जिससे बनी पूरी दुनिया में तेरी पहचान हूँ मैं,
मुझे फालतू न समझना
भारत का संविधान हूँ मैं.
टूटा हूँ उदास भी हुआ हूँ
जब मेरे ही पन्नों पर बैठकर
उड़ाई गई है मेरी मर्यादा की धज्जियाँ
जब-जब ली है मानवता के हत्यारों ने
मेरे नाम की शपथ
और आ बैठे हैं संवैधानिक पदों पर
मेरी छाती पर मूंग दलते हुए
तब-तब लगा है मुझे
जैसे टूटा हुआ अरमान हूँ मैं,
भारत का संविधान हूँ मैं.
मैंने कई बार खुद को
बेकार समझा है
जब किसी थाने के हाजत
में बंद किया गया है कोई निर्दोष
कई बार रोया हूँ मैं जब घोषित हत्यारे
को न्यायमूर्ति ने बताया है निर्दोष
कई बार मेरे शब्द मुझे लगे हैं बेबस
जब सदन में महीनों तक हुआ है
सिर्फ हंगामा
जैसे कि उनका निर्माण सिर्फ
इसी एक काम के लिए हुआ हो
यकीं नहीं होता मगर सच यही है
आजादी के दीवाने शहीदों की राख
पर उपजा वर्तमान हूँ मैं,
भारत का संविधान हूँ मैं.
1 टिप्पणी:
कविता राजनीतिक है। ठोस आधार पर है। वर्तमान दशा का यथार्थ इसमें झलकता है। आप कविता भी करते हैं, यह सुखद जानकारी मिली। प्रसन्नता हुई।
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