शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
पैसा सुख की गारंटी नहीं
कल पूरा बिहार जमुई के विधायक अभय सिंह द्वारा पत्नी और बच्ची की हत्या के बाद खुद को गोली मार लेने की घटना से उद्वेलित था.अभय जी एक अच्छे इन्सान थे.भुखमरी के शिकार माता-पिता द्वारा परिवार सहित जान देने की घटनाएँ बराबर बिहार में होती रहती हैं.लेकिन एक अतिसंपन्न राजनेता के घर इस तरह की घटना पहली बार देखने में आई.उनके पास तो धन-दौलत का अम्बार था फ़िर भी वे सुखी नहीं थे.वर्तमान युग अर्थयुग है.पूरी दुनिया नैतिकता को ताक पर रखकर पैसों के पीछे भाग रही है.सबकी यही सोंच है कि पैसों से वे सुख खरीद लेंगे.जबकि सुख एक मानसिक अवस्था है.अगर पैसों से सुख खरीदना संभव होता तो विधायक अभय जी परिवार सहित ख़ुदकुशी नहीं करते.वर्षों पहले इंग्लैंड में भी एक इसी तरह की घटना घटी थी.एक करोड़पति व्यवसायी को व्यापार में घाटा हुआ और उसके पास १० लाख पौंड की जमा पूँजी बच गई.इससे उसे इतना बड़ा मानसिक आघात लगा कि उसने आत्महत्या कर ली.हालांकि १०० साल पहले १० लाख पौंड भी कोई कम नहीं होता था.कहने का तात्पर्य यह कि अगर मन में हौंसला है तो कम भौतिक साधन पर भी जिंदगी मजे में जी जा सकती है वरना रोने-धोने के लिए बहानों की भी कोई कमी नहीं है.हमारे यहाँ तो संतोष को ही सबसे बड़ा धन माना जाता रहा है.कहा भी गया है-गो धन गज धन बाजी धन और रतन धन खान, जब आये संतोष धन सब धन धुरी समान.फ़िर हम भारतीयों को क्या हो गया है कि उपभोक्तावाद की हवा में बहकर भौतिक साधनों को इकठ्ठा करने के लिए प्रत्येक सही-गलत कार्यों में लिप्त हैं?सुख एक मानसिक अवस्था है और इसे पैसों से नहीं ख़रीदा जा सकता.इसे तो साहस और हिम्मत से ही पाया जा सकता.हर स्थिति में खुश रहकर प्राप्त किया जा सकता है.सत्कर्मों द्वारा ख़रीदा जा सकता है.बिना संतोष के सुख का प्राप्त होना पूरी तरह असंभव है.संस्कृत में एक श्लोक है जो सदियों से हमारा मार्गदर्शन कर रहा है-संतोषं परम सुखं.
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