रविवार, 14 फ़रवरी 2010

शर्म बाज़ार में नहीं बिकती

कनाडा के वैंकूवर में इन दिनों शीतकालीन ओलंपिक चल रहा है.इसमें भारत के भी कुछ खिलाड़ी भाग ले रहे हैं.लेकिन जब वे प्रतियोगिता में भाग लेने पहुंचे तो उनके पास खेल में भाग लेने के लिए कपड़े तक नहीं थे.भारतीय प्रवासियों ने चंदा कर कपड़े जुटाए.कितने आश्चर्य की बात है एक तरफ क्रिकेट खिलाड़ियों पर धन की बरसात हो रही है तो दूसरी तरफ खिलाड़ियों के पास कपड़े तक नहीं हैं.अभी कुछ ही दिन पहले की बात है कि भारत के सबसे बड़े राज्य में जनप्रतिनिधियों ने खुद अपना वेतन बढाया है.इनके लिए तो सरकार के पास पैसा है लेकिन खेल के लिए नहीं है.खेल का भी अपना महत्व है.खिलाड़ी जब पदक जीतते हैं तब पूरी दुनिया में हमारा सिर गर्व से ऊँचा उठ जाता है.आर्थिक विकास सिर्फ जीडीपी में वृद्धि से ही परिलक्षित नहीं होता उसे अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं की पदक तालिका से भी जाहिर होना चाहिए.आज का भारत १९२८ का भारत नहीं है जब एम्स्तर्दम ओलंपिक में हमारे हॉकी खिलाड़ियों खाली पांव खेलना पड़ा था.आज का भारत आर्थिक महाशक्ति है.लेकिन खेल के मोर्चे पर कम-से-कम स्थितियां नहीं बदली हैं और खिलाड़ियों के साथ-साथ भारत को भी कहीं-न-कहीं शर्मिंदा होना पड़ता है.लेकिन इससे हमारे नीति-निर्माताओं और नीति-संचालकों को क्या फर्क पड़ता?उन्होंने तो वर्षों पहले शर्मिंदा होना छोड़ दिया है और शर्म बाज़ार में तो बिकती नहीं जहाँ से खरीदकर हम इनमें थोड़ा-थोड़ा बाँट दें.

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