गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

अनशन तोड़ना अन्ना का सराहनीय कदम

मित्रों,कोई भी आन्दोलन खड़ा करना और फिर उसे सफलतापूर्वक संचालित करना कोई बच्चों का खेल नहीं होता.कांग्रेस गाँधी के पहले भी थी.उसके पास गाँधी से भी कहीं ज्यादा योग्य नेता भी थे लेकिन वे लोग लाख कोशिश करके भी ऐसा आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाए जिसे सही परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय कहा जा सकता हो.गाँधी ने १९२० में असहयोग आन्दोलन शुरू करने से पहले मुस्लिम लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि दल स्वीकार करने की महान भूल करते हुए असहयोग आन्दोलन को खिलाफत आन्दोलन से जोड़ दिया था.जैसे ही तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा सत्ता पर काबिज हुआ मुसलमान लोग कट लिए और केरल में तो हिन्दुओं के खिलाफ दंगा-फसाद भी शुरू कर दिया.इसी बीच गोरखपुर में चौरी-चौरा की दुखद घटना हो गयी और गाँधी को १२ फरवरी,१९२२ को न चाहते हुए भी अपनी सारी विश्वसनीयता को दांव पर लगाते हुए असहयोग आन्दोलन को असमय बिना किसी परिणति तक पहुंचे हुए ही वापस  ले लेना पड़ा.कुछ यही हाल १९३० के सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी हुआ.पहले तो १९३१ में गाँधी-इरविन समझौते के बाद उन्होंने आन्दोलन को स्थगित कर दिया.फिर द्वितीय गोलमेज सम्मलेन की विफलता के बाद फिर से आन्दोलन शुरू किया परन्तु इस बार आन्दोलन में वो खनक नहीं थी आने पाई जो इसके पहले भाग में थी.कारण यह था कि इस बार इसमें जनभागीदारी काफी कम थी.किसी भी देश-प्रदेश की जनता की संघर्ष की क्षमता सीमित होती है.वो लगातार अनंत काल तक संघर्ष नहीं कर सकती.हरेक की घर-गृहस्थी भी होती है और उसे भी देखना होता है.इसलिए गांधीजी ने समझदारी का परिचय देते हुए अप्रैल,१९३४ में आन्दोलन को वापस ले लिया.
                                मित्रों,कुछ इसी तरह की स्थिति १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान भी रही.धीरे-धीरे इसका भी प्रभाव कम होता गया और अंत में सितम्बर १९४२ के बाद यह आन्दोलन भूमिगत होकर रह गया.दिसंबर,१९४३ आते-आते भूमिगत क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ भी समाप्तप्राय हो गयी.हाँ,लेकिन गाँधी के साथ एक बात और भी थी.वे जब आन्दोलन नहीं कर रहे होते थे तब सामाजिक-रचनात्मक कार्य कर रहे होते थे.इससे समाज में नई चेतना का प्रसार तो होता ही था नए लोगों को भी कांग्रेस के साथ जोड़ा जाता था.जहाँ तक गाँधी के आंदोलनों में मुसलमानों की भागीदारी का प्रश्न है तो इस मामले में गाँधी भी भाग्यशाली नहीं थे और तब मुस्लिम लीग गाहे-बेगाहे इस बात का ढिंढोरा पीटती रहती थी कि कांग्रेस सिर्फ हिन्दुओं की पार्टी है और इस प्रकार एक सांप्रदायिक संगठन है.
                             मित्रों,इस समय अन्ना के आन्दोलन के सन्दर्भ में कुछ यही काम गाँधी की विरासत का दावा करनेवाली कांग्रेस पार्टी कर रही है.टीम अन्ना के लाख प्रयासों के बाबजूद कांग्रेसी प्रोपेगेंडे ने असर दिखाया और इस बार मुसलमान आन्दोलन से दूर ही रहे.साथ ही,दूसरी आम जनता की भी इस तीसरी बार हो रहे अन्ना के अनशन में काफी कम भागीदारी देखी गयी.कहाँ रह गयी कमी?शायद कमी रह गयी टीम अन्ना की रणनीति में.मेरे मतानुसार पहली कमी तो यह थी कि टीम अन्ना ने आन्दोलन के लिए गलत समय का चयन कर लिया.इस समय संसद में लोकपाल पर बहस चल रही है और पूरे देश की निगाहें उसी पर टिकी हुई हैं ऐसे में लोगों से यह उम्मीद कर लेना कि वे संसद पर पूरी तरह से अविश्वास प्रकट करते हुए अन्ना के समर्थन में सड़कों पर आ जाएँगे बेमानी थी.दूसरी कमी रही आन्दोलन के लिए स्थान चयन में.अन्ना ने अपनी और जनता की सुविधाओं का ख्याल करते हुए दिल्ली के बजाये मुम्बई को आन्दोलन का केंद्र बनाने का फैसला कर लिया.वे भूल गए कि आन्दोलन सुविधाओं को ध्यान में रखकर नहीं छेड़े जाते हैं बल्कि इसके लिए तो जनभावनाओं का उभार चाहिए होता है.दिल्ली और मुम्बई के लोगों के मिजाज में ही मौलिक अंतर है.मुम्बई एक बेहद व्यस्त शहर है.वहां के लोग इतने अधिक स्वयंसीमित होते हैं कि उनकी दिनचर्या पर २६-११ से भी कोई फर्क नहीं पड़ता.वहीं दिल्ली के लोगों के दिलों के किसी कोने में देशभक्ति भी बसती है.साथ ही,यहाँ का जीवन उतना व्यस्त भी नहीं है.११-१२ बजे दुकानों का खुलना दिल्ली के लिए आमबात है.इसलिए रामलीला मैदान चंद मिनटों में ही खचाखच भर जाता है चाहे आह्वान करनेवाला रामदेव हों या अन्ना हजारे.हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रामलीला मैदान में जमा लोगों में बहुत बड़ा हिस्सा दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों से आनेवाले लोगों का भी होता है जैसे मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड,झारखण्ड इत्यादि.जंगे आजादी में भी चाहे असहयोग आन्दोलन हो या सविनय अवज्ञा आन्दोलन या फिर भारत छोड़ो आन्दोलन उस समय भी इन्हीं क्षेत्रों में आंदोलनों का असर ज्यादा रहा था.दक्षिण भारत तो अंत तक लगभग निष्क्रिय बना रहा था.साथ ही,दिल्ली हमेशा से भारतीय संप्रभुता की प्रतीक भी रही है इसलिए लगभग सारे आन्दोलनकारी दिल्ली चलो का नारा देते हैं.
                   मित्रों,कोई भी आन्दोलन जनभागीदारी से ही सफल और विफल होती है.अन्ना कहते भी हैं कि समर्थकों की भीड़ से ही उन्हें भूखे रहकर भी ऊर्जा मिलती है.कुछ सरकारी और कांग्रेसी षड्यंत्रों के चलते और  कुछ टीम अन्ना द्वारा आन्दोलन के लिए गलत वक्त और गलत स्थान चुनने के चलते भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का तीसरा चरण दुर्भाग्यवश सफल नहीं हो पाया.कोई बात नहीं ऐसा तो गाँधी के साथ भी हुआ था.अच्छा रहेगा कि टीम अन्ना भी गाँधी की तरह ही खाली समय में यानि दो आंदोलनों या आन्दोलन के दो चरणों के मध्यांतर में कोई सामाजिक-रचनात्मक कार्यक्रम का सञ्चालन करे.इससे दो फायदे होंगे-एक तो देश व समाज में नई चेतना आएगी और दूसरी इससे उनके आन्दोलन से नए-नए लोगों के निष्ठापूर्वक जुड़ने से संचित ऊर्जा में बढ़ोत्तरी होगी.मैं टीम अन्ना और अन्ना हजारे द्वारा फ़िलहाल आन्दोलन वापस लेने के निर्णय का स्वागत करता हूँ क्योंकि जोश जरुरी तो है ही लेकिन उससे कम आवश्यक होश भी नहीं है.आप लोगों के बीच जाईये,उनके दुःख-दर्द में भागीदार बनिए,कोई निर्माणात्मक कार्यक्रम चलाईये;फिर जब लगे कि आपने आन्दोलन के लिए आवश्यक ऊर्जा अर्जित कर ली है तो फिर से आन्दोलन का शंखनाद करिए.याद रखिए,कभी-कभी जोरदार टक्कर मारने के लिए पीछे भी हटना पड़ता है.जय हिंद,वन्दे मातरम.                           

रविवार, 25 दिसंबर 2011

गरीबी जाति नहीं देखती जनाब


मित्रों,भारत में जाति का क्या स्थान है इससे आप भी भली-भांति परिचित होंगे.हमारे कुछ पढ़े-लिखे मित्र भी जाति नाम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं.हमारे एक पत्रकार मित्र जो यादव जाति से आते हैं किसी से परिचित होने पर सबसे पहले उसकी जाति पूछते हैं.एक बार उन्होंने पटना से मुजफ्फरपुर तक पदयात्रा की योजना बनाई.तब मुझसे पूछा कि हाजीपुर से मुजफ्फरपुर के बीच सड़क किनारे यादवों के कितने गाँव हैं और तब मैं उनकी जातिभक्ति से हतप्रभ रह गया.यही वे लोग होते हैं जो सड़क पर पड़े घायल की तब तक मदद नहीं करते जब तक उन्हें इस बात की तसल्ली न हो जाए कि दम तोड़ रहा व्यक्ति उनकी ही जाति से है.ऐसे लोग ढूँढने पर बड़ी जातियों में भी बड़ी आसानी से मिल जाएँगे.
                  मित्रों,जहाँ तक मेरा मानना है कि व्यक्ति की जाति सिर्फ तभी देखनी चाहिए जब बेटे-बेटी की शादी करनी हो वरना २४ घंटे,सोते-जागते,उठते-बैठते जाति के बारे में सोंचना अमानवीय तो है ही मूर्खतापूर्ण भी है.ये तो हो गई आम जनता की बात लेकिन हम उनका क्या करें जो विभिन्न जातियों और धर्मों के बीच तनाव की ही खाते हैं.आपने एकदम ठीक समझा है मैं बात कर रहा हूँ उन नेताओं की जो गरीब और गरीब तथा वंचित और वंचित और इस तरह इन्सान और इन्सान के बीच में फर्क करते हैं.
           दोस्तों,गरीबी,जहालत और बेबसी ये ऐसे शह हैं जो कभी जाति-जाति और धर्म-धर्म के बीच भेदभाव नहीं करते.ये तो उतनी ही संजीदगी के साथ सवर्ण हिन्दुओं पर भी नमूदार हो जाते हैं जितनी संजीदगी के साथ अन्य जाति और धर्मवालों पर.फिर अगर हम गरीबों के बीच जाति और धर्म के नाम पर सुविधाएँ और आरक्षण देने में भादभाव करते हैं तो हमसे बड़ा काईयाँ और कोई हो ही नहीं सकता.
         मित्रों,अभी कुछ ही दिनों पहले देश के अग्रणी दलित उद्यमियों ने एक मेले का आयोजन किया शायद मुम्बई में.वहां उन्होंने बताया कि वे लोग अपनी फर्मों और कारखानों में ५०% सीटें दलितों के लिए आरक्षित रखते हैं और बाँकी ५०% अन्य सारी बड़ी-छोटी जातियों के लिए;आखिर गरीबी तो उनमें भी है न.क्या हमारी सरकार और हमारे राजनेताओं को भी इन दलित उद्यमियों से शिक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है?ये दलित उद्यमी कोई रामविलास पासवान के परिवार से नहीं हैं और न हो चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए हैं.इन्होंने गरीबी में जन्म लिया और गरीबी में ही पले-बढ़े.फिर अपनी बुद्धि और बाहुबल से गरीबी से लड़कर उसे पराजित किया और आज सफलता के शिखर पर जा पहुंचे हैं.लेकिन ये लोग नहीं भूले हैं गरीबी के दर्द को जो अपने आपमें सबसे बड़ी बीमारी है.अगर हम इनकी तुलना गरीबी से उठकर आए राजनेताओं से करें तो सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं आएगा.लालू-रामविलास-मुलायम-मायावती जैसे बहुत-से राजनेता हैं जो वास्तव में गुदड़ी के लाल हैं लेकिन सफलता पाते ही,अमीर बनते ही ये अपने गरीबी धर्म को भूल गए और जाति-धर्म की राजनीति में खोकर रह गए.
                     मित्रों,गरीब सिर्फ गरीब होता है;उसकी कोई जाति नहीं होती.अभाव उसका भाई होता है,दुःख उसका पिता और जहालत उसकी माँ.बेबसी और भूख ही उसके भाई-बन्धु होते हैं.मैंने अपने गाँव में कई ऐसे राजपूत-ब्राह्मण देखे हैं जिनके पास पहनने के लिए ढंग का कपड़ा तक नहीं है.जाकर उनकी मजबूरी से पूछिए कि उसकी क्या जाति है?जाकर उनके परिजनों के फटे पांवों और खाली पेटों से पूछिए कि उसका मजहब क्या है?यक़ीनन वो राजपूत-ब्राह्मण-यादव-दलित या मुसलमान नहीं बताएँगे बल्कि अपनी जाति और धर्म दोनों का नाम सिर्फ और सिर्फ गरीबी बताएँगे.मैंने अगर दलितों के घर में गरीबी के कारण भैस बेचने पर लोगों को मातम मनाते देखा है तो मैंने बड़ी जातिवालों के घर में भी बेटी की शादी में इकलौता बैल बेचने के बाद दो-दो दिनों तक चूल्हे को ठंडा रहते हुए भी देखा है.क्या इन दोनों परिवारों की मजबूरी की,उनके आंसुओं की कोई जाति है?क्या इन दोनों घरों में पसरे मातमी सन्नाटे का कोई मजहब है?खुद मेरे चचेरे चाचा को लम्बे समय तक अपनी माँ के पेटीकोट को लुंगी बनाकर पहनना पड़ा और पढ़ाई भी बीच में ही छोडनी पड़ी.क्या मेरे उन चाचा की दीनता और हीनता को किसी खास जाति या धर्म की दीनता या हीनता का नाम देना अनुचित नहीं होगा?मेरे उन्हीं चाचा की पत्नी और बच्चों के कपड़ों पर लगे पैबन्दों की क्या कोई जाति हो सकती या कोई मजहब हो सकता है?पहले भले ही विभिन्न जातियों में गरीबी का अनुपात काफी अलग रहा हो अब लम्बे समय से चले आ रहे जाति-धर्म आधारित आरक्षण के बाद स्थिति बहुत ज्यादा अलग नहीं रह गयी है.इस बात का गवाह सिर्फ एक मैं ही नहीं हूँ बल्कि सरकारी अमलों द्वारा निर्मित गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीनेवालों की सूची भी चीख-चीखकर यही कह रही है कि गरीबों की और गरीबी की कोई जाति नहीं होती,कोई धर्म नहीं होता.
          दोस्तों,अंत में मैं सत्ता पक्ष और विपक्ष के सभी नेताओं से विनम्र निवेदन करता हूँ कि वे कृपया इंसानियत को जातियों और धर्मों में विभाजित न करें.जब गरीबी ने कभी इंसानों और इंसानों के बीच अंतर नहीं किया तो वे कौन होते हैं ऐसा करनेवाले?गरीबी अपने-आपमें ही बहुत बड़ा ईश्वरीय मजाक होती है इसलिए कृपया वे इस क्रूर मजाक का और भी मजाक नहीं बनाएँ.आरक्षण देना हो या कोई और सुविधा देनी हो दीजिए,शौक से दीजिए परन्तु सुविधा दीजिए सिर्फ गरीबी देखकर,गरीबों की पहचान करके;न कि उसकी जाति और धर्म देखकर क्योंकि इस तरह तो बहुत-से ऐसे लोग सुख की उस रौशनी और अवसर से वंचित रह जाएँगे जिन पर उनका भी वास्तविक हक़ है और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी उनके लिए घर में जबरदस्ती घुस आए मेहमान की तरह अड्डा जमा लेगी.         

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

मांगा था लोकपाल मिला मरा हुआ साँप

मित्रों,क्या आपके साथ कभी आपके किसी अपने ने विश्वासघात किया है?यक़ीनन किया है मियां.वर्तमान में देश को चलानेवाले नेता भी तो कोई गैर नहीं हैं,अपने ही हैं.धोखा देने की क्या गजब की क्षमता है इनकी?एक-एक मुँह में सैंकड़ों जुबान रखते हैं ये लोग.आज ६१-६२ सालों से ये लोग जनता को यह झूठा विश्वास दिलाने में लगे हैं कि देश में लोकतंत्र है.ऐसा लोकतंत्र जिसमें लोक की नहीं चलती,उनकी बिलकुल भी नहीं सुनी जाती बल्कि यह लोकतंत्र तो ऐसा लोकतंत्र है जैसा कि नेता चाहते हैं.यह नेताओं का,नेताओं के लिए और नेताओं के द्वारा लोकतंत्र है.हम चुनाव-दर-चुनाव धोखा खा रहे हैं.हम वास्तव में चुनावों में अपना प्रतिनिधि नहीं चुनते हैं बल्कि हालत तो ऐसी हो गयी हैं कि मानो हम बकरियां हैं और प्रत्येक चुनाव में हम अपने ही हाथों अपने कसाई का चुनाव करते हैं:-वो बेदर्दी से सर काटे 'आमिर' और मैं कहूं उनसे,हुजुर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता.
          मित्रों,अब हम लोकपाल के मुद्दे को ही लें जिसके चलते इस जिस्म में बहते खून को भी जमा देनेवाली सर्दी में भी केंद्र सरकार को पसीने आ रहे हैं.सरकार ने अप्रैल में बिल ड्राफ्टिंग कमिटी बनाई और अंत में अपनी मर्जी का बकवास बिल बनाकर संसद के आगे रख दिया.फिर वह बिल विचारार्थ स्टैंडिंग कमिटी में गयी और अब जब अंतिम रूप में पेश की गयी हैं तब पता चला है कि यह तो खोदा पहाड़ और निकली चुहिया भी नहीं बल्कि मरा हुआ साँप निकला;वो भी विषहीन और दंतहीन.देश ने माँगा था एक ऐसा हथियार जिसे हाथ में लेकर देशवासी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ सकें लेकिन थमाया तो झुनझुना थमा दिया.बस बजाते रहिए और छोटे बच्चे की तरह खुश होते रहिए.बिल बनाने वाली स्टैंडिंग कमिटी में लोग भी कैसे-कैसे थे किसी से छुपा हुआ नहीं है.इनमें से कोई है घोटाला विशेषज्ञ तो कोई जातिवादी राजनीति का प्रणेता है.
           मित्रों,यह कैसा लोकपाल है जो न तो किसी भ्रष्टाचारी के विरुद्ध स्वतः कोई कदम ही उठा सकता है और न तो खुद जाँच ही कर सकता है.फिर क्या करेगा देश ऐसा पोस्टमास्टरनुमा लोकपाल लेकर?अगर ५५ हजार लोग चाहिए ५५ लाख कर्मचारियों पर नजर रखने के लिए तो बहाल करिए.किसने रोका है आपको बहाल करने से?आप ५५ लाख लोगों को तो देश को लूटने के लिए बहाल कर सकते हैं लेकिन उस लूट को रोकने के लिए ५५ हजार को नहीं बहाल कर सकते?क्या सरकार यह बताएगी कि दो-ढाई सौ सीवीसी कर्मी भला कैसे इन ५५ लाख कर्मचारियों पर नियंत्रण रखेंगे?साथ ही इस बिल में यह प्रावधान भी कर दिया गया है कि भ्रष्टाचार में आरोपित लोगों को सरकार मुफ्त में २ सालों तक कानूनी सहायता देगी.क्या इस तरह मिटेगा भ्रष्टाचार?साथ ही निजी कंपनियों को भी इसमें कई प्रकार की राहत दे दी गयी है.क्या इस तरह से कम होगा भ्रष्टाचार?इस बिल में यह भी प्रावधान किया गया है कि राज्यों में लोकायुक्त राज्य पुलिस से मामलों की जाँच करवाएगा.जो प्रदेश पुलिस खुद ही भ्रष्टाचार का अड्डा है वो भला कैसे भ्रष्टाचार मिटाने में कैसे सहायक हो सकती है?क्या इस तरह से मिटेगा भ्रष्टाचार?बिल में लोकपाल में कम-से-कम ५०% से अधिक आरक्षण का प्रावधान किया गया है.इस तरह तो ९ में से कम-से-कम ५ पद आरक्षित हो जाएँगे.क्या यह उच्चतम न्यायालय के आरक्षण सम्बन्धी निर्णय के विपरीत नहीं है?साथ ही इसमें संविधान का घोर उल्लंघन करते हुए धर्म के आधार पर आरक्षण दे दिया गया है.ऐसे में अगर इस बिल को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया तब लोकपाल सम्बन्धी इस पूरी जद्दोजहद का और इस बिल का क्या होगा?
               मित्रों,राजमाता,त्यागमूर्ति सोनिया जी का कहना है कि उन्होंने जो लोकपाल दिया है वह बहुत सशक्त है;वाकई बहुत सशक्त है.उसको एक कार्यालय चलाने का अधिकार दिया गया है जिसमें काम करनेवाले चपरासियों पर उसका ही रोबदाब चलेगा.चाहे जितना पानी पीए,उन्हें बाजार भेजकर चाहे जितना खाना मंगवाए और जब जी चाहे लघुशंका और दीर्घशंका से भी हो आवे.हाँ,वो अपनी मर्जी से किसी भी भ्रष्टाचारी के विरूद्ध न तो कोई जाँच ही कर सकता है और न ही जाँच शुरू करवा सकता है.बहुत ज्यादा अधिकार दे दिया है इन्होंने लोकपाल को;इतनी अधिक मनमानी करने की अनुमति तो इन्होंने प्रधानमंत्री को भी नहीं दी है;अब और कितना अधिकार चाहिए?सही तो कहा है इन्होंने,वो बेचारा अर्थशास्त्री तो इनसे पूछे बिना पाखाना-पेशाब करने भी नहीं जा पाता है.
               मित्रों,जहाँ तक लोकपाल की नियुक्ति का प्रश्न है तो सोनिया-राहुल जी भला कैसे नियुक्ति समिति में सरकारी बहुमत नहीं रहने दें?कल को अगर कोई अपने पालतू की जगह दूसरा आदमी लोकपाल बन जाता है तो फिर उन्हीं को भीतर कर देगा.आखिर ये लोग भी इन्सान हैं,नेता हैं;इनके हाथों से भी सजा होने लायक गबन-घोटाला हो सकता है और क्या पता कि हो भी चुका हो.ऐसे में ये लोग भला कैसे जेल जाने का जोखिम ले सकते हैं?भला कैसे ये लोग अपने ही गले की नाप का फंदा बना कर अपनी ही गर्दनों में उनके भीतर डाल दें?इसलिए तो लोकपाल को निलंबित करने या हटाने का अधिकार भी इनलोगों ने अपने ही सुरक्षित हाथों में रखा है.
                  मित्रों,इन विश्वासघातियों ने देश को लूटने में पहले से ही आरक्षण दे रखा है और अब इसे रोकनेवाली संस्था में भी आरक्षण दिया जा रहा है जिससे कि उनकी जाति-धर्म के लोगों द्वारा की जानेवाली लूट में बाधा न आने पाए.अब आगे लोकपाल के मुद्दे का और मुद्दे पर क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता.इस मामले में देश फिर से अप्रैल २०१० में आकर खड़ा हो गया है.अन्ना अनशन तो जरुर करेंगे,शायद सरकार फिर से झुकती हुई नजर भी आएगी और फिर से देश से कोई वादा भी कर देगी लेकिन पूरी हरगिज नहीं करेगी.जनता जिसे लोकतंत्र में वास्तविक मालिक कहा जाता है भविष्य में सशक्त लोकपाल की मांग का भविष्य भी उसी के रूख पर निर्भर करेगा.शायद जनता रूपी कुत्ते के आगे अगले कुछ ही दिनों में खाद्य सुरक्षा गारंटी और अल्पसंख्यक आरक्षण के नाम की रोटी फेंक दी जाएगी और शायद उसके लालच में आकर आकर जनता एक बार फिर कांग्रेस को वोट दे देगी.आपको अपनी बेबकूफी पर कितना यकीन है यह तो आप ही बेहतर जानते होंगे लेकिन सोनिया-राहुल को तो आपकी मूर्खता पर अटूट विश्वास है.तभी तो वे लोकपाल के मामले में अपनी मक्कारी पर इतराते हुए दंभ भर रहे हैं कि पिछले सवा सौ सालों में (इसे अगर संशोधित कर पिछले ६४ सालों में कहा जाए और आजादी के बाद के वर्षों की ही गणना की जाए तो बेहतर होगा) तेरे जैसे लाखों आए,लाखों ने हमको आँख दिखाए,
रहा न नामोनिशान रे अन्ना,
तू क्या कर पाएगा हमारा नुकसान रे अन्ना,
तू क्या कर पाएगा हमारा नुकसान.
वैसे इस पूरे लोकपाल प्रकरण से एक बात तो निश्चित हो ही गयी है कि जनता के लिए सत्ता को बदल देना आसान रहा है और रहेगा भी परन्तु व्यवस्था बदलना आज भी नामुमकिन की हद तक मुश्किल है और आगे भी बना रहेगा.          

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

आह दिल्ली वाह दिल्ली

मित्रों,वर्ष २००२ के १२ सितम्बर से पहले मैंने दिल्ली को केवल सुना था देखा नहीं था.मैंने दिल्ली को सुना था अपने से उम्र में बड़े मामा लोगों के मुंह से और अपने उन हमउम्र दोस्तों की जुबानी जो तब कमाने के लिए दिल्ली में रहने लगे थे.कोई हमें मकान मालिक या पड़ोसी की बेटी से अपने अवैध मुहब्बत की दास्तान सुनाता तो कोई बताता कि दिल्ली में कैसे पैसा कमाया जाता है तो कोई वीर रस के मूर्धन्य कवियों को कई प्रकाशवर्ष पीछे छोड़ते हुए बताता कि उसने बिहारी कहने पर कैसे किसी स्थानीय व्यक्ति की पिटाई कर दी.कुल मिलाकर मुझे लगने लगा कि दिल्ली के लोग बिहारियों से बहुत डरते हैं.लेकिन जब मैंने १२ सितम्बर,२००२ को दिल्ली की धरती पर अपने कदम रखे तो पाया कि वे सबके सब झूठ बोल रहे थे.
               मित्रों,इससे पहले ११ सितम्बर को महनार से मेरी विदाई की गयी आरती उतारकर और ललाट पर विजय तिलक लगाकर;मैं आईएएस बनने का सपना आखों में लेकर जो रवाना हो रहा था.इस अवसर पर मेरी मकान मालकिन ने मुझसे मजाक करते हुए कहा भी कि तुम दिल्ली जाकर बदल जाओगे और शायद वापस आओ तो एक से भले दो होकर.तब मैंने भी अपने स्वभावानुरूप जवाब जड़ दिया था कि मैं दिल्ली बदल जाने के लिए नहीं जा रहा हूँ बल्कि दिल्ली को ही बदल देने के लिए जा रहा हूँ.परन्तु अंत में न तो मेरा दावा ही सत्य सिद्ध हुआ और न ही उनकी आशंका ही सच्चाई के धरातल पर उतर पाई.
           मित्रों,नई दिल्ली जंक्शन पर उतरकर हमारा सबसे पहले सामना हुआ रिक्शेवाले से जिसने कुल बीस कदम दूर बस स्टॉप तक हमारा सामान ले चलने के लिए हमसे २० रूपये ऐंठ लिए.तब देश में वाजपेयी की सरकार थी और बीस रूपया बहुत हुआ करता था.जब हम खानपुर में बस से उतरे तो झमाझम वर्षा हो रही थी और सड़क पर रिक्शेवाले नजर भी नहीं आ रहे थे.बाद में मैंने जाना कि वहां रिक्शा चलाने पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था.किसी तरह एक ऑटो रिजर्व करके हम गंतव्य मकान तक यानि सुरेश के निवास पर पहुंचे.सुरेश मेरे बड़े जीजाजी के मित्र थे,ग्रामीण भी थे और भतीजे भी.फिर शुरू हुई ढंग का डेरा खोजने के लिए भागदौड़.तब मैंने एक अच्छी बात यह देखी कि सभी प्राइवेट बसों पर लिखा हुआ रहता था कि कौन-सी बस किस-किस इलाके से होकर गुजरेगी.लेकिन मेरे बड़े जीजाजी को न जाने क्यों उन पर लिखे पर विश्वास ही नहीं था.वे बिना पूछे बसों में चढ़ते ही नहीं थे.इसी दौरान एक बार हम किंग्जवे कैंप से खानपुर के लिए लौट रहे थे.जिस बस में हम चढ़े वो केवल सराय काले खान तक के लिए थी.उतरने के बाद अँधेरा हो जाने के कारण सुरेश और जीजाजी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि खानपुर की बस सड़क के इस पार से मिलेगी या उस पार से.फिर उन्होंने मेरे मना करने पर भी सड़क पार की और एक बस में जिस पर खानपुर लिखा हुआ था सवार हो गए.कंडक्टर से खानपुर का तीन टिकट माँगा तो उसने बिना कुछ कहे-सुने १०-१० के तीन टिकट थमा दिए.बस के थोड़ी दूर चलने के बाद ही मुझे लगा कि बस तो यमुना पार जा रही है.फिर हमने बस रूकवाई और पैसे वापस मांगे लेकिन उस कंडक्टर ने बड़ी बेहयाई से हमारी अज्ञानता की हँसी उड़ाते हुए यह कहकर पैसे लौटाने से मना कर दिया कि हमने तो नहीं कहा था तुमको बस में चढ़ने के लिए.तब हमें अपने बिहार की भी याद आई क्योंकि बिहार में छोटे बच्चे को भी आप कहने का रिवाज है.लेकिन दिल्ली तो जैसे आप कहना जानती ही नहीं थी,बाप को भी तुम और बेटे को भी तुम.इसी दौरान मैंने एक और अजीब बात जिंदगी में पहली बार देखी वो यह कि दिल्ली में पैसा लेकर पानी पिलाया जाता था.
          मित्रों,करीब एक सप्ताह तक बसों में जमकर ठगाने के बाद डेरे का इंतजाम भी हो गया.ठगाने की बात मैंने इसलिए कही क्योंकि हमें तब यह पता नहीं था कि जहाँ हमें जाना है वह जगह वहां से कितनी दूर है और वहां का किराया कितना है.कंडक्टर हमारे बातचीत करने के लहजे से ही समझ जाता था कि कबूतर इस शहर के लिए नया है.फिर तो उसको जितने का जी में आता उतने का टिकट काट देता.हमारा डेरा ठीक किया था त्रिभुवन ने जो इन दिनों आई.आई.एम. इंदौर में पढ़ रहा है.वो उन दिनों किरोड़ीमल कॉलेज में मेरे दूर के भांजे उमाशंकर का जूनियर हुआ करता था.जब हम चार-पाँच दिन रह लिए तब एक लफुआनुमा युवक मोटा चश्मा लगाकर प्रकट हुआ और हमसे हमारा परिचय पूछने लगा.उसके साथ भाड़ा तय हुआ १७०० रू. लेकिन उसने हमसे २२०० रूपये मांगे जो मैंने देने से ही मना कर दिया.तब भी मेरी नजर दलाली लेना और देना दोनों अनैतिक थे.फिर उसने कहा कि अगर मकान मालिक या मकान मालिक का कोई आदमी तुमसे यह पूछे कि तुम इस कमरे में कबसे रह रहे हो तो तुम उसी दिन से बता देना जिस दिन तुमसे पूछ जाए.लेकिन महीनों तक कोई नहीं आया और इस तरह वह व्यक्ति कई महीने का किराया अपनी जेब में डालता रहा.वह एक कथित प्रोपर्टी डीलर था.इससे पहले मैंने कभी इस जीव का नाम सुना भी नहीं था अलबत्ता दलाल तो मेरे गाँव और शहर में भी थे.वह प्रोपर्टी डीलर जिसका नाम मुकेश था और जो विवाहित भी था लौज में एक कमरे को हमेशा खाली रखता था.कभी-कभी सप्ताह में एक बार तो कभी-कभी दो बार वो लड़की लाता.फिर वे और उसके पाँच-छः दोस्त बारी-बारी उसके साथ उस कोनेवाले ९ नंबर के कमरे में सेक्स करते.कई बार तो लड़की नवविवाहिता भी होती.मुझे छात्रों ने बताया कि दिल्ली में सहपाठी लड़कियों को फँसाना बड़ा आसान था.बस एक बाईक खरीद लो लडकियाँ खुद ही फँस जाएंगी.मेरा भांजा उमा भी न जाने कैसे प्रेम में गिर गया और अपने ही मकान मालिक की बेटी को साथ में लेकर गाँव पहुँच गया.कुछ यही हाल मेरे लॉज के अन्य दोस्तों का भी था.सबके सब जोड़ियाँ बना चुके थे.तन्हा था तो सिर्फ मैं.एक बात और दिल्ली की लड़कियों के लिए लड़कों के साथ दोस्ती या सेक्स सिर्फ पार्टटाइम जॉब की तरह था.अगर लड़के ने इसे फुलटाईमर बनाने की यानि शादी करने की कोशिश की तो ज्यादा सम्भावना यही होती थी कि दोस्ती ही टूट जाए.
           मित्रों,इस तरह मेरे दिन मजे में बीतने लगे.मेरी हमेशा से एक आदत रही है कि मैं सबेरे सोता हूँ और सबेरे जगता भी हूँ.कुछ दिनों तक तो सबकुछ सामान्य रहा लेकिन एक दिन ज्यों ही मैंने बल्ब ऑफ़ किया पड़ोस के कमरे से हास्यमिश्रित स्वर में आवाज आने लगी कि अब हम समझे कि बिहार क्यों पिछड़ा हुआ है.व्यंग्य करने वाला बंगाली था और नाम था स्वरुप दत्ता.तबसे मैंने बल्ब ऑफ़ करना ही छोड़ दिया और जलता हुआ छोड़कर ही मुँह ढककर सोने लगा.इसके बाद भी कई बार सड़कों पर,बसों में मुझे बिहारी कहकर संबोधित किया गया.कभी चुपचाप अपमान के घूँट पीकर रह जाता तो कई बार मारपीट की नौबत भी आ जाती.इसी कारण किंग्जवे कैम्प चौक पर एक किराना दुकानदार से हाथापाई भी कर ली और उसे पीटा भी.जब मुझे कमलानगर,९जी में रहते हुए कई महीने हो गए तब एक दिन विनय जो मेरे ही जिले का रहनेवाला था और त्रिभुवन अपने कॉलेज किरोड़ीमल से एक कागज पर ब्रजकिशोर सिंह,फ्यूचर आई.ए.एस. प्रिंट करके ले आए और उसे मेरी किवाड़ पर चिपका दिया.हो सकता है कि मेरी नाकामियों पर आंसू बहाता हुआ वह पोस्टर अब भी उस किवाड़ पर चिपका हुआ हो.

          मित्रों,फिर मैंने बाराखम्बा रोड स्थित राउज आई.ए.एस. स्टडी सर्किल में नामांकन करवाया और बड़े ही जतन से अपने सपनों में हकीकत के रंग भरने लगा.यहाँ भी गैर बिहारी छात्र-छात्राएं हम बिहारियों को हिकारत भरी निगाहों से देखते.शायद यही वो कारण था जिसके चलते मैंने जमकर मेहनत की.मैं एक मिनट भी जाया नहीं करता था.आते-जाते बसों में भी नोट्स देखता रहता.इसी बीच कोचिंग में टेस्ट होना शुरू हो गया.इतिहास के पहले टेस्ट में मुझे ५० में ३७ अंक आए थे लेकिन दूसरे टेस्ट में तो कमाल ही हो गया.बतौर शिक्षक ओमेन्द्र सिंह मेरे सिर्फ पांच उत्तर ही गलत थे.मैं टेस्ट में प्रथम आया था.उस दिन मेरी कक्षा के बिहारी छात्रों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था.सबने मुझे अपने कन्धों पर उठा लिया.बाद में भी यह सिलसिला बना रहा.सामान्य अध्ययन के टेस्ट में भी मैं एक नए रिकार्ड बनाता हुआ प्रथम आया.मेरे प्रथम होने की घोषणा खान सर ने कुछ इस तरह से की-प्रथम आए हैं ब्रह्मकिशोर सिंह.मैंने फिर हस्तक्षेप करके अपना नाम सुधरवाया.बाद में साथ में पढनेवाले यूपी और राजस्थान वालों से हमारा पंगा भी हुआ.उनलोगों को मेरा यानि एक बिहारी का प्रथम आना रास जो नहीं आ रहा था.वे मेरे अभिन्न मित्र बन चुके अविनाश उर्फ़ मराठा (यह नाम उसे कोचिंग में भी हमने दिया था) पर मुझसे दोस्ती तोड़ने के लिए दबाव बनाने लगे लेकिन खुदा के फजल से हमारी दोस्ती आज भी कायम है.कोचिंग के अंतिम दिन हम सबकी आँखों में आंसू थे.मराठा तब तक हमारे साथ पढनेवाली एक लड़की से अपना दिल तोड़वाकर महाराष्ट्र वापस जा चुका था.कोंचिंग ने मुझे कई अच्छे मित्र दिए जिनमें से कुछ तो दिल्ली के भी थे.दिल्ली वासी मनीष,अमित और प्रवीण तब तक मेरे गहरे दोस्त बन चुके थे.मनीष जनकपुरी का जाट था और अमित शर्मा और प्रवीण धीमान मौजपुर में रहते थे.तीनों मस्तमौला थे और दोस्तों के लिए कुछ भी कर गुजरनेवाले भी.
           मित्रों,इसी बीच मेरी दूध विक्रेता संजीव विश्नोई से भी गहरी छनने लगी.संजीव एक हाजिर जवाब तो थे ही बड़े ही सुरीले कलाकार भी थे.चूंकि मैं उनसे शुद्ध हिंदी में बात करता था इसलिए महीनों बाद उन्हें पता चला कि मैं एक बिहारी हूँ वो भी तब जब मैंने एक दिन अपने घर पर उनके एस.टी.डी. फोन से बात की.मुझे कई बार उनके और उनकी पत्नी के बीच घरेलू विवाद को सुलझाने का सुअवसर भी मिला.बाद में उन्होंने मुझे अपने द्वारा गाए गए भजनों के कई कैसेट भी दिए.उनकी डी.एम.एस. की दुकान थी.कोई जब उनसे पूछने आता कि क्या यह मदर डेयरी है तो वे बड़े ही नाटकीय तरीके से उत्तर देते कि यह फादर डेयरी है मदर डेयरी तो बगल में है और फिर एक साथ कई ठहाके फिंजाओं में गूंजने लगते.साथ ही कमलानगर में अख़बारों की एजेंसी चलानेवाले बिल्ले और जैन साहब से भी मेरी गहरी मित्रता हो गयी.मल्कागंज वासी अख़बार वेंडर धर्म सिंह तो जैसे मेरे परिवार के सदस्य ही हो गए.यही हाल डाकिया विजय का भी था.
           मित्रों,वर्ष २००३ की दिवाली के समय मेरी यूपीएससी की प्रधान परीक्षा चल रही थी.सिर्फ अंतिम दो पेपर बाँकी थे कि मुझे डेंगू हो गया.रात में सोया तो अपने ही कमरे में लेकिन जब जगा तो अस्पताल में और वो भी चार दिनों के बाद.मेरे साथ लॉज में रहनेवाले विद्यार्थियों ने मुझे अस्पताल में भरती करवाया फिर मेरे मंझले जीजाजी के फुफेरे भाई अजय को सूचित किया.जान तो बच गयी लेकिन आईएएस बनने का सपना टूट चुका था.आँखों में सपने के टूटे हुए किरमिचों के चुभने का दर्द था.वहां उपस्थित मेरे सभी शुभचिंतकों की आँखें भरी हुई थीं.एक तरफ उन्हें मेरे जीवित बच जाने की ख़ुशी हो रही थी तो उनके मन में मेरे सपने के टूटने का अहसास भी था.मैं पहला मोर्चा जीतकर अंतिम लड़ाई को हार गया था.दरअसल डेंगू ने मेरे दिमाग पर भी बुरा असर डाला था.अब मैं पढ़ी हुई बात को ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता था.बाद में पड़ोसी से परेशान होकर डेरा बदला.यह नया पड़ोसी अभय दूबे जो गोरखपुर का था रात में तेज आवाज में गाना सुनता था जिससे मैं सो नहीं पाता था.अभय ने अपनी मोटर साईकिल घर भेज दिया और चोरी की एफ.आई.आर. दर्ज करवा कर बीमा का पैसा खा गया.वो अपने कमरे में लड़कियां लाता और कभी-कभी रात में उनके साथ हमबिस्तर भी होता.हमने उसे रात में गाना नहीं बजाने के लिए कई बार समझाया लेकिन वो नहीं समझा.अंत में मारपीट हुई जिसमें मेरे मित्र मनोज,एल.एल.बी. को चोट भी आई और फिर हमने आशियाना बदल दिया.अब हम आ गाए घंटाघर के पास.सारा सामान रिक्शा पर उमा और उसके मित्रों ने ढो दिया था.यहाँ मेरे साथ रहने के लिए मराठा भी आया लेकिन एक ही महीने बाद अलग भाग गया जिससे आगे २ सालों तक मुझे अकेले फ़्लैट का किराया ३५०० रू. मासिक भरना पड़ गया.यहाँ आकर मकान मालिक पी.के. अग्रवाल से दोस्ती हुई और दोस्ती हुई उनके स्टाफ पंकज से.घंटों मैं उनलोगों से बातचीत करता रहता.पंकज बहुत ही दिलचस्प इन्सान था.उसकी अंग्रेजी अच्छी थी.जब भी उसके घर पर कुम्हरे की सब्जी बनती तो वो जरुर इसका जिक्र मुझसे करता वह भी सीना तानकर यह कहते हुए कि आज मैंने सीताफल की सब्जी खाई है.साथ ही जब एक दिन उसने मुझे बताया कि वो कभी जिभिया (स्टील की या प्लास्टिक की पत्ती से जीभ साफ़ करना) नहीं करता है तब मुझे घोर आश्चर्य हुआ.उसने यह भी बताया कि यहाँ पर सभी नाख़ून से ही खखोरकर जीभ साफ़ कर लिया करते हैं.यहाँ तक कि मैंने भी बाद में पाया कि जिभिया वहां की दुकानों में बिकता ही नहीं था.जहाँ तक अग्रवाल साहब का सवाल है तो वे ऊंचे दर्जे के फेंकू और कंजूस थे.दुकान में बातें करते-करते सो जाना और ग्राहकों से जबरन बात करने की कोशिश करना उनका शगल था.वे बड़े ही नाटकीयतापूर्ण तरीके से बताते कि मैं जब ब्रजकिशोर सिंह,आई.ए.एस. यानि मेरे चेंबर में मुझसे मिलने जाएँगे तो किस तरह दरवाजे को लात से मारकर खोलेंगे.
           मित्रों,मेरे बगल में एक बूढी आंटी भी रहती थी चंद्रावल रोड,१५२९ में.उन्होंने मुझे परदेश में माँ का प्यार दिया.अगाध स्नेह था उनका मुझपर.जब भी मैं उनके पास होता तो मुझ पर मानो प्रेम की बरसात होती रहती.मुझसे भी जहाँ तक बना मैंने उनकी सेवा की.वे अपने एक गूंगे बेटे और पति के साथ वहां रहती थीं.छोटे बेटे की ज्वेलरी की घंटाघर के पास ही बहुत बड़ी दुकान थी मगर वो इन लोगों से अलग अशोक विहार में फ़्लैट खरीदकर रहता था.अंत में २००५ की यू.पी.एस.सी. प्रधान परीक्षा में भी असफल घोषित कर दिए जाने के बाद मैंने नोएडा स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में नामांकन करवा लिया और दिल्ली को हमेशा के लिए छोड़ दिया.एक महीने तक तो नोएडा से आना-जाना किया लेकिन इसमें समय की बहुत बर्बादी होती थी.इसलिए नोएडा के सेक्टर २० में ही जहाँ उस समय विश्वविद्यालय का नोएडा परिसर अवस्थित था डेरा ले लिया.मुँह अँधेरे ही सामान को ट्रक पर लदवाया.उस दिन शायद २ अगस्त की तारीख थी.अब दिल्ली हमेशा के लिए मुझसे छूट जानेवाली थी.मैंने चलते वक़्त आंटी को प्रणाम किया और ट्रक में जाकर बैठ गया.आंटी फूट-फूटकर रो रही थीं.तब तक अंकल राजाराम पुरी भी दुनिया को अलविदा कर चुके थे.मैंने अपना सामान ट्रक पर लोड करवाया और चल पड़ा.वे दूर तक जाते हुए ट्रक को देखती रहीं और रोती रहीं.बाद में जब भी दिल्ली आता तो सिर्फ उनसे मिलने के लिए.फिर यह सिलसिला कम होता गया और अंत में बंद भी हो गया.अभी पिछले साल यहाँ हाजीपुर से फोन करने पर उनके छोटे बेटे ने बताया कि उसका गूंगा भाई भी अब इस दुनिया में नहीं है.दुर्भाग्यवश उसका नंबर भी बदल गया है जिससे मैं अब यह जान पाने में असमर्थ हूँ कि आंटी जीवित भी हैं या नहीं और अगर जीवित हैं तो कहाँ पर हैं और किस हाल में हैं.  

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

कौन है अन्ना की जान का दुश्मन?

मित्रों,हर अच्छे-बुरे आदमी का विरोध होता है,प्रत्येक उचित-अनुचित बात की निंदा भी की जाती है;अन्ना का भी हुआ और हो रहा है.लोकतंत्र का तो मतलब ही है विरोध करने की आजादी लेकिन यह आजादी तभी तक देय है जब तक कि विरोध अहिंसक हो.लोकतंत्र में विरोध का एकमात्र मतलब होता है तर्क द्वारा मतभिन्नता प्रदर्शित करना,अपने विचारों के माध्यम से विरोधी पर दबाव बनाना.विरोध का यह मतलब हरगिज नहीं होता कि जिससे आप सहमत नहीं हैं उसकी हत्या ही कर दें.परन्तु लोकतंत्र के ढाई-तीन सौ सालों के इतिहास में लिंकन,केनेडी,मार्टिन लूथर किंग,ओल्फ पाल्मे,अनवर सादात,इंदिरा गाँधी,राजीव गाँधी,प्रेमदास,जयवर्धने,शेख मुजीब,बुरहानुद्दीन रब्बानी जैसे सैंकड़ों ऐसे जननेता रहे हैं जिनकी संसार के अलग-अलग हिस्सों में समय-समय पर उनके धुर विरोधियों ने हत्या कर दी.
               मित्रों,इन छोटी-सी सूची में मैंने महात्मा गाँधी को इसलिए स्थान नहीं दिया क्योंकि वे इन सबमें विशिष्ट थे.गाँधी ने कभी हिंसा को उचित नहीं माना और अहिंसा के बल पर ही मानव इतिहास के सबसे रक्तरंजित कालखंड में दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से सफलतापूर्वक लोहा लिया.गाँधी के बारे में कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि उनकी हत्या भी हो सकती है.गाँधी ने यह जानते हुए भी कि उनसे विचारधारात्मक मतभेद रखनेवाले लोग उनके खून के प्यासे हो रहे हैं कभी सरकारी सुरक्षा स्वीकार नहीं की.वे हमेशा लोगों से बेख़ौफ़ होकर मिलते रहे जिसका फायदा उठाया उन लोगों ने जो उनकी हत्या करना चाहते थे.गाँधी की हत्या से देश को कितना नुकसान हुआ आज हम इसका अच्छी तरह से मूल्यांकन कर सकते हैं.अगर हम सिर्फ सोंचने के लिए भी सोंचें तो अगर गाँधी की हत्या नहीं हुई होती तो शायद वर्तमान भारत की हालत इतनी बुरी नहीं होती.
                मित्रों,दुर्भाग्यवश आज भारत फिर से उसी प्रस्थान बिंदु पर आ खड़ा हुआ है जहाँ वह ३० जनवरी,१९४८ को खड़ा था.दिल्ली पुलिस और इंटेलिजेंस ब्यूरो को ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं कि कुछ अज्ञात लोग और संगठन देश के शुद्धिकरण में लगे अन्ना हजारे की हत्या की साजिश रच रहे हैं.अन्ना भी गाँधी की ही तरह अत्यंत सरल हैं और हर किसी को उपलब्ध हैं.ऐसे में कोई भी व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बनकर उनके निकट पहुँच कर उन पर जानलेवा हमला कर सकता है.दिल्ली पुलिस को इस आशय का एक गुमनाम पत्र मिला है जिसमें धमकी दी गयी हैं कि अगर अन्ना ने अपनी गतिविधियों पर विराम नहीं लगाया तो ५०० युवाओं का ग्रुप उन पर एचआईवी संक्रमित सूईयों द्वारा रामलीला मैदान में प्रस्तावित अनशन के समय हमला कर सकता है.उधर सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो के अनुसार आईएसआई ने भी अन्ना की हत्या की साजिश रची है और इस पापकर्म को अंजाम तक पहुँचाने की जिम्मेदारी सौंपी है पाकिस्तान के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मौलाना मसूद अजहर को.यह वही मौलाना अजहर है जिसको कंधार विमान अपहरण के समय यात्रियों के बदले रिहा किया गया था.इसी तरह के कुछ और भी संकेत मिले हैं जिनसे पता चलता है कि अन्ना की जान को वास्तव में खतरा है.
                मित्रों,हो सकता है कि इस तरह के संकेत और ख़ुफ़िया चेतावनियाँ पूरी तरह से पुख्ता नहीं हों लेकिन हमारा देश अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह अन्ना की जान को लेकर किसी भी तरह का जोखिम उठाए.अन्ना की जिंदगी अनमोल है क्योंकि देश की आजादी के बाद पहली बार हमारे देश को ऐसा नेतृत्व मिला है जिसके जुझारूपन और दृढ़ता के चलते भारतवासियों में व्यवस्था-परिवर्तन की उम्मीद जगी है.इसलिए टीम अन्ना और सरकार को अन्ना की अचूक सुरक्षा-व्यवस्था के लिए प्रयास करने चाहिए.साथ ही बेशक उनकी सुरक्षा-व्यवस्था बढ़ाई जानी चाहिए लेकिन इस बात का ख्याल रखते हुए कि इससे अन्ना को जनसाधारण के साथ सीधा संपर्क कायम करने में बाधा उत्पन्न नहीं हो.साथ ही हम सवा अरब भारतीयों की ओर से देश के भीतर और बाहर स्थित अन्ना और भारतवर्ष के दुश्मनों को यह भी बता देना चाहते हैं कि अब तक भारत की जो जनता सो रही थी अब वो जाग गयी है और अब पवित्र भारतभूमि से भ्रष्टाचार को मिटने से कोई भी नहीं रोक सकता,चाहे अन्ना हमारे समक्ष सशरीर उपस्थित रहें या न रहें.

रविवार, 11 दिसंबर 2011

अंगुलीमाल बना महावीर की धरती वैशाली का समाज


मित्रों,एक समय जब मैं वर्ष २००७ से २००८ तक दैनिक हिंदुस्तान,पटना के प्रादेशिक डेस्क पर काम कर रहा था तब अख़बार के वैशाली संस्करण में कुछ एक ही तरह की घटनाओं को लेकर छपनेवाली ख़बरों को लेकर परेशान रहा करता था.न जाने क्यों वैशाली संस्करण में रोजाना कुछ इस तरह की ख़बरें छपा करती थीं-पाँच बच्चों की माँ प्रेमी के साथ भागी,शिष्य को लेकर ट्यूशन शिक्षक फरार,प्रेमी के साथ कोर्ट में उपस्थित हुई नाबालिग छात्रा आदि.डेस्क के मेरे सहकर्मी खासकर महेंद्र झा मुझ पर हँसते कि ऐसा क्यों हो रहा है कि लड़कियों और महिलाओं के भागने की घटनाएँ पूरे राज्य में सबसे ज्यादा आपके जिले में ही घट रही हैं.उस समय सिवान से सियार द्वारा काट खाने,छपरा से फर्जीवाड़ा कर रजिस्ट्री करवाने और खगड़िया से अस्पतालों में सर्पदंश की दवा अनुपलब्धता की ख़बरें भी रोज ही आया करती थीं.लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे बीच सबसे ज्यादा हंसी का पात्र बनता था मैं और मेरा वैशाली जिला.खैर,इसमें दोष हाजीपुर ब्यूरो का भी नहीं था.जब जिले में अक्सर इस तरह की घटनाएँ घटित होती थीं तभी तो वह पटना मुख्यालय को भेजता था.
              मित्रों,वक़्त गुजरा और आज दिसंबर,२०११ चल रहा है.इन दिनों मैं एक बार फिर से परेशान हूँ अपने जिले में रोज-रोज घटनेवाली कुछ एक ही तरह की घटनाओं को लेकर.अब अख़बारों में वैध-अवैध प्रेम में घर छोड़कर भागने की ख़बरें नहीं आ रही बल्कि अब तो गणतंत्र की जननी वैशाली में तेजी से पसरते गनतंत्र की ख़बरें रोज-रोज आ रही हैं.लगता है जैसे हमारे जिले में इंसानों का नहीं बल्कि सिर्फ दरिंदों का निवास हो गया है.कुछ उदाहरण पेशे खिदमत है-पहली घटना ६ दिसंबर की है.बारात लगाने में हुए विवाद में पातेपुर थाने के बाजितपुर गाँव में लड़की का चाचा मदनमोहन मिश्र एक गाड़ी चालक टुनटुन राय की गोली मारकर हत्या कर देता है और हत्यारे लाश लेकर भी भाग जाते हैं.हद तो यह है कि हमारी काबिल पुलिस घटना के बाद ४८ घंटा बीत जाने के बाद भी इस मामले में कोई गिरफ़्तारी नहीं कर पाई है.फिर दूसरी स्तब्ध कर देनेवाली घटना को अंजाम दिया जाता है ७ दिसंबर को.इस घटना में सराय थाने के इनायतपुर प्रबोधी गाँव के दबंग और पूर्व मुखिया के बेटे एक वृद्ध धोबिन को कपड़ा धुलाई का मेहनताना मांगने पर गालियाँ देने लगते हैं.स्वाभाविक तौर पर उसका बेटा इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता और विरोध करने लगता है.फिर तो उस गुड्डू रजक नामक युवक की अखिलेश सिंह,मिथिलेश सिंह और मनोज सिंह वगैरह के द्वारा इतनी बेरहमी से धुलाई की जाती है कि गाँव के वर्तमान मुखिया और जिला पार्षद को उसकी बेबस माँ की गुहार पर हस्तक्षेप करना पड़ता है.जान बचने के लाख प्रयासों के बावजूद सदर अस्पताल के बेड पर वह मातृभक्त दम तोड़ देता है.बाद में जनता द्वारा दबाव बनाने पर ही उसका पोस्टमार्टम संभव हो पाता है.अभी मातृभक्त गुड्डू की चिता की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि ७ दिसंबर की रात को ही तीसरी मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना भी घट जाती है.थाना वही है सराय जहाँ कभी पूरी दुनिया को करूणा और अहिंसा का अमर सन्देश देने वाले वैशाली के ही बेटे,अंतिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने रिजुपलिका नदी के तट पर ज्ञान प्राप्त किया था.इस बार यमदूतों के भी रोंगटे खड़े कर देनेवाली घटना का गवाह बनता है सराय थाने का धरहरा गाँव.गाँव का एक दबंग मल्लाह परिवार जो अतिपिछड़े वर्ग से आता है गाँव के एक ब्राह्मण अशोक पांडे पर दबाव डालता है कि वो अपनी बेटी जूली का विवाह उसके लम्पट बेटे ज्योति सहनी के साथ कर दे.जैसा कि इस तरह के मामलों में होना चाहिए लड़की का पिता कमजोर होने पर भी ऐसा करने से इंकार कर देता है.फिर तो ७ दिसंबर की कोहरे भरी रात में उसकी नाबालिग बेटी को हथियारों के बल पर सहनी परिवार घर में से उठा लेता है और उसकी हत्या करके लाश को पास के ही बगीचे में पेड़ से लटका देता है.गाँव के जिस किसी की नजर लाश पर पड़ती है उसका मन इस जघन्य कृत्य पर भिनभिना उठता है.हत्या करने से पहले घटना में शामिल २ दर्जन दरिंदों ने उस मासूम के साथ बलात्कार भी किया था या नहीं अभी स्पष्ट नहीं है.
             मित्रों,अभी-अभी अख़बार हाथ में आया है और अबोध जूली की नृशंस हत्या का यह समाचार पढ़ते ही मैं खुद के वैशाली जिले का होने को लेकर बहुत ही शर्मिंदा महसूस करने लगा हूँ.मैं डर रहा हूँ कि क्या कल फिर से मुझे अख़बार में अपने जिले में घटित इस तरह की घटना का समाचार पढना पड़ेगा?छिः,मैंने कैसे जिले में जन्म लिया है जिसका इतिहास तो गौरवमय है लेकिन वर्तमान कलंकित!!!जहाँ रोज-रोज इंसानों की पशुता उजागर हो रही है.जहाँ मानवता की और मानवों की जान की कौड़ी जितनी भी कीमत नहीं.मैं सोंचता हूँ कि मैं ऐसे बिगड़ते माहौल में कब तक अपनी निर्मल मनुष्यता की रक्षा कर पाऊँगा?वैशाली पुलिस की तो बात ही नहीं करिए.उसकी मनमानी कार्यप्रणाली और बेईमानी का ही तो यह प्रतिफल है कि पूरे वैशाली जिले में जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत सत्य साबित हो रही है.पूरे जिले के सभी थानों में सिर्फ और सिर्फ पैसे और पैसेवालों का बोलबाला है.शौक से हत्या करिए और थाने में उड़ेलकर पैसा दे दीजिए और फिर निश्चिन्त हो जाईए;आपका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा.तो क्या भविष्य में जिले के शरीफों की बहू-बेटियों को दबंग घर से उठा लिया करेंगे?क्या इसी तरह गुड्डू रजक नामक दलित मातृभक्त शहीद होता रहेगा??क्या इसी तरह हमें रोजाना बारात में गोली चलने से निर्दोष टुनटुन रायों की मौत की ख़बरें पढनी पड़ेगी???हमारा २१वीं सदी का समाज यह किस दिशा में अग्रसर हो गया है????क्या हमारी महान सभ्यता और संस्कृति सही दिशा में अग्रसर है?????हम जानते हैं कि वक़्त की और समाज की अपनी एक दिशा होती है,गति होती है.लेकिन जब दिशा और गति दोनों गलत हो जाए तो धरती पर रेंगनेवाला क्षुद्र कीड़ा इन्सान करे भी तो क्या करे?जब कोई पथभ्रष्ट समाज उसकी नेक सलाह को किसी पागल का प्रलाप समझकर अनसुना कर दे तब कोई पथप्रदर्शक सुकरात कर भी क्या सकता है सिवाय............?!अरे डरिए मत!मैं कोई सुकरात नहीं हूँ जो निराश होकर जहर पी लूँगा.मैं तो आल्हा-ऊदल का वंशज हूँ और मैं संघर्ष करूंगा,समझाता रहूँगा लोगों को और समाज को अंतिम साँस तक,रक्त की अंतिम बूँद के शरीर में शेष रहने तक;चाहे अंत में सफलता हाथ लगे या असफलता.न दैन्यं न पलायनम!
(मित्रों,यह लेख मैंने ९ दिसंबर को ही लिख लिया था.इस बीच वही हुआ है जिसका मुझे डर था.कल यानि १० दिसंबर को मेरे जिले के जुडावनपुर थाने के राघोपुर गाँव में जगदीश राय नामक वृद्ध की रस्सी से बांधकर चार नरपशुओं ने पिटाई कर दी जिससे घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गयी.साथ ही सच यह भी है कि मूल लेख में वर्णित तीनों मामलों में वैशाली पुलिस न तो अभी तक कोई गिरफ़्तारी ही कर पाई है और न ही अब तक टुनटुन राय का शव ही बरामद कर सकी है.एक सूचना और जो वैशाली पुलिस से ही सम्बद्ध है कि मेरे पडोसी और वैशाली पुलिस के जवान बालेश्वर साह ने अब चोरी की बिजली से मोटर चलाना भी शुरू कर दिया है.साथ ही अब उसके टेंट में रोजाना शाम में गाँजा का धुंआ भी उड़ने लगा है.)

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कि खूने दिल में डुबो ली है ऊंगलियाँ मैंने

मित्रों,हमारे देश में लोकतंत्र की ट्रेन एक अजीब मोड़ पर आकर फँस गयी है.हमारी जनमोहिनी-मनमोहिनी केंद्र सरकार चाहती है कि ट्रेन उसकी मर्जी से उसके द्वारा बनाई हुई पटरी पर दौड़े.लेकिन अगर ट्रेन उस पटरी पर गयी तो दुर्घटना निश्चित है.मुश्किल यह है देश के शुभेच्छु विपक्षी दल,टीम अन्ना और जनता उसे बार-बार ऐसा करने से रोकना चाहते हैं लेकिन सरकार है कि किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है.उसका तो बस इतना ही मानना और कहना है कि देश की ट्रेन को जनता ने उसे पांच साल के लिए सौंपी है.अब वो उसको अप लाईन पर चलाए,डाऊन लाईन पर दौड़ाए या लूप लाईन पर भगाए या फिर बंगाल की खाड़ी में गिरा दे;कोई कौन होता है उसे टोकने और रोकनेवाला?इन मूर्खों की जमात को यह नहीं दिख रहा कि जो भी आदमी उसके जैसी पागल चालकवाली ट्रेन में सवार है उसे अपने जान और माल की चिंता तो होगी ही.
                मित्रों,पिछले सालों में हम समाचार पत्रों में यह खबर अक्सर पढ़ते आ रहे हैं कि हमारा पड़ोसी मुल्क चीन गूगल,फेसबुक आदि सामाजिक वेबसाईटों पर आने वाली सामग्री पर नियंत्रण करना चाहता है.चीन को ऐसा करना शोभा भी देता है क्योंकि वहां एकदलीय शासन है,तानाशाही है और वस्तु उत्पादन से लेकर विचारोत्पादन तक प्रत्येक राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि पर सरकार का पूर्ण या यथासंभव नियंत्रण है.लेकिन क्या ऐसा प्रयास करने की सोंचना भी भारत सरकार के लिए शोभनीय है?क्या भारत में भी चीन की ही तरह एकदलीय शासन और तानाशाही है?कम-से-कम सैद्धांतिक और संवैधानिक रूप से तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है.फिर हमारी सरकार हमारी सोंच पर,हमारी विचार शक्ति पर कैसे प्रतिबन्ध लगा सकती है?हम गूगल,फेसबुक या किसी अन्य वेबसाईट पर कोई शौक से नहीं लिखते हैं बल्कि ऐसा करना हमारी मजबूरी है.हम भी चाहते हैं कि हमारे विचार मुख्यधारा के समाचार-पत्रों में प्रकाशित हों लेकिन उन पर तो चंद पूंजीपतियों का कब्ज़ा है जो सरकार के खिलाफ कुछ भी छापने से डरते हैं.वे सब-के-सब सरकारी विज्ञापन की बीन की धुन पर बहरे,अंधे और गूंगे बनकर नाच रहे हैं.ऐसे में हम सामाजिक वेबसाईट्स पर नहीं लिखें तो कहाँ लिखें?सरकार अगर यह सोंचती है कि लोकतंत्र की ट्रेन को वह शौक से दुर्घटनाग्रस्त करा देगी और हम सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर मुंह ताकते रहेंगे तो उसे या तो इस अगहन पूणिमा के दिन प्राथमिक उपचार के तौर पर ठंडा ठंडा कूल कूल नवरत्न तेल के तालाब में डुबकी लगानी चाहिए और अगर फिर भी उसकी मानसिक स्थिति में सुधार नहीं हो तो उसके सभी मंत्रियों को सामूहिक रूप से मानसिक चिकित्सालय में बिना कोई देरी किए भर्ती हो जाना चाहिए.हमारी केंद्र सरकार आखिर यह कैसे भूल गयी कि हमारी भारतमाता कभी बंध्या नहीं हो सकती.भारतभूमि उससे उत्कट प्रेम करनेवाले वीरों से न तो कभी खाली रही है और न ही आगे कभी खाली ही होनेवाली है.इसलिए जब भी कोई सरकार देश को बेचने का अथवा देशहित को अपने लोभ और लालच के प्रदूषित जल में विसर्जित कर देने का प्रयास करेगी तो जान हथेली पर लेकर घूमनेवाले बच्चे,नौजवान और बूढ़े देश की लक्ष्मीबाई सदृश बेटियों सहित उसका और उसके प्रत्येक कदम का विरोध करने को उतावले हो उठेंगे.
               मित्रों,जहाँ तक मैंने पढ़ा है लोकतंत्र का मतलब ही होता है सहअस्तित्व और विरोधियों का और उनके विचारों का सम्मान.अगर हमारी सरकार सामाजिक साईटों को सरकारी बंदूकों या सत्ता की बेलगाम ताकत का भय दिखाकर झुका लेने में सफल हो जाती है तो फिर लोकतंत्र तो हमारे देश में अपने अर्थ ही खो देगा.अगर जनता अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगी तो फिर क्या मतलब रह जाएगा ऐसी दिखावटी और अर्थहीन स्वतंत्रता का?कहीं हमारी वर्तमान सरकार भारतीय लोकतंत्र को फासीवादी और नाजीवादी अंधकूप में धकेलने के चक्कर में तो नहीं है?सनद रहे कि इस सरकार की सूत्रधार सोनिया गाँधी की जन्मभूमि इटली में भी कभी फासीवाद लोकतंत्र की सीढियों पर चढ़कर ही सत्ता के शिखर पर पहुंचा था.तो कहीं सरकार की जनसामान्य के विचारों पर जंजीर डालने की कोशिश के पीछे सोनिया गाँधी का इटालियन मुसोलिनीवादी संस्कार तो नहीं काम कर रहा?
              मित्रों,कांग्रेस की वर्तमान सरकार की वर्ष २००४ से ही कोशिश रही है कि देश की जनता को बांटकर रखा जाए और फिर भ्रष्टाचार के माध्यम से छककर सत्ता की मलाई चाभी जाए.हिन्दू जनमानस को तो पहले ही जातीय राजनीति द्वारा बांटा जा चुका है इन दिनों आरक्षण की विभाजक दीवार हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खड़ी करने का कुत्सित प्रयास चल रहा है.इन सबके बावजूद जनता के सभी तबकों के बीच सरकार की छवि में चुनाव जिताने के लायक सुधार नहीं हो पा रहा है.शायद इसलिए झुंझलाकर,घबराकर,हड़बड़ाकर,नाराज होकर,नासाज़ होकर और सत्ता के मद्यपान से मदमस्त होकर हमारी आम आदमी की अमीरपरस्त सरकार आम आदमी के विचारों पर ही ताला जड़ने का प्रयास करने लगी है.अगर सरकार सोशल वेबसाईट्स के संचालकों को भ्रष्टाचार के कीचड़ से सने अपने गंदे पैरों में झुका भी लेती है तो भी हम देशभक्त और आजादी के मतवाले उसकी देशविरोधी-जनविरोधी नीतियों के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के लिए नए विकल्प तलाश लेंगे.वैसे वर्तमान वैश्विक ग्राम में कोई भी सरकार चाहे वो चीन की हो या भारत की विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रभावी रोक नहीं लगा सकी है और न ही लगा सकती है फिर यह चमचा शिरोमणि कपिल सिब्बल किस बंजर खेत का आलू है?बतौर फैज़-"मताए लौहो कलम छीन गई,तो क्या गम है/कि खूने दिल में डुबो ली है उंगलियाँ मैंने/जबान पे मुहर लगी है,तो क्या कि रख दी है/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जबाँ मैंने."      
           

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

दुश्शासनों के भरोसे सुशासन

मित्रों,किसी भी व्यक्ति के जीवन में परिवारवालों के बाद सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है पड़ोसियों का.बतौर अटल बिहारी वाजपेयी आप मित्र बदल सकते हैं,शत्रु भी बदले जा सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदले जा सकते.न जाने मैंने किस जनम में कौन-सा गंभीर पाप किया था जो दो-दो पुलिसकर्मी मेरे पड़ोसी बन गए हैं.दोनों बिहार पुलिस में सिपाही हैं.एक की गुंडागर्दी का तो मैं अपने पूर्ववर्ती लेख ''पुलिस वाला लुटेरा अथवा वर्दी वाला गुंडा'' में जिक्र भी कर चुका हूँ लेकिन मेरा नया पड़ोसी तो वर्दी का रोब झाड़ने के मामले में पहले का भी बाप है.
                    मित्रों,इस शख्स का नाम है बालेश्वर साह और हाजीपुर शहर से सटे जढुआ  नवादा का रहनेवाला है.उम्र यही कोई ४०-४५ साल होगी.उसके कुल छः बच्चे हैं.सबसे बड़ी बेटी तो सयानी भी हो चली है.इन दिनों वो हमारे रोड नंबर-२,संत कबीर नगर,जढुआ स्थित वर्तमान निवास के पड़ोस में घर बनवा रहा है.मेरी समझ में यह नहीं आता कि इन पुलिसकर्मियों के पास जिनका वेतन मुश्किल से ५ अंकों में पहुँचता है इतना पैसा कहाँ से आ जाता है कि ये हाजीपुर जैसे महंगे शहर में जमीन खरीदकर घर बनवा रहे हैं.यहाँ मैं आपको यह भी बता दूं कि मेरे मोहल्ले में ९०% घर वर्तमान या भूतपूर्व पुलिसकर्मियों के हैं.तो मैं बता रहा था कि मेरे पड़ोस में जो सिपाही जी के नाम से मशहूर व्यक्ति घर बनवा रहा है एकदम महामूर्ख है,दम्भी है,कामुक है,वर्दी के घमंड में फूला हुआ है,मनमौजी है और नशेड़ी भी है.उसकी दुष्टता से मेरा पहला परिचय तब हुआ जब वह मेरे पड़ोसी त्रिवेदी जी के दामाद को भूमिविवाद के दौरान रंडी की औलाद इत्यादि विशेषणों से विभूषित करने लगा.आप भी सोंच सकते हैं कि तब त्रिवेदी जी और उनके पूरे परिवारवालों के दिलों पर क्या गुजर रही होगी लेकिन उन्होंने जवाब तक नहीं दिया.पचासों लोग उसे ऐसा करने से मना कर रहे थे लेकिन वह बार-बार त्रिवेदी परिवार को मोहल्ला से भगा देने और जीना मुश्किल कर देने की धमकी दे रहा था.मैंने अपनी जिंदगी में न जाने कितने पुलिसवाले देखे हैं लेकिन आज तक इतना लम्पट और बदतमीज पुलिसवाला नहीं देखा.इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि फ़िलहाल उसकी पोस्टिंग एक लम्बे समय से हाजीपुर शहर में ही है.आश्चर्य है कि बिहार सरकार को शिवदीप लांडे जैसे ईमानदार पुलिस अधिकारियों की बदली करने की तो खूब सूझती है लेकिन इन भ्रष्ट,लम्पट और गुंडानुमा पुलिसवालों की बदली करने के बजाए उन्हें सालों तक गृह जिला में पोस्टिंग कैसे मिली रहती है?
                  मित्रों,टीम अन्ना के अनुसार जिस प्रकार निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा ही जनता ज्यादा प्रताड़ित होती है ठीक उसी तरह बिहार पुलिस या अन्य राज्यों की पुलिस के ये सिपाही,हवलदार और थानेदार ही होते हैं जो अपने पड़ोसियों सहित पूरे जनसमाज का जीना मुहाल किए रहते हैं.मेरा यह नया पड़ोसी दिन-रात मोबाईल फोन पर फुल वॉल्युम में ''लगाई दिहीं चोलिया के हूक राजाजी'' और ''ओही रे जगहिया दांती काट लिहलअ राजाजी'' जैसे अश्लील भोजपुरी गाने बजाता रहता है.फिर दिन ढलते ही उसका छोटा-सा टेंट मधुशाला में बदल जाता है और विभिन्न असामाजिक तत्व उसके साथ जाम छलकाते हैं.सत्र के अंत में पूरे मोहल्ले वालों को जमकर गलियां दी जाती हैं.इन असामाजिक तत्त्वों में से एक को तो मैं भली-भांति जानता भी हूँ जिसका नाम है संतोष पासवान.पास में ही संत कबीर नगर में ही उसका घर है और वो चोरी के कई मामलों में नामजद अभियुक्त भी रह चुका है.            
             मित्रों,इस प्रकार त्रिवेदी जी का परिवार इस पुलिसवाले से भले ही परेशान नहीं हुआ हो लेकिन हमलोग तो अच्छी मात्रा में रोजाना परेशान हो रहे हैं.हो भी क्यों नहीं घर में महिलाएँ तो हैं ही छोटे-छोटे बच्चे भी हैं?हमारे बच्चे इस पड़ोसी से क्या सीख लेंगे;आसानी से समझा जा सकता है?पूर्व के लेख ''पुलिस वाला लुटेरा अथवा वर्दी वाला गुंडा'' में वर्णित पप्पू यादव की तरह ही इस वर्दी वाले गुंडे ने भी साधिकार बिजली का टोंका फंसाकर चोरी की बिजली का उपयोग करना प्रारंभ कर दिया है.पप्पू यादव तो अब चोरी की बिजली से मोटर भी चला रहा है.मुझे घोर आश्चर्य हो रहा है कि एक तरफ बिहार राज्य विद्युत् बोर्ड लगातार बिजली महंगा करता जा रहा है वहीं इन चोर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कदम भी नहीं उठा रहा.इनके जैसे लोगों के चलते उसे जो रोजाना करीब ४ करोड़ रूपये का घाटा हो रहा है;उसे कौन भरेगा?हम जैसे शरीफ और कानूनप्रेमी ही न?हाँ,एक बात और है कि अगर इन वर्दीवालों के स्थान पर हमने टोंका फंसाया होता तो कब के हाजीपुर जेल की शोभा बढ़ा रहे होते.इसी को तो कहते हैं कि वो करें तो रासलीला और हम करें तो कैरेक्टर ढीला.
               मित्रों,देश की सीमा की रक्षा करते हैं सेना के जवान और लोगों के घरों की रक्षा करती है पुलिस.मुठभेड़ों में मरते दोनों ही हैं लेकिन जब एक सेना का जवान मरता है तब पूरा जनसमुदाय श्रद्धा से सिर झुका लेता है.लोगों में शोक की एक स्वतःस्फूर्त लहर-सी दौड़ जाती है.परन्तु जब एक पुलिसकर्मी मारा जाता है तब जनता शोकमग्न नहीं होती बल्कि खुश होती है.खुश होती है कि एक आदमीनुमा जानवर मर गया.खुश होती है कि उसे रोज-रोज नोचनेवाला,काट खाने वाला और उस पर बेवजह भौंकनेवाला कुत्ता मर गया.कितनी बिडम्बनापूर्ण स्थिति है कि जिस जनता के पैसे से इन पुलिसवालों का घर चलता है उससे वे सीधे मुंह बात तक नहीं करते,ईज्जत देने की तो बात ही दूर रही.दुर्भाग्यवश आपको कभी थाने में जाना पड़ा तो वहां आपको जमकर जलील किया जाएगा लेकिन दलालों को,जेबकतरों को,गुंडों को खूब ईज्जत दी जाएगी;उनकी सेवा की जाएगी.आज जुए का अड्डा चलानेवाला कल राज्य या शहर को चलाने लगता है तो दोषी कौन है?ये पुलिसवाले! आज लोगों की जेबों को काटनेवाला कल लोगों का गला काटने लगता है तो दोषी कौन है?? एक बार फिर से वही पुलिसवाले!! कल तक चकला चलानेवाला आज प्रदेश और देश की सरकार चलाने लगता है तो दोषी कौन है??? फिर से वही पुलिसवाले!!! कल तक शराब बेचनेवाला आज देश को बेचने लगता है तो दोषी कौन है???? फिर से वही पुलिसवाले,वही पुलिसवाले,वही पुलिसवाले!!!! और बिडम्बना यह है कि इन्हीं दुश्शासन सदृश पुलिसवालों के बल पर नीतीश कुमार राज्य में सुशासन लाना चाहते हैं.सुशासन बाबू पहले इन सिपाहियों को सुधारिए चोर तो खुद ही सुधर जाएँगे.    
                    

बुधवार, 30 नवंबर 2011

1 अमेरिकी=22 करोड़ भारतीय

मित्रों,पिछले कुछ समय से पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति या महंगाई के ताप से जल रही है.जनता की थाली में से बारी-बारी से मांस,दाल और सब्जियों के छीने जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.हमारे परम विद्वान व कथित अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जानबूझकर अनजान बन रहे हैं मानो उन्हें पता ही नहीं हो कि देश में महंगाई क्यों बढ़ रही है.बीमारी कुछ है और ईलाज कुछ और का ही किया जा रहा है.पहले तो सप्ताह-दर-सप्ताह ब्याज दर बढ़ा-बढ़ाकर महंगाई को कम करने की बेवकूफाना कोशिश की गयी और अब जो ईलाज पेश किया जा रहा है उससे तो देश की पूरी खाद्य-सुरक्षा ही खतरे में पड़ जानेवाली है.
               मित्रों,मैं बात कर रहा हूँ भारत सरकार द्वारा देश के खुदरा व्यापार में ५१% विदेशी पूँजी निवेश करने की अनुमति देने की.हमारी अब तक की सबसे कमजोर-कामचोर जनमोहिनी-मनमोहिनी सरकार ने मानो ६ साल तक देश को शोधने के बाद महंगाई की असली जड़ का पता लगा लिया है.इस लाल बुझक्कड़ सरकार का मानना है कि किसानों अथवा उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच जो २२ करोड़ खुदरा व्यवसायी यानि बिचौलिए हैं वही महंगाई को बढ़ाते हैं.वरना महंगाई तो कब की कोसों दूर भाग चुकी होती.इसलिए हमारी सरकार ने महंगाई के चलते पतली हो चुकी हमारी हालत पर तरस खाते हुए दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनुमति दे दी कि वे देश में आएं और अपनी दुकानें खोलें,शीतगृह स्थापित करें और किसानों से सीधे-सीधे अनाज खरीदें.मतलब यह कि २२ करोड़ छोटे व्यापारियों या बिचौलियों के बदले अब सिर्फ एक ही या कुछेक ही बिचौलिए होंगे.लेकिन बिचौलिए तो फिर भी होंगे;२२ करोड़ भुक्खड़ ब्लडी इंडियंस के बदले एक या दो-चार गोरे धनपति.इनके आने से २२ करोड़ भारतीय बेरोजगार हो जाएँ तो हो जाएँ,भूखो मरें तो मरें लेकिन देश का जीडीपी तो ऊपर चढ़ेगा.पूँजी आएगी तो शेयर बाजार का ग्राफ तो उर्ध्वगामी होगा और कुल जमा कुछेक लाख शेयरधारकों को तो भारी लाभ तो होगा.सुबह से शाम तक मुम्बई-दिल्ली की सड़कों पर अपने ठेले पर ३०० रूपए की सब्जी बेचकर ५० रूपया कमानेवाला गरीब भारतीय भले ही रोजगार खोकर भूख से मर जाए लेकिन अमेरिकन कंपनी वालमार्ट को तो अरबों-खरबों का फायदा होगा.
              मित्रों,सोंचिए कि देश के खेतों से लेकर गोदामों,शीतगृहों और विक्रय-केन्द्रों तक पर अगर एक या कुछेक विदेशी कंपनी या कंपनियों का कब्ज़ा हो जाता है तो देश की खाद्य-सुरक्षा का क्या हाल होगा?वे जब चाहे तब देश में कृत्रिम अकाल जैसी हालत पैदा कर भरपुर मुनाफा कमा सकेंगी.वैसे भी घोर पूंजीवादी देशों की इन कंपनियों का एकमात्र धर्म और कर्म ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाना ही तो है.केंद्र की वर्तमान सरकार की मूर्खताओं के चलते हमारी औद्योगिक सुरक्षा तो पहले से ही हमारे चिर शत्रु-देश चीन के हाथों गिरवी पड़ती जा रही है और अब खाद्य-सुरक्षा पर भी हमारी वही सरकार खुद ही तलवार लटकाने जा रही है.
               मित्रों,आजकल में एक और अजीबोगरीब घटना हुई हैं जो हमारे देश की संप्रभुता के लिए है तो बहुत-ही महत्वपूर्ण लेकिन उसकी मीडिया में उतनी चर्चा हुई नहीं जितने की वो हकदार थी.हुआ यह है कि वालमार्ट के देश अमेरिका के भारत में राजदूत ने खुदरा क्षेत्र को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने का पुरजोर समर्थन किया है.मैं पूछता हूँ ये अंकल सैम कौन होते हैं हमारे आतंरिक मामलों में दखल देनेवाले.परन्तु करें तो क्या करें?जब अपना ही सिक्का खोटा निकल जाए तब दूसरों पर दोषारोपण करने का क्या लाभ?अपने ही देश की सरकार जब २२ करोड़ जनता के रोजगार को समाप्त कर मौत के मुंह में धकेल देने और पूरे सवा सौ करोड़ जनता की रोटी की सुरक्षा को चंद विदेशियों के हाथों गिरवी रख देने पर उतारू हो,बेच देने पर आमादा हो तो फिर हम कहाँ-किसके पास जाकर रोयें और फ़रियाद करें?
             मित्रों,सरकार कह रही है कि इससे १ करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा लेकिन वालमार्ट जैसी कम्पनियाँ तो घंटे के हिसाब से पैसा देती हैं.जितना काम उतना पैसा और काम नहीं तो पैसा भी नहीं;चाहे मरो या जियो अपनी बला से.जहाँ तक किसानों को लाभ होने की बात है तो भारत के किसान एक बार फिर से निलहा खेती के ज़माने में जानेवाले हैं.अब फिर से हमारे गोरे साहब हमें आदेश देंगे कि खेतों में क्या उपजाना है और क्या नहीं?उनको जिस फसल को बेचने से ज्यादा फायदा होगा उसको छोड़कर वे देश को क्या उपजने से लाभ होगा थोड़े ही उपजाने देंगे.तो आईये मित्रों हम सब जश्न मनाएँ कि हम फिर से गुलामी की ओर बढ़ चले हैं;फिर से देश में स्वतंत्रता आन्दोलन होगा जिससे फिर से चोर मसीहा उत्पन्न होंगे और अंततः यह सिलसिला चलता जाएगा.         

रविवार, 27 नवंबर 2011

मजीठिया वेतन आयोग को लागू करवाए सरकार

हमारे गांवों में एक कहावत है कि हर बहे से खर खाए बकरी अँचार खाए अर्थात जो बैल हल में जुते उसके हिस्से घास-भूसा और जो बकरी बैठी-बैठी में-में करती रहे उसके भोजन में स्वादिष्ट अचार.खैर,बैलों द्वारा खेती तो बंद हो गयी लेकिन इस कहावत में जो व्यंग्य छिपा हुआ था आज भी अपनी जगह सत्य है और सिर्फ गांवों ही नहीं बल्कि शहरों के लिए भी उतना ही सत्य है.अब समाचारों की दुनिया को ही लें कोल्हू के बैल की तरह;खासतौर पर निचले स्तर के मीडियाकर्मी दिन-रात खटते रहते हैं और महीने के अंत में जब पैसा हाथ में आता है तो इतना भी नहीं होता कि जिससे उनका और उनके परिवार का १० दिन का खर्च भी निकल सके.ऐसा भी नहीं है कि उनकी नियोक्ता मीडिया कम्पनियाँ ऐसा मजबूरी में करती हैं बल्कि अगर हम उनकी सालाना बैलेंस शीट को देखें तो पाएँगे कि वे तो हर साल भारी लाभ में होती हैं.हाँ,यह बात अलग है कि अकूत धन के ढेर पर बैठा उसका मालिक पूरे लाभ को अकेले ही हजम कर जाना चाहता है और चाहता क्या है वह बाजाप्ता ऐसा कर भी रहा है.इस तरह भारतीय मीडिया उद्योग में कमाएगा लंगोटीवाला और खाएगा धोतीवाला वाली कहावत बड़े ही मजे में चरितार्थ हो रही है.
                   मित्रों,हमारे पूर्वज राजनीतिज्ञों ने,जिनमें से अधिकतर कभी-न-कभी पत्रकार भी रह चुके थे;आनेवाले समय में हृदयहीन पूँजी के हाथों पत्रकारों की संभावित दुर्गति को अपनी दूरदृष्टि के माध्यम से साफ-साफ देख लिया था और इसलिए उन्होंने प्रेस अधिनियम द्वारा उनके हितों की रक्षा करने की कोशिश की.हालाँकि,आश्चर्यजनक रूप से इलेक्ट्रोनिक और वेब मीडिया कर्मी अभी भी इस सुरक्षा छतरी से बाहर हैं.क्यों बाहर हैं शायद सरकार को पता हो लेकिन जो इसके दायरे में आते हैं उन समाचारपत्र कर्मचारियों को भी दुर्भाग्यवश इस अति महत्वपूर्ण कानून का फायदा नहीं मिल पा रहा है.उन्हें इसके दायरे से बाहर करने के लिए कई तरह के सादे प्रपत्रों पर नियुक्ति के समय ही हस्ताक्षर करवा लिया जाता है और फिर मिल जाती है प्रबंधन को छूट उनकी रोटी के साथ खुलकर खेलने की.यानि सरकार जब तक पेड़ पर चढ़ने को तैयार होती है तब तक मीडिया कंपनियों के मालिक पात-पात को गिन आते हैं.भारत का ऐसा कोई भी कानून नहीं जिसमें कुछ-न-कुछ लूप होल्स नहीं हो,कमियाँ न हों फिर पूंजीपतियों के पास तो हमेशा उनके साथ नाभिनालबद्ध दुनिया के सबसे बेहतरीन दिमाग भी होते हैं;हर जोड़ का तोड़ निकालने के लिए.
              मित्रों,सभी पत्रकार व गैर पत्रकार समाचार-पत्र कर्मियों के लिए मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को आए एक साल होने को है लेकिन कोई भी समाचार-पत्र या समाचार एजेंसी प्रबंधन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंग रही;ऊपर से वे मजीठिया की सिफारिशों का विरोध भी कर रहे हैं.उनमें से कुछ तो कथित न्याय की आशा में न्यायालय भी पहुँच गए परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें राहत देने से मना कर दिया और सब कुछ सरकार पर छोड़ दिया.
                    मित्रों,इस प्रकार इस समय जो वस्तु-स्थिति है वो यह है कि मीडिया कंपनियों के मालिक किसी भी स्थिति में अपने कर्मचारियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन बढाकर अपने मुनाफे को कम करने को तैयार नहीं हैं और वे इसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं.क्या वे भारतवर्ष के सारे कानूनों से परे हैं?संविधान में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा.अभी कुछ भी दिन पहले मैंने bhadas4media पर यह समाचार देखा कि दैनिक जागरण,कानपुर ने अपने कर्मचारियों से जबरन एक प्रपत्र पर हस्ताक्षर भी करवा लिया है.उस कथित प्रपत्र पर यह लिखा हुआ है कि ''मैं जागरण की सेवाओं से संतुष्ट हूं और जागरण मेरे और मेरे परिवार के हितों की पूरी तरह सुरक्षा कर रहा है. मुझे मजीठिया आयोग की सिफारिशों के अनुरूप कोई वेतनमान नहीं चाहिए.''अब आप ही बताईए बेचारे दस्तखत नहीं करें तो करें क्या?ऐसा नहीं करने पर उन्हें बिना कोई कारण बताए बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाएगा और यह तो आप भी जानते हैं कि तुलसीदास के ज़माने से ही ''तुलसी बुझाई एक राम घनश्याम ही ते,आगि बड़वागि ते बड़ी है आगि पेट की''.हो सकता है कि ऐसे मीडियाकर्मियों के पेट पर लात मारने का हस्ताक्षर अभियान गुप्त रूप से अन्य मीडिया कंपनियों में भी चलाया जा रहा हो.
               मित्रों,जाहिर है समाज के दबे,कुचलों और पीड़ितों को न्याय दिलानेवाले मीडियाकर्मी खुद ही अन्याय के सबसे बड़े शिकार हैं.अगर उन्होंने पूर्वोक्त प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर दिया तो फिर वे मजीठिया आयोग की सिफारिशों से कथित रूप से अपनी मर्जी से पूरी तरह से वंचित रह जाएँगे.अब यह भारत सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस आयोग की सिफारिशों को लागू कराने की दिशा में किस हद तक जाती है.कुछ इसी तरह की स्थिति १९८९ में भी बनी थी.तब भी मीडिया कम्पनियाँ बछावत आयोग की सिफारिशों को लागू करने में नानुकूर कर रही थीं लेकिन तब स्व.राजीव गाँधी की सरकार ने सख्ती बरतते हुए उन्हें बछावत आयोग की सभी सिफारिशों को लागू करने के लिए बाध्य कर दिया था.परन्तु आज स्थिति बिलकुल उलट है.आज केंद्र में अब तक की सबसे भ्रष्ट और कमजोर-कामचोर सरकार सत्ता में है.उस पर नीम पर करेला यह कि यह सरकार बाजार को ही भगवान मानते हुए सबकुछ बाजार के हवाले कर देने की सख्त हिमायती भी है.उस करेले पर चिरैता यह कि सरकार कथित कार्पोरेट संस्कृति की भी अंधसमर्थक है.फिर भी अगर सरकार ने सोडा वाटर के नशे (जोश) में आकर सख्ती बरती और मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो भी गईं तब भी लगभग सारे कर्मियों के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला क्योंकि तब तक वे बिना कोई विरोध किए एकतरफा संधि-प्रपत्र या और भी स्पष्ट रूप से कहें तो आत्मसमर्पण-पत्र अथवा सुसाईडल नोट पर हस्ताक्षर कर चुके होंगे.इसलिए अगर सरकार इस वेतन-आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना ही चाहती है और सही मायने में लागू करवाना चाहती है तो फिर उसे मीडिया कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान का तोड़ भी निकालना पड़ेगा.

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

अजहर रे झूठ मत बोलो

मित्रों,वर्ष १९८४ में भारतीय क्रिकेट के क्षितिज पर अपने पहले तीनों टेस्ट मैचों में लगातार तीन शतक ठोंकता हुआ उदित हुआ एक ऐसा सितारा खिलाडी जिसे पूरी दुनिया की मीडिया ने वंडर बॉय की संज्ञा दी.वह बैटिंग में तो लाजवाब था ही फील्डिंग के क्षेत्र में भी उसका कोई जोड़ा नहीं था.उसके हाथों में जब गेंद जाती तो बल्लेबाज सहम कर अपने पैर वापस क्रीज में खींच लेते.उसकी कलाई थी या घूमनेवाला दरवाजा था?गेंद चाहे कैसी भी हो,कितनी भी चतुराई से फेंकी गयी हो उसकी कलाई घूमती और दूसरे ही क्षण गेंद सीमा रेखा को चूमती हुई नजर आती.
              मित्रों,वह लगातार अद्भुत प्रदर्शन करता रहा और एक दिन ऐसा भी आया जब उसे भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बना दिया गया.अब करोड़ों भारतीयों की आसमान छूती उम्मीदों पर खरा उतरने की जिम्मेदारी उसके कन्धों पर आ गयी.कप्तानी में भी वह लाजवाब निकला और जल्दी ही उसकी गिनती भारत के सफलतम कप्तानों में होने लगी.लेकिन तभी उस पर पैसा लेकर मैच हारने के आरोप लगने लगे.इसी बीच उसने अपने परिवार की ओर से हो रहे भारी विरोध को नज़रन्दाज करते हुए फिल्म स्टार संगीता बिजलानी से शादी कर ली.ज़िन्दगी में ग्लैमर का तड़का लगने की देरी थी कि शायद उसकी जिंदगी पाँच सितारा हो गयी.ज़िन्दगी की जरूरतें बढीं तो पैसों की ज़रुरत भी बढ़ गयी.कदाचित अब उसके पास अकूत धन भी था लेकिन विवाद बढ़ने के चलते उसका क्रिकेट कैरियर ढलान पर आने से पहले ही अचानक समाप्त हो गया.
                     मित्रों,अब तक यह तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व,विवादस्पद कप्तान और सांसद अजहरूद्दीन की बात कर रहा हूँ.बाद में १९९८ में जब वाजपेयी सरकार ने रिसर्जेंट बौंड ऑफ़ इंडिया के जारी काले धन को श्वेत करने की देशविरोधी योजना पेश की तब कथित तौर पर इसने सैंकड़ों करोड़ रूपये की काली कमाई को सफ़ेद बनाया.बाद में जैसा कि हर रसूखदार से जुड़े मामले का हमारे देश में होता आया है इसके मामले में भी हुआ और यह आरोपमुक्त कर दिया गया.अब अगर अजहर नहीं बताएँगे तो फिर कौन बताएगा कि उस ज़माने में जब क्रिकेटरों की आमदनी करोड़ों तो क्या लाखों में भी नहीं थी उनके पास अगर इतना धन आया तो कहाँ से आया?क्या उनके आँगन में पैसा बरसानेवाले बादलों ने चुपके से आकर धन बरसा दिया?
                   मित्रों,मुझे याद आ रहा है कि अजहर और कुछ अन्य भारतीय खिलाडियों पर जब निहायत गंभीर आरोप लगे तब मुझे खुद पर भी अपना कीमती वक़्त जाया करके दिन-दिन भर कमेंट्री सुनने के लिए गुस्सा आ रहा था.लग रहा था जैसे मेरे साथ गंभीर धोखा किया गया है,ठगी की गयी हैं;मेरी भावनाओं के साथ भद्दा मजाक किया गया है.मैंने कई महीनों तक क्रिकेट मैच टी.वी. पर देखना,रेडियो पर सुनना और अख़बारों में उससे जुडी ख़बरों को पढना भी बंद कर दिया था.आरोप लगने के बाद अजहर ने चुप्पी साध ली और कुछ समय के लिए पूरे परिदृश्य से गायब से हो गए.बाद में फिर से राष्ट्रीय क्षितिज पर नजर आए तो खिलाडी के रूप में नहीं एक सधे हुए राजनेता के रूप में.जैसे राजनीति में उनके ही जैसे कथित भ्रष्ट खिलाड़ी की कमी थी,एक ऐसे खिलाड़ी की जो सचमुच में बहुत बड़ा खिलाड़ी रह चुका था बहुत बड़ा परन्तु कथित रूप से भ्रष्ट खिलाड़ी.क्रिकेट जिसे भारत में धर्म का अघोषित दर्जा प्राप्त है;में रहस्यात्मक रूप से सट्टेबाजी को प्रश्रय देने वाला खिलाड़ी और इस प्रकार करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों के जज्बातों के साथ गन्दा खेल खेलनेवाला खिलाड़ी.
                          मित्रों,भारत की जनता के बारे में कहा जाता है कि इसकी याददाश्त काफी कमजोर है.यह पापियों के पापों को बहुत जल्दी भूल जाती है.कदाचित अजहर के पापों को भी भूल गयी और शायद इसलिए वे बिना किसी खास जद्दोजहद के लोकसभा के माननीय सदस्य बन बैठे.लेकिन पाप तो फिर भी पाप होता है मरते दम तक पीछा थोड़े ही छोड़ता है.देखिए न १५ साल बाद किस तरह विनोद काम्बली ने १९९६ के विश्व कप के सेमीफाइनल में भारत की रहस्यपूर्ण और शर्मनाक हार की याद ताजा कर दी.उस मैच में पहला झटका तो भारत की भोलीभाली जनता को तभी लगा जब टॉस जीत कर कप्तान अजहर ने फील्डिंग करने का फैसला किया.जबकि पिच क्यूरेटर पहले ही कह चुके थे कि उसकी समझ से टॉस जीतने के बाद पहले बल्लेबाजी करना ठीक रहेगा;फिर भी अजहर ने पहले क्षेत्ररक्षण करने का आत्मघाती निर्णय क्यों लिया;एक साथ हजारों प्रश्न खड़े करता है?बाद में श्रीलंका के २५१ रनों का पीछा करते हुए भारतीय टीम का स्कोर जब ९८ रनों पर एक विकेट था तब तक तो सबकुछ ठीक-ठाक था लेकिन जैसे ही सचिन आऊट हुए और स्कोर ९८ पर दो हुआ मानो विकेटों का पतझड़ लग गया.लगा जैसे विनोद काम्बली जिन्होंने कई दिन पहले रो-रोकर अजहर पर पैसा लेकर मैच हरने का आरोप लगाया है,को छोड़कर बाँकी सारे खिलाड़ी स्टोव पर मैगी चढ़ाकर आए थे और डर रहे थे कि उतारने में या चूल्हा बंद करने में देरी होने पर कहीं वह जल न जाए.लोग आते गए और कारवां बनता गया.आश्चर्यजनक रूप से मात्र २२ रन बनाने में ६ विकेट ढेर हो गए.कप्तान अजहर और सट्टेबाजी के एक और आरोपी अजय जडेजा शून्य रन बनाकर खेत रहे.शायद ये लोग बैंक में खाता खोल कर आए थे और वह भी पांच सौ या हजार रूपये की न्यूनतम राशि से नहीं बल्कि करोड़ों रूपये की बड़ी रकम से.संयोग से उस समय महनार में बिजली थी और मैं भी टी.वी. पर मैच देख रहा था.तब मेरी आँखों में आंसूं थे और मन अतिक्रोधित था.मुझे तब इस बात की भनक तक नहीं थी कि हो क्या रहा है या जो हो रहा है उसके पीछे क्या-क्या कारण हो सकते हैं?क्यों अजहर ने सबकुछ जानते हुए,क्यूरेटर द्वारा सचेत करने के बाद भी पहले क्षेत्ररक्षण करने का निर्णय लिया?बाद में जब अजहर पर सट्टेबाजों के हाथों में खेलकर करोड़ों रूपये बनाने का गंभीर आरोप लगा और उन्हें बहुत बेआबरू करके क्रिकेट के कूचे से हमेशा के लिए निकाल-बाहर कर दिया गया तब मुझे भी संदेह हुआ था कि कहीं यह मैच भी फिक्स तो नहीं था.लेकिन मुझे नहीं लगता कि दोषी होने पर भी;विनोद काम्बली की आँखों में आसुओं को दोबारा १५ साल बाद देखकर भी राजनेता बन चुके अजहर का दिल पसीज जानेवाला है और वे दिवंगत हैन्सी क्रोन्ये की अपना अपराध कबूल करते हुए माफ़ी मांग लेनेवाले हैं.आप ही बताइए नेताओं का सच्चाई से कोई दूर का रिश्ता भी होता है क्या?वैसे अगर वे ऐसा करते तो उनके लिए ही ज्यादा अच्छा होता और उनके दिल से बहुत बड़ा बोझ भी उतर जाता.साथ ही सट्टेबाजी की काली दुनिया के सफ़ेद संचालकों का चेहरा भी दुनिया के सामने बेनकाब हो जाता.लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या राजनेता अजहर सच बोलने का जोखिम उठाएंगे?क्या उस मैच का वास्तविक रहस्य कभी सामने आ पाएगा?

सोमवार, 21 नवंबर 2011

मैं सन्नी लियोन बनना चाहती हूँ.

मित्रों,कई साल पहले जब भारतीय मनोरंजन के आकाश में कलर्स चैनल का आगमन हुआ तब लगा कि यह इन्द्रधनुषी चैनल भविष्य में स्वस्थ और प्रेरक प्रसारण के क्षेत्र में अन्य चैनलों के लिए एक उदाहरण बनेगा.लगे भी क्यों नहीं चैनल की शुरुआत बालिका वधु जैसे बाल विवाह की ज्वलंत समस्या पर प्रहार करने वाले सीरियल के द्वारा जो हुई.परन्तु जैसे-जैसे समय गुजरता गया कलर्स का नकली सामाजिक सरोकार वाला रंग उतरता चला गया और अब जाकर उसका असली बदरंग चेहरा पूरी तरह से निखरकर जनता के सामने आ गया है.हम जैसे लोग निराश हैं कि पैसा कमाने की होड़ में इस चैनल ने किस कदर अपना चेहरा काला कर लिया है,खुद को गिरा लिया है.
                        मित्रों,ज्यादा-से-ज्यादा टीआरपी पाने और पैसा कमाने के लिए इस चैनल ने एक अनोखा तथाकथित रियलिटी शो शुरू किया है.शो को चलाने में कोई बुराई भी नहीं है;बुरा है शो का कंटेंट,बुरा है शो में दिखाए जानेवाले उत्तेजक दृश्य.इस शो में एक-से-एक बदनाम और बदतमीज लोग भाग लेते हैं.इसमें कैमरे के सामने बीना मल्लिक चादर-कम्बल की आड़ में अश्मित पटेल के साथ सेक्स करती है,डॉली बिंद्रा सबको बेहद गन्दी-गन्दी गालियाँ देती हैं और सारा खान झूठी शादी रचाती है.वैसे तो समाज को दिग्भ्रमित करने के लिए बिग बॉस के पुराने संस्करण ही काफी से भी ज्यादा काफी थे लेकिन बिग बॉस के वर्तमान सीजन यानि मौसम में तो हद ही हो गयी है.जब कलर्स चैनल के कर्ता-धर्ताओं ने देखा की इस बार बिग बॉस को वैसी टीआरपी रेटिंग नहीं मिल पा रही है जैसी पहले के सीजनों में मिली थी तब उन्होंने पूरे होशो-हवाश में एक ऐसे व्यक्तित्व को इस शो में इंट्री देने का फैसला किया जो पॉर्न सुपर स्टार हैं.उसका नाम है सन्नी लियोन और अगर आप उसके अंग्रेजी नाम sunny leone नाम से इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो आपको हजारों ऐसे लिंक मिल जाएँगे जिन पर क्लिक करके आप उसकी हजारों सेक्स पिक्चर्स और वीडियो देख सकते हैं.यह महिला पिछले १० सालों से दुनिया के इस सबसे बुरे क्षेत्र में सक्रिय है और कथित तौर पर इस कलाकार ने पहली बार जब इस तरह के अश्लील दृश्य शूट करवाए तो इस पवित्र शर्त पर कि उसका सेक्स सहयोगी और कोई नहीं बल्कि उनका अपना बॉय फ्रेंड होगा.
                          मित्रों,यह तो निश्चित है कि इसकी इस शो में इंट्री से इस पवित्र सामाजिक सरोकार वाले चैनल की टीआरपी काफी बढ़ जाएगी जिससे चैनल को काफी धनलाभ भी हो जाएगा लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि इसकी इस शो में इंट्री से हमारे देश और समाज को किस तरह का लाभ होनेवाला है?किसी चैनल को सरकार की तरफ से लाइसेंस क्यों दिया जाता है?क्या इसलिए कि वे पैसा कमाने की होड़ में अपने सामाजिक दायित्वों को भूल जाएँ और चैनल को पॉर्न चैनल बनाकर रख दें?मुझे तो लगता है कि इस लियोन की सफलता से (येन-केन-प्रकारेण पैसा कमाना ही अब हमारे देश में सफलता की सर्वमान्य परिभाषा बन गयी है)सीख लेकर,इसे अपना आदर्श मानकर अब तक भारत की जो लड़कियां कल्पना चावला,किरण बेदी और माधुरी दीक्षित बनना चाहती थीं उनमें से कुछ अब पॉर्न सुपर स्टार सन्नी लियोन बनने के सपने देखा करेंगी और इस तरह सीता-सावित्री के इस देश का नैतिक स्तर काफी बढ़ जाएगा.वैसे ही पहले से ही भंवरियों और मदेरणाओं जैसे लोगों ने देश और समाज के नैतिक जीवन का बेडा गर्क करके रखा है.मैं चाहता हूँ कि कलर्स चैनल इस विदेशी बेहया को बिग बॉस में शामिल करने से पहले अपने इस कदम और इसके हमारे समाज पर दीर्घकालिक प्रभाव पर पुनर्विचार करे और अगर वह ऐसा करने को तैयार नहीं होता है तो केंद्र सरकार को अपने कानूनी-चाबुक का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा एक संभ्रांत महिला के सूचना और प्रसारण मंत्री रहने का क्या लाभ?

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

यह कैसे और कैसी क़ुरबानी?

मित्रों,वर्ष २००७.अभी ईद-उल-जोहा के आने में कई दिन बचे हुए थे.मेरे अभिन्न मित्र मुन्नू भाई और शाजी पिछले दिनों कई बार मुझे इस पावन त्योहार पर अपने घर आने के लिए आमंत्रित कर चुके थे.मैं अब तक त्योहारों के दिन कभी किसी मुसलमान के घर नहीं गया था.सोंचा चलो इस बार यह तजुर्बा भी कर लिया जाए.हम तीनों यानि मैं धर्मेन्द्र और संतोष उरांव जब कालिंदी कुञ्ज बस स्टॉप पर बस से उतरे तब वहां मुन्नू भाई और शाजी पहले से ही मोटरसाईकिल लेकर उपस्थित थे.मुन्नू भाई ने हमें पहले ही ताकीद कर दिया कि आपलोग सीधे आगे देखिएगा;अगल-बगल क्या हो रहा है देखने की कोई जरुरत नहीं है.कुछ ही देर में मोटरसाईकिलें बटाला हाऊस ईलाके से गुजर रही थीं.दोनों तरफ लगभग सारे घरों में कहीं बैलों-गायों का गला रेता जा रहा था तो कहीं उनकी खालें उतारी जा रही थीं.सडकों तक खून के पनाले.कसाई सर पर ठेहा और हाथ में चाकू लिए सडकों पर आवाज लगाता फिर रहा था कि किसी को ग़ोश्त तैयार करवाना है क्या?चारों तरफ दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध.लगा जैसे अभी सुबह का नाश्ता मुंह से बाहर आ जाएगा.मेरा मन जो एक मानव मन था वितृष्णा से भर उठा.छिः,धर्म के नाम पर दुधारू और निर्दोष पशुओं की सामूहिक हत्या!किसी तरह रफ्ता-रफ्ता नरक दर्शन करता हुआ मित्र के निवास-स्थान पर जाकिर नगर पहुंचा.बड़ी मुश्किल से दालमोट को हलक के नीचे उतारा,ठंडा पीया और टी.वी. देखने लगा.रात हुई मित्र ने मुर्गा बनवाया था जो मैं खाता नहीं हूँ इसलिए बाजार से उसने रोटी-सब्जी मंगवाई.परन्तु अब तक मेरे दिलोदिमाग पर दिन का वीभत्स मंजर तारी था.मुझे रोटियों और सब्जियों में से जैसे गोमांस जैसी दुर्गन्ध का सुबहा हो रहा था.एक-दो निबाले से ज्यादा खा नहीं पाया और भूखे ही सो गया.सुबह पौ फटते ही वापस नोएडा के लिए निकल पड़ा.गायों के खून के धब्बे अब भी सडकों पर मौजूद थे.जब-जब नजर उन पर जाती पूरे जिस्म में जैसे सिहरन-सी होने लगती.वापस नोएडा आकर मन कई दिनों बाद शांत और प्रकृतिस्थ हुआ.
                    मित्रों,इस मुद्दे पर यानि जानवरों की क़ुरबानी पर बाद में मेरी अपने उन मित्र द्वय से बहस भी हुई.बड़ा अजीब तर्क था उनका.वे यह तो मानते थे कि जानवरों को भी खुदा ने ही बनाया है लेकिन वे यह भी मानते थे कि उसने इन्हें ईन्सान के भोजन के लिए बनाया है.फिर सूअरों,कुत्तो और बिल्लियों को क्यों नहीं खाना चाहिए,पूछने पर वे चुप्पी लगा गए?ईद-उल-जोहा के दिन पशु-वध पर उनका कहना था कि चूंकि गरीब मुस्लमान ग़ोश्त नहीं खरीद सकते या क़ुरबानी नहीं दे सकते इसलिए गाय-बैलों को काटकर उनका मांस बांटा जाता है.एक बात और उन्होंने कही कि बकरों के मुकाबले गाय-बैलों का मांस ज्यादा सस्ता पड़ता है.
                   मित्रों,क़ुरबानी क्या है और क्यों दी जाती है कभी सोंचा है आपने?क़ुरबानी का मतलब है त्याग और बलिदान जो हजरत इब्राहीम ने अपने जिगर के टुकड़े पुत्र की बलि देकर दी थी.मैं पूछता हूँ रूपयों से ख़रीदे गए इन मूक और निर्दोष जानवरों से मुसलमानों का कोई भावनात्मक लगाव होता भी है?क्या ये जानवर उन्हें अपने बेटे-बेटियों जितना ही अजीज होते हैं?क्या वे हजरत इब्राहीम की तरह अपने बेटे की बलि देने का नैतिक साहस रखते हैं?क्या उनका खुदा पर उतना ही अटल विश्वास है कि जितना हजरत इब्राहीम को था?अगर हाँ तो फिर आप भी जानवरों के बदले किसी अपने की बलि क्यों नहीं देते?अगर आपकी आस्था सच्ची होगी तो आपका अजीज भी बकरे में बदल जाएगा.लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि आप ढोंगी हैं,फरेबी हैं और झूठे हैं.आपकी आस्था झूठी है,आपका विश्वास कच्चा है.आपको खुदा पर पूरा विश्वास नहीं है.आप उसको और उसकी मेहर को लेकर उतने मुतमईन नहीं हैं जितने कि बेटे की बलि देते समय हजरत इब्राहीम थे.इसलिए आप झूठी क़ुरबानी देते हैं.वास्तव में यह क़ुरबानी सिर्फ पैसों की क़ुरबानी है.जरखरीद मूक और लाचार पशुओं की हत्या है,आस्था और विश्वास की हत्या है.
                    मित्रों,मैं यह भी नहीं चाहूँगा कि कोई मुसलमान धर्म के नाम पर अपने किसी अपने का गला रेत डाले परन्तु उसे यह हक़ भी नहीं बनता है कि किसी दूसरे के बेटे या बेटियों के गले पर धर्म के नाम पर छुरा चलाए.आखिर पशु भी किसी कि औलाद हैं.उन्होंने भी उसी प्रक्रिया के तहत जन्म लिया है जिस प्रक्रिया द्वारा हम जन्में हैं.हम आज सभ्यता के विकास के द्वारा प्रभुता की स्थिति में आ गए हैं और वे बेचारे आज भी वहीं हैं जहाँ वर्षों-सदियों पहले थे.हमने उन्हें गुलाम बनाया,उन्हें हलों और गाड़ियों में जोता.उनके दूध पर भी अधिकार कर लिया जो पूरी तरह से उनके बच्चों के लिए था फिर भी वे कुछ नहीं बोले,विरोध भी नहीं किया.लेकिन प्रभुता का मतलब यह तो नहीं कि हम उनका गला ही रेत डालें और उन्हें खा जाएँ.यह तो उनके द्वारा सदियों से मानवता की की जा रही सेवा का पारितोषिक नहीं हुआ.उन बेचारों को तो यह पता भी नहीं होता कि वे अंधी आस्था के नाम पर मारे जा रहे हैं.उन्हें तो बस अपने गले पर एक दबाव भर महसूस होता है और फिर दर्द का,भीषण दर्द का आखिरी अहसास.
                   मित्रों,इसलिए मैं नहीं समझता कि चाहे कोई हिन्दू पशु-बलि दे या मुसलमान;वह किसी भी तरह से उचित या तार्किक है.यह प्रथा हमारी असभ्यता को ही दर्शाता है इसलिए इसे तत्काल रोका जाना चाहिए.यह पूरी कायनात खुदा की बनाई हुई हैं.उस परमपिता की नज़र में सारे जीव बराबर हैं.गैर बराबरी चाहे वो ईन्सानों के बीच हो या जीवों के मध्य हमने बनाए हैं,खुदा ने नहीं;इसलिए हमें कोई हक नहीं है कि हम अपने द्वारा गुलाम बना लिए गए खुदा के अंश जानवरों पर अत्याचार करें.उसके भीतर भी उसी खुदा का वही नूर रौशन हैं जो ईन्सानों के भीतर हैं.उसे भी दर्द होता है,ख़ुशी होती हैं.वो भी हरी घास देखकर खुश होता है और गले पर चाकू फेरे जाने पर रोता-चिल्लाता है,पांव पटक-पटक कर हमसे दया की गुहार करता है.              

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

जनता आहत माल्या को राहत?

मित्रों,बात कुछ महीने पहले की है.हम भारतीय स्टेट बैंक की हाजीपुर,प्रधान शाखा से गृह ऋण लेकर घर बनाना चाहते थे.गोदान का होरी जिस तरह गाय को लेकर अपने मन में नित नए सपने बुना करता था उसी तरह हमारे मन में भी तब अपने घर को लेकर अनगिनत सपने कुलांचे भर रहे थे.लेकिन यह क्या,बैंक ने तो पिताजी की ज्यादा उम्र हो जाने का हवाला देते हुए ऋण देने से साफ तौर पर मना ही कर दिया.हम तो आदरणीय विजय माल्या की तरह कभी डिफौल्टर भी नहीं हुए थे लेकिन थे तो आम आदमी;बस यही एक दोष था हममें.हम जैसे छोटी हस्ती के लोगों के साथ सरकारी बैंक कुछ इसी तरह पेश आते हैं.काश हम भी विजय माल्या होते.तब सरकार हमारे पापों को चन्दन की तरह अपने माथे पर ले लेने के लिए बेताब हो जाती.प्रबंधन में गलती हम करते और भरपाई करती सरकार.व्यापार हम करते और जोखिम भी हमारा नहीं होता.इसी का नाम तो अमेरिकेन पूंजीवाद है जिसका हम इन दिनों अन्धानुकरण कर रहे हैं.देखा नहीं आपने अमेरिकी सरकार ने किस तरह अपने अति धनवान ऐय्याश पूंजीपतियों के पापों का ठीकरा खुद अपने ही सिर पर फोड़ लिया और जनता के खजाने में से धनपशुओं को राहत पैकेज दे दिया.
                   मित्रों,पिछले दिनों अपने देश में भी यही सब होने जा रहा था.चूंकि विजय माल्या बहुत बड़े धनपति हैं इसलिए उनको व्यापार में घाटा लगने पर सरकार सारे नियमों को ताक पर रखकर उनकी रक्षा करने को बेताब हो गयी थी परन्तु हमको और आपको अगर व्यापार में दस-बीस हजार या लाख का घाटा लगता है और हमारे समक्ष जीवन-मृत्यु का यक्ष-प्रश्न भी खड़ा हो जाता है तब भी सरकार नहीं आएगी बचाने हमें.वो हमें कर लेने देगी आत्महत्या,हमारे परिवार को हो जाने देगी अनाथ.तब बैंक हमें राहत देने पर विचार करने के लिए सामूहिक मीटिंग भी नहीं करते परन्तु जब अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के साथ ऐय्याशी करनेवाले और पाँच सितारा जीवन जीनेवाले माल्या की कोई छोटी-मोटी कंपनी घाटे में चली जाती है तब देश के प्रधानमंत्री खुद राहत हेतु पहल करने की बात करने लगते हैं.वो तो भला हो विपक्षी दलों,प्रबुद्ध समाज और राहुल बजाज का जिन्होंने सरकारी पहल का जोरदार शब्दों में विरोध करने कदम वापस खींच लेने पर मजबूर कर दिया.यही सही भी है.सिद्धांततः न तो बैंकों को और न ही सरकार को यह हक़ बनता है कि वो किसी धनकुबेर के डूबते व्यापार की रक्षा के लिए जनता के द्वारा महंगाई के युग में पेट काटकर जमा किए गए धन को लुटा दे.ज्ञातव्य है कि टाटा,बिरला और बजाज परिवार के अलावा ऐसा कोई व्यापारिक घराना नहीं है जिसने देशहित में कभी किसी तरह का व्यय किया हो.विजय माल्या ने देश और समाज को सिर्फ शराब पीना सिखाया है,युवा देश की युवा पीढ़ी को नशे का लती बनाया है और फिर उनकी विमानन कंपनी भले ही डूब रही हो उनका शराब का धंधा तो अभी भी पूरे शबाब पर है.इतना ही नहीं उनके पास आईपीएल की खरबों रूपये की टीम भी है और फ़ॉर्मूला वन में भी इनकी महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी है.इस तरह से श्रीमान जब किसी भी तरह से दिवालियेपन के कगार पर नहीं हैं फिर इन्हें जनता की गरीबी और पिछड़ेपन की कीमत पर क्यों सरकार की तरफ से सहायता की जाए?ये अगर सचमुच में कड़की के शिकार होते तो ऐसा सोंचा भी जा सकता था.
                        मित्रों,किसी भी व्यापार में लाभ या हानि के लिए व्यापारी खुद ही जिम्मेदार होता है.अगर माल्या को विमानन में लाभ होता और शराब के व्यवसाय में तो वे लाभ में हैं भी तो क्या वे लाभ की राशि को देश को भेंट कर देते या देंगे?अगर नहीं तो फिर यह कहाँ का न्याय है कि व्यापार में लाभ हो तो विशुद्ध रूप से मेरा और अगर हानि हुई तो देश का?ऐसे तो भारत में रोजाना करोड़ों छोटे-बड़े व्यापारियों को घाटा होता है तो क्या उन सबको जो हानि होती है उसकी भरपाई सरकार को जनता के खाते से करनी चाहिए?नहीं न?सरकार तो सिर्फ उन कंपनियों की हानि की भरपाई के लिए जिम्मेदार है जिनका मालिकाना उसके पास है.अर्थशास्त्र का सीधा सूत्र है जिसका लाभ उसी की हानि.
                        मित्रों,कुछ लोग इस मामले में पूंजीवाद के गौड फादर अमेरिका का उदहारण दे सकते हैं कि किस तरह वहाँ की सरकार ने डूब रही कंपनियों को कुएँ से निकालनेवाला पैकेज दिया.लेकिन ऐसा कहनेवाले को यह भी याद रखना चाहिए कि जहाँ अमेरिका घोषित रूप से एक पूंजीवादी देश है वहीं भारत संवैधानिक रूप से समाजवादी राष्ट्र है और समाजवाद धन के संकेन्द्रण को बढ़ावा नहीं देता बल्कि उसके न्यायोचित वितरण पर बल देता है चाहे इसके लिए डंडे का सहारा ही क्यों न लेना पड़े.आपलोग भी जानते हैं कि विजय माल्या की गिनती बीपीएल में नहीं होती बल्कि देश के शीर्षस्थ अमीरों में होती है.वे अपने रंगीनमिजाज बेटे के बालिग होने पर गिफ्ट में पूरी-की-पूरी एयरलाईन ही दे डालते हैं और घर भी बनाते हैं तो लाखों,करोड़ों का नहीं अरबों का.पैसा कमाना बुरा नहीं है बशर्ते कमाई का तरीका उचित हो और समाज के लिए लाभकारी भी हो.वे अरबों-खरबों के घर में रहें तो इससे हमें या देश को क्या लाभ?माल्या को शराब के अलावे किसी दूसरे उद्योग में पैसा लगाना चाहिए था क्योंकि उनका व्यापार जितना ही फलेगा-फूलेगा वे तो और भी धनवान होते जाएँगे लेकिन बदले में करोड़ों गरीबों का कुछ हजारों रूपये की कम कीमत वाला घर बर्बाद हो जाएगा.आप सभी जानते हैं कि कोई भी व्यापारी समाज के बीच ही व्यापार करता है और उसके लाभ में समाज का योगदान अहम होता है इसलिए उसको अपने लाभ में से वापस कुछ-न-कुछ समाज को लौटाना भी चाहिए न कि ऐय्याशी में पैसा उड़ा देना चाहिए.अगर कोई पूंजीपति ऐसा करता है तभी उसका हक़ बनता है डूबने के समय समाज की तरफ हाथ बढ़ाकर सहायता मांगने का और प्राप्त करने का.समझे श्रीमान विजय माल्या जी!समझाया तो कबीर ने भी था ५०० साल पहले ही लेकिन शायद आपने महात्मा कबीर को नहीं पढ़ा या पढ़ा भी तो पढ़कर अनसुना कर दिया-
जो जल बाढ़े नाव में,घर में बाढ़े दाम;
दोऊ हाथ उलीचिए,यही सयानो काम.                       

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

भंवरी का भंवर

मित्रों,कई साल पहले मेरा एक दूर का मित्र हुआ करता था,नाम मुझे याद है लेकिन अपना पत्रकारिता धर्म निभाते हुए मैं बताऊँगा नहीं.दूर का मित्र इसलिए क्योंकि वह मेरे अभिन्न मित्र प्रभात रंजन जो इस समय पटना,प्रभात खबर में संवाददाता हैं;का मित्र था.वह मेरा दूर का मित्र उन दिनों असम के एक सांसद का पी.ए. हुआ करता था.आदमी तेज-तर्रार था,ज़माने के बदलते मिजाज़ के अनुसार आसानी से खुद को ढाल लेनेवाला.वह बताता था कि दिल्ली में एक सेक्स रैकेट सांसदों के आस-पास खूब सक्रिय रहा करता है.सांसद महोदय जब दिल्ली के लिए रवाना होते हैं तभी गरम गोश्त के दलालों को खबर कर देते हैं.एक-एक रात के लिए पचास हजार से लेकर लाखों रूपये तक की फीस अदा की जाती है.ज्यादातर लड़कियां दिल्ली और आसपास के कॉलेजों में पढनेवाली हाई-फाई ग्रेड की होती हैं,जींस-पैंट वाली.उसका मानना था कि चूंकि साड़ी और सलवार-सूट वाली तो सांसदों को अपने गृह-प्रदेशों में भी मिल जाती हैं इसलिए वे अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अपनी रातों को अक्सर जींस-पैंट वालियों के साथ रंगीन किया करते हैं.बाद में कई सांसदों की सेक्स सी.डी. मीडिया में आई जिसमें हमारे बिहार के भी कई सांसदों का अहम् योगदान रहा.फिर भी मैं आज भी तब से लेकर अब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह जाने के बावजूद यह नहीं मानता हूँ कि नेताओं-अफसरों या न्यायाधीशों में से हर कोई शौक़ीन मिजाज़ का होता हैं.फिर भी इतना तो निश्चित है कि अगर पूरी-की-पूरी दाल काली नहीं है तो कम-से-कम दाल में कुछ-न-कुछ काला तो जरूर है.
                     मित्रों,हमारे नीति-नियंताओं पर मेरा यह आरोप या संदेह महज आरोप या संदेह भर नहीं है.प्रमाण के रूप में बीच-बीच में इस तरह के मामले समय-समय पर सामने आते रहे हैं.अब भंवरी हत्याकांड को ही लें जो इन दिनों हमारे समाचार माध्यमों पर छाया हुआ है.मुझे जहाँ तक लगता है कि भंवरी जो एक ७-८ हजार रूपये की मामूली वेतन पाने वाली नर्स थी,एक अतिमहत्वकांक्षी महिला थी.उसके सेक्सुअल सम्बन्ध राज्य के बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों से थे.उसे इससे कितना आर्थिक लाभ हुआ जाँच का विषय हो सकता है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि आधुनिक समाज में जब पैसा ही सबकुछ बनता जा रहा है तब कुछ महिलाएँ अपनी महत्वाकांक्षाओं को जल्दीबाजी में पूरा करने के लिए अपनी कमनीय नारी देह का सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करती हैं.मैं नहीं मानता कि उनका ऐसा करना किसी भी तरह से महिला-सशक्तिकरण को आगे बढ़ाता है.
                   मित्रों,मैंने कई बार कई चैनलों,अख़बारों और डॉट कॉमों में देखा है कि कुछ लड़कियां अपने सौंदर्य द्वारा बॉस को खुश करके लड़कों के मुकाबले ज्यादा प्रोन्नति प्राप्त कर लेती हैं.कई बार बॉस खुद भी अपनी मातहत नारी देह को भोगने का उतावलापन दिखता है.इस सम्बन्ध में मुझे बिहार के एक बहुत बड़े स्वतंत्र पत्रकार द्वारा सुनाया गया एक वाकया याद आ रहा हैं.एक समय हम प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अक्सर उनके साथ शाम की चाय पिया करते थे.उनका नाम था या है-चलिए उनके नाम को भी रहने देते हैं शायद उन्हें मेरा ऐसा करना पसंद न आए.तो जैसा कि उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी पहचान की एक लड़की को एक समाचार चैनल में रखवा दिया.नियोक्ता कभी उनका शिष्य हुआ करता था.कुछ दिन तक तो लड़की ठीक-ठाक तरीके से बिना किसी परेशानी के काम करती रही.फिर उसके नियोक्ता ने जो उसका बॉस भी था;शिमला-यात्रा की योजना बनाई और लाभुक लड़की को भी साथ चलने को कहा.उसे बताया गया कि इस दौरान उसे अपने बॉस के साथ अकेले रहना पड़ेगा और अकेले ही होटल में कमरा साझा भी करना पड़ेगा.कुल मिलाकर आप समझ गए होंगे कि उसका बॉस किए गए उपकार के बदले उससे उसका शरीर मांग रहा था.लड़की समय की मारी थी मगर खुद्दार थी इसलिए उसने वरिष्ठ पत्रकार जी को सारे घटनाक्रम से अवगत करवाया.तब उन्होंने अपने पूर्व शिष्य को पहले तो उसके टुच्चेपन के लिए जमकर फटकार लगी और फिर लड़की से नौकरी छोड़ देने को कहा.परन्तु कई बार कदाचित ऐसा भी होता है जब लड़कियां जल्दी में सफलता के शिखर पर पहुँचने के लिए खुद ही बॉस को ऑफर करने लगती हैं;शायद कुछ इस अंदाज में-सर आपका डेरा किधर है?आपने कभी अपना घर हमें नहीं दिखाया?कभी हमें भी ले चलिए न सर इत्यादि.
                मित्रों,गलत दोनों तरह के लोग हैं.यौन-शोषण के लिए लगातार प्रयास करनेवाले नेता-अफसर या बॉस भी और खुद को खुद ही ख़ुशी-ख़ुशी अल्कालिक या दीर्घकालिक लाभ के लिए नरपशुओं को सौंप देनेवाली लड़कियां भी क्योंकि ऐसा करने वाली लड़कियों का वही अंत होता है जो भंवरी का हुआ और नेताओं-अफसरों का अंत वैसा ही होता है जैसा महिपाल मदेरणा का हुआ.मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा है कि किसी का मन अपनी पत्नी या पति को छोड़कर दूसरों के साथ भरता भी कैसे है?छिः,मुझे तो सोंचकर ही घिन्न आती है.ऐसा करना अपने जीवन-साथी के साथ सरासर धोखा है.भगवान ने हमारे यौनांगों को इसलिए नहीं बनाया है कि हम जिस-तिस के साथ चंद पैसों के लिए या किसी भी अन्य कारण से सेक्स करते फिरें.ये अंग हमें आगे आनेवाली दुनिया के लिए नेक और शरीफ संतान प्रदान करने के लिए प्रदान किए गए हैं.इसलिए मेरी जवान होती,जवान हो चुकी और बुढ़ा रही पीढ़ियों से विनम्र अनुरोध है कि आप सभी अपने जीवन-साथी के प्रति यौन-संबंधों सहित सभी क्षेत्रों में पूरी तरह से वफादार बनिए.सफलता भी प्राप्त करिए लेकिन अपनी सुन्दर काया के बल पर नहीं बल्कि अपनी योग्यता के बल पर.फिर वह सफलता आपको स्थायी सुख तो देगी ही आपके लिए गर्व का विषय भी होगी.हो सकता है कि आपकी काली करतूतें घरवालों या ज़माने की नज़रों से बची रह जाएँ लेकिन यह मत भूलिए कि आपके बच्चों में उनके ४६ गुणसूत्रों में से २३ आपके हिस्से से जाएँगे और मैं समझता हूँ कि आप चाहे जैसे भी हों आप ऐसा कभी नहीं चाहेंगे कि आपमें से आपके ख़राब गुण आपके बच्चों में जाए और वो भी वही सब करें जो आप इन दिनों कर रहे हैं.वैसे पाप छिपता नहीं है कभी-न-कभी बेपर्दा हो ही जाता है.इस सम्बन्ध में रहीम कवि क्या खूब कह गए हैं-खैर खून खांसी ख़ुशी वैर प्रीति मद्यपान;रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान.

रविवार, 6 नवंबर 2011

मनमोहन तुम कब जाओगे?

मित्रों,अनिद्रा की बीमारी बहुत पुरानी है.कम-से-कम पाँच सौ साल पुरानी तो है ही.कबीर को भी थी;पूरी दुनिया की चिंता जो बेचारे सिर पे उठाए फिरते थे.कबीर रो रोकर कहते फिरते थे-सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै;दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै.रोते-रोते और जागते-जागते उनकी ज़िन्दगी में एक दिन ऐसा भी आया जब इसका बुरा असर उनकी सेहत पर भी दिखने लगा तब जाकर कबीर संभले और तब दुनिया को जैसे नया ज्ञान देते हुए समझाया कि चाहे कुछ भी बिना किए पड़े ही क्यों न रहो लेकिन चिंता बिलकुल भी नहीं करो क्योंकि चिंता से चतुराई घटे दुःख से घटे शरीर,पाप से धनलक्ष्मी घटे कह गए दास कबीर.
                     मित्रों,कुल मिलकर कहने का लब्बोलुआब यह है कि आदमी को ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए.नहीं तो ज़िन्दगी के जहन्नुम बनते देर नहीं लगती.मगर दीगर अहवाल यह भी है कि जब कन्धों और माथे पर जिम्मेदारी ज्यादा होती है तब चिंता भी अपने आप ज्यादा हो जाती है.कुछ चिंताएं तो अमिताभ बच्चन द्वारा संस्तुतित तेल लगा लेने भर से दूर हो जाती हैं कुछ फिर भी दूर नहीं होती.मुझे नहीं पता कि हमारे प्रधानमंत्री नवरत्न तेल का इस्तेमाल करते हैं या नहीं लेकिन अगर नहीं करते हैं तो अवश्य करके देखना चाहिए.अगर उनकी चिंताएँ सच्ची हैं तो क्या पता ऐसा करने से दूर हो ही जाए और सवा अरब भारतीयों में से कम-से-कम एक चिंतामुक्त हो ही जाए और अगर उनकी चिंताएं सिर्फ दिखावा हैं तब भी ऐसा करके वे एक बार और चिंतित होने का दिखावा तो कर ही सकते हैं.
                   मित्रों,मनमोहन जी के गंजे माथे पर (हालाँकि मैंने अब तक उन्हें बिना पगड़ी के देखा नहीं है लेकिन मेरा अनुमान है कि चूंकि वे देश की जनता के लिए या फिर अपनी मैडम के लिए इतना अधिक चिंतित रहा करते हैं इसलिए पूरी तरह से नहीं तो अंशतः तो गंजे जरूर हो चुके होंगे) कितना अधिक बोझ है आप बिना प्रधानमंत्री बने इसका अनुमान तक नहीं लगा सकते.मसलन,मनमोहन सिंह पर देश और जनता की सुरक्षा और वित्तीय स्थिति को सुधारने तथा नक्सलियों और भ्रष्टाचार से निबटने की महती जिम्मेदारी है.वृद्धावस्था,अंगों-प्रत्यंगों में मशीन फिट और इतनी ज्यादा जिम्मेदारी;ऐसे में कोई भी अच्छा या बुरा आदमी फेल हो सकता है;मनमोहन जी भी हुए.कदाचित मुसोलिनी के देश की कन्या को खुश करने के चक्कर में बेचारे इतनी दूर निकल गए कि जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को ही भूल गए.इसके पीछे उनकी चाहे कोई भी मजबूरी हो या नहीं हो लेकिन जब भी उन पर असफल और कमजोर होने का आरोप लगता है तो वे पहले तो एक-एक कर अपनी कई मजबूरियां गिना जाते हैं और बाद में अपनी ही कही हुई बात से मुकरते हुए खुद को भारत के सबसे मजबूर प्रधानमंत्री के बजाए सबसे मजबूत प्रधानमंत्री बताने लगते हैं.समझ में नहीं आता कि वे किस आधार पर अपने को मजबूत प्रधानमंत्री बताते हैं?क्या इसलिए नहीं कि उनके लिए सोनिया गाँधी ही इण्डिया है और भारत भी है.शायद वे अपने को इसलिए मजबूत बताते हैं क्योंकि अदालत से लेकर जनता के बीच वे इतनी फजीहत झेलने के बाद भी सोनिया जी की नजर में मजबूत बने हुए हैं?
             मित्रों,इसमें कोई संदेह नहीं कि महंगाई और आतंरिक सुरक्षा सहित तमाम मोर्चों पर मनमोहन विषयवार फेल हो चुके हैं.ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें पास मार्क्स लायक सफलता भी हाथ लगी हो.जनता महंगाई डायन से लगातार बेहाल है.कांग्रेस शासन द्वारा पोषित यह डायन उसे मत देकर जितानेवाली आम जनता के निबाले में से दाल और दूध तो पहले ही चट कर चुकी है अब उसकी बुरी नजर रोटी-सब्जी पर भी टिक गयी हैं.यह काहिलीपन की हद नहीं तो और क्या है कि वे और उनकी सरकार के मंत्री जनता के जान के पीछे नहा-धोकर पड़ी महंगाई को नियंत्रित करने की दिशा में अगरचे तो कोई कदम उठाते नहीं हैं और बार-बार जनता को गुमराह करने के ख्याल से किसी मंजे हुए भविष्यवक्ता की तरह महंगाई के कम होने की तारीख-पे-तारीख देते रहते हैं.यह तो अर्थशास्त्र का कोई भोंदू विद्यार्थी भी जानता है कि उस स्थिति में जब पूर्ति मांग के अनुपात में लगातार कम होती जा रही हो तब केवल ब्याज-दर बढाकर महंगाई को बढ़ने से नहीं रोका जा सकता.यह तो मुठ्ठी भर बालू डालकर उफनाई हुई नदी के प्रवाह को रोकने जैसी बात हुई.
                       मित्रों,हो सकता है कि भविष्य में हमें सशक्त लोकपाल मिल भी जाए लेकिन उसे भलीभांति लागू करवाने के लिए जो ईच्छाशक्ति एक शासक में होनी चाहिए वो तो मनमोहन में है ही नहीं या है भी तो ऋणात्मक है.ऐसे में जब तक यह अकर्मण्य,कर्महीन किन्तु महाविद्वान प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पड़ा हुआ है हमें यह उम्मीद हरगिज नहीं रखनी चाहिए कि देश की स्थितियों में;किसी भी क्षेत्र में कोई बदलाव आने जा रहा है.इसलिए अगर हमारे मन के किसी भी अनजान कोने में देश के प्रति थोड़ा-सा भी प्यार बचा हुआ है तो हमारा अगला कदम इसे कुर्सी पर से हटाने का प्रयास होना चाहिए.जोर लगा के हईसा-शायद फेवीकोल का जोर है इसलिए बिना पूरी ताकत लगाए कुर्सी छूटेगी नहीं.मैं मानता हूँ कि सिर्फ आदमी को बदलने से व्यवस्था नहीं बदलेगी लेकिन इस आदमी को नहीं हटाने से भी व्यवस्था नहीं बदलनेवाली है,यकीन मानिए.
                   मित्रों,वर्तमान भारत की स्थिति काफी हद तक वैसी ही है जैसी महान मोहम्मद बिन तुगलक के समय थी.तुगलक भी मनमोहन की तरह महाविद्वान था,कर्मण्य भी था परन्तु विवेकशील नहीं था.मनमोहन तो उससे भी गया-गुजरा है.यह अकर्मण्य तो है ही विवेकशील तो बिलकुल भी नहीं है.जब तुगलक मरा तब एक इतिहासकार ने लिखा कि उसकी मृत्यु पर राजा और प्रजा दोनों ने चैन की साँस ली.इस तरह एक साथ राजा को प्रजा से और प्रजा को राजा से छुटकारा मिल गया.वर्तमान भारत की जनता और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों की पारस्परिक स्थिति भी अभी वैसी ही है.हमारे माननीय और मानवीय प्रधानमंत्री देश की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं और रोज-रोज कभी बढती महंगाई तो कभी भ्रष्टाचार को लेकिन अपनी चिंता जनता के समक्ष प्रकट करते रहते हैं और इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि वे सिवाय चिंता प्रकट करने के क्यों और कुछ नहीं कर पा रहे हैं?ईधर जनता भी यह सोंचकर परेशान है कि उन्हें उनकी ही गलती से यह कैसा अजीबोगरीब शासक मिल गया है जो सिर्फ मुफ्त की चिंता ही करता रहता है;समस्या के समाधान के लिए कुछ करता ही नहीं.अभी लोकसभा चुनाव में पूरे तीन साल की देरी है लेकिन जनता उनके दो सालों के कुशासन से ही आजिज़ हो चुकी है.साथ ही बाँकी वो बचे तीन सालों के उनके संभावित शासन को लेकर सशंकित और भयभीत भी है.एक मसखरे के मतानुसार एक समय जिस तरह राबड़ी देवी केवल दो महीने में जापान को बिहार बना देने का माद्दा रखती थीं उसी तरह यह आदमी भी अगले तीन सालों में पूरे भारत को राबड़ीकालीन बिहार बना देने का पूरा माद्दा रखता है.पहले के दो सालों में इसके शासन ने हमारी जो हालत बना दी है हम इस स्थिति में बिलकुल भी नहीं हैं कि इसके बाँकी बचे हुए तीन सालों के शासन को जीवित रहते हुए झेल सकें.इससे पहले के लेख में मैं राईट टू रिकॉल को पूरी तरह से अव्यावहारिक ठहरा चुका हूँ लेकिन आज मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि बिना इस अधिकार के जनता इस कर्महीन और अकर्मण्य शासक को पाँच साल पूरा होने से पहले हटाए भी तो कैसे हटाए?मनमोहन और उनकी लाचार मगर नाराज जनता दोनों के लिए यह ज्यादा अच्छा होता अगर वे तत्काल प्रभाव से खुद ही इस्तीफा दे देते और जनता को घर में जबरन डेरा जमाए अतिथि की तरह उनसे यह प्रश्न पूछना नहीं पड़ता कि मनमोहन तुम कब जाओगे?दुनिया से नहीं रे बाबा प्रधानमंत्री के गरिमामय पद से.जीओ न तुम दो सौ साल या इससे भी कई गुना ज्यादा जीओ लेकिन हमें भी तो जीने दो.