सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

कहाँ तुम चले गए

मित्रों,न जाने क्यों आज मन काफी व्यथित है और क्रोधित भी.मन क्रोधित व व्यथित है दुनिया को चलानेवाले उस बेदिमागी खुदा पर.वह हमेशा अपनी मनमानी करते हुए अच्छे लोगों को जल्दी वापस बुला लेता है.क्या रहस्य है उसकी इस जल्दीबाजी का;यह खुद उस खुदा के अलावे और कोई जान भी तो नहीं सकता!
        मित्रों,अभी तो उसने ज़िन्दगी की साज़ पर गजल छेड़ी ही थी.अभी तो महफिले गजल अपने पूरे शबाब पर पहुची भी नहीं थी कि बंद हो गयी उसकी ऑंखें और अचानक रिक्त हो गया सांसों का कोष.वह गला जिससे नटराज श्रीकृष्ण की बांसुरी सरीखी मीठी और अच्छे-बुरे सबको मंत्रमुग्ध कर देने वाली आवाज निकलती थी अब कभी नहीं गाएगा.काश!मेरे पास टेलीविजन,इंटरनेट और अख़बार का साधन नहीं होता और मेरे कानों को कभी यह समाचार नहीं सुनना पड़ता कि रूहानी आवाज का जादूगर इस दुनिया से चुपचाप हम लोगों के लिए बिना कोई चिठ्ठी या सन्देश या अपना नया अता-पता छोड़े रुखसत हो चुका है;नहीं पढ़नी पड़ती मेरी आँखों को यह खबर कि अब हम उसे अपनी नंगी आँखों से जमीं पर अपने साथ-साथ,आस-पास,इर्द-गिर्द चहलकदमी करते हुए कभी नहीं देख पाएंगे.
           मित्रों,अपने होठों से छुए हुए गीतों की तरह ही जगजीत भी अमर हैं इसमें कोई संदेह नहीं.सदियों तक,युगों तक उनकी अमर आवाज हमें,हमारी आनेवाली पीढ़ियों को सुनने को मिलती रहेगी.जगजीत अपनी आवाज में दर्द के लिए जाने जाते हैं.उनकी आवाज में यह दर्द कोई खुदा की नियामत नहीं थी और न ही उन्हें किसी तरह की विरासत में ही मिली थी.बल्कि इसे उन्होंने दिलो-दिमाग पर कभी न भर सकनेवाले जख्म खाने के बाद प्राप्त किया था.जगजीत को आज गजलों और संगीत की दुनिया में जो बेताज बादशाह का असंदिग्ध दर्जा मिला हुआ है वह उन्होंने कठोर अभ्यास और संघर्ष के द्वारा पाया था.लगभग १५ सालों तक उन्हें अपने वजूद की कड़ी लडाई लड़नी पड़ी थी.
                     मित्रों,अपनी २१ साला इकलौती संतान की १९९० में अकाल मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए जग को संगीत के माध्यम से जीत लेने वाले जगजीत ने चुप्पी भी साध ली थी.तब हमें लगा कि शायद ही अब फिर से हमें इन्हें सुनने का अवसर मिले.परन्तु इस महायोद्धा ने हर बार की तरह एक बार फिर क्रूर काल को ठेंगा दिखाते हुए पूरी शिद्दत से गाना शुरू कर दिया.इस बार एक नई कसक थी,एक अव्याख्येय दर्द था उसकी आवाज में.उसने गम को भुलाने के लिए अपनी इस पारी में जो दुर्भाग्यवश काफी छोटी रही और उनकी अंतिम पारी भी बन गयी है भजन भी जमकर गाए.जब दुनिया में जीने का कोई सहारा,कोई वजह शेष न रहे तो खुदा की कायनात का छोटा-सा हिस्सा कोई इन्सान अलावे इसके और कर भी क्या सकता है सिवाय उस सर्वशक्तिमान की शरण में जाने के?भगवान को भी शरण में आए इस सच्चे और बेहद ईमानदार बन्दे का साथ इतना भाया कि उन्होंने उसे हमेशा के लिए अपने पास रख लिया.अब जगजीत की सिर्फ यादें ही शेष हैं और शेष हैं उनके गाए हजारों लाजवाब गीतों और दिलकश गजलों का अमूल्य खजाना जो हर युग में उदास और घायल मानवता के जख्मों पर मरहम लगाता रहेगा और भावपूर्ण-निश्छल मुस्कान के साथ पूछता रहेगा कि इतना जो तुम मुस्कुरा रहे हो,क्या गम है जिसको छुपा रहे हो?

1 टिप्पणी:

पीयूष त्रिवेदी ने कहा…

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