मनमोहन भारत के प्रधानमंत्री हैं या चीन-पाकिस्तान के? तब रोजाना कहीं वायुसेना के विमान गिर रहे थे तो कहीं नौसैनिक जहाज डूब रहे थे. शक होता था कि सरकार जान-बूझकर तो जहाज गिरा और डूबा नहीं रही है जिससे भारत की सेना चीन-पाकिस्तान के आगे कमजोर हो जाए?
मित्रों, तब कश्मीरी आतंकियों की पहुँच सोनिया-मनमोहन के ड्राईंग रूम तक थी और सीआरपीएफ के जवानों हाथों से से राइफल लेकर डंडा थमा दिया गया था. चाहे कोई गंगा में भी घुसकर क्यों न बोले मैं यह मान ही सकता कि कोई आरएसएस का कार्यकर्ता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर देश की सुरक्षा के साथ समझौता करेगा. (मैंने वाजपेयी के ज़माने में भी ताबूत वाले आरोपों पर थोडा-सा भी यकीं नहीं किया था.) फिर चाहे वो कसम खानेवाले संत या महासंत ही क्यों न हो राहुल की तो औकात ही क्या?
मित्रों, आपको क्या लगता है कि राहुल बार-बार चीन के दूतावास में क्यों जाते हैं या उनकी मां पिछले दिनों रूस क्यों गई थी? मुझे तो आज भी शक होता है कि ये मां-बेटे हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान के खिलाफ आज भी कोई-न-कोई खिचड़ी अवश्य पका रहे हैं. माना कि पेट्रोल के दाम बढ़ गए हैं लेकिन इन्टरनेट सहित बहुत-सी वस्तुएं आज यूपीए सरकार के मुकाबले सस्ती भी हैं. फिर पेट्रोल पर कोहराम क्यों? जहाँ तक ईरान का सवाल है तो यह वही देश है जिसने कांग्रेस सरकार का तो खूब लाभ उठाया लेकिन कश्मीर के मुद्दे पर कभी भारत का साथ नहीं दिया. इसी तरह से हमें बचपन से पढाया जा रहा है कि रूस हमारा मित्र है. अगर है भी या रहा भी है तो कांग्रेस पार्टी का मित्र रहा है भारत का नहीं. जब चीन हम पर चढ़ आया था तब तो उसने हमारी मदद नहीं की और आज भी नहीं करेगा. क्योंकि आज भी वो हमारे सबसे बड़े शत्रु चीन का सबसे बड़ा दोस्त है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रूस में ही हमारे एक प्रधानमंत्री की हत्या को चुकी है और उसमें वहां की तत्कालीन सरकार की भी संदेहास्पद भूमिका थी. साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के गायब होने में भी रूस का हाथ रहा है और ऐसा करके भी उसने कांग्रेस पार्टी के साथ ही मित्रता निभाई थी.
मित्रों, इस प्रकार हम पाते हैं कि राहुल के राफेल राग के पीछे कोई-न-कोई भारत-विरोधी साजिश है. जिन लोगों ने कभी रिमोट से केंद्र में सरकार चलाई उनका खुद का रिमोट कहीं-न-कहीं चीन-पाकिस्तान-रूस में है और वो वहीं से संचालित भी हो रहे हैं. साथ ही हम मोदी सरकार से हाथ जोड़कर विनती करने हैं कि वो राफेल से सबक लेते हुए देश का सब कुछ पूँजी से हवाले न करे क्योंकि पूँजी ही सबकुछ नहीं है और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को फिर से मजबूत और स्थापित करे इसी में उसकी भी भलाई है और देश की भी.
मित्रों, विवाद है इसके दाम में और अनिल अम्बानी को इसका ठेका दिलवाने में. जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पिछले दिनों आज तक चैनल पर जिस तरह से इसके मूल्य को लेकर रिपोर्ट आ चुकी है कि यह यूपीए के मुकाबले १० प्रतिशत कम दाम पर ख़रीदा गया है इस विवाद को समाप्त ही कर देना चाहिए. नैतिकता का यही तकाजा भी है. वैसे भारत सरकार ने भी फ्रांस की सरकार से इसके दाम उजागर करने की अनुमति मांगी है.
मित्रों, अब विवाद बचता है कि इसके ठेके में अनिल अम्बानी कैसे घुसे? इस बात पर मैं शुरू से मोदी सरकार की आलोचना करता रहा हूँ कि वो सरकारी कंपनियों की कीमत पर पूंजीपतियों को बढ़ावा दे रही है जिससे बचा जाना चाहिए था. वैसे शोध का विषय यह भी है कि अनिल इसमें कब घुसे.
मित्रों, आपको कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों को कोई अंतर दीखता है क्या? मुझे तो वाजपेयी के ज़माने में भी नहीं दिखा था और आज भी नजर नहीं आता. हो सकता है कि अगर कांग्रेस की सरकार होती तो अनिल अम्बानी की जगह मुकेश होते, लेकिन होते.
मित्रों, अब बच गया सबसे बड़ा सवाल कि राहुल इस मामले को इतना उछाल क्यों रहे हैं? मैं जबसे दिल्ली में मनमोहन की सरकार थी तभी से देखता आ रहा हूँ कि कांग्रेस को हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान से नफरत की हद तक लगाव है. आईएएस की परीक्षा में अंग्रेजी अनिवार्य नहीं थी मनमोहन सरकार ने किया. इसी तरह से कांग्रेस ने हिन्दू-विरोधी सांप्रदायिक दंगा विधेयक पारित करवाने का प्रयास किया. साथ ही भगवा आतंकवाद को न सिर्फ हवा में परिकल्पित किया बल्कि विश्वव्यापी जेहादी आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक साबित करने की भरपूर कोशिश भी की. इसी तरह कई बार उसने चीन और पाकिस्तान का इस तरह से पक्ष लिया कि भारतीयों को शक होने लगा कि मनमोहन भारत के प्रधानमंत्री हैं या चीन-पाकिस्तान के? तब रोजाना कहीं वायुसेना के विमान गिर रहे थे तो कहीं नौसैनिक जहाज डूब रहे थे. शक होता था कि सरकार जान-बूझकर तो जहाज गिरा और डूबा नहीं रही है जिससे भारत की सेना चीन-पाकिस्तान के आगे कमजोर हो जाए?
मित्रों, तब कश्मीरी आतंकियों की पहुँच सोनिया-मनमोहन के ड्राईंग रूम तक थी और सीआरपीएफ के जवानों हाथों से से राइफल लेकर डंडा थमा दिया गया था. चाहे कोई गंगा में भी घुसकर क्यों न बोले मैं यह मान ही सकता कि कोई आरएसएस का कार्यकर्ता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर देश की सुरक्षा के साथ समझौता करेगा. (मैंने वाजपेयी के ज़माने में भी ताबूत वाले आरोपों पर थोडा-सा भी यकीं नहीं किया था.) फिर चाहे वो कसम खानेवाले संत या महासंत ही क्यों न हो राहुल की तो औकात ही क्या?
मित्रों, आपको क्या लगता है कि राहुल बार-बार चीन के दूतावास में क्यों जाते हैं या उनकी मां पिछले दिनों रूस क्यों गई थी? मुझे तो आज भी शक होता है कि ये मां-बेटे हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान के खिलाफ आज भी कोई-न-कोई खिचड़ी अवश्य पका रहे हैं. माना कि पेट्रोल के दाम बढ़ गए हैं लेकिन इन्टरनेट सहित बहुत-सी वस्तुएं आज यूपीए सरकार के मुकाबले सस्ती भी हैं. फिर पेट्रोल पर कोहराम क्यों? जहाँ तक ईरान का सवाल है तो यह वही देश है जिसने कांग्रेस सरकार का तो खूब लाभ उठाया लेकिन कश्मीर के मुद्दे पर कभी भारत का साथ नहीं दिया. इसी तरह से हमें बचपन से पढाया जा रहा है कि रूस हमारा मित्र है. अगर है भी या रहा भी है तो कांग्रेस पार्टी का मित्र रहा है भारत का नहीं. जब चीन हम पर चढ़ आया था तब तो उसने हमारी मदद नहीं की और आज भी नहीं करेगा. क्योंकि आज भी वो हमारे सबसे बड़े शत्रु चीन का सबसे बड़ा दोस्त है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रूस में ही हमारे एक प्रधानमंत्री की हत्या को चुकी है और उसमें वहां की तत्कालीन सरकार की भी संदेहास्पद भूमिका थी. साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के गायब होने में भी रूस का हाथ रहा है और ऐसा करके भी उसने कांग्रेस पार्टी के साथ ही मित्रता निभाई थी.
मित्रों, इस प्रकार हम पाते हैं कि राहुल के राफेल राग के पीछे कोई-न-कोई भारत-विरोधी साजिश है. जिन लोगों ने कभी रिमोट से केंद्र में सरकार चलाई उनका खुद का रिमोट कहीं-न-कहीं चीन-पाकिस्तान-रूस में है और वो वहीं से संचालित भी हो रहे हैं. साथ ही हम मोदी सरकार से हाथ जोड़कर विनती करने हैं कि वो राफेल से सबक लेते हुए देश का सब कुछ पूँजी से हवाले न करे क्योंकि पूँजी ही सबकुछ नहीं है और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को फिर से मजबूत और स्थापित करे इसी में उसकी भी भलाई है और देश की भी.
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