मित्रों, गुलाम वंश के पहले शासक कुतुबुद्दीन ऐबक के एक सिपहसालार का नाम था बख्तियार खिलजी. जी हाँ वही बख्तियार खिलजी जिसने महान नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर राख कर दिया था. दरअसल हुआ यह कि ११९३ के आरम्भ तक बख्तियार खिलजी ने पूर्वी भारत के कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था तभी वह काफी बीमार पड़ा. उसने अपने हकीमों से काफी इलाज करवाया मगर वह ठीक नहीं हो सका और मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया. तभी किसी ने उसको सलाह दी कि वह नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को दिखाए और इलाज करवाए. परन्तु खिलजी इसके लिए तैयार नहीं था. उसे अपने हकीमों पर ज्यादा भरोसा था. वह यह मानने को तैयार नहीं था की भारतीय वैद्य उसके हकीमों से ज्यादा ज्ञान रखते हैं या ज्यादा काबिल हो सकते हैं. लेकिन मरता क्या नहीं करता? अंत में अपनी जान बचाने के लिए उसको नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को बुलवाना पड़ा. फिर बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के सामने एक अजीब सी शर्त रखी और कहां कि वह उनके द्वारा दी गई किसी भी प्रकार की दवा नहीं खाएगा. बिना दवा के वो उसको ठीक करें. वैद्यराज ने सोच कर उसकी शर्त मान ली और कुछ दिनों के बाद वो खिलजी के पास एक कुरान लेकर पहुंचे और कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या.. इतने से इतने तक पढ़ लीजिये ठीक हो जायेंगे.
मित्रों, बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के बताए अनुसार कुरान को पढ़ा और ठीक हो गया. ऐसा कहा जाता हैं कि राहुल श्रीभद्र ने कुरान के कुछ पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया था, वह थूक के साथ उन पन्नों को पढ़ता गया और ठीक होता चला गया. कथित महान शांतिप्रिय धर्म का झंडाबरदार अहसानफरामोश खिलजी इस तथ्य से परेशान रहने लगा कि एक भारतीय विद्वान और शिक्षक को उनके हकीमों से ज्यादा ज्ञान था. फिर उसने देश से ज्ञान और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करने का फैसला किया. परिणाम स्वरूप खिलजी ने नालंदा की महान पुस्तकालय में आग लगा दी और लगभग 9 मिलियन पांडुलिपियों को जला दिया. ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में इतनी किताबें थीं कि वह तीन महीने तक जलती रहीं. इसके बाद खिलजी के आदेश पर तुर्की आक्रमणकारियों ने नालंदा के हजारों धार्मिक विद्वानों और भिक्षुओं की भी हत्या कर दी जिसमें आचार्य राहुल श्रीभद्र भी शामिल थे.
मित्रों, तबाकत-ए-नासिरी, फारसी इतिहासकार 'मिनहाजुद्दीन सिराज' द्वारा रचित की गई पुस्तक है. इसमें मुहम्मद ग़ोरी की भारत विजय तथा तुर्की सल्तनत के आरम्भिक इतिहास की लगभग 1260 ई. तक की जानकारी मिलती है. उस समय मिनहाज दिल्ली का मुख्य क़ाज़ी था. इस पुस्तक में 'मिनहाजुद्दीन सिराज' ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भी बताया है कि खिलजी और उसकी तुर्की सेना नें हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को जला कर मार दिया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बौद्ध धर्म का विस्तार हो. वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था. शिक्षक और विद्यार्थियों के लहू से पूरी धरती को लहू-लुहान कर भी जब अहसानफरामोश खिलजी को चैन नहीं मिला, तो उसने तत्कालीन विश्व के सबसे भव्य शिक्षण संस्था में आग लगा दी। बख्तियारपुर, जहां खिलजी को दफन किया गया था, वह जगह अब पीर बाबा का मजार बन गया है। दुर्भाग्य से कुछ मूर्ख हिन्दू भी उस लुटेरे और नालंदा के विध्वंसक के मजार पर मन्नत मांगने जाते हैं। दुर्भाग्य तो यह भी है कि इस लुटेरे के मजार का तो संरक्षण किया जा रहा है, लेकिन नालंदा विश्वविद्यालय का नहीं।
मित्रों, आप अनुमान लगा सकते हैं कि अगर नालंदा विश्वविद्यालय में जला दी गईं पुस्तकें जलाई नहीं गयी होती तो हमारा भारत हमेशा विश्वगुरु ही रहता और उसको पतन के दिन नहीं देखने पड़ते. लेकिन हम भारतीय अतीत से शिक्षा तो लेते नहीं हैं तभी तो आज महान बिहार में एक बार फिर से मानवता की सबसे बड़ी धरोहर पुस्तकों को नष्ट किया जा रहा है और संयोग यह है कि इस बार भी यह काम कोई और नहीं कर रहा बल्कि बख्तियार खिलजी के शहर बख्तियारपुर के रहनेवाले नीतीश कुमार जी कर रहे हैं. जी हाँ, बिहार के निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी भी बख्तियारपुर के ही निवासी हैं और पिछले विधानसभा चुनावों तक वहीँ जाकर मतदान भी करते रहे हैं. दरअसल मैं पिछले दिनों एक समय बिहार और भारत के गौरव रहे पटना के सिन्हा लाइब्रेरी में गया था और वहां की वर्तमान स्थिति को देखकर स्तब्ध रह गया. मैं यहाँ आपको बता दूं कि मैं २००८-०९ में भी इसका सदस्य था और तब इसकी रौनक देखते बनती थी. एक बिल्डिंग में पुस्तकें थीं तो दूसरी में समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ. ऐसी कोई भी पत्रिका या पत्र नहीं था जो यहाँ नहीं आता था. लेकिन अब पुस्तकालय सिर्फ एक बिल्डिंग में सिमट गया है. पत्रिकाओं के नाम पर चार-पांच पत्रिकाएँ आती हैं और पत्र के नाम पर आठ-दस अख़बार. मैं आठ-दस सालों की आजकल पत्रिका पढना चाहता मगर मुझे बताया गया कि आजकल पत्रिका सिर्फ पिछले पांच-छः महीने की ही उपलब्ध है. मैं स्तब्ध था कि यह हो क्या रहा है और क्यों हो रहा है? पूछने पर पुस्तकालय कर्मियों ने बताया कि पहले वहां ५० स्टाफ थे और अब ३ हैं. साथ ही सरकार ने पुस्तकालय के लिए आवंटन भी कम कर दिया है.
मित्रों, फिर मैंने पुस्तक-सूची से कुछ पुस्तकों के नाम नोट किए और कर्मियों से उनको उपलब्ध करवाने को कहा तो उन्होंने ऊपर पहली मंजिल पर जाकर स्वयं ढूंढ लेने को कहा. मैंने भी उनकी मजबूरी को देखते हुए ऊपर का रूख किया. ऊपर स्थिति और भी भयावह थी. छत दो स्थानों पर टपक रही थी और किताबों पर धूल जमी हुई थी. बहुत-सारी किताबों के नाम मिट गए थे और वे फट रही थीं. ऐसे में हुआ वही जिसका मुझे डर था. मैं जो किताबें ढूंढ रहा था उनमें से कोई भी नहीं मिली. मैंने मन मसोसकर दो किताबें ऐसे ही पढने के लिए अपने कार्ड पर जारी करवा ली.
मित्रों, बख्तियार खिलजी तो विदेशी था और वहशी व धर्मांध मुसलमान था फिर उसके मरे ८०० साल बीत चुके हैं लेकिन नीतीश कुमार तो विदेशी नहीं हैं फिर बिहार का गौरव सिन्हा लाइब्रेरी बंदी के कगार पर क्यों पहुँच गया है? सवाल उठता है कि माननीयों के पास खुद के पेंशन के लिए तो पैसा है लेकिन पुस्तकालय के लिए नहीं है? यह अपराध अगर लालू जी के बेटों ने किया होता तो फिर भी क्षम्य था लेकिन नीतीश जी तो पढ़े-लिखे हैं क्या उनको भी पुस्तकों की महत्ता के बारे में ज्ञान नहीं है? क्या उन्होंने कभी सोंचा है कि बिहार के शोधार्थी कहाँ जाकर अध्ययन करेंगे अगर उनको सिन्हा लाइब्रेरी से अपेक्षित सामग्री नहीं मिलेगी?