शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

बूड़ा वंश राजीव का

मित्रों,बहुत दिन नहीं हुए जब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव अपनी चुनावी सभाओं में गरज-गरज कर घोषणाएं करते फिरते थे कि "अब राजा रानी के पेट से पैदा नहीं होता है बल्कि आज का राजा पैदा होता है मतदान-पेटी से".कितनी बड़ी बिडम्बना है कि वही लालू आज सचमुच की रानी के पेट से जन्म लेनेवाले कांग्रेसी युवराज राहुल गाँधी के दिवाने हुए जा रहे हैं.
               मित्रों, यहाँ इस लेख में हमारा उद्देश्य लालू का चरित्र-चित्रण करना कतई नहीं है लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा था बिलकुल ठीक कहा था.लोकतंत्र का मतलब ही यही होता है कि राजा का जन्म रानी के पेट से नहीं बल्कि मतपेटी (आजकल ई.वी.एम.) से होना चाहिए.रानी के पेट से तो राजा मध्यकाल में अर्थात कथित सामंतवादी युग में जन्म लेता था.परन्तु हमारे आज के भारत में भी जो प्रवृत्तियां उभर रही हैं या जिनका विकास हो भी चुका है उनको हम किसी भी तरह स्वस्थ लोकतान्त्रिक प्रवृत्ति या फिर सामंतवाद से अलग नहीं कह सकते.हमारे अधिकतर नेता आज २१वीं सदी में भी अपने पूर्वजों की राजनैतिक विरासत को संभाल रहे हैं.यह तो विशुद्ध लोकतंत्र नहीं हुआ.आज भारत में लोकतंत्र के होने पर ही प्रश्न-चिन्ह लग रहा है.प्रश्न यह उठ रहा है कि भारत में लोकतंत्र है या सामंतवाद या फिर लोकतंत्र और सामंतवाद का अशुद्ध मिश्रण??
                मित्रों,हमारे नेता बहुत चतुर है.जब वे देखते है कि जनता उनके भ्रष्टाचार और कुशासन से उब चुकी है तो वे चुपके से अपने उत्तराधिकारी को आगे कर देते हैं और जनता भी उनसे यह झूठी उम्मीद पाल लेती है कि चलो बाप बुरा था तो क्या हुआ बेटा कदाचित अच्छा होगा.उसे लगता है कि जब puranon में हिरण्यकश्यप के घर में प्रह्लाद पैदा हो सकता है अथवा फिल्मों में खलनायकों के बेटे-बेटियां भलेमानुष हो सकते है तो बुरे नेताओं के घर में अच्छे संस्कारों वाले नेता क्यों नहीं पैदा हो सकते?vah यह नहीं समझ नहीं पा रही है कि बबूल के पेड़ में आम कहाँ से फलेगा?और इस तरह वे ठगी का शिकार हुई जा रही है बार-बार,बार-बार.
                   मित्रों, कुछ समय पहले तक न जाने क्यों भारतीय जनता के एक हिस्से को राहुल गाँधी में भारत का भविष्य नजर आ रहा था.निहायत स्वप्नदर्शी लेकिन राजनैतिक व्यावहारिकता से पूर्णतया शून्य पिता की मतिमंद संतान होते हुए भी लोग न जाने क्यों और कैसे उन्हें अतिप्रतिभावान समझ बैठे थे.शुरू में जब उन्होंने देश का नेतृत्व नहीं संभाला तो लोगों ने समझा कि पूरी तरह से जवान हो चुके बबुआ जी शायद देश और देश की राजनीति को समझने का प्रयास कर रहे हैं.लम्बे समय से विदेश में जो रह रहे थे.देखते-देखते अब एक दशक बीत चुके हैं और बबुआजी अधेड़ावस्था में भी पहुँच गए हैं लेकिन उनकी राजनैतिक समझ है कि अब भी बालपन में अंटकी हुई है.अब वे चंद्रकांता के क्रूर सिंह तो हैं नहीं कि थोड़ी-सी मेहनत करके जब चाहे बचपन में पहुंचा दो और जब चाहे वापस वर्तमान में ले आओ इसलिए हम देशवासियों के पास सिवाय अंतहीन इन्तजार करने के और कोई उपाय नहीं है.इन्हीं महाशय ने जब पहली बार राजनीति की राहों में अपने सुन्दर पैर उतारे थे तो यह कहते नहीं थकते थे कि अगर किसी नेतापुत्र में नेतृत्व करने की योग्यता है तो उसे राजनीति में क्यों नहीं आना चाहिए?लेकिन हमारी मोटी बुद्धि में आज यह बात नहीं समा पा रही है कि अगर युवराज में सचमुच में शासन की योग्यता और नेतृत्व की क्षमता है तो क्यों नहीं आगे बढ़कर देश की बागडोर को इस मुश्किल घड़ी में संभाल लेते है?कम-से-कम चुके हुए और बेकार सिद्ध हो चुके वयोवृद्ध प्रधानमंत्री का मार्गदर्शन करने की जहमत ही क्यों नहीं उठाते हैं जिससे देश की नैया लगातार गहराते जा रहे भंवर से बाहर निकल सकती?
                   मित्रों,कभी फ़्रांस के एक साधारण परिवार में जन्मे नेपोलियन से उसके कुलीन सहपाठियों ने अकड़ कर पूछा था कि बता तेरा खानदान किससे शुरू होता है तो उसने भी अपने अतिआत्मविश्वास भरे शब्दों में कहा था कि मेरा खानदान मुझसे शुरू होता है.मेरे कहने का तात्पर्य है यह है कि योग्यता खानदान की मोहताज नहीं होती और मात्र अच्छे खानदान का हो जाने मात्र से ही योग्यता नहीं आ जाती.अब नेहरु खानदान को ही लें.जो बात,ईमानदारी और योग्यता नेहरु में थी क्या वो इंदिरा में थी और फिर इन्दिरावाली योग्यता राजीव में थी क्या या फिर राजीव वाली योग्यता राहुल में है क्या?नहीं न??तो फिर खानदानी उत्तराधिकार के प्रति मोह क्यों?दूसरी ओर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश से मूल्यों और विचारधाराओं वाली राजनीति नदीतमा सरस्वती की तरह विलुप्त हो गयी है और सिर्फ एक ही विचारधारा शेष बची है सत्तावाद.न तो समाजवाद और न ही हिन्दुवाद और न ही राष्ट्रवाद.ऐसे में जबकि उत्तराधिकारियों की न तो कोई निश्चित नीति ही होती है और न तो कोई विचारधारा ही तो फिर कैसे उनसे देश और प्रदेश के हालात में किसी तरह के बदलाव लाने की उम्मीद रख सकते हैं?क्या ऐसी कोई उम्मीद मन में पालना बेमानी और बेईमानी नहीं है?
              मित्रों,अभी-अभी उत्तर प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित और कथित रूप से सामंतवाद विरोधी राजनैतिक परिवार मुलायम सिंह यादव परिवार के युवराज अखिलेश सिंह यादव ने शासन के १०० दिन पूरे किए हैं.जब वे सत्ता में आए थे तो बड़े जोर-शोर से यह दावा किया जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में बदलाव अगले १०० दिनों में दिखाई देने लगेगा.१०० दिन तो बीत गए कहाँ है बदलाव?कहाँ है परिवर्तन?जैसा कुशासन मुलायम का था वैसा ही मायावती का और फिर वैसे ही निरंकुश और भ्रष्ट शासन का नेतृत्व कर रहे हैं इन दिनों अखिलेश सिंह यादव.जब उनकी कोई विचारधारा नहीं है और उनके पास कोई योग्यता है ही नहीं तो परिवर्तन क्या सिर्फ गाल बजाने से आ जाएगा?
       मित्रों,राजनैतिक उत्तराधिकार से सम्बंधित एक अलग तरह की और दुखद घटना का भुक्तभोगी मैं खुद भी हूँ.बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में वैशाली जिले के राजापाकर विधानसभा क्षेत्र से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और अपनी ईमानदारी के लिए जाने जानेवाले रामसुंदर दास के पुत्र संजय दास जदयू से खड़े हुए.लोगों ने सोंचा कि शायद यह भी अपने पिता की तरह कर्मठ और ईमानदार होगा.परन्तु आज चुनाव को संपन्न हुए दो साल बीत चुके हैं विधायक जी ने जनता को एक बार भी दर्शन तक नहीं दिया है.अब सुनने में यह भी आ रहा है कि वे उच्च स्तर के मधुप्रेमी हैं और दिन-रात उसी के प्रेम में डूबे रहते हैं सो जनता के बीच जाने का समय ही नहीं निकाल पा रहे हैं.और तो और खुद मेरे ससुराल कुबतपुर में जो उनके ही निर्वाचन क्षेत्र में आता है बिजली नहीं है और वहां के लोग किरासन का दिया जलाकर आदरणीय विधायक जी को ढूंढते फिर रहे हैं.
                  मित्रों,जनता के राजनैतिक उत्तराधिकारियों के प्रति अन्धमोह का ही यह प्रतिफल है कि देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस ने हाल ही में कथित रूप से कर्नाटक राज्य में राज्य के दिवंगत दिग्गज कांग्रेसियों के पुत्रों की बैठक बुलाई और उनसे पार्टी हित में अपना-अपना वर्तमान व्यवसाय छोड़कर राजनीति में आने का अनुरोध किया.जबकि देश में पहले से ही ऐसे राजनैतिक उत्तराधिकारियों की लम्बी सूची मौजूद है जिन्होंने राजनीति में मुँह की खाई है.उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह,हरियाणा में तीनों लालों के बेटे,कर्नाटक में देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी,बिहार में अनुग्रह बाबू के बेटे सत्यंद्र बाबू और फिर उनके बेटे और नागालैंड के वर्तमान राज्यपाल निखिल कुमार सिंह,रामानंद तिवारी के बडबोले बेटे शिवानन्द तिवारी वगैरह-वगैरह.
          मित्रों,इस पूरे आलेख में हमने विश्लेषनोपरांत पाया कि लोकतंत्र में सिर्फ योग्यता को ध्यान में रखकर ही वोट डालना बेहतर रहता है न कि उम्मीदवार का खून-खानदान देखकर.लोकतंत्र में राजनैतिक उत्तराधिकार एक मिथक है और इसे यथार्थ समझनेवाले मतदाता ठगे जाते रहे हैं और ठगे जाते रहेंगे.लोकतंत्र का मतलब और उद्देश्य दोनों सबको प्रतिनिधित्व और सबको लाभ पहुँचाना होता है न कि चंद परिवारों को प्रतिनिधित्व और चंद परिवारों को लाभ पहुँचाना.अगर ऐसा होता है तो फिर लोकतंत्र और सामंतवाद में कोई तात्विक अंतर रह ही नहीं जाएगा और ऐसी अवस्था में लोकतंत्र लोकतंत्र नहीं सामंतवाद बनकर रह जाएगा.आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि हमारी सवा अरब आबादी वाले देश को सिर्फ 30000 राजनैतिक घराने चला रहे हैं.क्यों?क्योंकि हम राजनैतिक उत्तराधिकार के मोह में पड़े हुए हैं.इसका यह मतलब बिलकुल भी नहीं है कि राजनीतिज्ञों के बेटो-पोतों को राजनीति में आना ही नहीं चाहिए.जरूर आना चाहिए लेकिन सिर्फ अपनी योग्यता और कामकाज के आधार पर.एक बार में अगर वे असफल सिद्ध होते हैं तो जनता को उनको सीधे बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए.अन्यथा वे बार-बार जनता की अवहेलना करते रहेंगे और फिर चुनाव के समय क्षमा याचना कर लेंगे और इस प्रकार यह सिलसिला बन जाएगा.वे चुनाव जीतते रहेंगे और जनता हारती रहेगी और कबीर की तरह गाती रहेगी-बूड़ा बंस कबीर का उपजे पूत कमाल.                        

कोई टिप्पणी नहीं: