शनिवार, 21 अगस्त 2010
फील गुड की बीमारी अब यूपीए सरकार की बारी
कहते हैं कि जब चींटी की मौत आती है तब उसके पंख लग जाते हैं और जब सरकार को जाना होता है तब क्या होता है?जहाँ तक भारत का सवाल है तो यहाँ किसी भी सरकार के पतन का सबसे बड़ा लक्षण है उसका फील गुड का शिकार हो जाना.यह बीमारी ज्यादातर सरकारों को शासन के छठे वर्ष में होती है.वाजपेयी सरकार को भी हुई थी और अब शासन के छठे वर्ष में ही यू.पी.ए. सरकार को हुई है.इन दिनों सरकारी भोंपू आकाशवाणी पर एक गीत बार-बार गाया जा रहा है-
अब दुनिया में यही बस सुनात है कि देश हमार आगे जात है;
अब दुश्मन की भी क्या बिसात है कि देश हमार आगे जात है.
न जाने किस सूचकांक के आधार पर ऐसा दावा किया जा रहा है.तमाम विकास सूचकांकों में हम नीचे से प्रथम आनेवालों में से और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की भ्रष्ट देशों की सूची में हम सबसे ऊपर से प्रथम आनेवालों में से हैं.कहीं यह फील गुड न्यूज़ वीक द्वारा हमारे सबसे अकर्मण्य और अक्षम लेकिन विद्वान प्रधानमंत्री को दुनिया का सबसे सम्मानित नेता बताने से तो नहीं उपजी है.पैसे की जरूरत सबको है,मीडिया कर्मियों और मीडिया संस्थानों को भी.हो सकता है कि मनमोहन जी के लिए यह सम्मान ख़रीदा गया हो.जहाँ तक इस गीत की दूसरी पंक्ति में दुश्मनों की बिसात की खिल्ली उडाई गई है तो इसे सरकार का बडबोलापन ही कहा जाना चाहिए क्योंकि इस सरकार से तो आतंरिक दुश्मन माओवादी ही नहीं संभल रहे और लगभग आधे भारत पर उनकी सत्ता चलती है.बाह्य शत्रु चीन लगातार घुसपैठ करता रहता है उसके आगे तो हमारी सरकार का मुंह तक नहीं खुलता,आँख मिलाने की बात तो दूर रही.लेकिन हमारी सरकार अपने से कई गुना मजबूत देश को शत्रु कैसे मान सकती है वो तो शायद नन्हे-मुन्ने पाकिस्तान की बात कर रही है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान सालों से जो हमें आँखें दिखा रह है वह चीन के बल पर ही दिखा रहा है वरना पाकिस्तान तो कभी भारत के पासंग में था ही नहीं.जब अमेरिका ने पाकिस्तान को परमाणु समझौते से मना कर दिया तब भारत को चिढाने के लिए ही चीन ने उससे ऐसा समझौता किया.इसलिए इन दिनों आकाशवाणी से प्रसारित किया जा रहा यह गाना झूठ की नींव पर खड़े हवामहल के समान है और चुनाव तक अगर यही हाल रहा तो यह खुशफहमी चुनाव के बाद सरकार को कहीं की नहीं छोड़ेगी.इन दिनों फील गुड का गुण धारण करनेवाला एक और गाना सरकारी भोंपू यानी आकाशवाणी पर बज रहा है.गाने के बोल कुछ इस प्रकार हैं-
भारत निर्माण का सपना बुना,तरक्की हुई कई गुना.
कैसी तरक्की और किसकी तरक्की और कैसा सपना और किसका सपना.वाजपेयी सरकार ने जो आधारभूत संरचना विकसित करने का कार्य शुरू किया था उसे तो इस सरकार ने सत्ता में आते ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया.हमारा पड़ोसी चीन इस मामले में हमसे मीलों ही नहीं कई हजार मील आगे जा चुका है.देश में आज भी बिजली की भारी कमी है और हम लगातार पंचवर्षीय योजनाओं में बिजली और कृषि सहित सभी क्षेत्रों में लक्ष्य प्राप्त करने में असफल हो रहे हैं.तरक्की हुई है तो कांग्रेस पार्टी के फंड में हुई है और इस मामले में वह बांकी दलों से काफी आगे है.सभी कांग्रेसियों के बीच गाड़ियों और पैसों की रेवड़ी बांटी जा रही है.हमारे उपनिषदों में एक कथा है जिसमें देवासुर संग्राम में विजयी होने के बाद देवता फीलगुड के शिकार हो गए और आमोद-प्रमोद में लिप्त हो गए.तब उन्हें जागृत करने के लिए ब्रह्म प्रकट हुए और देवताओं को उनके कर्तव्यों का भान कराया.आज कलियुग में सरकार का दिमाग ठिकाने लगाने के लिए ब्रह्म तो स्वयं आने से रहे लेकिन जनता सरकार को उसकी इस खुशफहमी के लिए जरूर दण्डित करेगी अगर हमारी सरकार तब तक फील गुड की खुमारी से बाहर नहीं आई तो.राजस्थान से इसकी शुरुआत हो भी चुकी है.
भारत पर मंडराता जलवायु परिवर्तन का खतरा.
२१ वीं शताब्दी में भी बिहार के नेता लकीर के फकीरों जैसी बातें कर रहें हैं.बकौल लालू राज्य में बरसात में कमी आने के लिए सूर्य ग्रहण के समय राज्य के मुखिया नीतीश कुमार का बिस्कुट खाना जिम्मेदार है.वास्तव में समस्या इतनी छोटी नहीं है कि उसे मजाक में उड़ा दिया जाए.भारतीय उपमहाद्वीप में जिस तरह का जलवायु परिवर्तन हो रहा है उससे बहुत जल्दी भारत की खेती पर बहुत ही बुरा असर पड़ने की आशंका है.पुरातत्वविदों के अनुसार कुछ इसी तरह की स्थिति में ४००० वर्ष पहले सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन हो गया था.पुरातत्वविद कुलदीप सिंह ने घघ्घर नदी घाटी में परागकणों का परीक्षण करने पर पाया है कि ई.पू. २००० के बाद सिन्धु घाटी में वर्षा की मात्रा में अकल्पनीय कमी आ गई थी जिससे इस क्षेत्र का मरुस्थलीकरण शुरू हो गया और देखते-देखते दुनिया की सबसे पहली और अपने समय की सबसे उन्नत नगरीए सभ्यता का अंत हो गया.पिछले दो सालों से लगातार पूर्वोत्तर भारत में बरसात में जो भारी कमी आई है वह निश्चित रूप से चिंता का विषय है.पिछले साल भी इस क्षेत्र में सिर्फ रबी की खेती संभव हो पाई थी जबकि प्राक ऐतिहासिक काल से ही खरीफ की सबसे प्रमुख फसल धान की खेती का मुख्य केंद्र यही क्षेत्र रहा है.भगवान न करे अगर भविष्य में हालात नहीं सुधरे तो खेती के लिए पानी की उपलब्धता तो दूर की कौड़ी होगी पीने के पानी के भी लाले पड़ जाएँगे.लेकिन ऐसा भी नहीं है जलवायु में आ रहा यह परिवर्तन सिर्फ पूर्वोत्तर भारत को ही बर्बाद कर रहा है इसने पश्चिमी भारत में अतिवृष्टि से बाढ़ की अनपेक्षित स्थिति पैदा कर दी है.कहना न होगा कि भारत में उद्योगों का सबसे ज्यादा घनत्व इसी इलाके में है जिससे हजारों जिंदगियों की रोजी-रोटी चल रही है.राजस्थान जहाँ साल में १० सेमी वर्षा भी नहीं होती थी पिछले वर्षों में बाढ़ का सामना कर रहा है.इस साल तो दिल्ली से लेकर पाकिस्तान तक में जल प्रलय की स्थिति है.उत्तर में चीन में भी कमोबेश यही हालत है.पर्यावरण विज्ञानी वर्षों पहले से ही वैश्विक तापमान से सबसे ज्यादा भारत और चीन के प्रभावित होने की चेतावनी देते रहे हैं.लेकिन हमने अपनी आदत के अनुसार पहले से किसी प्रकार की तैयारी नहीं की.किन्तु अब जबकि संकट एकदम सिर पर आ गया है हम जलवायु परिवर्तन की सच्चाई से भाग नहीं सकते.हमें शीघ्रातिशीघ्र खरीफ फसलों के ऐसे प्रभेदों की खोज करनी होगी जो कम पानी में भी अच्छी फसल दे.साथ ही वर्षाजल संरक्षण के कार्य को युद्ध स्तर पर चलाना होगा.अन्यथा पूर्वोत्तर भारत जिसे मैं अपने लेख में पूर्वी उत्तर प्रदेश तक मान रहा हूँ से जो जनसंख्या का पलायन होगा वह पूरे देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर देगा जिस तरह का पलायन ४००० साल पहले सिन्धु क्षेत्र से गंगा घाटी में हुआ था.अगर ऐसा न भी हुआ तो भी इस क्षेत्र में जो भुखमरी की समस्या खड़ी होगी उससे निबट पाना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगी और बंगाल के १९४३ के अकाल समेत सारी कहानियां फीकी पड़ जाएँगी.
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
हम सत्ता के सत्ता हमारी
भारतीय लोकतंत्र में समस्त राजनीतिक क्रियाकलापों के केंद्र में क्या है?जनता तो बिलकुल भी नहीं.वास्तव में सत्ता ही वह धुरी है जिसके चारों ओर हमारी राजनीति घूमती है और घूमते हैं हमारे राजनीतिज्ञ.लेकिन सत्ता सुंदरी को साध पाना हमेशा से बड़े-बड़े साधकों के लिए भी आसान नहीं रहा है.बहुत-से राजनेता तो आजीवन विपक्ष की राजनीति ही करते रह जाते हैं.लेकिन हमारे लिए यह गौरव की बात है कि हमने यानी हाजीपुर की जनता ने एक ऐसे व्यक्ति को राजनीतिक जीवन दिया है जिनके लिए सत्ता को साधना बाएँ हाथ का खेल रहा है.पहले श्रीमान भी हमेशा विपक्ष में नजर आते थे.१९८९ में उनकी समझ में आया कि असली मजा तो सत्ता के साथ रहकर मलाई चाभने में है.इसलिए चार दिन की अँधेरी रात में जिसे जी भरकर गालियाँ देते थे चांदनी रात वाले दिन के उजाले में उसी से गले मिलते देखे गए.जब तक साथ में सत्ता सुख भोगते रहे वही दल उनके लिए राष्ट्रवादी बन गया जिसे वे दिन-रात बोतलबंद पानी पी-पी कर सांप्रदायिक करार देते थे.सत्ता सबको शुद्ध बना देती है एकदम गंगाजल के माफिक.वे केंद्र में जिस विभाग के भी मंत्री रहे खूब बहाली की लेकिन सशुल्क.वर्ष १९९८ में सी.बी.आई. ने अजमेर रेलवे भर्ती बोर्ड के अध्यक्ष कैलाश प्रसाद को उम्मीदवार से पैसे लेते रंगे हाथों गिरफ्तार भी किया.लेकिन नेताजी ने अपने रसूख के बल पर न सिर्फ मामले को रफा-दफा करवा लिया बल्कि अटल सरकार की दूसरी पारी में संचार मंत्री भी न गए.राजग भी दलित चेहरे को पाकर धन्य हुई जा रही थी.लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें भाजपा फ़िर से सांप्रदायिक नज़र आने लगी.वर्ष २००४ का लोकसभा चुनाव उन्होंने उस लालू प्रसाद के साथ मिलकर लड़ा जिनको सत्ता से हटाने के लिए लाभी वे शैतान से हाथ मिलाने को भी तैयार थे.लेकिन लालू जी ने उन्हें धोखा दे दिया.वादा करके भी रेलमंत्री का पद खुद ले लिया.बेचारे के हाथ आया इस्पात एवं रसायन मंत्रालय.लेकिन नेताजी ठहरे उर्वर मस्तिष्क के स्वामी.इस्पात मंत्रालय में भी बहाली की गई.प्रक्रिया कितनी पारदर्शी रही इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.महनार में कहीं स्टील फक्ट्री का अता-पता नहीं लेकिन बहाली कर ली गई.बहाल हुए लोग क्या परती खेत में काम करेंगे?.वर्ष २००५ में उनके हाथों में सत्ता की चाबी भी आ गई जबकि उन्होंने अकेले चुनाव लड़ा था.कोई भी गठबंधन बिना उनकी सहायता के सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था.दोनों पक्षों लालू और नीतीश उनके पास चाबी मांगने गए लेकिन वे टस-से-मस नहीं हुए.हाँ यह जरूर कहते रहे कि राजद को सत्ता से हटाने के लिए वे शैतान से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं.यह उनकी जिद का ही परिणाम था कि मात्र ८ महीने बाद ही बिहार को फ़िर से विधानसभा चुनाव में जाना पड़ा.इस बार उनके हाथ से सत्ता की चाबी निकल गई.बिहार में राजग की सरकार बनते ही उन्हें फ़िर से लालू अच्छे लगने लगे.उन्होंने २००९ का लोकसभा का चुनाव लालू के साथ मिलकर लड़ा लेकिन बिहार की जनता उनके बार-बार पाला बदलने से परेशान हो गई थी.परिणाम यह हुआ कि उनकी पार्टी का सूपड़ा ही साफ हो गया और वे खुद भी हाजीपुर से हार गए.चुनाव हारने के बाद हाजीपुर के दौरे पर आए और जनता से पूछा कि उनसे कहाँ गलती हुई?श्रीमान जनता के फोन करने पर फोन पर आने की जहमत तक नहीं उठाते और अपनी गलती पूछ रहे हैं.मैंने कहा न कि नेताजी सत्ता के लिए ही बने हैं सो लालू जी के सौजन्य से राज्यसभा में पहुँच गए हैं.देखना है कि कब तक केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का जुगाड़ होता है.फ़िर से बिहार विधानसभा के लिए रणभेरी बज चुकी है और नेताजी एक बार फ़िर लालू जी के साथ खड़े हैं.नेताजी की पार्टी भी अलबेली है.सारे महत्वपूर्ण पदों पर नेताजी और इनके भाई जमे हुए हैं.जो निर्णय नेताजी ने ले लिया सबके लिए वही आदेश है.विरोध का स्वर सुनाई देते ही विरोधी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है.यानी नेताजी की पार्टी तो भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा है लेकिन उनकी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है.नेताजी खुद को अब भी दलित मानते हैं लेकिन उनके पास अकूत संपत्ति है.पहले फकीर जरूर थे अब राजाओं के लिए भी दुर्लभ ज़िन्दगी जीते हैं.फ़िर से सत्ता के लिए दांव लगा दिया है.बिहार में सत्ता हाथ लगी तो सबसे अच्छा वरना सोनिया जी का कृपापात्र होने का फायदा उठाते हुए केंद्र में शामिल हो लेंगे.सत्ता और उनमें अन्योनाश्रय सम्बन्ध जो ठहरा.वे सत्ता के लिए और सत्ता उनके लिए बने हैं और सत्ता दुनिया का सबसे बड़ा सत्य तो है ही.
ॐ जय बिजली माता
हम हिन्दीभाषी लोग भाषिक तौर पर बड़े उदारवादी हैं.किसी भी नए शब्द को तुरंत अपनी बोलचाल की भाषा में शामिल कर लेते हैं.अब बिजली को ही लें जो पिछली सदी की देन है, पर भी कई मुहावरे बन गए हैं.इनमें से कुछ को आपकी नजर करना चाहूँगा-जिस्म में बिजली दौड़ जाना,बात का बिजली की तरह फ़ैल जाना,बिजली का तार छू जाना आदि.मैं यहाँ यह स्पष्ट कर दूं मैं आसमानी बिजली की बात नहीं कर रहा हूँ यह बिजली तार में दौड़नेवाली बिजली है.बिहार में हमेशा से बिजली चुनावी मुद्दा रही है.अब भी है तभी तो नीतीश जी अगली पारी में बिहार में ३ बिजली संयंत्र बिठाने और राज्य से बिजली का रोना समाप्त करने का वादा कर रहे हैं.राम जाने हमारी सरकारों की नींद चुनाव के पहले ही क्यों टूटती है?पॉँच सालों में उनकों इंतजाम करने से किसने रोक रखा था?पिछले पॉँच सालों में तो शहरों में बिजली की स्थिति और भी ख़राब हो गई है.फिल्म मुगले आज़म में अकबर अनारकली को धमकी के स्वर में कहता है कि अनारकली सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और मैं तुम्हें जीने नहीं दूंगा.इन दिनों बिहार की जनता की भी यही हालत है.बिजली न तो उन्हें जीने नहीं देती और न ही मरने देती है.दिन में एकाध बार औपचारिकतावश आ ही जाती है.सरकार यह कह सकती है हमने गांवों में भी बिजली पहुंचाई.लेकिन मैं पूछता हूँ कि जब आपके पास अपने रिश्तेदारों को खिलाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं हो तब पूरे गाँव को भोज पर आमंत्रित कर लेना कहाँ की बुद्धिमानी है?गांवों में सिंचाई के नाम पर भी अतिरिक्त बिजली दी जा रही है लेकिन गांवों में कितने लोगों ने विद्युत मोटर लगा रखा है.नगण्य.सरकारी नलकूपों में से तो अगरचे ज्यादातर बंद हैं और जिन्हें सरकार चालू बता रही है उनमें से भी शायद ही कोई चालू हो.जब आपके पास किसी चीज की कमी होती है तब आप किसी से मांग कर काम चला सकते हैं लेकिन कब तक?एक सीमा के बाद बनिया भी आपको उधार नहीं देगा.लेकिन हमारी सुशासन बाबू की सरकार ने पूरे पॉँच साल का समय यूं ही केंद्र से बिजली मांगे हुए गुजार दिए.जब केंद्र के पास खुद ही बिजली की कमी है तो वो क्यों बिहार को बिजली देने लगी.वैसे भी कोई भी व्यक्ति या सरकार पहले अपनी जरूरत का ध्यान रखेगा न कि दूसरों की जरूरत का.फ़िलहाल तो पूरे बिहार में बिजली को लेकर धरना-प्रदर्शन का दौर जारी है जब पर्याप्त बिजली आएगी तब आएगी.ये तो हुई बिहार में बिजली की कथा लेकिन बिना आरती के कोई भी कथा पूर्ण नहीं मानी जाती इसलिए आइये सारी मानवीय गतिविधियों के लिए आवश्यक बिजली माता की आरती कर लें-
ॐ जय बिजली माता,ॐ जय बिजली माता;
तुमको निशिदिन बुलावत,
हाजीपुर की जनता;
ॐ जय बिजली माता.
कई-कई दिन पर तुम आती,
शीघ्र चली जाती;
दिन में तुम तडपाती,
रातों में जगाती;
ॐ जय बिजली माता.
तुम बिन टी.वी. नहीं चलती,
कम्प्यूटर नहीं चलता;
वाशिंग मशीन,फ्रीज और मिक्स़र,
सब बेकार हो जाता;
ॐ जय बिजली माता.
ॐ जय बिजली माता,ॐ जय बिजली माता;
तुमको निशिदिन बुलावत,
हाजीपुर की जनता;
ॐ जय बिजली माता.
कई-कई दिन पर तुम आती,
शीघ्र चली जाती;
दिन में तुम तडपाती,
रातों में जगाती;
ॐ जय बिजली माता.
तुम बिन टी.वी. नहीं चलती,
कम्प्यूटर नहीं चलता;
वाशिंग मशीन,फ्रीज और मिक्स़र,
सब बेकार हो जाता;
ॐ जय बिजली माता.
शनिवार, 14 अगस्त 2010
हर तरफ रूदन बर्बादी है
क्या इसी का नाम आज़ादी है?
देश कर रहा तीव्र विकास,
गरीबों का हो रहा विनाश;
उद्योगपति हैं मालामाल,
आम आदमी हुआ बेहाल;
नेता-पुलिस लूट रहे देश को
बदनाम खाकी-खादी है;
हर तरफ रूदन-बर्बादी है,
क्या इसी का नाम आज़ादी है?
सूचना मांगो गोली मिलती,
न्याय मांगो तो तारीख मिलती;
ग्राम-प्रधान शोषण कर रहा,
भाई-भतीजों का पोषण कर रहा;
राशन-किरासन ब्लैक हो रहा,
गोदामों में अनाज सड़ रहा;
सुरसा के मुंह की तरह तेजी से,
बढ़ रही आबादी है;
हर तरफ रूदन बर्बादी है,
क्या इसी का नाम आज़ादी है?
नक्सली आतंक फैला रहे,
आम जनता को डरा रहे;
नेता जनता को बरगला रहे;
महंगा हुआ जीना भारत में,
महंगी बेटी की शादी है;
हर तरफ रूदन बर्बादी है,
क्या इसी का नाम आज़ादी है?
देश को लूटने की आज़ादी,
कानून तोड़ने की आज़ादी;
कानून बनाने की आज़ादी,
घूस खाने की आज़ादी;
जनता को बाँटने की आज़ादी,
योजना बनाने की आज़ादी;
डंडा लहराने की आज़ादी;
हर तरफ माहौल-ए- आज़ादी,
हर किसी को हके आज़ादी है;
हर तरफ रूदन बर्बादी है,
क्या इसी का नाम आज़ादी है?
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
भारत नाम जहाज चढ़े सों कभी न उतरे पार
कवि सदियों से भारत का मानवीकरण करते रहे हैं पर हमें तो लीक से हटकर चलने की आदत है.हम भारतमाता के सपूत जो ठहरे और वो कहते हैं न कि लीके लीक गाड़ी चले लीके चले कपूत,लीक छाड़ी के तीन चले सिंह,शायर,सपूत.सो भारतमाता का सच्चा सपूत होने का काफी दमदार परिचय देते हुए हमने उनका जहाजीकरण कर दिया है.नहीं समझे?मेरे भाइयों और उन भाइयों की बहनों मैंने बीजगणित के प्रश्न की तरह मान लिया है कि भारतमाता एक जहाज हैं और दुनिया के समंदर में विचरण कर रही हैं.जहाज के कप्तान जनमोहन सिंह अपने सख्त सुरक्षावाले वातानुकूलित कक्ष में सोए हुए हैं.वह क्यों सोये हुए हैं यह भी बता दूंगा,धीरज तो रखिए.क्या कहा?नहीं रख सकते तो फ़िर इस देश में जन्म लेने की क्या जरूरत थी यहाँ तो १०० रूपये के लिए हुए मुकदमे का फैसला भी ५० सालों में आता है?जहाज घूम रहा है,घूम रहा है,गोल-गोल.एक विदेशी पत्रकार जो अभी-अभी जहाज पर आया था सारे परिदृश्य को देखकर हैरान-परेशान हो गया.सीधे जा धमका कप्तान को जगा ही तो दिया.कई बार जम्हाई लेने के बाद माननीय जनमोहन सिंह जी ने अपने लबे मुबारक खोलते हुए पूछा-क्यूं जगाया भाई?अगला चुनाव जीतने का कितना अच्छा सपना देख रहा था.पत्रकार ने पूछा-श्रीमान जहाज किसी किनारे की ओर क्यों नहीं बढ़ाते?जनता को गोल-गोल क्यों घुमा रहे हैं?कप्तान जी कमर के बगल में तकिया दबाते हुए कहा-क्यों ले जाऊं किनारे पर जब जनता गोल-गोल घूमकर ही मस्त है?मीनारे का मतलब है मंजिल और जब हम मंजिल पर पहुँच जाएँगे तब करने को क्या बचेगा और जब मेरे पास करने को कुछ नहीं बच तो जनता कप्तान नहीं बदल देगी?और अगर नहीं भी बदले तो रिस्क क्यों लें जब बिना रिस्क लिए ही सबकुछ गें हो जा रहा हो.पत्रकार महोदय ने दूसरा सवाल ठोंका-श्रीमान जहाज के अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग लोग समानांतर सत्ता चला रहे हैं और आप सो रहे हैं.कप्तान जी ने चतुर सुजन की तरह मुस्कुराते हुए कहा-आपने कभी सत्ता के विकेंद्रीकरण का नाम सुना है तो भैया सत्ता का विकेंद्रीकरण और क्या है यही तो है.सबको थोड़ी-थोड़ी सत्ता दे दीजिये और निश्चिन्त रहिये.जितने अधिक क्षेत्र पर अपनी सत्ता नहीं रही चिंता उतनी ही कम होती गई.पत्रकार विस्मित था विद्वान कप्तान जी की मौलिक सोंच पर.उसने देखा कि माननीय की आँखें फ़िर से उनींदी हो रही हैं सो जल्दी बाजी में तीसरा सवाल पूछ लिए-महाशय जहाज की पेंदी को चूहे कुतर रहे हैं.आपको जहाज के डूबने का डर नहीं है?जनमोहन जी ने एक आँख को खोलते हुए जवाब दिया-भाई मेरे चूहे हैं तो उनका जो स्वाभाव है वही काम करेंगे न.यह देशरूपी जहाज बहुत मोटी तहवाला है डूबने में समय लगेगा.डूब भी जाए तो अपना क्या दूसरे कई जहाजों पाकर अपने रहने का उत्तम प्रबंध है.हेलीकाप्टर को भी डेक पर तैयार रखा है,निकल लेंगे. और कुछ पूछना है तुमको तो जल्दी पूछो मुझे बड़ी नींद आ रही है.पत्रकार ने एक क्षण की भी देरी नहीं करते हुए अंतिम सवाल पूछा-श्रीमान नीचे के तले पर लोग धर्म और जाति के नाम पर लड़ रहे हैं.क्या यह सब आपको अच्छा लग रहा है?कप्तान ने स्वर को धीमे करते हुए कहा-क्यों नहीं अच्छा लगेगा?हमने ही तो उन्हें लड़ाया है.आपस में ही उलझे नहीं रहेंगे तो जहाज की चिंता करने लगेंगे तब फ़िर हमें कौन कप्तान की कुर्सी पर रहने देगा?इस प्रश्न का उत्तर देते-देते धीरे-धीरे जनमोहन जी का स्वर पंचम से ऋषभ पर आ पहुंचा और नाक और गले से राग खर्राटा बजने लगा.पत्रकार ने भी डूबते जहाज से खिसक लेने में ही अपनी भलाई समझी और अपने देशवाले जहाज की ओर रवाना हो गया.
सोमवार, 9 अगस्त 2010
श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम,१९५५ और पत्रकार
मैंने दुनिया के आंसू पोछे,
मैंने हरी सबकी पीड़ा;
लेकिन रहा स्वयं उपेक्षित,
भूखा,नंगा,प्यासा कीड़ा.
ये पंक्तियाँ स्वयं मेरी हैं और मैंने इसे पत्रकारों की स्थिति को बयाँ करने के लिए लिखा है.कितने आश्चर्य की बात है,कितनी बड़ी बिडम्बना है कि समाज के दबे-कुचले लोगों के लिए रहनुमा का काम करनेवाले पत्रकार खुद इतने उपेक्षित हैं कि उनकी ज़िन्दगी कीड़े-मकोड़े से भी गई-बीती है.ऐसा भी नहीं है कि सारे पत्रकारों की आर्थिक स्थिति ख़राब ही हो.ऊपर वाले पत्रकार मजे में हैं लेकिन उनकी ईज्जत मालिकों के सामने चपरासी जितनी ही है और अपने पदों पर बने रहने के लिए उन्हें लगातार मालिकों और प्रबंधन की चाटुकारिता करनी पड़ती है.ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारों को शोषण से बचाने के लिए सरकार ने किसी तरह की व्यवस्था नहीं की है.१९५५ में संसद ने पत्रकारों की चिरकालीन मांग को मूर्त रूप देते हुए श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,१९५५ पारित किया.इसका उद्देश्य समाचारपत्रों और संवाद समितियों में काम करनेवाले श्रमजीवी पत्रकारों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए कतिपय सेवा-शर्तें निर्धारित व विनियमित करना था.इससे पहले अखबारी कर्मचारियों को श्रेणीबद्ध करने,कार्य के अधिकतम निर्धारित घंटों, छुट्टी,मजदूरी की दरों के निर्धारण और पुनरीक्षण करने,भविष्य-निधि और ग्रेच्युटी आदि के बारे में कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी.पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी.इस कानून में समाज में पत्रकार के विशिष्ट कार्य और स्थान तथा उसकी गरिमा को मान्यता देते हुए संपादक और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के हित में कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं.इनके आधार पर उन्हें सामान्य श्रमिकों से,जो औद्योगिक सम्बन्ध अधिनियम,१९४७ से विनियमित होते हैं,कुछ अधिक लाभ मिलते हैं.पहले यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं था पर १९७० में इसका विस्तार वहां भी कर दिया गया.अतः अब यह सारे देश के पत्रकारों व अन्य समाचारपत्र-कर्मियों के सिलसिले में लागू है.श्रमजीवी पत्रकार की कानूनी परिभाषा पहली बार इस अधिनियम से ही की गई.इसके अनुसार श्रमजीवी पत्रकार वह है जिसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता हो और वह किसी समाचारपत्र स्थापन में या उसके सम्बन्ध में पत्रकार की हैसियत से नौकरी करता हो.इसके अन्तर्गत संपादक,अग्रलेख-लेखक,समाचार-संपादक,उप-संपादक,फीचर लेखक,प्रकाशन-विवेचक (कॉपी टेस्टर),रिपोर्टर,संवाददाता (कौरेसपोंडेंट),व्यंग्य-चित्रकार (कार्टूनिस्ट),संचार फोटोग्राफर और प्रूफरीडर आते हैं.अदालतों के निर्णयों के अनुसार पत्रों में काल करनेवाले उर्दू-फारसी के कातिब,रेखा-चित्रकार और सन्दर्भ-सहायक भी श्रमजीवी पत्रकार हैं.कई पत्रों के लिए तथा अंशकालिक कार्य करनेवाला पत्रकार भी श्रमजीवी पत्रकार है यदि उसकी आजीविका का मुख्य साधन अर्थात उसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता है.किन्तु,ऐसा कोई व्यक्ति जो मुख्य रूप से प्रबंध या प्रशासन का कार्य करता है या पर्यवेक्षकीय हैसियत से नियोजित होते हुए या तो अपने पद से जुड़े कार्यों की प्रकृति के कारण या अपने में निहित शक्तियों के कारण ऐसे कृत्यों का पालन करता है जो मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है.इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः सम्पादकीय कार्य करता है और संपादक के रूप में नियोजित है.पर यदि वह सम्पादकीय कार्य कम और मुख्य रूप से प्रबंधकीय या प्रशासकीय कार्य करता है तो वह श्रमजीवी पत्रकार नहीं रह जाता है.लेकिन तृणमूल स्तर के अधिकतर पत्रकारों को नियोजक पत्रकार मानते ही नहीं वे नियुक्ति के समय ही कर्मी से लिखवा लेते हैं कि पत्रकारिता उनका मुख्य व्यवसाय नहीं है और उनका मुख्य व्यवसाय कोई दूसरा है.जब मैं पटना,हिंदुस्तान में काम करने गया था तब मुझे भी एक कागज हस्ताक्षर के लिए दिया गया जिस पर लिखा गया था कि पत्रकारिता मेरा मुख्य कार्य नहीं है.साथ ही उसमें यह भी भरना था कि मेरा मुख्य व्यवसाय क्या है.मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस कॉलम में क्या भरूँ.मैंने इस बारे में समाचार समन्वयक देवेन्द्र मिश्र जी से सलाह मांगी क्योंकि मेरा मुख्य पेशा पत्रकारिता ही था.उनके कहने पर मैंने इस कॉलम में टीचिंग भर दिया.हालांकि मैं जानता था कि मेरे साथ अन्याय किया जा रहा है लेकिन मैं मजबूर था जैसे सारे पत्रकार मजबूर होते हैं.मैं अपने कैरिअर की शुरुआत कर रहा था और इस स्थिति में नहीं था कि विरोध कर सकूं.श्रमजीवी पत्रकार होते हुए भी मैं जबरन इसकी परिभाषा से बाहर कर दिया गया और खून के घूँट पीकर रह गया.यहाँ मैं यह भी बताता चलूँ कि अधिनियम की धारा ३ (१) से श्रमजीवी पत्रकारों के सम्बन्ध में वे सब उपबंध लागू किये गए हैं जो औद्योगिक विकास अधिनियम,१९४७ में कर्मकारों (वर्कमैन)पर लागू होते हैं.किन्तु,धारा ३ (२) के जरिये पत्रकारों की छंटनी के विषय में यह सुधार कर दिया गया है कि छंटनी के लिए संपादक को छह मास की और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को तीन मास की सूचना देनी होगी.संपादकों और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को इस सुधार के साथ-साथ वह सभी अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त है जो औद्योगिक विकास कानून के अन्तर्गत अन्य कर्मकारों को सुलभ है.इतना ही नहीं पत्रकारों को ग्रेच्युटी की अदायगी के बारे में भी श्रमजीवी पत्रकार कानून में विशेष उपबंध किये गए हैं.धारा 5 में यह प्रावधान है कि किसी समाचारपत्र में लगातार तीन वर्ष तक कार्य करनेवाले श्रमजीवी पत्रकारों को,अनुशासन की कार्रवाई के तौर पर दिए गए दंड को छोड़कर,किसी कारण से की गई छंटनी पर या सेवानिवृत्ति की आयु हो जाने पर उसके सेवानिवृत्त होने पर,या सेवाकाल के दौरान मृत्यु हो जाने पर,या दस वर्ष तक नौकरी के बाद किसी कारणवश स्वेच्छा से इस्तीफा देने पर,उसे मालिक द्वारा सेवाकाल के हर पूरे किए वर्ष या उसके छह मास से अधिक के किसी भाग पर,१५ दिन के औसत वेतन के बराबर धनराशि दी जाएगी.स्वेच्छा से इस्तीफा देने वाले श्रमजीवी पत्रकार को अधिकाधिक साढ़े १२ मास के औसत वेतन के बराबर ग्रेच्युटी मिलेगी.यदि कोई श्रमजीवी पत्रकार कम-से-कम तीन वर्ष की सेवा के बाद अंतःकरण की आवाज के आधार पर इस्तीफा देता है तो उसे भी इसी हिसाब से ग्रेच्युटी दी जाएगी.जहाँ तक काम और विश्राम का सवाल है तो इस अधिनियम के अन्तर्गत बनाए गए नियमों के अध्याधीन रहते हुए लगातार चार सप्ताहों की किसी अवधि के दौरान,भोजन के समयों को छोड़कर, १४४ घंटों से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है,न ही उसे इससे अधिक समय तक काम करने की अनुमति दी जा सकती है.हर श्रमजीवी पत्रकार को लगातार सात दिन की अवधि के दौरान कम-से-कम लगातार २४ घंटों का विश्राम दिया जाना चाहिए.सप्ताह को शनिवार की मध्य रात्रि से आरम्भ समझा जाता है (धारा ६).श्रमजीवी पत्रकारों के लिए २ प्रकारों की छुट्टियों-उपार्जित छुट्टी और चिकित्सा छुट्टी-का स्पष्ट प्रावधान किया गया है.शेष छुट्टियों के सम्बन्ध में नियम बनाने का उपबंध है.उपार्जित छुट्टी काम पर व्यतीत अवधि की १/११ से कम नहीं होगी और यह पूरी तनख्वाह पर मिलेगी.चिकित्सा प्रमाण-पत्र पर चिकित्सा छुट्टियाँ कार्य पर व्यतीत अवधि की १/१८ से कम नहीं होंगी.यह आधी तनख्वाह पर दी जाएगी.इसका अर्थ मोटे तौर पर यह है कि श्रमजीवी पत्रकार को वर्ष में एक मास की उपार्जित छुट्टी और चिकित्सा प्रमाणपत्र के आधार पर आधी तनख्वाह पर चार सप्ताह की छुट्टी दी जानी चाहिए (धारा ७).काम के घंटों का प्रावधान संपादकों पर लागू नहीं होता.संवाददाताओं,रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों को किसी दिन काम शुरू करने के बाद उस समय तक समझा जाएगा जब तक वह उसे पूरा नहीं कर लेते.किन्तु,यदि उनसे पूरे सप्ताह में एक या अधिक बार हीं घन्टे या उससे अधिक का विश्राम देकर इसकी क्षति-पूर्ति करनी होगी.अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के लिए सामान्य कार्य-दिवस में दिन की पारी में छह घन्टे और रात की पारी में साढ़े पॉँच घन्टे से ज्यादा समय का नहीं होगा.रात को ११ बजे से सुबह ५ बजे के समय को रात्रि की पारी में माना जाएगा.दिन की पारी में लगातार चार घन्टे के काम के बाद एक घन्टे का और रात्रि की पारी में लगातार तीन घन्टे के कार्य के उपरांत आधे घन्टे विश्राम दिया जाना चाहिए.श्रमजीवी पत्रकार को लगातार दूसरे सप्ताह में रात्रि पारी में काम करने को नहीं कहा जा सकता है.उसे १४ दिनों में एक सप्ताह से ज्यादा रात्रि की पारी में नहीं लगाया जा सकता है.साथ ही एक रात्रि पारी से दूसरी रात्रि पारी में बदले जाने के बीच चौबीस घन्टे का अन्तराल होना चाहिए.दिन की एक पारी से दूसरी पारी में बदले जाने के समय यह अन्तराल १२ घन्टे का होना चाहिए.श्रमजीवी पत्रकार वर्ष में १० सामान्य छुट्टियों का अधिकारी है.यदि वह छुट्टी के दिन काम करता है तो उसे इसकी पूर्ति किसी ऐसे दिन छुट्टी देकर करनी होगी जिस पर नियोजक और पत्रकार दोनों सहमत हों.छुट्टियों और साप्ताहिक अवकाश की मजदूरी श्रमजीवी पत्रकारों को दी जाएगी.काम पर गुजरे ११ मास पर एक मास उपार्जित छुट्टी दी जाएगी.किन्तु,९० उपार्जित छुट्टियाँ एकत्र हो जाने के बाद और छुट्टियाँ उपार्जित नहीं मानी जाएगी.सामान्य छुट्टियों,आकस्मिक छुट्टियों और टीका छुट्टी की अवधि को काम पर व्यतीत अवधि माना जाएगा.प्रत्येक १८ मास की अवधि में एक मास की छुट्टी चिकित्सक के प्रमाण-पत्र पर दी जाएगी.यह छुट्टी आधे वेतन पर होगी.ऐसी महिला श्रमजीवी पत्रकारों को,जिनको सेवा एक वर्ष से अधिक का हो,तीन मास तक की प्रसूति छुट्टी दी जाएगी.यह छुट्टी गर्भपात होने पर भी सुलभ की जाएगी.इसके अलावा नियोजक की ईच्छा पर वर्ष में १५ दिन की आकस्मिक छुट्टी दी जाएगी.नियम ३८ में यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी अन्य नियम,समझौते या अनुबंध का कोई भाग श्रमजीवी पत्रकारों के लिए इन नियमों से अधिक लाभकारी हो तो उन पर वह लागू होगा.ऐसा कोई नियम श्रमजीवी पत्रकारों पर लागू नहीं किया जाएगा जो इन नियमों से कम फायदेमंद हो.लेकिन असलियत एकदम अलग है.खुद मुझे हिंदुस्तान,पटना में नौकरी के आरंभिक ३ महीने तक एक भी दिन छुट्टी नहीं दी गई और कहा जाता रहा कि अभी छुट्टी के दिन का निर्धारण नहीं हो पाया है.हालांकि बाद में इसके बदले मुझे अलग से छुट्टी दे दी गई.इतना ही नहीं मुझे एक दिन की भी उपार्जित या चिकित्सकीय छुट्टी नहीं दी गई.हमें चाहे हमारी ड्यूटी रात की शिफ्ट में हो या दिन की शिफ्ट में हो प्रतिदिन कम-से-कम ८ घन्टे काम करना पड़ता था.कई जगहों पर पत्रकारों से लगातार महीनों तक रात की शिफ्ट में काम कराया जाता है चाहे इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर ही क्यों न पड़े.इस अधिनियम का एक महत्वपूर्ण उपबंध श्रमजीवी पत्रकारों के लिए मजदूरी की दरें नीयत करने की शक्ति केंद्रीय सरकार में निहित करने के विषय में है.धारा ८ (१) में उपबंधित किया गया है कि केंद्रीय सरकार एक निर्धारित रीति से श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य समाचारपत्र-कर्मचारियों के लिए मजदूरी की दरें नियत कर सकेगी और धारा ८ (२) में कहा गया है कि मजदूरी कि दरों को वह ऐसे अंतरालों पर,जैसा वह ठीक समझे,समय-समय पर पुनरीक्षित कर सकेगी.दरों का निर्धारण और पुनरीक्षण कालानुपाती (टाइम वर्क) और मात्रानुपाती (पीस वर्क) दोनों प्रकार के कामों के लिए किया जा सकेगा.पर,यह व्यवस्था भी की गई है कि सरकार वेतन दरों का निर्धारण मनमाने तौर पर न करे.इसलिए धारा ९ में एक मजदूरी बोर्ड के गठन का प्रावधान किया गया है.बोर्ड की सिफफिशों पर विचार करके ही मजदूरी की दरें नियत की जा सकती है.बोर्ड में अध्यक्ष समेत ७ सदस्य नियुक्त किये जाते हैं.किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय का विद्यमान या भूतपूर्व न्यायधीश ही इसका अध्यक्ष हो सकता है.अन्य सदस्यों में समाचारपत्रों के नियोजकों और श्रमजीवी पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करनेवाले २-२ व्यक्ति और २ स्वतंत्र व्यक्ति होते हैं.मजदूरी बोर्ड समाचारपत्रों-स्थापनों,श्रमजीवी पत्रकारों,गैर-पत्रकार समाचारपत्र-कर्मचारियों तथा इस विषय में हितबद्ध अन्य व्यक्तियों से अभ्यावेदन आमंत्रित करता है.बोर्ड अभ्यावेदनों पर विचार करके तथा अपने समक्ष रखी गई सारी सामग्री की परीक्षा करके अपनी सिफारिशें केंद्रीय सरकार से करता है.इसके बाद केंद्रीय सरकार का काम है कि वह सिफारिशें प्राप्त होने के उपरांत,जहाँ तक हो सके,शीघ्र मजदूरी की दरें नीयत या पुनरीक्षित करने सम्बन्धी आदेश जारी करे.यह आदेश बोर्ड की सिफारिशों के अनुसार या उसमें ऐसे किसी फेरबदल के साथ,जिसे वह उचित समझे,जारी किया जा सकता है.किन्तु,फेरबदल ऐसा नहीं होना चाहिए जो बोर्ड की सिफारिशों के स्वरुप में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दे.सिफारिशों को लागू करनवाला केन्द्रीय सरकार का प्रत्येक आदेश राजपत्र में प्रकाशित होने की तारीख़ या आदेश में विनिर्दिष्ट किसी अन्य तारीख से अमल में आता है.केंद्रीय सरकार के आदेश के प्रभाव में आ जाने पर,प्रत्येक श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार समाचारपत्र-कर्मचारी इस बात का हकदार हो जाता है कि उसे उसके नियोजन द्वारा उस दर पर मजदूरी दी जाए जो आदेश विनिर्दिष्ट मजदूरी की दर से किसी दशा में कम न हो (धारा १३).इस अधिनियम का उल्लंघन करनेवाले नियोजक को अधिकतम ५०० रूपये के जुर्माने का प्रावधान है जो एकदम मामूली है.लेकिन वास्तव में होता क्या है पहले ही प्रत्येक कर्मी से नियुक्ति के समय एग्रीमेंट भरवाया जाता है जिससे वह नियोजक रहमो-करम पर काम करने के लिए बाध्य हो जाता है जिस तरह खुद मेरे साथ किया गया.उसे कभी भी बिना नोटिस के निकाल-बाहर कर दिया जाता है.अगरचे तो वह कोर्ट का रूख करता ही नहीं और अगर करता भी है तो कानून के दांव-पेंच में उलझकर रह जाता है.इस प्रकार हमने देखा कि दुनियाभर दुखी-दीनों का ख्याल रखनेवाले पत्रकारों की खुद की दशा ही दयनीय है और उनकी कोई सुध लेनेवाला नहीं है.ग्रामीण क्षेत्रों के रिपोर्टरों को तो पंक्ति के आधार पर पैसे दिए जाते हैं.उनकी रक्षा के लिए कानून बना दिए गए हैं लेकिन उनका पालन नहीं किया जाता.हालांकि इनके कई संगठन भी हैं लेकिन उनके नेता भी सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं.जाने कब स्थितियां बदलेंगी और पत्रकार भी सम्मान के साथ ज़िन्दगी जी सकेंगे,जाने कब??
मैंने हरी सबकी पीड़ा;
लेकिन रहा स्वयं उपेक्षित,
भूखा,नंगा,प्यासा कीड़ा.
ये पंक्तियाँ स्वयं मेरी हैं और मैंने इसे पत्रकारों की स्थिति को बयाँ करने के लिए लिखा है.कितने आश्चर्य की बात है,कितनी बड़ी बिडम्बना है कि समाज के दबे-कुचले लोगों के लिए रहनुमा का काम करनेवाले पत्रकार खुद इतने उपेक्षित हैं कि उनकी ज़िन्दगी कीड़े-मकोड़े से भी गई-बीती है.ऐसा भी नहीं है कि सारे पत्रकारों की आर्थिक स्थिति ख़राब ही हो.ऊपर वाले पत्रकार मजे में हैं लेकिन उनकी ईज्जत मालिकों के सामने चपरासी जितनी ही है और अपने पदों पर बने रहने के लिए उन्हें लगातार मालिकों और प्रबंधन की चाटुकारिता करनी पड़ती है.ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारों को शोषण से बचाने के लिए सरकार ने किसी तरह की व्यवस्था नहीं की है.१९५५ में संसद ने पत्रकारों की चिरकालीन मांग को मूर्त रूप देते हुए श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,१९५५ पारित किया.इसका उद्देश्य समाचारपत्रों और संवाद समितियों में काम करनेवाले श्रमजीवी पत्रकारों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए कतिपय सेवा-शर्तें निर्धारित व विनियमित करना था.इससे पहले अखबारी कर्मचारियों को श्रेणीबद्ध करने,कार्य के अधिकतम निर्धारित घंटों, छुट्टी,मजदूरी की दरों के निर्धारण और पुनरीक्षण करने,भविष्य-निधि और ग्रेच्युटी आदि के बारे में कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी.पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी.इस कानून में समाज में पत्रकार के विशिष्ट कार्य और स्थान तथा उसकी गरिमा को मान्यता देते हुए संपादक और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के हित में कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं.इनके आधार पर उन्हें सामान्य श्रमिकों से,जो औद्योगिक सम्बन्ध अधिनियम,१९४७ से विनियमित होते हैं,कुछ अधिक लाभ मिलते हैं.पहले यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं था पर १९७० में इसका विस्तार वहां भी कर दिया गया.अतः अब यह सारे देश के पत्रकारों व अन्य समाचारपत्र-कर्मियों के सिलसिले में लागू है.श्रमजीवी पत्रकार की कानूनी परिभाषा पहली बार इस अधिनियम से ही की गई.इसके अनुसार श्रमजीवी पत्रकार वह है जिसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता हो और वह किसी समाचारपत्र स्थापन में या उसके सम्बन्ध में पत्रकार की हैसियत से नौकरी करता हो.इसके अन्तर्गत संपादक,अग्रलेख-लेखक,समाचार-संपादक,उप-संपादक,फीचर लेखक,प्रकाशन-विवेचक (कॉपी टेस्टर),रिपोर्टर,संवाददाता (कौरेसपोंडेंट),व्यंग्य-चित्रकार (कार्टूनिस्ट),संचार फोटोग्राफर और प्रूफरीडर आते हैं.अदालतों के निर्णयों के अनुसार पत्रों में काल करनेवाले उर्दू-फारसी के कातिब,रेखा-चित्रकार और सन्दर्भ-सहायक भी श्रमजीवी पत्रकार हैं.कई पत्रों के लिए तथा अंशकालिक कार्य करनेवाला पत्रकार भी श्रमजीवी पत्रकार है यदि उसकी आजीविका का मुख्य साधन अर्थात उसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता है.किन्तु,ऐसा कोई व्यक्ति जो मुख्य रूप से प्रबंध या प्रशासन का कार्य करता है या पर्यवेक्षकीय हैसियत से नियोजित होते हुए या तो अपने पद से जुड़े कार्यों की प्रकृति के कारण या अपने में निहित शक्तियों के कारण ऐसे कृत्यों का पालन करता है जो मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है.इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः सम्पादकीय कार्य करता है और संपादक के रूप में नियोजित है.पर यदि वह सम्पादकीय कार्य कम और मुख्य रूप से प्रबंधकीय या प्रशासकीय कार्य करता है तो वह श्रमजीवी पत्रकार नहीं रह जाता है.लेकिन तृणमूल स्तर के अधिकतर पत्रकारों को नियोजक पत्रकार मानते ही नहीं वे नियुक्ति के समय ही कर्मी से लिखवा लेते हैं कि पत्रकारिता उनका मुख्य व्यवसाय नहीं है और उनका मुख्य व्यवसाय कोई दूसरा है.जब मैं पटना,हिंदुस्तान में काम करने गया था तब मुझे भी एक कागज हस्ताक्षर के लिए दिया गया जिस पर लिखा गया था कि पत्रकारिता मेरा मुख्य कार्य नहीं है.साथ ही उसमें यह भी भरना था कि मेरा मुख्य व्यवसाय क्या है.मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस कॉलम में क्या भरूँ.मैंने इस बारे में समाचार समन्वयक देवेन्द्र मिश्र जी से सलाह मांगी क्योंकि मेरा मुख्य पेशा पत्रकारिता ही था.उनके कहने पर मैंने इस कॉलम में टीचिंग भर दिया.हालांकि मैं जानता था कि मेरे साथ अन्याय किया जा रहा है लेकिन मैं मजबूर था जैसे सारे पत्रकार मजबूर होते हैं.मैं अपने कैरिअर की शुरुआत कर रहा था और इस स्थिति में नहीं था कि विरोध कर सकूं.श्रमजीवी पत्रकार होते हुए भी मैं जबरन इसकी परिभाषा से बाहर कर दिया गया और खून के घूँट पीकर रह गया.यहाँ मैं यह भी बताता चलूँ कि अधिनियम की धारा ३ (१) से श्रमजीवी पत्रकारों के सम्बन्ध में वे सब उपबंध लागू किये गए हैं जो औद्योगिक विकास अधिनियम,१९४७ में कर्मकारों (वर्कमैन)पर लागू होते हैं.किन्तु,धारा ३ (२) के जरिये पत्रकारों की छंटनी के विषय में यह सुधार कर दिया गया है कि छंटनी के लिए संपादक को छह मास की और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को तीन मास की सूचना देनी होगी.संपादकों और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को इस सुधार के साथ-साथ वह सभी अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त है जो औद्योगिक विकास कानून के अन्तर्गत अन्य कर्मकारों को सुलभ है.इतना ही नहीं पत्रकारों को ग्रेच्युटी की अदायगी के बारे में भी श्रमजीवी पत्रकार कानून में विशेष उपबंध किये गए हैं.धारा 5 में यह प्रावधान है कि किसी समाचारपत्र में लगातार तीन वर्ष तक कार्य करनेवाले श्रमजीवी पत्रकारों को,अनुशासन की कार्रवाई के तौर पर दिए गए दंड को छोड़कर,किसी कारण से की गई छंटनी पर या सेवानिवृत्ति की आयु हो जाने पर उसके सेवानिवृत्त होने पर,या सेवाकाल के दौरान मृत्यु हो जाने पर,या दस वर्ष तक नौकरी के बाद किसी कारणवश स्वेच्छा से इस्तीफा देने पर,उसे मालिक द्वारा सेवाकाल के हर पूरे किए वर्ष या उसके छह मास से अधिक के किसी भाग पर,१५ दिन के औसत वेतन के बराबर धनराशि दी जाएगी.स्वेच्छा से इस्तीफा देने वाले श्रमजीवी पत्रकार को अधिकाधिक साढ़े १२ मास के औसत वेतन के बराबर ग्रेच्युटी मिलेगी.यदि कोई श्रमजीवी पत्रकार कम-से-कम तीन वर्ष की सेवा के बाद अंतःकरण की आवाज के आधार पर इस्तीफा देता है तो उसे भी इसी हिसाब से ग्रेच्युटी दी जाएगी.जहाँ तक काम और विश्राम का सवाल है तो इस अधिनियम के अन्तर्गत बनाए गए नियमों के अध्याधीन रहते हुए लगातार चार सप्ताहों की किसी अवधि के दौरान,भोजन के समयों को छोड़कर, १४४ घंटों से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है,न ही उसे इससे अधिक समय तक काम करने की अनुमति दी जा सकती है.हर श्रमजीवी पत्रकार को लगातार सात दिन की अवधि के दौरान कम-से-कम लगातार २४ घंटों का विश्राम दिया जाना चाहिए.सप्ताह को शनिवार की मध्य रात्रि से आरम्भ समझा जाता है (धारा ६).श्रमजीवी पत्रकारों के लिए २ प्रकारों की छुट्टियों-उपार्जित छुट्टी और चिकित्सा छुट्टी-का स्पष्ट प्रावधान किया गया है.शेष छुट्टियों के सम्बन्ध में नियम बनाने का उपबंध है.उपार्जित छुट्टी काम पर व्यतीत अवधि की १/११ से कम नहीं होगी और यह पूरी तनख्वाह पर मिलेगी.चिकित्सा प्रमाण-पत्र पर चिकित्सा छुट्टियाँ कार्य पर व्यतीत अवधि की १/१८ से कम नहीं होंगी.यह आधी तनख्वाह पर दी जाएगी.इसका अर्थ मोटे तौर पर यह है कि श्रमजीवी पत्रकार को वर्ष में एक मास की उपार्जित छुट्टी और चिकित्सा प्रमाणपत्र के आधार पर आधी तनख्वाह पर चार सप्ताह की छुट्टी दी जानी चाहिए (धारा ७).काम के घंटों का प्रावधान संपादकों पर लागू नहीं होता.संवाददाताओं,रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों को किसी दिन काम शुरू करने के बाद उस समय तक समझा जाएगा जब तक वह उसे पूरा नहीं कर लेते.किन्तु,यदि उनसे पूरे सप्ताह में एक या अधिक बार हीं घन्टे या उससे अधिक का विश्राम देकर इसकी क्षति-पूर्ति करनी होगी.अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के लिए सामान्य कार्य-दिवस में दिन की पारी में छह घन्टे और रात की पारी में साढ़े पॉँच घन्टे से ज्यादा समय का नहीं होगा.रात को ११ बजे से सुबह ५ बजे के समय को रात्रि की पारी में माना जाएगा.दिन की पारी में लगातार चार घन्टे के काम के बाद एक घन्टे का और रात्रि की पारी में लगातार तीन घन्टे के कार्य के उपरांत आधे घन्टे विश्राम दिया जाना चाहिए.श्रमजीवी पत्रकार को लगातार दूसरे सप्ताह में रात्रि पारी में काम करने को नहीं कहा जा सकता है.उसे १४ दिनों में एक सप्ताह से ज्यादा रात्रि की पारी में नहीं लगाया जा सकता है.साथ ही एक रात्रि पारी से दूसरी रात्रि पारी में बदले जाने के बीच चौबीस घन्टे का अन्तराल होना चाहिए.दिन की एक पारी से दूसरी पारी में बदले जाने के समय यह अन्तराल १२ घन्टे का होना चाहिए.श्रमजीवी पत्रकार वर्ष में १० सामान्य छुट्टियों का अधिकारी है.यदि वह छुट्टी के दिन काम करता है तो उसे इसकी पूर्ति किसी ऐसे दिन छुट्टी देकर करनी होगी जिस पर नियोजक और पत्रकार दोनों सहमत हों.छुट्टियों और साप्ताहिक अवकाश की मजदूरी श्रमजीवी पत्रकारों को दी जाएगी.काम पर गुजरे ११ मास पर एक मास उपार्जित छुट्टी दी जाएगी.किन्तु,९० उपार्जित छुट्टियाँ एकत्र हो जाने के बाद और छुट्टियाँ उपार्जित नहीं मानी जाएगी.सामान्य छुट्टियों,आकस्मिक छुट्टियों और टीका छुट्टी की अवधि को काम पर व्यतीत अवधि माना जाएगा.प्रत्येक १८ मास की अवधि में एक मास की छुट्टी चिकित्सक के प्रमाण-पत्र पर दी जाएगी.यह छुट्टी आधे वेतन पर होगी.ऐसी महिला श्रमजीवी पत्रकारों को,जिनको सेवा एक वर्ष से अधिक का हो,तीन मास तक की प्रसूति छुट्टी दी जाएगी.यह छुट्टी गर्भपात होने पर भी सुलभ की जाएगी.इसके अलावा नियोजक की ईच्छा पर वर्ष में १५ दिन की आकस्मिक छुट्टी दी जाएगी.नियम ३८ में यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी अन्य नियम,समझौते या अनुबंध का कोई भाग श्रमजीवी पत्रकारों के लिए इन नियमों से अधिक लाभकारी हो तो उन पर वह लागू होगा.ऐसा कोई नियम श्रमजीवी पत्रकारों पर लागू नहीं किया जाएगा जो इन नियमों से कम फायदेमंद हो.लेकिन असलियत एकदम अलग है.खुद मुझे हिंदुस्तान,पटना में नौकरी के आरंभिक ३ महीने तक एक भी दिन छुट्टी नहीं दी गई और कहा जाता रहा कि अभी छुट्टी के दिन का निर्धारण नहीं हो पाया है.हालांकि बाद में इसके बदले मुझे अलग से छुट्टी दे दी गई.इतना ही नहीं मुझे एक दिन की भी उपार्जित या चिकित्सकीय छुट्टी नहीं दी गई.हमें चाहे हमारी ड्यूटी रात की शिफ्ट में हो या दिन की शिफ्ट में हो प्रतिदिन कम-से-कम ८ घन्टे काम करना पड़ता था.कई जगहों पर पत्रकारों से लगातार महीनों तक रात की शिफ्ट में काम कराया जाता है चाहे इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर ही क्यों न पड़े.इस अधिनियम का एक महत्वपूर्ण उपबंध श्रमजीवी पत्रकारों के लिए मजदूरी की दरें नीयत करने की शक्ति केंद्रीय सरकार में निहित करने के विषय में है.धारा ८ (१) में उपबंधित किया गया है कि केंद्रीय सरकार एक निर्धारित रीति से श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य समाचारपत्र-कर्मचारियों के लिए मजदूरी की दरें नियत कर सकेगी और धारा ८ (२) में कहा गया है कि मजदूरी कि दरों को वह ऐसे अंतरालों पर,जैसा वह ठीक समझे,समय-समय पर पुनरीक्षित कर सकेगी.दरों का निर्धारण और पुनरीक्षण कालानुपाती (टाइम वर्क) और मात्रानुपाती (पीस वर्क) दोनों प्रकार के कामों के लिए किया जा सकेगा.पर,यह व्यवस्था भी की गई है कि सरकार वेतन दरों का निर्धारण मनमाने तौर पर न करे.इसलिए धारा ९ में एक मजदूरी बोर्ड के गठन का प्रावधान किया गया है.बोर्ड की सिफफिशों पर विचार करके ही मजदूरी की दरें नियत की जा सकती है.बोर्ड में अध्यक्ष समेत ७ सदस्य नियुक्त किये जाते हैं.किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय का विद्यमान या भूतपूर्व न्यायधीश ही इसका अध्यक्ष हो सकता है.अन्य सदस्यों में समाचारपत्रों के नियोजकों और श्रमजीवी पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करनेवाले २-२ व्यक्ति और २ स्वतंत्र व्यक्ति होते हैं.मजदूरी बोर्ड समाचारपत्रों-स्थापनों,श्रमजीवी पत्रकारों,गैर-पत्रकार समाचारपत्र-कर्मचारियों तथा इस विषय में हितबद्ध अन्य व्यक्तियों से अभ्यावेदन आमंत्रित करता है.बोर्ड अभ्यावेदनों पर विचार करके तथा अपने समक्ष रखी गई सारी सामग्री की परीक्षा करके अपनी सिफारिशें केंद्रीय सरकार से करता है.इसके बाद केंद्रीय सरकार का काम है कि वह सिफारिशें प्राप्त होने के उपरांत,जहाँ तक हो सके,शीघ्र मजदूरी की दरें नीयत या पुनरीक्षित करने सम्बन्धी आदेश जारी करे.यह आदेश बोर्ड की सिफारिशों के अनुसार या उसमें ऐसे किसी फेरबदल के साथ,जिसे वह उचित समझे,जारी किया जा सकता है.किन्तु,फेरबदल ऐसा नहीं होना चाहिए जो बोर्ड की सिफारिशों के स्वरुप में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दे.सिफारिशों को लागू करनवाला केन्द्रीय सरकार का प्रत्येक आदेश राजपत्र में प्रकाशित होने की तारीख़ या आदेश में विनिर्दिष्ट किसी अन्य तारीख से अमल में आता है.केंद्रीय सरकार के आदेश के प्रभाव में आ जाने पर,प्रत्येक श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार समाचारपत्र-कर्मचारी इस बात का हकदार हो जाता है कि उसे उसके नियोजन द्वारा उस दर पर मजदूरी दी जाए जो आदेश विनिर्दिष्ट मजदूरी की दर से किसी दशा में कम न हो (धारा १३).इस अधिनियम का उल्लंघन करनेवाले नियोजक को अधिकतम ५०० रूपये के जुर्माने का प्रावधान है जो एकदम मामूली है.लेकिन वास्तव में होता क्या है पहले ही प्रत्येक कर्मी से नियुक्ति के समय एग्रीमेंट भरवाया जाता है जिससे वह नियोजक रहमो-करम पर काम करने के लिए बाध्य हो जाता है जिस तरह खुद मेरे साथ किया गया.उसे कभी भी बिना नोटिस के निकाल-बाहर कर दिया जाता है.अगरचे तो वह कोर्ट का रूख करता ही नहीं और अगर करता भी है तो कानून के दांव-पेंच में उलझकर रह जाता है.इस प्रकार हमने देखा कि दुनियाभर दुखी-दीनों का ख्याल रखनेवाले पत्रकारों की खुद की दशा ही दयनीय है और उनकी कोई सुध लेनेवाला नहीं है.ग्रामीण क्षेत्रों के रिपोर्टरों को तो पंक्ति के आधार पर पैसे दिए जाते हैं.उनकी रक्षा के लिए कानून बना दिए गए हैं लेकिन उनका पालन नहीं किया जाता.हालांकि इनके कई संगठन भी हैं लेकिन उनके नेता भी सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं.जाने कब स्थितियां बदलेंगी और पत्रकार भी सम्मान के साथ ज़िन्दगी जी सकेंगे,जाने कब??
शनिवार, 7 अगस्त 2010
अन्धविश्वास बढाती इलेक्ट्रौनिक मीडिया
जब १९२० के दशक में टेलीविजन का अविष्कार हुआ तब पूरी दुनिया आश्चर्यचकित रह गई.हजारों साल पहले महाभारत में वेद व्यास ने संजय के माध्यम से जो कल्पना की थी वह यथार्थ में बदल गया था.पूरी दुनिया विज्ञान के इस कौतुक पर मुग्ध हो उठी.माना गया कि टेलीविजन के माध्यम से साक्षरता और वैज्ञानिकता का प्रसार होगा और अन्धविश्वास दूर होगा.जब तक भारत में सिर्फ सरकारी इलेक्ट्रौनिक माध्यम मौजूद थी तब तक तो संचार का यह सबके शक्तिशाली माध्यम सचमुच अंधविश्वासों से जूझता हुआ देखा गया लेकिन जैसे ही निजी प्रसारकों को अनुमति दी गई धीरे-धीरे स्थितियां बदलने लगीं.उन्हें लगा बाजारीकरण के इस दौर में लोगों के मन में घुसे अंधविश्वासों को बेचकर भी पैसा कमाया जा सकता है और वे भूल गए कि उनके कन्धों पर कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां भी हैं.वे बजाये अंधविश्वासों को कम करने वाले कार्यक्रमों को प्रसारित करने के इसे बढ़ावा देनेवाले कार्यक्रम दिखाने लगे.धीरे-धीरे इन कार्यक्रमों की रेटिंग बढ़ने के साथ-साथ ऐसे कार्यक्रमों की संख्या भी बढती गई.आज लगभग सारे निजी चैनलों पर अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम प्रसारित किये जा रहे हैं.कुछ चैनलों ने इसके लिए विशेष रूप से तांत्रिक टाइप लोगों को नियुक्त कर रखा है.उदाहरण के लिए इंडिया टी.वी. पर राशिफल बताने का जिम्मा एक डरावने दिखने वाले बाबा का है जो राशिफल कम बताते हैं,डराते ज्यादा हैं.उनका बस चले तो वे पूरे भारत को शनि निवारक जंतर धारण करा दें.अन्य कई चैनलों ने भी इस तरह के बाबाओं को जनता को डराने का जिम्मा दे रखा है.किसी चैनल पर गणेशजी के नाम पर गणेश उवाच कह कर भविष्यवाणी की जा रही है तो किसी पर शनि देवता के नाम पर.हम सभी जानते हैं कि किसी मानव के भविष्य में क्या होनेवाला है बता पाना पूरी तरह से असंभव है,फ़िर क्यों टी.वी. चैनल घंटों तक राशिफल दिखा रहे हैं?लगभग सभी चैनलों पर ज्योतिषियों को दर्शकों की समस्याओं का निवारण करने के लिए बुलाया जाता है.लोग अपनी जन्मतिथि और समय बताते हैं और बाबाजी ग्रहदशा दोषपूर्ण बता कर कई तरह के रत्न धारण करने की सलाह देते हैं.क्या कनेक्शन है धरती पर बैठे-बैठे दूर अन्तरिक्ष में स्थित ग्रहों की स्थिति बदली जा रही है.इतना ही नहीं लगभग सभी निजी चैनलों पर दर्शकों को बुरी नज़रों के संभावित दुष्परिणाम दिखा कर नज़र रक्षा कवच खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.कितनी अवैज्ञानिक और वेबकूफाना बात है ये!बुरी नज़रों से आपका स्वास्थ्य और व्यवसाय प्रभावित हो सकता है.अभिमंत्रित नज़र रक्षा कवच पहनते ही आप सुरक्षित हो जायेंगे.इसके साथ-साथ भगवान शिव और हनुमान जी के वीडियो दिखाकर शिवरक्षा कवच और हनुमत रक्षा कवच खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.इस तरह के कवचों का कोई वैज्ञानिक और तार्किक आधार नहीं है और इन्हें बेचने की कोशिशों को सिर्फ ठगी का नाम ही दिया जा सकता है.लेकिन लालच में आपादमस्तक डूबे इन निजी चैनल वालों को न तो समाज से ही कुछ लेना-देना है और न ही दर्शकों की भलाई से.उन्हें तो बस ऊंची टी.आर.पी. रेटिंग चाहिए और पैसा चाहिए चाहे इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े.लेकिन सरकार तो जनहित से तटस्थ नहीं रह सकती उसे तो इस तरह के जनविरोधी कार्यक्रमों पर रोक लगाने के लिए कदम उठाने ही चाहिए.
बुधवार, 4 अगस्त 2010
अधिकार चाहिए तो कर्त्तव्य पालन करना सीखिए
पश्चिमी देशों और भारत में सबसे बड़ा अंतर क्या है?रहन-सहन के स्तर में या आधरभूत संरचना के क्षेत्र में तो अंतर है ही लेकिन यह सबसे बड़ा अंतर हरगिज़ नहीं है.इन दोनों सभ्यताओं में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पश्चिम के लोग समाज या राष्ट्र से अपना अधिकार मांगने से पहले कर्त्तव्यपालन सुनिश्चित करते हैं और हम भारतीयों के शब्दकोष में कर्तव्यपालन शब्द है ही नहीं.जबकि बिना कर्त्तव्य पालन के अधिकारों की बातें करना ही अनैतिक है.जीवन के किसी भी क्षेत्र में आप रोजाना देखते होंगे कि लोग बात-बेबात पर अपने अधिकारों की बात करते हैं लेकिन जब त्याग करने या कष्ट सहने की बात आती है तब दुम दबा लेते हैं.अभी चार दिन पहले की बात है मैं अपनी माँ के साथ पटना जा रहा था.बस में चढ़ने गया तो पाया कि महिलाओं के लिए आरक्षित सभी सीटों पर पुरुष काबिज हैं.कई तो युवा भी थे.मैनें जब देखा कि उनमें से कोई खुद से सीट छोड़ने की जहमत नहीं उठा रहा है तो मैंने उनसे ऐसा करने का अनुरोध किया.उन सभी ने एक ही जवाब दिया कि चूंकि वे पहले से सीट पर बैठे हुए हैं इसलिए बैठकर यात्रा करने का पहला अधिकार उनका बनता है.मैंने कन्डक्टर से बात की तो उसने भी यही जवाब दिया.मैंने उससे कहा भी कि सरकारी कानून के अनुसार आरक्षित सीटों पर बैठने और महिलाओं के लिए नहीं छोड़ने पर सजा भी हो सकती है लेकिन उनलोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी.अंत में हम बस से उतर गए और ऑटो से पटना गए.कई बार मैंने पाया है कि लोग रेलगाड़ी में बेटिकट यात्रा करते हैं और सीट के लिए मार-पीट तक पर उतारू हो जाते हैं.लोग सड़कों पर कूड़ा फेंक देते हैं और सफाई नहीं होने के लिए सरकार को दोषी ठहराते हैं.संविधान के भाग ४ क में बजाप्ता नागरिकों के मूल कर्तव्यों का वर्णन किया गया है.इसमें संविधान और स्वतंत्रता आन्दोलन के उच्चादर्शों के पालन की बात की गई है.साथ ही भारत की एकता और अखंडता की रक्षा, भ्रातृत्व की भावना का प्रसार करने,पर्यावरण की रक्षा,वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने,सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करने को भी मूल कर्तव्यों में शामिल किया गया है.हमें क्या करना है सब शीशे की साफ़ कर दिया गया है.लेकिन हम करते क्या हैं?दिल्ली में रहनेवाले नेताओं से लेकर दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले किसानों तक कोई इन कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता.सड़कों को गन्दा करना,बिना टिकट रेलयात्रा करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.सरकार से जब भी हमें विरोध जाताना होता है तब हमारा पहला निशाना बनाती है सार्वजनिक संपत्ति.वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जो हालत है वो खाप पंचायतों के फैसलों और मुस्लिम धर्माधिकारियों के फतवों से खुद ही जाहिर है.संविधान अब एक पवित्र संहिता नहीं बेकार की कानूनी किताब मात्र रह गई है.पैसा हमारा भगवान है और हम सब भ्रष्टाचार में लीन हैं इसलिए स्वतंत्रता आन्दोलन के आदर्शों की तो चर्चा करना ही बेकार है.जाहिर है कि संविधान का भाग ४क जनता के लिए सबसे बेकार भाग है वहीँ भाग ३ जिसमें मूल अधिकारों की बात की गई है सबसे महत्वपूर्ण.यहाँ तक कि संविधान विशेषज्ञों ने भी संविधान के इस अध्याय को उपेक्षा के लायक ही समझा है.विश्वास नहीं तो इनकी लिखी किताबें देखिये.अब आप ही बताईये कि हम खुद तो कर्तव्यों का पालन नहीं करें और साथ ही यह उम्मीद रखें कि देश की हालत भी अच्छी हो जाए कहाँ तक नैतिक है.ट्रेन में बोगियां कम क्यों हैं और भीड़ क्यों हैं को लेकर हम भले ही चिंतित हों लेकिन टैक्स चोरी तो करेंगे ही.हम सभी भारतीयों की यह आदत है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी दूसरों पर डाल देते हैं.सरकारी कार्यालयों में सर्वत्र काहिली का वातावरण है.जब हर कोई ऐसा ही करेगा तो देश में व्यवस्था आएगी कहाँ से?वह आयात करने की वस्तु तो है नहीं. कहना न होगा अगर हम सिर्फ संविधान में वर्णित मूल कर्तव्यों का पालन करना शुरू कर दें तो भारत का तत्क्षण कायाकल्प हो जाए और तब हमें विश्व के सबसे विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने से कोई नहीं रोक सकेगा.
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