गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

बेहाल प्रजातंत्र

अंधों में काना चुनना मजबूरी बन गई,
अंधे चुन रहे अंधों को, क्या यही प्रजातंत्र है;
सालों से चल रहा करोड़ों का खेल, नंगा नाच धनबल और बाहुबल का;
रावणों का काफिला आकर धमका रहा है वोटरों को,
नेता करा रहे स्नान मतदाताओं को शराब से,
कुर्सी के पीछे भाग रहा गरीबों का मसीहा;
चुनाव बनकर रह गए हैं प्रहसन,
चुन-चुनकर बिठा दिया गया है कानों को कुर्सियों पर,
एक भ्रष्टाचारी लड़ रहा है दूसरे भ्रष्टाचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार मिटाने का संग्राम;
नैतिकता के गालों पर रहे झन्नाटेदार तमाचे,
द्रौपदी के दामन को धर्मराज ने सौंप दिया है खुद दुश्शासन के हाथों में;
प्रजातंत्र से उठ रहा करोड़ों मतदाताओं का विश्वास,
विकृत चित्तवाले लिख रहे हैं भारत में प्रजातंत्र का नया इतिहास;
गांधी रह गए हैं सिर्फ हरे-पीले नोटों पर शेष,
ईमानदारी हो रही लुप्त लोगों के चरित्र से;
कुर्सी की छत्रछाया में खून-तून सब माफ़ हो गया,
रो रही न्याय की देवी पट्टी बांधे आँखों पर,
अपवित्र हो गया न्याय का मंदिर सपना अब इंसाफ हो गया.

कोई टिप्पणी नहीं: