गुरुवार, 25 मार्च 2021
और भी बुरे दिन आनेवाले हैं
मित्रों, प्रबंधक की परीक्षा सुख में नहीं दुःख में होती है. आपको याद होगा जब २००८ की आर्थिक मंदी आई थी तब उससे भारत की तत्कालीन संघ सरकार ने कैसे निबटा था और भारत पूर्वी एशिया से उठी उस आर्थिक सुनामी से बेदाग बच गया था. तब भारत सरकार के आर्थिक इंतजामों की दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी.
मित्रों, हमारा देश पिछले कई सालों से आर्थिक मोर्चे पर जूझ रहा है जिसे कोरोना ने और भी चिंताजनक बना दिया है. अब केंद्र सरकार की गलतियों का खामियाजा भुगतने की बारी राज्य सरकारों की है. कोरोना के चलते राज्यों के अपने राजस्व नुकसान तो अलग हैं, ऊपर से उन्हें जीएसटी के हिस्से में इस वित्त वर्ष में केंद्र से करीब तीन लाख करोड़ रूपये कम मिले हैं. इतना ही नहीं अगले साल भी इतनी ही कमी रहनेवाली है.
मित्रों, इसके अलावा वित्त आयोग की सिफारिशों से भी राज्यों की कमाई या राजस्व को आनेवाले वर्षों में जोर का झटका लगनेवाला है. केंद्र ने राज्य सरकारों को जीएसटी में नुकसान की भरपाई की जो गारंटी दी है वह २०२३ में समाप्त हो जाएगी क्योंकि १५वें वित्त आयोग ने इसे बढ़ाने की कोई सिफारिश नहीं की है. इस गारंटी के खत्म होने के बाद राज्यों के राजस्व का पूरा संतुलन बिगड़ जाएगा और जीएसटी में नुकसान की भरपाई खुद से करनी होगी.
मित्रों, यही नहीं वित्त आयोग ने केद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी का सूत्र भी बदल दिया है. नई व्यवस्था में जनसँख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य व शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के पैमाने भी जोड़े गए हैं. इंडिया रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय करों में ८ राज्यों (आन्ध्र, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा २४ से लेकर ११८ (कर्नाटक) प्रतिशत तक घट जाएगा. दूसरी तरफ महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल की पौ बारह रहेगी.
मित्रों, आप जानते हैं कि केंद्र के करों में सेस और सरचार्ज का हिस्सा बढ़ता जा रहा है जिनमें से राज्यों को कुछ नहीं मिलता. केन्द्रीय कर राजस्व में इनका हिस्सा २०१२ में १०.४ प्रतिशत से बढ़कर २०२१ में १९.९ प्रतिशत हो गया है.
मित्रों, बात इतनी भर होती तो फिर भी गनीमत थी. वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को जानेवाले अनुदानों में बढ़ोतरी की सिफारिश की है लेकिन शिक्षा, बिजली और खेती के लिए केन्द्रीय अनुदान बेहतर प्रदर्शन की शर्तों पर मिलेंगे. जाहिर है कि बेहतर प्रदर्शन के लिए राज्यों को ज्यादा खर्च या निवेश करना होगा जिससे खजाने और भी ज्यादा खाली हो जाएँगे. रही बात कर्ज की तो मौजूदा वित्तीय वर्ष में ७ अप्रैल २०२० से १६ मार्च २०२१ तक भारत के २८ राज्य और २ केंद्रशासित प्रदेश बाजार से रिकॉर्ड ८.२४ लाख करोड़ रूपये का कर्ज उठा चुके हैं जो पिछले वित्त वर्ष से ३१ प्रतिशत ज्यादा है जिसके लिए उनको ७ प्रतिशत की दर से ब्याज देना होगा. अगले साल तक राज्यों के कर्ज १० लाख करोड़ को पार कर जाएँगे ऐसा अनुमान है. अर्थात आगे हमारे लिए जीवन जीना और महंगा और कठिन होनेवाला है और और भी बुरे दिन आनेवाले हैं क्योंकि एक तरफ केंद्र तो दूसरी तरफ राज्यों की सरकारें हम पर करों के बोझ में अति तीव्र असहनीय वृद्धि करनेवाली है.
रविवार, 21 मार्च 2021
मोदी राज में पैसा बचाना मना है
मित्रों, एक जमाना था और क्या जमाना था जब भारत और भारतीयों को बचत करने के लिए जाना जाता था और दुनिया भर के देशों के अर्थशास्त्री भारत से इस बात के लिए ईर्ष्या करते थे कि भारत गरीब भले ही हो लेकिन भारतीय धनी हैं. तब भारत और भारत के बैंकों के आर्थिक विकास में इन घरेलू बचतों का अपना अलग ही महत्व था.
मित्रों, फिर आज का जमाना आया जब एक सर्वज्ञानी व्यक्ति प्रधानमंत्री बना और उसने अर्थशास्त्र के सारे नियमों को पलटकर रख दिया. आज मंदी से बाहर निकालने की जद्दोजहद में उसने भारत को दो वर्गों में बाँट दिया है. एक तरफ हैं चुनिन्दा लोग जो कर्ज ले सकते हैं क्योंकि वे उसे चुका सकते हैं और दूसरी तरफ हैं वे बहुसंख्यक करोड़ों लोग जो कर्ज नहीं लेते या नहीं ले सकते लेकिन पेट काटकर भविष्य के लिए बचत करते हैं और सर्वज्ञानी जी हैं कि लगातार ब्याज दर कम करके उन गरीबों को और भी गरीब बना रहे हैं.
मित्रों, बीते ३ माह में ६ बार (२०१३ के बाद पहली बार) बांड बाजार ने सरकार को घुड़की दी और सस्ती ब्याज दर पर कर्ज देने से मना कर दिया. अब सरकार ठहरी कर्ज बाज़ार की पहली और सबसे बड़ी ग्राहक. बैंकों में जमा अधिकांश बचत सरकार कर्ज पर उठा लेती है और जिस दर पर पैसा उठती है (अभी ६.१५ प्रतिशत पर दस साल का बांड) आम जनता को उससे कहीं अधिक दर पर कर्ज मिलता है. साथ ही बचत पर ब्याज दर भी सरकारी कर्जे पर ब्याज से कम रहती है. इसके साथ ही सरकार से वसूला जानेवाला ब्याज उसके कर्ज की मांग से तय होता है. यहाँ मैं आपको बता दूं कि केंद्र सरकार अगले दो साल (यह और अगला) में करीब २५ लाख करोड़ रूपये का कर्ज लेगी. राज्यों की सरकारें इसके अलावा कर्ज लेनेवाली हैं जो कुल मिलाकर एक रिकॉर्ड होगा. यानि बैंकों के पास आम जनता को कर्ज देने के लिए पहले से कम पैसा बचनेवाला है.
मित्रों, उस पर बैंकों के लिए मुश्किल यह है कि मंदी के दबाव के कारण बैंकों को सरकार के साथ-साथ कंपनियों को यानि अमीरों को भी सस्ता कर्ज देना है. नतीजतन गरीबों के बचत के ब्याज पर छुरी चल रही है. तथापि बैंकों को अपने सबसे बड़े ग्राहक यानि सरकार से कम से कम इतना तो ब्याज चाहिए जो महंगाई से ज्यादा हो इसलिए पेट्रोल-डीजल और सामानों के दाम बढ़ने से महंगाई बढ़ रही है. दूसरी तरफ, अपनी कमाई का ५० प्रतिशत हिस्सा ब्याज चुकाने में खर्च कर रही सरकार को नए कर्ज चुकाने के लिए और नए टैक्स लगाने होंगे यानि अभी तो हमारे बुरे दिनों की बस शुरुआत हुई है.
मित्रों, महंगाई तो सिर्फ नेताओं के वादों में रूकती है इसलिए स्थिति यह है कि रिजर्व बैंक कर्ज पर ब्याज दरों को जबरन कम रखे हुए है जिससे बैंक जमा लागत घटाने के लिए बचतों पर ब्याज काट रहा है. यहाँ हम आपको यह बता दें कि भारतीयों की ५१ प्रतिशत बचतें इस समय बैंकों में हैं. बचत पर रिटर्न महंगाई से ज्यादा होनी चाहिए ताकि आम जनता का पैसा छीजे नहीं लेकिन इस पर मिल रहा ब्याज महंगाई से कम है जो अत्यंत दुखद है. जो कर्ज नहीं ले रहे उनकी मुसीबत दोहरी है. एक तो नौकरी गई या पगार घटी और दूसरा जिन बचतों पर उनकी निर्भरता थी वह भी छीज रहा है. लॉकडाउन के कारण खर्च रूकने से बैंकों में बचत जरूर बढ़ी थी लेकिन इस दौरान ब्याज दर के मुद्रास्फीति से कम होने के कारण नुकसान ज्यादा हो गया. भारत का एक बहुत ही छोटा सा जनसमूह जो शेयर बाजार के दांवपेंच से वाकिफ है बस वही फायदे में है बड़ी आबादी का सहारा फिक्स डिपोजिट बुरी तरह पिट चुके हैं.
मित्रों, अब बचत और उन पर निर्भर लोगों की जो हालत है सो है. अच्छे दिन तो आए नहीं अलबत्ता बुरे दिन जरूर आ गए. आप कहेंगे विकल्प क्या है? विकल्प भी है बशर्ते सर्वज्ञानी महाशय हमारी सलाह को मानें. इसके लिए सबसे पहले सरकार को जनता के लिए निर्धारित आय वाले नए विकल्प देने होंगे. साथ ही सरकार को अपने कर्ज को कम करना होगा. नहीं तो सरकार और ज्यादा संख्या में नए नोट छापेगी और महंगाई और भी विकराल रूप लेती जाएगी.
गुरुवार, 11 मार्च 2021
कोरोना संकट, वैश्विक अर्थव्यवस्था और भारत
मित्रों, इन दिनों खुद प्रधानमंत्री मोदी और उनके समर्थक इस बात की रट लगाए हुए हैं कि उनकी सरकार ने कोरोना संकट से बड़े ही बेहतरीन तरीके से निबटा लेकिन अगर हम यूरोप और अमेरिका द्वारा उठाए गए कदमों और उनके प्रभावों पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि अमेरिका और यूरोप के देश इस दौरान प्रबंधन में हमसे कहीं आगे, बहुत आगे थे.
मित्रों, मैकेंजी की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक २०२० की दूसरी और चौथी तिमाही में यूरोपीय समुदाय के देशों की जीडीपी १८ प्रतिशत सिकुड़ गई तब भी वहां रोजगार केवल ३ प्रतिशत घटी जबकि खर्च योग्य आय अर्थात डिस्पोजेबल इनकम में केवल ५ प्रतिशत की कमी आई. वहीँ अमेरिका में इस दौरान जीडीपी १० प्रतिशत टूटा, रोजगार भी घटा लेकिन लोगों की खर्च योग्य आय ८ प्रतिशत बढ़ गई. इस दौरान यूरोपीय समुदाय के देशों ने प्रतिव्यक्ति २३४२ डॉलर और अमेरिका ने ६७५२ डॉलर प्रतिव्यक्ति व्यय किया जबकि भारत सरकार ने कितना व्यय किया खुद सरकार भी नहीं जानती. साथ ही रोजगार की स्थिति पर भी हमारी सरकार रिपोर्ट को दबाने में ही लगी रहती है इसलिए हम इस मामले में भी आज तक अँधेरे में हैं.
मित्रों, जहाँ यूरोप और अमेरिका की सरकारों ने अपना पूरा ध्यान रोजगार बचाने और बेरोजगारों की सहायता पर केन्द्रित रखा वहीँ हमारी सरकार का पूरा ध्यान सरकारी कम्पनियों को बेचने और उद्योग जगत को लाभ पहुँचाने में लगा रहा. इस दौरान उद्योग जगत ने कितने लोगों को बेरोजगार कर दिया और उन बेरोजगारों की स्थिति क्या है से सरकार ने कोई मतलब ही नहीं रखा. यहाँ तक कि सरकार ने अचानक लॉक डाउन घोषित कर दिया और जो लोग जहाँ-तहां फँस गए उनके खाने-पीने-रहने-शौचालय आदि का कोई इंतजाम नहीं किया. लोगों को पैदल भूख-प्यास-थकान से जूझते हुए हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी. उनमें से कई लोगों की जीवन यात्रा यात्रा के दौरान ही समाप्त हो गई.
मित्रों, दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप की सरकारों ने अचानक लॉक डाउन नहीं किया. साथ ही वहां की सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, शिक्षा व चिकित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. जबकि हमारी सरकार ने फैक्ट्री मालिकों से मजदूरों को घर बिठाकर वेतन देने, स्कूलों से २ महीने की फीस माफ़ करने और मकान मालिकों से बिना किराया लिए लोगों को घर में रहने देने का अनुरोध भर करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली. परिणाम यह हुआ कि अचानक हजारों मजदूर रोजगार और गृहविहीन होकर सडकों पर आ गए और कई महीनों तक अफरातफरी का माहौल रहा. जबकि यूरोप और अमेरिका में मकान और फैक्ट्री मालिकों और स्कूल संचालकों को सरकारी आदेश से जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई सरकार ने की. साथ ही मकान किराया और स्कूल फ़ीस को कम किया और कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान में छूट दी गई या सरकार ने खुद नुकसान की भरपाई की.
मित्रों, इस कार्य में यूरोप और अमेरिका के निजी क्षेत्र ने भी सरकार का भरपूर साथ दिया. कंपनियों को कारोबार में नुकसान हुआ, कई दिवालिया भी हो गईं लेकिन रोजगारों में कमी को कम-से-कम बनाए रखा और पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया. इन सारी कवायदों का परिणाम यह हुआ कि अमेरिका में २०२० की तीसरी तिमाही में खर्च योग्य आय दोगुनी बढ़कर १६.१ प्रतिशत हो गई तो वहीँ यूरोप में भी बचत दर २४.६ प्रतिशत तक पहुँच गई. अब जबकि वहां की जनता की आय सुरक्षित है और बचत भी बढ़ चुकी है तो जैसे ही कारोबार अपनी पूरी क्षमता से खुलेगा यह ईंधन अर्थव्यवस्था को सरपट दौड़ा देगा.
मित्रों, दूसरी तरफ भारत सरकार एक्ट ऑफ़ गॉड के नाम पर रोजाना नए कर थोप रही है, पहले से तंगहाल हो चुकी जनता को पेट्रोल की आग में जला रही है और निजी कम्पनियाँ रोजगार में कटौती करके मुनाफा कूट रही है. सवाल उठता है कि जब पूंजीवादी मुल्कों में सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर संकट से लड़ सकते हैं तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो पाया? भारत सरकार ऐसे संवेदनहीन निजी क्षेत्र के हाथों में सबकुछ सौंपने के बारे में सोंच भी कैसे सकती है?
मित्रों, अयोग्य वित्त मंत्री और सरकारी कुप्रबंधन की कृपा से कोविद पूर्व ही मंदी और अभूतपूर्व बेरोजगारी के चलते लोगों की खर्च योग्य आय में ७.१ प्रतिशत की कमी आ चुकी थी. फिर कोविद और अब अत्यधिक करारोपण से उपजी जानलेवा महंगाई लोगों की आय को खा रही है. आज भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और दोहरा-तिहरा कर लगानेवाले देशों में है. हम न तो सरकार से टैक्स का हिसाब मांगते हैं और न ही इस बात की फिक्र ही करते हैं कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगार और वेतन क्यों नहीं बढ़ते और अगर बढ़ने के स्थान पर घटते हैं तो भारत लोक कल्याणकारी राज्य कैसे है? हम तो बस जय श्रीराम का नारा लगाते हैं रामजी के नाम पर देश और खुद को लुटने देते हैं.
मंगलवार, 9 मार्च 2021
जादूगरों के जादूगर मोदी
मित्रों, कौन क्या है, कैसा दिख रहा है और क्या निकलेगा. कौन क्या बोल रहा है और क्या करेगा इसके लिए हमें वक्त का मुंह ताकना पड़ता है. एक समय था जब नरेन्द्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित किया था. तब मोदी जादूगरोंवाले कपडे पहनकर प्रचार करते थे. जनता को लगा कि यह व्यक्ति जरूर अपने जादू से देश और देश की जनता का कायाकल्प कर देगा. लेकिन अब जबकि मोदी को प्रधानमंत्री बने लम्बा समय बीत चुका है तब ऐसा लग रहा है कि मोदी जादूगर तो हैं लेकिन अच्छे वाले और अच्छे दिन लानेवाले जादूगर नहीं हैं. बल्कि जनता को अपने जादू के तिलिस्म में भरमाकर लगातार मूर्ख बनानेवाले लोककथाओं वाले जादूगर हैं.
मित्रों, मुझे याद है कि अटल जी के ज़माने में जब स्वर्गीय अनंत कुमार जी को नागरिक उड्डयन मंत्री बनाया गया था तब उन्होंने मीडिया को दिए गए अपने पहले साक्षात्कार में कहा था कि मैं एयर इंडिया का कायाकल्प कर दूंगा. लेकिन हुआ क्या और आज एयर इंडिया किस स्थिति में है यह आप भी जानते हैं.
मित्रों, ऐसा नहीं है कि पहले सरकारी कंपनियों को बेचा नहीं गया. अटल जी के ज़माने में भी बेचा गया लेकिन मेरे एक ग्रामीण जिस तरह भैंसों को बेचते थे उस तरह से बेचा गया. दरअसल वो जमाना बैलों से खेती करने का था. हर दरवाजे पर कई-कई जानवर बंधे रहते थे. तब महनार और पटोरी में जानवरों की हाट लगती थी. मेरे उपरलिखित ग्रामीण जानवरों की दलाली करते थे. कई बार वे मरियल भैंस खरीद लाते. फिर कुछ महीनों तक उनके बेटे-पोते उन भैसों को खूब खिलाते और जब उनकी हालत हाथियों जैसी हो जाती तब दलाल साहब उनको ढेर सारा मुनाफा लेकर बेच देते.
मित्रों, अब अगर हम मोदीजी की सरकार को देखें तो इसका काम अटल जी से सीधा उल्टा है. मोदी जी पहले सरकारी कंपनियों को बर्बाद करते हैं फिर अपने अमीर मित्रों के हाथों उनको औने-पौने दामों में बेच देते हैं. कम्पनी नहीं बिकती तो कंपनी की संपत्ति ही सही. जमीन ही बेच दो. और ये सारा काम मोदी जी की राष्ट्रवादी सरकार देशहित के नाम पर कर रही है.
मित्रों, महंगाई, बेरोजगारी को ही लें तो दोनों अपने चरम पर है लेकिन मोदी जी निश्चिन्त हैं. उनको पता है कि जनता देशहित के नाम पर कुछ भी सह जाने को मानसिक रूप से तैयार बैठी है. बीजेपी की आईटी सेल ने कुछ इस तरह उनका ब्रेनवाश किया है कि जनता जान देगी लेकिन उफ्फ तक नहीं करेगी.
मित्रों, मोदी जी किसी से नहीं डरते. ५६ ईंच का सीना है उनका. बस सवालों और आलोचनाओं से डरते हैं. मीडिया के सवालों से बचने के लिए वे कभी प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते. जो भी बोलते हैं सिर्फ संसद में बोलते हैं या फिर एकतरफा भचर-भचर करते रहते हैं. उनके लिए मीडिया का कोई महत्व नहीं है. क्या मोदी सिर्फ संसद के प्रति जिम्मेदार हैं जनता के प्रति जिम्मेदार नहीं है? क्या मोदी जी को सवालों से डर नहीं लगता है? फिर वे ५६ ईंच सीना वाले कैसे हुए?
मित्रों, मोदी जी का लक्ष्य देश को लाभ पहुंचाना है ही नहीं बल्कि खरीदारों को लाभ पहुंचाना है। सरकारी कंपनियों की तरह मोदी जनता को भी पहले कंगाल बना रहे हैं फिर बेच देंगे। सांसों पर भी टैक्स लगेगा और वसूली अंबानी अडानी करेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम जिसको भी चुनते हैं वो डाकू निकलता है। कोई सीधे घोटाला करके डाका डालता है तो कोई इंद्रजाल फैलाकर। मोदी जी कहते हैं कि निजीकरण से देश का कायाकल्प होगा. लेकिन निजी स्कूलों और अस्पतालों की हालत क्या है? अभी तीर्थराज प्रयाग में एक निजी अस्पताल में डॉक्टर ने इसलिए तीन साल की ख़ुशी का पेट आपरेशन के बाद खुला छोड़ दिया क्योंकि उसके माता-पिता ५ लाख रूपये नहीं जमा करवा पाए. ईश्वर ख़ुशी की दिवंगत आत्मा को देशहित में खुश रखे. जब कुछ भी सरकारी नहीं बचेगा तो पूँजी की हृदयहीनता और मुनाफाखोरी से जनता की रक्षा कौन करेगा? वह पूँजी राम मंदिर में करोड़ों का समर्पण कर देगी लेकिन ख़ुशी और ख़ुशी के परिवार की ख़ुशी के लिए दो-चार लाख रूपये नहीं छोड़ेगी. रही बात सरकारी कामकाज की तो ऐसी कौन-सी कुर्सी है जिसकी नीलामी नहीं हो रही है या ऐसा कौन-सा टेबल है जहाँ बिना सेवा-शुल्क लिए जनता की सेवा की जाती है. देश में आज भी वही पुलिस है, वही न्यायालय है और वही बेबसी व लाचारी है. मोदी जी ने वादा किया था कि उनके राज में चलता है नहीं चलेगा फिर चल कैसे रहा है? भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हुआ बस उसका रूप बदल गया है. पहले घोटालों के आरोप इंसानों पर लगते थे अब दो पैर वाले चूहे चार पैर वाले चूहों पर हजारों लीटर शराब गटक जाने के आरोप लगाने लगे हैं.
मित्रों, चाहे बंगाल हो या केरल या कोई अन्य राज्य. चाहे वो लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव मोदी जी के आने से पहले जो सच था, वह आज भी सच है और कल जब मोदी नहीं रहेंगे तब भी सच रहेगा. किसी अनाम कवि ने कहा है-
हमारे देश में चुनाव क्या है?
एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से बकरे
अपने लिए सबसे अच्छे कसाई को चुनते हैं.
मित्रों, कभी-कभी हमारे देश के हास्य कवि भी बड़ी गंभीर बातें कर जाते हैं. सुरेन्द्र शर्मा जी अपनी एक कविता में कहते हैं कि
जनता तो सीता है
रावण राजा बना तो हर ली जाएगी
और राम राजा बने तो अग्निपरीक्षा के बाद फिर से वनवास पर भेज दी जाएगी
जनता तो द्रौपदी है
अगर कौरव राजा बने तो उसका चीर हरण हो जाएगा
और अगर पांडव राजा बने तो दांव पर लगा दी जाएगी.
जीते कोई हारना तो जनता को ही है.
तुलसीदास के समय राम नाम की लूट थी
और आज राम के नाम पर लूट मची है.
मंगलवार, 2 मार्च 2021
आदमी, पैसा और भगवान
मित्रों, एक जमाना था, शायद नेहरु जी का जमाना जब लोग भगवान और कर्मफल के सिद्धांत पर विश्वास रखते थे. तब भगवान ही भगवान थे और पैसा साधन मात्र था. लेकिन आज जब मोटी चमड़ीवाले मोदी जी का शासन है हमने पैसे को ही सबकुछ बना दिया है. जैसे भगवान को हमने मृत्युदंड दे दिया है. यथा राजा तथा प्रजा.
मित्रों, आज पैसा साधन है पैसा साध्य है,
पैसा ईश्वर है पैसा आराध्य है;
पैसा स्वर्ग है पैसा मंजिल है,
पैसा नाव है पैसा साहिल है;
पैसा वात्सल्य है पैसा अनुराग है,
पैसा पति है पैसा सुहाग है;
पैसा ख़ुशी है पैसा प्रकाश है,
पैसा उड़ान है पैसा आकाश है;
पैसा दिल है, पैसा पैसा धड़कन है,
पैसा महफ़िल है पैसा जीवन है;
पैसा शक्ति है पैसा भक्ति है,
पैसा आदर है पैसा तृप्ति है;
पैसा मंदिर है पैसा तीर्थ है,
पैसा सम्बन्धी है पैसा मित्र है;
पैसा ही कविता है पैसा ही रस है,
पैसे के बिना उत्तम साहित्य भी नीरस है;
पैसा अपनापन है पैसा ही प्यार है,
पैसा ही डिग्री है पैसा ही पढाई है,
पैसा के बिना जीवन ढलान है,
पैसा है तो चढ़ाई ही चढ़ाई है;
पैसा प्रेम है पैसा इन्साफ है,
पैसेवाले को सौ खून माफ़ है.;
यहाँ तक कि
पैसा इंसानियत है पैसा इन्सान है,
फिर इन्सान क्या है? पैसा है तो भगवान है
वर्ना कुछ भी नहीं है.
मित्रों, सोंचिए-हम क्या थे, क्या है और क्या होंगे अभी? लोग कहते हैं कि एक दिन धरती इंसानों के रहने लायक नहीं रहेगी. मगर क्या आज इन्सान धरती पर रहने लायक रह गया है? पैसों के लिए खुद मेरे रक्तसम्बंधियों ने मेरी पीठ में कई-कई बार छुरा भोंका है और हर बार सिर्फ कबीर के
इस दोहे को दोहरा कर अपने दिल को दिलासा देता रहा कि
कबीरा आप ठगाईए और न ठगिए कोई,
आप ठगे सुख उपजै और ठगे दुःख होई.
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