भक्तराज रामकृष्ण परमहंस वचनामृत में एक कथा आती है जो कुछ इस प्रकार है.एक बार किसी साधु का शिष्य तीर्थयात्रा पर निकल रहा था.उसने जब अपने गुरु से इसके लिए आज्ञा मांगी तो उन्होंने चलते समय उसे एक नीम की लकड़ी से बनी तुम्बी थमा दी और कहा कि जहाँ-जहाँ तुम स्नान करना इसे भी स्नान करवाते जाना.जब शिष्य तीर्थयात्रा से वापस आया तो गुरु ने उससे पूछा कि उसे तीर्थ-भ्रमण से क्या प्राप्त हुआ?शिष्य चुप्प,क्या जवाब दे?तब गुरु ने शिष्य से वह तुम्बी मांगी और उसे तोड़ दिया और उसमें से थोड़ी लकड़ी निकालकर शिष्य को चखने के लिए दिया.शिष्य ने ओए-ओए करके उसे थूक दिया.तब गुरु ने उसे समझाया कि जब इस निर्जीव व निर्दोष पदार्थ में तीर्थ करने से कोई अंतर नहीं आया तो तुम्हारे जैसे सजीव और सदोष मनुष्य में कैसे आ सकता है?
मित्रों,शायद आपको भी मेरी तरह किसी अपराधी के लिए इस उम्मीद में मतदान करने का सुअवसर मिला हो कि जीतने के बाद अर्थात विधायक या सांसद बनने के पश्चात् वह सुधर जाएगा.मैंने महनार विधानसभा क्षेत्र में वर्ष २००० में एक अपराधी उम्मीदवार रामकिशोर सिंह उर्फ़ रामा सिंह को वोट और समर्थन दिया था और जिताया था.परन्तु बाद में मुझे घोर निराशा हुई जब मैंने पाया कि उस व्यक्ति का जीतने के बाद कुछ भी व्यकित्वांतर नहीं हुआ;वह जनप्रतिनिधि बनने के पहले भी अपराधी था और बाद में भी मूल रूप से अपराधी ही बना रहा;कभी सच्चे मायनों में जनप्रतिनिधि नहीं बनने पाया.
मित्रों,इन कटु सच्चाइयों की मौजूदगी के बाबजूद भारतीय संविधान और कई भारतीय हमसे यह आशा कर रहे हैं कि हम किसी व्यक्ति का सिर्फ इसलिए सम्मान करें क्योंकि वह अब भारत का राष्ट्रपति बन गया है.कल कोई खूनी-हत्यारा राष्ट्रपति बन जाएगा तो क्या वह केवल राष्ट्रपति बन जाने से ही अकस्मात् सम्मान का पात्र हो जाएगा?जब पूरे भारत की तीर्थयात्रा करके भी नीम की तुम्बी कसैली बनी रही,अपराधी विधायक बन जाने के बाद भी अपराधी ही बना रहा और उसके आचरण में कोई क्रांतिकारी बदलाव परिलक्षित नहीं हुआ तो फिर राष्ट्रपति बन जाने मात्र से ही कोई कैसे महान,श्रद्धेय,पूज्य और सम्मानित हो जाएगा?याद रखिए कि सम्मान जबरन करवाया नहीं जा सकता बल्कि अपने कृत्यों द्वारा क्रमशः अर्जित किया जाता है.जबरदस्ती की श्रद्धा तानाशाह करवाया करते हैं परन्तु क्या उसे सचमुच की श्रद्धा की श्रेणी में रखा जा सा सकता है?कहा जाता है कि उत्तर कोरिया के तानाशाह राष्ट्रपति किम जोंग ईल की जब १९ दिसंबर २०११ को मृत्यु हुई तो वहां की साम्यवादी तानाशाही सरकार की ओर से आदेश जारी किया गया कि देश की प्रत्येक जनता इस अवसर पर दिवंगत शासक के सम्मान में अश्रुपूर्ण विलाप करेगी और ऐसा नहीं करने वालों को शासन की ओर से दण्डित किया जाएगा.क्या इस प्रकार डंडे और बंदूकों के बल पर जनता के मन में सचमुच का आदर पैदा किया जा सकता है?नहीं न?
मित्रों,तब फिर क्यों हम भारतीय जनता से यह झूठी उम्मीद की जा रही है कि हम राष्ट्रपति के पद को स्वाभाविक रूप से आदरणीय मानते हुए उनका सम्मान करें और उनकी आलोचना नहीं करें?अगर हम ऐसा करें भी तो क्या वह कोरा दिखावा नहीं होगा?क्या कोई आदमी राष्ट्रपति बनने के बाद आदमी नहीं रह जाता?क्या वह देवता बन जाता है?क्या वह भोजन नहीं करता,साँस नहीं लेता,मल-मूत्र त्याग नहीं करता,सोंचना और बोलना बंद कर देता है?अगर वह फिर भी ऐसा करता है तो फिर वह एक इन्सान के रूप में गलतियाँ भी जरूर करेगा और इसके लिए उसकी आलोचना होना भी उतना ही स्वाभाविक होगा.
मित्रों,क्या आप बता सकते हैं कि आज ही राष्ट्रपति के पद से पदमुक्त हुई श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने राष्ट्रपति के रूप में ऐसा कौन-सा महान कार्य किया है जिसके लिए हमें उनका सम्मान करना ही चाहिए?शायद आप भी नहीं बता सकते.हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्माननीय या असम्माननीय व्यक्ति हुआ करता है उसका पद नहीं.आप एक राजा के रूप में राम और रावण को बराबर का सम्मान सिर्फ इस एक कारण से नहीं दे सकते क्योंकि दोनों ही राजा थे.इसलिए भविष्य में प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति के रूप में सम्मान इस बात पर निर्भर करेगा कि वे इस रूप में कैसा और कितनी ईमानदारी और निष्पक्षता से कार्य करते हैं न कि इस बात पर कि अब वे भारतीय गणराज्य के १३वें राष्ट्रपति हैं.यहाँ मैं फिर से भक्त प्रवर रामकृष्ण परमहंस की वक्तृता का सहारा लेना चाहूँगा.उन्होंने कहा है कि कोई भी तीर्थ सिर्फ स्थान-विशेष पर स्थित होने से ही तीर्थ नहीं हो जाता बल्कि जहाँ महान लोग निवास करते हैं वहीं तीर्थ है और तीर्थ बन जाता है.तदनुसार कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए आलोचना से परे नहीं सकता क्योंकि वह ३४० कमरों वाले भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े कथित तीर्थस्थल राष्ट्रपति भवन में निवास करता है बल्कि उसे तदनुसार महान कर्म भी करने होंगे या करने चाहिए.किसी पद की गरिमा का बढ़ना या घटना पदधारक पर और सिर्फ उसी पर निर्भर करता है न कि जनता पर.वर्ना अगर भारत को भी उत्तर कोरिया बनाना है तो कोई बात नहीं.फिर करवाईए जबरदस्ती जनता से आदर;बलबन की तरह अनिवार्य कर दीजिए सिजदा और पाबोस को.
मित्रों,शायद आपको भी मेरी तरह किसी अपराधी के लिए इस उम्मीद में मतदान करने का सुअवसर मिला हो कि जीतने के बाद अर्थात विधायक या सांसद बनने के पश्चात् वह सुधर जाएगा.मैंने महनार विधानसभा क्षेत्र में वर्ष २००० में एक अपराधी उम्मीदवार रामकिशोर सिंह उर्फ़ रामा सिंह को वोट और समर्थन दिया था और जिताया था.परन्तु बाद में मुझे घोर निराशा हुई जब मैंने पाया कि उस व्यक्ति का जीतने के बाद कुछ भी व्यकित्वांतर नहीं हुआ;वह जनप्रतिनिधि बनने के पहले भी अपराधी था और बाद में भी मूल रूप से अपराधी ही बना रहा;कभी सच्चे मायनों में जनप्रतिनिधि नहीं बनने पाया.
मित्रों,इन कटु सच्चाइयों की मौजूदगी के बाबजूद भारतीय संविधान और कई भारतीय हमसे यह आशा कर रहे हैं कि हम किसी व्यक्ति का सिर्फ इसलिए सम्मान करें क्योंकि वह अब भारत का राष्ट्रपति बन गया है.कल कोई खूनी-हत्यारा राष्ट्रपति बन जाएगा तो क्या वह केवल राष्ट्रपति बन जाने से ही अकस्मात् सम्मान का पात्र हो जाएगा?जब पूरे भारत की तीर्थयात्रा करके भी नीम की तुम्बी कसैली बनी रही,अपराधी विधायक बन जाने के बाद भी अपराधी ही बना रहा और उसके आचरण में कोई क्रांतिकारी बदलाव परिलक्षित नहीं हुआ तो फिर राष्ट्रपति बन जाने मात्र से ही कोई कैसे महान,श्रद्धेय,पूज्य और सम्मानित हो जाएगा?याद रखिए कि सम्मान जबरन करवाया नहीं जा सकता बल्कि अपने कृत्यों द्वारा क्रमशः अर्जित किया जाता है.जबरदस्ती की श्रद्धा तानाशाह करवाया करते हैं परन्तु क्या उसे सचमुच की श्रद्धा की श्रेणी में रखा जा सा सकता है?कहा जाता है कि उत्तर कोरिया के तानाशाह राष्ट्रपति किम जोंग ईल की जब १९ दिसंबर २०११ को मृत्यु हुई तो वहां की साम्यवादी तानाशाही सरकार की ओर से आदेश जारी किया गया कि देश की प्रत्येक जनता इस अवसर पर दिवंगत शासक के सम्मान में अश्रुपूर्ण विलाप करेगी और ऐसा नहीं करने वालों को शासन की ओर से दण्डित किया जाएगा.क्या इस प्रकार डंडे और बंदूकों के बल पर जनता के मन में सचमुच का आदर पैदा किया जा सकता है?नहीं न?
मित्रों,तब फिर क्यों हम भारतीय जनता से यह झूठी उम्मीद की जा रही है कि हम राष्ट्रपति के पद को स्वाभाविक रूप से आदरणीय मानते हुए उनका सम्मान करें और उनकी आलोचना नहीं करें?अगर हम ऐसा करें भी तो क्या वह कोरा दिखावा नहीं होगा?क्या कोई आदमी राष्ट्रपति बनने के बाद आदमी नहीं रह जाता?क्या वह देवता बन जाता है?क्या वह भोजन नहीं करता,साँस नहीं लेता,मल-मूत्र त्याग नहीं करता,सोंचना और बोलना बंद कर देता है?अगर वह फिर भी ऐसा करता है तो फिर वह एक इन्सान के रूप में गलतियाँ भी जरूर करेगा और इसके लिए उसकी आलोचना होना भी उतना ही स्वाभाविक होगा.
मित्रों,क्या आप बता सकते हैं कि आज ही राष्ट्रपति के पद से पदमुक्त हुई श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने राष्ट्रपति के रूप में ऐसा कौन-सा महान कार्य किया है जिसके लिए हमें उनका सम्मान करना ही चाहिए?शायद आप भी नहीं बता सकते.हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्माननीय या असम्माननीय व्यक्ति हुआ करता है उसका पद नहीं.आप एक राजा के रूप में राम और रावण को बराबर का सम्मान सिर्फ इस एक कारण से नहीं दे सकते क्योंकि दोनों ही राजा थे.इसलिए भविष्य में प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति के रूप में सम्मान इस बात पर निर्भर करेगा कि वे इस रूप में कैसा और कितनी ईमानदारी और निष्पक्षता से कार्य करते हैं न कि इस बात पर कि अब वे भारतीय गणराज्य के १३वें राष्ट्रपति हैं.यहाँ मैं फिर से भक्त प्रवर रामकृष्ण परमहंस की वक्तृता का सहारा लेना चाहूँगा.उन्होंने कहा है कि कोई भी तीर्थ सिर्फ स्थान-विशेष पर स्थित होने से ही तीर्थ नहीं हो जाता बल्कि जहाँ महान लोग निवास करते हैं वहीं तीर्थ है और तीर्थ बन जाता है.तदनुसार कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए आलोचना से परे नहीं सकता क्योंकि वह ३४० कमरों वाले भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े कथित तीर्थस्थल राष्ट्रपति भवन में निवास करता है बल्कि उसे तदनुसार महान कर्म भी करने होंगे या करने चाहिए.किसी पद की गरिमा का बढ़ना या घटना पदधारक पर और सिर्फ उसी पर निर्भर करता है न कि जनता पर.वर्ना अगर भारत को भी उत्तर कोरिया बनाना है तो कोई बात नहीं.फिर करवाईए जबरदस्ती जनता से आदर;बलबन की तरह अनिवार्य कर दीजिए सिजदा और पाबोस को.
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