सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
एनजीओ का गोरखधंधा
कभी संत विनोबा भावे ने किसी एनजीओ के कामकाज से खुश होकर कहा था कि अब सरकारी तंत्र में असर नहीं रहा अगर कहीं असर है तो असरकारी संगठनों में.लेकिन मैंने वर्तमान में बिहार में संचालित कई एनजीओ के कामकाज को गहराई से देखने के बाद पाया कि यहाँ तो सबकुछ गड़बड़ घोटाला है.आजकल कई सारे काम जो पहले बिहार सरकार खुद करती थी उसने एनजीओ के हवाले कर दिया है.कई पूंजीपति रूपयों की थैली लेकर घूम रहे हैं और संपर्क कर रहे हैं एनजीओ संचालकों से.मतलब किसी की पूँजी किसी का नाम.एनजीओ संचालक कुल कार्य पूँजी का ३ प्रतिशत तक पाकर भी खुश.हर्रे लगे न फिटकिरी रंग भी चोखा होए.जहाँ तक इस मामले में सरकारी भ्रष्टाचार का प्रश्न है तो तंत्र कुल रकम का लगभग ४५ से ५५ प्रतिशत तक गटक जा रहा है.एनजीओ के बैनर तले चाहे एनजीओ खुद काम करे या किसी और को काम करने की अनुमति दे वे खर्च करते हैं लगभग २५ प्रतिशत और इस तरह बचत है लगभग २० प्रतिशत तक.अब अगर १ रूपया में से सिर्फ २५ पैसा ही कार्य स्थल पर खर्च हो तो विकास कितना होगा यह कोई भी समझ सकता है?कहने का तात्पर्य यह कि सरकारी तंत्र जब तक भ्रष्ट रहेगा असरकारी संगठनों के कामकाज में असर नहीं आनेवाला चाहे सरकार कोई भी इंतजाम क्यों न कर ले.कोई भी एनजीओ वाला घूस देना नहीं चाहता लेकिन बिना दिए काम ही न चले तो कोई करे भी तो क्या करे?आखिर एनजीओ की तरफ से गतिविधि भी तो चलनी चाहिए.
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