मित्रों,जब वर्ष 2004 में लोकसभा चुनावों के बाद इटली से आयातित कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने परम-त्यागमयी महिला होने का परिचय देते हुए तब तक ईमानदार,सज्जन और गैरराजनैतिक माने जाने वाले अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया तब पूरे भारत की जनता को लगा कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था को पंख लगने के दिन आ गए हैं। वर्ष 2004 से वर्ष 2009 तक उनकी पहली पारी में देश की जीडीपी लगातार तेज रफ्तार में दौड़ती रही लेकिन जैसे ही दूसरी पारी शुरू हुई देश के विकास को न केवल ब्रेक लग गया बल्कि वो रिवर्स गियर में द्रुत गति से चलने लगा। धीरे-धीरे जैसे-जैसे वक्त गुजरा एक-एक करके एक से बढ़कर एक महाघोटाले सामने आने लगे और माननीय मनमोहन सिंह के चेहरे पर की गई ईमानदारी और सज्जनता की सुनहरी कलई उतरने लगी और आज स्थिति यह है कि उनका चेहरा जनता की नजरों में पूरी तरह से स्याह पड़ चुका है।
मित्रों,भारतीय रुपये की तरह मात्र चार वर्षों में मनमोहन सिंह की छवि का भारी और तीव्र गति से अवमूल्यन हुआ है और अब कुछ भी पर्दे में नहीं रह गया है। सबकुछ दुनिया के सामने आ गया है। आज की तारीख में हमारे देश के कथित प्रधानमंत्री जी काफी दुःखी हैं। उनको देश की बदहाल हालत बिल्कुल भी परेशान नहीं कर रही है वे तो सिर्फ इसलिए दुःखी हैं कि संसद में विपक्ष उनको चोर क्यों कह रहा है? उधर विपक्ष भी उनके ऐतराज पर ऐतराज जताते हुए उनसे पूछ रहा है कि चोर को चोर न कहें तो क्या कहें? गलती दोनों तरफ से बराबर की हो रही है। मनमोहन को तो परेशान होने के बदले खुश होना चाहिए कि उनको विपक्ष द्वारा चोर के साथ-साथ झूठा,मक्कार,भ्रष्ट,ढोंगी,धोखेबाज,गैरजिम्मेदार इत्यादि नहीं कहा जा रहा है जबकि कायदे से वे इन विशेषणों से विभूषित हो सकने की योग्यता बहुत समय पहले ही अर्जित कर चुके हैं।
मित्रों,वहीं विपक्ष को भी मनमोहन सिंह जी को कम करके नहीं आँकना चाहिए और सिर्फ चोर नहीं कहना चाहिए। आखिर उन्होंने काफी मेहनत करके दर्जनों घोटाले करवाए। फिर फाइलें गायब करवाईं या जलवाईं और बिडंबना यह है कि उनके इन महान कार्यों में पानी की तरह पसीना बहाने के बाद भी उनकी महानता को विपक्ष कम करके बता रहा है। क्या विपक्ष भूल गया है कि अब मनमोहन सिंह कितनी खूबसूरती से झूठ बोल लेते हैं और मिनटभर में बेझिझक ए.राजा,अश्विनी कुमार,बंसल और कलमाड़ी को पाक-साफ बता देते हैं? क्या विपक्ष को यह भी याद नहीं कि मनमोहन सिंह आज भी किस तरह चेहरे पर उदासी ओढ़कर खुद के देश और अपने कर्त्तव्यों के प्रति ईमानदार होने का ढोंग कर लेते हैं?
मित्रों,कई बार इन्सान से गलतियाँ हो जाया करती हैं। फिर भी विपक्ष का यह अपराध तो अक्षम्य है कि उसने नारे लगाते समय महान मनमोहन के इस गुण को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया कि वे किस अदा और बेशर्मी से सर्वोच्च न्यायालय,सीएजी,आरबीआई इत्यादि महत्त्वपूर्ण संस्थाओं पर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभाने और लक्ष्मण-रेखा पार करने का आरोप लगाते रहे हैं। मानो उनकी सरकार की विफलता के लिए वे नहीं ये संस्थाएँ ही जिम्मेदार हों। मनमोहन सिंह की गैर-जिम्मेदारी का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि उनके मंत्रालय से फाइलें गायब हो जाती हैं और वे संसद में फरमाते हैं कि मैंने फाइलों की सुरक्षा का ठेका नहीं ले रखा है? अगर वे ऐसा कहते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है क्योंकि जहाँ तक मैं समझता हूँ कि श्री मनमोहन सिंह जी ने सपने में भी कभी खुद को भारत का प्रधानमंत्री समझा ही नहीं है बल्कि उन्होंने तो खुद को सिर्फ सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री समझा और लगातार अपने भाषणों में बस यही दोहराते रहे कि देश में यह होना चाहिए और ऐसे होना चाहिए। अगर वे खुद को भारत का प्रधानमंत्री समझते तो उनकी भाषा कुछ इस तरह होती कि मैं यह करूंगा और ऐसे करूंगा,मैंने यह किया और ऐसे किया। मनमोहन कहते रहे कि अच्छा होना चाहिए और स्वयं करते रहे बुरा। मनमोहन के जहाँ तक चोर होने का सवाल है तो वे चोर तो हैं ही और कोई मामूली चोर नहीं हैं। उन्होंने भारत के सभी देशप्रेमियों की नींद और चैन एकसाथ चुरा ली है। मैं चुनौती देता हूँ कि है दुनिया की किसी भी खुफिया एजेंसी में दम तो उनके द्वारा दिनदहाड़े चोरी की गई इन अमूल्य वस्तुओं को बरामद करके बताए।
मित्रों,मैं अंत में विपक्ष से निवेदन करता हूँ कि उनको मनमोहन सिंह से तहेदिल से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि उसने हमारे हरफनमौला कथित पीएम को सिर्फ चोर कहने का गंभीर अपराध किया है। जबकि देश की जनता उनको चोर के साथ-साथ झूठा,भ्रष्ट,ढोंगी,धोखेबाज,मक्कार और गैरजिम्मेदार भी मान चुकी है तो फिर विपक्ष को किसने यह अधिकार दे दिया कि वो महान शैतानावतार मनमोहन सिंह को अंडरस्टीमेट करे और ऐसा करके अपमानित करे? दुनिया में कृत्रिम बुद्धि से युक्त पहले यंत्र-मानव मनमोहन सिंह जी को यह शिकायत भी है कि संसार में सिर्फ भारत में भी संसद के बेल में आकर विपक्ष प्रधानमंत्री चोर है का नारा लगाता है। मैं उनसे अर्ज करता हूँ कि प्यारे मनमोहन आपको तो खुश होना चाहिए कि आप भारत जैसे मुर्दादिल और नपुंसक देश के प्रधानमंत्री हैं वरना अगर आप किसी यूरोपीय देश के प्रधानमंत्री होते और आपने वहाँ वैसे ही और उतने ही महान कार्य किए होते जितने कि भारत में किए हैं तो उस देश की जनता अपने घरों में बैठी नहीं रहती और सड़कों पर उतरकर आपके घर समेत पूरी दिल्ली को कई साल पहले घेर चुकी होती और फिर आप चार साल तो क्या चार दिन के लिए भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं रह पाते और पिछले कई सालों से अपने प्रायोजक गांधी परिवार और अपने अधिकांश मंत्रिमंडल के साथ तिहाड़ जेल में अपने करकमलों से मुलायम-मुलायम रोटियाँ तोड़ रहे होते।
मित्रों,पिछले कुछ महीनों से हमारी मीडिया और हमारी केंद्र सरकार भारत-चीन सीमा पर चीन की आक्रामक गतिविधियों से इस कदर भयभीत हैं जैसे चीन कोई अजगर (ड्रैगन) हो और भारत कोई मेमना। जबकि असलियत तो यह है कि न तो चीन अजगर है और न ही भारत मेमना। भले ही चीन सैन्य तैयारियों के मामले में हमसे दो दशक आगे है,भले ही उसका सालाना रक्षा बजट हमसे 15 गुना ज्यादा है,भले ही उसकी जीडीपी हमसे 5 गुना अधिक है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम युद्ध से पहले ही मनोवैज्ञानिक तौर पर पराजित हो जाएँ। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1979 ई. के चीन-वियतनाम युद्ध में एक छोटे-से देश जिसका क्षेत्रफल मात्र सवा तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और जिसकी वर्तमान समय में आबादी मात्र 9 करोड़ है के सामने विशालकाय चीन को मुँह की खानी पड़ी थी। हम चाहे सैन्य-संसाधन में कितने भी कमजोर क्यों न हों तो भी हरेक दृष्टिकोण से हम वियतनाम से तो कई गुना ज्यादा मजबूत हैं। फिर चीन से भय कैसा? चीन का सामना करने में घबराहट क्यों और कैसी? संस्कृत में एक कहावत है कि जब तक आपदा सामने न जाए तब तक हमें उससे नहीं डरना चाहिए और जब सामने आ जाए तो डरने से कुछ लाभ नहीं होनेवाला इसलिए बुद्धिमत्ता से उसका सामना करना चाहिए।
मित्रों,जब शत्रु अत्यंत क्रूर और निर्दय हो और इस कदर नास्तिक हो कि बंदूक को ही अपना भगवान मानता हो तो उसके सामने गिड़गिड़ाने और दंडवत होने से तो और भी कुछ हासिल नहीं होनेवाला है सिवाय जलालत के। इतिहास गवाह है कि लड़ाइयाँ साजो-सामान से नहीं जीती जातीं जज्बे से जीती जाती हैं। 1965 की लड़ाई में निश्चित रूप से पाकिस्तान के पास हमसे अच्छे अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन लाल बहादुर शास्त्री के तेजस्वी नेतृत्व ने दोनों सेनाओं के बीच बहुत बड़ा फर्क पैदा कर दिया। 1962 में हम चीन को कड़ी टक्कर दे सकते थे लेकिन तब नेहरू इस कदर भयग्रस्त थे कि बिना लड़े ही उन्होंने गौहाटी तक से सेना वापस बुला ली थी। दुर्भाग्यवश हमारा वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व भी उसी नेहरूवादी,पलायनवादी मानसिकता का शिकार है जिसके चलते हमें 1962 में अकारण मुँह की खानी पड़ी थी। कभी-कभी जोरदार टक्कर मारने के लिए पीछे भी हटना पड़ता है लेकिन हमारी वर्तमान सरकार तो ऐसा करती हुई भी नहीं दिखती बल्कि वो बेवजह पीछे हटती जा रही है और चीन के हाथों अपमान-पर-अपमान बर्दाश्त करती जा रही है।
मित्रों,नेपोलियन बोनापार्ट के पास कोई दुनिया या यूरोप की सबसे बड़ी सेना नहीं थी लेकिन उसने अपनी यूरोपजयी सेना को मानसिक तौर पर काफी सख्त बना दिया था। उसके जोशीले भाषण सेना पर जादू कर जाते थे और तब वे तब तक अलंघ्य समझे जानेवाले आल्प्स पर्वत को भी छोटा-सा टीला समझकर आसानी से पार कर जाते थे। बाबरनामा बताता है कि 17 मार्च,1527 के खानवा के युद्ध में एक समय बाबर की सेना मैदान छोड़कर भाग निकली थी लेकिन बाबर का मनोबल तब भी ऊँचा था। बाबर ने अपनी हताश सेना के सामने ही अपने शराब के प्यालों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और फिर कभी शराब नहीं पीने की प्रतिज्ञा की। इस छोटी-सी घटना का उसकी सेना पर जादुई असर हुआ और एक छोटी-सी सेना ने सही व्यूह-रचना का उपयोग कर अपने से कई गुना बड़ी सेना हरा दिया। छत्रपति शिवाजी को ही लीजिए जिन्होंने सह्याद्रि में महान मुगलों को लोहे के चने चबवा दिए थे। शिवा ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि और छापेमार रणनीति से मुगल सेना की विशालता को ही उसकी कमजोरी बना दिया था।
मित्रों,इसलिए मैं कहता हूँ कि विश्वास रखिए अभी भी देर नहीं हुई है। बस हमें अपने प्रतिरक्षा सेक्टर की ओवरहॉलिंग करनी होगी। हमें अल्पकालीन के साथ-साथ दीर्घकालीन रणनीतियाँ भी बनानी होंगी। 1990 के दशक में कलाम साहब के नेतृत्व में बनी एक कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार हमें जहाँ वर्ष 2005 तक 70% रक्षा निर्माण खुद करना था और 30% ही आयात करना था आज हम अपनी जरुरतों का 70% आयात करते हैं। पूर्वनिर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें नेता,अफसर और सैन्य-संस्थानों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित करना होगा। फिर हमें निजी क्षेत्र के लिए प्रतिरक्षा क्षेत्र को भी खोलना होगा। विदेशों से साजो-सामान मंगाने पर हमें दोगुना खर्च करना पड़ता है। वर्ष 2006 में पूरे विश्व के हथियार आयात में हमारी हिस्सेदारी 9% थी जिसको हम बदल सकते हैं। इसके लिए हमें प्रतिरक्षा क्षेत्र को भी यथासंभव विदेशी निवेशकों के लिए खोलना होगा। हमें बेहतरीन तकनीकी से लैस हथियारों के आयात को जारी रखते हुए आत्मनिर्भरता की ओर तेज गति से कदम बढ़ाना होगा और आलतू-फालतू सामानों के आयात और निर्माण पर व्यय करने से बचना होगा। सिर्फ मिसाइलें दागने और परमाणु हथियार इकट्ठा कर लेने से हमें कुछ भी हासिल नहीं हो्गा। हमें परंपरागत हथियारों और तरीकों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सिर्फ सही जगह पर,सही साजो-सामान पर पैसा खर्च करना होगा। हमें रणनीतिक मामलों में योजना बनाते समय वियतनाम,ईजराइल और जापान जैसे उन देशों की मदद भी लेनी होगी जो रणनीतियाँ बनाने के फन में माहिर हैं और जिन्होंने कभी-न-कभी भूतकाल में मदांध चीन को पराजित किया है। इसके साथ ही हमें अपने उन तजुर्बेकार जनरलों और सेनानायकों की सलाहों पर भी काफी संजीदगी से अमल करना होगा जिन्होंने 1962,65,71 और 99 की लड़ाइयों में सक्रिय भागीदारी की है।
मित्रों,चीन की बात करते समय हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि अगर वियनामियों की तरह जीवट और समुचित व सामयिक रणनीति बनाकर उस पर पूरी गंभीरता से अमल किया जाए तो सीमित साधनों के बूते भी चीन ही नहीं महाशक्ति अमेरिका को भी युद्ध के मैदान में हराया जा सकता है। हमें चीन की बात करते समय यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व भले ही चीन के भय से काँप रहा हो हमारे तीनों सेनाओं के जवानों का मनोबल हमेशा की तरह आठवें आसमान पर है। हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र हैं और हमारा एक-एक युवा मर-मिटेगा मगर देश को अपमान का मुँह कभी देखने नहीं देगा। हमें आज भी यह बात याद है कि कभी हमारे जवानों की हिम्मत और बहादुरी की प्रशंसा करते हुए इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कहा था अगर उन्हें आधी भारतीय सेना दे दी जाए तो वे इसके बूते पूरी दुनिया को जीतकर दिखा सकते हैं।
मित्रों,मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भयभीत होने या घबराने से हमारे राजनैतिक नेतृत्व को कोई लाभ नहीं होगा। हमें होश को बनाकर और बचाकर रखना होगा और जोश को भी। फिर अकेले चीन तो क्या हम एक साथ चीन और पाकिस्तान दोनों को ही पराजित कर सकते हैं। परन्तु हमारे गले में विजयश्री तभी वरमाला डालेगी जब हमारा नेतृत्व लाल बहादुर शास्त्री की तरह वास्तव में नेशन फर्स्ट एंड लास्ट की नीति पर चले जो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री और यूपीए के सत्ता में रहते संभव ही नहीं है। मनमोहन सिंह और इन दिनों की कांग्रेस पार्टी के लिए तो सत्ता और सत्ता से उपजनेवाला कालाधन ही अथ भी है और इति भी। उनकी प्राथमिकता सूची में देश और देशहित कहीं है ही नहीं।
मित्रों,मई महीने का पहला सप्ताह था। एक महीना होने को था व्यवहार न्यायालय,हाजीपुर से हमारी जमीन की दखलदहानी का पत्र एसडीएम,महनार को गए। हमने इस बीच पत्रोत्तर के लिए महनार,अंचलाधिकारी के दफ्तर में क्लर्क श्री देवानंद सिंह से संपर्क भी किया। फोन करने पर वे रोज कहते कि आज मैं एसडीएम के नाजिर से जरूर बात करूंगा। पिताजी तो काम के लिए कुछ लेने-देने को भी तैयार थे। इसी बीच हमारा एक पूर्वपरिचित फेंकू मुकेश प्रभाकर हमारे डेरे पर आया और झूठ-मूठ के ईधर-उधर फोन घुमाने लगा। हालाँकि उस समय मैं यूजीसी नेट की तैयारी में पूरी गंभीरता से लगा हुआ था लेकिन अब मामला मेरे लिए भी असह्य होने लगा था।
मित्रों,मैंने टेलीफोन डायरेक्टरी से महनार के एसडीएम का लैंडलाईन का नंबर निकाला और डायल कर दिया। उधर से सुझाव आया कि आप अगर पत्रकार हैं तो सीधे उनके मोबाईल पर बात क्यों नहीं करते? मैंने उन्हीं महाशय से नंबर लेकर फिर से डायल किया। फोन उठानेवाले स्वयं एसडीएम साहब थे। मैंने उनसे विनम्र शब्दों में कहा कि पिछले एक महीने से हमारा एक पत्र पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में आपके कार्यालय में पड़ा हुआ है। पत्र-संख्या भी बताई। कुछ देर बाद एसडीएम साहब ने उधर से ही फोन कर मुझे बताया कि पत्र को उन्होंने बहुत ढुंढवाया लेकिन मिला नहीं सो मैं खुद ही पत्र की कॉपी लेकर आ जाऊँ।
मित्रों,सच कहूँ तो तब तक अफसरों को लेकर मेरी अवधारणा अच्छी नहीं थी सो मैं उनसे मिलने-जुलने से यथासंभव बचता ही था। उसी दिन 4 मई को मैंने न्यायालय से पत्र की कॉपी प्राप्त की और परसों होकर 6 मई,2013 को फर्स्ट ऑवर में ही मैं एसडीएम साहब के कार्यालय पर जा धमका। तब तक वे कार्यालय में आए नहीं थे और मैंने तब तक नाश्ता भी नहीं किया था। सो परिसर के बाहर सड़क पर जाकर नाश्ता-पानी करने लगा। लौटा तो वे अपने कार्यालय में विराजमान हो चुके थे। मैंने एक चिट पर अपना नाम लिखकर दरबान को दिया। तुरंत बुलावा आया। तब महनार नगर पंचायत के कुछ मोटी चमड़ीवाले नेता उनसे पिछले कई महीने से जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी नहीं होने और इस प्रकार 10000 प्रमाण-पत्रों के लंबित होने की शिकायत कर रहे थे। उनको विदा करने के बाद उन्होंने मुझसे पत्र की कॉपी मांगी और नाजिर कैलाश बाबू को तत्काल सीओ,महनार अनिल कुमार सिंह को पत्र लिखकर उनसे उनका एक दिन का वेतन पत्र द्वारा बताने का आदेश देने को कहा। इस बीच मैं उनके पास ही बैठा रहा। तब उन्होंने चपरासी को भेजकर बीडीओ,महनार प्रवीण कुमार सिन्हा को बुला लाने को कहा। यहाँ मैं आपको बता दूँ कि महनार में अनुमंडल,प्रखंड और अंचल कार्यालय एक ही परिसर में है। बातचीत के दौरान एसडीएम संदीप शेखर प्रियदर्शी ने मुझे बताया कि डीएम जितेन्द्र प्रसाद जी ने उनको महनार में ही रहने को कहा है। उनसे पहले कोई एसडीएम महनार में रहा नहीं। पटना या हाजीपुर से आता-जाता रहा। अभी परिसर में ही स्थित कृषि भवन में उन्होंने अपना आवास बनाया है। एक अकेले के लिए कितनी जगह चाहिए ही? पहली रात को अंधेरे में जब वे अकेले सोये हुए थे तो बर्रे ने उनको डंक मार दिया। पहले तो वे डर गए कि कहीं साँप ने तो नहीं काट लिया लेकिन बाद में खयाल आया कि वे तो प्रथम तल पर हैं सो यहाँ तो साँप आएगा नहीं।
मित्रों,इसी बीच बीडीओ,महनार प्रवीण कुमार सिन्हा पसीना पोंछते हुए हाजिर हुए। फिर शुरू हुआ डाँट-फटकार का लंबा दौर। उनसे प्रियदर्शी जी ने मेरे सामने ही पूछा कि क्या वे खुद को जनता का मालिक समझते हैं? क्या बीडीओ ऑफिस उनके बाबूजी का दालान है? उनको बड़े ही कठोर शब्दों में उन्होंने समझाया कि वे जनता के नौकर हैं मालिक नहीं और आदेश दिया कि दो दिनों में सारे पेंडिंग प्रमाण-पत्रों को निर्गत करें।
मित्रों,इसी बीच नाजिर कैलाश बाबू उपस्थित हुए और प्रियदर्शी जी से पहले के एसडीएम की बड़ाई करने लगे। प्रियदर्शी जी ने उनको भी जमकर लताड़ लगाई और कहा कि उनको अच्छी तरह से पता है कि पिछले एसडीएम किस तरह से काम करते थे। उस समय तो कार्यालय में आनेवाली चिट्ठियाँ एसडीएम की गाड़ी में ही उनके साथ ही घूमती रह जाती थीं और बाद में फेंक दी जाती थीं। उन्होंने नाजिर बाबू से मेरे काम के बारे में पूछा तो बताया गया कि पत्र अभी टाईप हो रहा है। थोड़ी देर में पत्र आ गया और तत्क्षण प्रियदर्शी जी ने उस पर हस्ताक्षर करके मुझे थमा दिया और कहा कि मैं खुद ही जाकर सीओ,महनार अनिल कुमार सिंह से पत्र का जवाब ले आऊँ। मैं जब सीओ कार्यालय पहुँचा तो सीओ अपनी कुर्सी से गायब मिले। वे तब अपने बड़ा बाबू के कक्ष में उनके सामने की कुर्सी पर बैठे हुए थे। मैंने जब उनको पत्र देकर उसका तुरंत जवाब देने को कहा तो उन्होंने टालू अंदाज में कहा कि मैं एक सप्ताह बाद आऊँ क्योंकि आज काम का हो पाना संभव ही नहीं है। फिर मैंने प्रियदर्शी जी को फोन लगाया और सीओ की उनसे बात कराई। डाँट-फटकार का तेज असर हुआ और 5 मिनट में ही पत्र का जवाब मेरे हाथों में था। फिर मैंने रसीद कटवाया और घर लौट आया। कल होकर न्यायालय से पता चला कि सिर्फ रसीद से काम नहीं चलेगा एसडीएम के यहाँ से एक पत्र भी चाहिए कोर्ट के नाम से।
मित्रों, मैंने फिर से एसडीएम साहब से बात की और 9 मई को मिलने पहुँचा। इस बार भी लगभग पूरे दिन उनके सानिध्य में ही रहा। तब उनके साथ बीडीओ और सीओ,महनार भी मौजूद थे और निर्देश प्राप्त कर रहे थे। मेरा काम हो जाने पर उन्होंने मुझसे पूछा कि आपका जो काम बमुश्किल दस मिनट का था,को होने में पूरे दो दिन लग गए। आप ही बताईए कि इस सुस्त और महाभ्रष्ट तंत्र में मैं कैसे सुधार लाऊँ? उन्होंने यह भी बताया कि वे हाई डाईबिटिज के मरीज हैं और यह बीमारी नौकरी के दौरान पैदा होनेवाले तनाव की ही देन है। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि उन पर अभी करीब पौने दो सौ मुकदमे चल रहे हैं। किसी कर्मी को डाँट लगा दी तो हो गया एक मुकदमा दर्ज। उन्होंने मुझसे इस बात की शिकायत भी की कि मीडिया किसी अधिकारी की बुराइयों को तो खूब उछालती है लेकिन उनके अच्छे कामों पर चुप्पी लगा जाती है। इसी बीच कोई जिला परिषद् सदस्य उनसे मिलने आया मगर उन्होंने मिलने का समय समाप्त हो जाने का हवाला देते हुए मिलने से मना कर दिया। थोड़ी देर बाद कोई गरीब फरियादी आया जो हसनपुर,महनार का था और जिसके घर पर उसकी अनुपस्थिति में उसके किसी दबंग रिस्तेदार ने कब्जा कर लिया था। प्रियदर्शी जी न केवल उससे गर्मजोशी से मिले बल्कि तुरंत समुचित कार्रवाई का निर्देश भी दिया। मैं अभिभूत और हतप्रभ था कि क्या कोई अफसर ऐसा भी हो सकता है? मैंने जब उनको बताया कि मैंने भी यूपीएससी और बीपीएससी की मुख्य परीक्षा कई-कई बार दी थी तो उन्होंने मुझे कहा कि अच्छा हुआ कि आप पास नहीं हुए। ईधर हम जैसे लोगों के लिए सिर्फ परेशानी-ही-परेशानी है। अब मैं उनको क्या बताता कि वर्तमान काल में पत्रकार तो और भी बँधुआ मजदूर बनकर रह गए हैं सो मुस्कुरा कर रह गया।
मित्रों,यही मेरी प्रियदर्शी जी से दूसरी और अंतिम मुलाकात थी लेकिन बाद में मैं अखबारों में उनके कारनामे लगातार पढ़ता रहा। उन्होंने कैसे बीडीओ,महनार के 12 बजे ही ऑफिस से भाग जाने पर उनकी गाड़ी की चाबी ही जब्त कर ली,कैसे सीओ ऑफिस के किसी भ्रष्ट कर्मी पर कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई की या कैसे किसी पियक्कड़ मुखिया को परिसर से बाहर निकलवाया या कैसे मुरौवतपुर के घूसखोर विद्युतीकरण ठेकेदार को गिरफ्तार करवाया। इस बीच मैं भिखनपुरा,बिलट चौक अपनी ससुराल गया तो पता चला कि कोई रंजन सिंह नाम का विद्युतीकरण ठेकेदार उनलोगों से विद्युतीकरण के लिए प्रति परिवार 300-300 रुपए की रिश्वत मांग रहा है। मैंने अपने साले को ग्रामीणों के साथ प्रियदर्शी जी से मिलने की सलाह दी और आश्वस्त किया कि मिलने के बाद यह समस्या निश्चित रूप से समाप्त हो जाएगी।
मित्रों,लेकिन ऐसा हो पाता कि इससे पहले ही कल 21 अगस्त के समाचार-पत्र में पढ़ने को मिला कि एसडीएम,महनार संदीप शेखर प्रियदर्शी का तबादला बेगूसराय कर दिया गया है। पढ़ते ही झटका लगा। मैं तो अभी तक खुश हो रहा था कि महनार अनुमंडल में पहली बार एक ईमानदार,कर्त्तव्यनिष्ठ और ओजस्वी अफसर आया है जो पूरी तस्वीर को एकबारगी ही बदल देने की क्षमता रखता है। अभी-अभी तो वे आए थे,अभी तो ठीक से सेटल भी नहीं हुए थे कि तबादला हो गया। जाने अब अगला एसडीएम कैसा हो? क्या इस तरह बार-बार जल्दी-जल्दी के तबादलों पर रोक नहीं लगनी चाहिए? जब किसी अधिकारी को काम करने और स्थिति को सुधारने के लिए समय ही नहीं दिया जाएगा तो सुधार होगा कैसे? प्रियदर्शी जी को दो-तीन सालों तक महनार का एसडीएम बने रहने देना था। खैर संदीप शेखर प्रियदर्शी जी जहाँ भी रहें खुश रहें,स्वस्थ रहें यही हमारी कामना है। आई सैल्यूट यू,संदीप शेखर प्रियदर्शी।
मित्रों,काफी समय पहले मैंने उपनिषदों से ली गई एक कथा पढ़ी थी। एक ब्राह्मण था जो जब भी कुछ अच्छा करता तो उसका भरपुर श्रेय खुद लेता और जब भी कुछ बुरा करता तो उसके लिए देवराज इन्द्र को दोषी ठहरा देता क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य की भुजाओं में इन्द्र का निवास होता है। एक दिन खेत से हाँकते वक्त कोई गाय उसकी पिटाई से मर जाती है। तभी इन्द्र वेष बदलकर आते हैं और उससे पूछते हैं कि यह गोहत्या किसने की। ब्राह्मण आदतन जैसे ही इन्द्र का नाम लेता है वैसे ही इन्द्र प्रकट हो जाते हैं। ब्राह्मण की बोलती बंद हो जाती है और तब इन्द्र उसे कड़ी फटकार लगाते हैं कि अगर अच्छे कार्यों का श्रेय तुम लेते हो तो बुरे कर्मों की जिम्मेदारी भी तुम्हें ही लेना पड़ेगी।
मित्रों,हमारे प्रदेश बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का व्यवहार भी इन दिनों उपरोक्त ब्राह्मण जैसा हो गया है। राज्य में जब भी कुछ अच्छा होता है तो वे उसका श्रेय लेने में क्षणभर की भी देरी नहीं करते लेकिन जब कोई बुरी या शर्मनाक घटना घट जाए तो जनाब कभी उसकी जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेते। अभी कल की ही बात है कि खगड़िया के धमारा घाट स्टेशन पर ट्रेन से कटने से माता कात्यायनी के दर्शन के लिए जा रहे तीन दर्जन हिन्दू श्रद्धालु मारे गए लेकिन उन्होंने घटना की सारी जिम्मेदारी रेलवे और केंद्र सरकार पर डाल दी। मानो स्थानीय मेले का सुचारू प्रबंधन करना और छोटे-छोटे स्टेशनों पर लोगों को पटरी से हटाने सहित कानून-व्यवस्था संभालना और घायलों को अविलंब अस्पताल पहुँचाना भी सिर्फ केंद्र सरकार का ही काम हो। इससे पहले भी जब छपरा में मिड डे मिल खान से 23 बच्चे मारे गए थे तब भी उन्होंने इसके लिए विपक्षी दल राजद को जिम्मेदार ठहरा दिया था। इसी तरह उनकी पार्टी कुछ ही दिनों पहले कांग्रेस के सुर-में-सुर मिलाती हुई नवादा में हुए सांप्रदायिक दंगों के लिए मुख्य विपक्षी दल भाजपा को दोषी ठहरा चुकी है। मानो मिड डे मिल का सुचारू प्रबंधन और कानून-व्यवस्था संभालना भी सिर्फ-और-सिर्फ विपक्ष की जिम्मेदारी है। फिर नीतीश जी के जिम्मे क्या है? खाली चपर-चपर करते रहना कि गठबंधन तोड़ने का उनका निर्णय सही था और आतंकियों को अपना बेटा-बेटी बताते रहना? अभी चार दिन पहले जब वैशाली जिले में जहरीला मिड डे मिल खाने से कई दर्जन बच्चे बीमार हो गए तो नीतीश जी ने फरमाया कि ऐसा तो होता ही रहता है,कोई मरा तो नहीं न। मैं मानता हूँ कि कोई मरता तो वे जरूर विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते। दुर्भाग्यवश कोई नहीं मरा इसलिए उनको ऐसा करने का सुअवसर भी नहीं मिल सका।
मित्रों,अभी कुछ सप्ताह पहले ही नीतीश जी ने प्रदेश के विधायकों को यह प्रावधान करके खुश कर दिया है कि विधायक-कोष से होनेवाले साढ़े सात लाख रुपए तक के काम के लिए अब निविदा आमंत्रित नहीं करनी होगी। यानि विधायक जी जिस चेले को चाहें ठेका दे सकेंगे। अब साढ़े 7 लाख के टुकड़े में माननीय जी पूरा काम करवाएंगे और घुमा-फिराकर विधायक-कोष की दो करोड़ रुपए वार्षिक की राशि में से कम-से-कम आधी तो उनकी जेबों वापस आ ही जाएगी। अब अगर विधायक-कोष से बनी सड़कें या पुल उद्घाटन से पहले ही टूट या धँस जाए तो दोषी कौन होगा? तब नीतीश जी तो यकीनन अपनी आदत के अनुसार अपना पल्ला झाड़ लेंगे और कहेंगे कि इसके लिए वे नहीं बल्कि विधायक जी जिम्मेदार हैं लेकिन प्रश्न तो यह उठता है कि मौजूदा कानून को बदला किसने? किसने माननीयों को लूट की छूट दी?
मित्रों,कुल मिलाकर पीएम बनने से पहले ही पीएम पद के लिए हॉट मैटेरियल बन चुके नीतीश कुमार जी में हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री के सारे गुण एकबारगी पधार चुके हैं। जिस तरह आर्थिक दुरावस्था,रुपए के अवमूल्यन और महँगाई के लिए मनमोहन सिंह कभी अपनी ऐतिहासिक सरकार को जिम्मेदार नहीं मानते उसी प्रकार से हमारे राज्य के मुख्यमंत्री जी भी किसी भी ऊँच-नीच के लिए अपने को और अपनी सरकार को बिल्कुल भी दोषी नहीं मानते हैं। जाँच आयोग बनाने में भी वे मनमोहन से पीछे नहीं आगे हैं। प्रदेश में फारबिसगंज न्यायिक जाँच आयोग और कोसी जाँच आयोग समेत कई जाँच आयोग इस समय अस्तित्व में हैं और इन्होंने कदाचित् अगले विधानसभा चुनाव से पहले अपनी रिपोर्ट नहीं देने की कसम उठा रखी है। अब इनके मंत्रीमंडल को ही लें तो उसमें आपको कई ऐसे नायाब मंत्री मिल जाएंगे जो कभी लालू-राबड़ी मंत्रीमंडल के नवरत्नों में शुमार थे और तब राज्य में जंगलराज कायम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी। इनमें से रमई बाबू तो लगभग अनपढ़ हैं और अपने पद के लिए पूरी तरह से अयोग्य तो वे हैं ही। अब आप ही बताईए कि इन जंगलराज विशेषज्ञों की बदौलत कोई कैसे राज्य में सुशासन स्थापित कर सकता है? वेसे नीतीश जी का एक और कारनामा अद्वितीय की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस समय वे अकेले 18 विभागों के मंत्री हैं जबकि किसी के लिए सुचारू तरीके से एक अकेले विभाग को संभालना ही कठिन होता है। अच्छा तो यह होता कि नीतीश जी सारे मंत्रियों की छुट्टी कर देते और राष्ट्रपति शासन की तरह अकेले ही पूरी सरकार चलाते वो भी बिना किसी जिम्मेदारी के।
मित्रों,अब तो एक ही बात नीतीश कुमार जी के मुखारविंद से सुननी बाँकी रह गई है। मैं उम्मीद ही नहीं करता हूँ बल्कि मेरा पूरा विश्वास है कि भविष्य में जब भी कोई बड़ी और बुरी घटना प्रदेश में घटती है तो श्रीमान् यही कहेंगे कि इसके लिए और कोई नहीं सीधे तौर पर राज्य की जनता ही जिम्मेदार है। केवल राज्य की जनता की लापरवाही से ही (वैसे हम कुछ लापरवाह तो हैं भी) यह दुःखद घटना घटी है। आखिर किसी भी दुःखद घटना की जिम्मेदारी शासन-प्रशासन उठाए ही क्यों? वैसे वे जब ऐसा कहेंगे तब कहेंगे हम तो जनता की तरफ से अपनी गलती एडवांस में ही मान लेते हैं क्योंकि यह हमारी ही गलती थी जो हम 2010 में दोबारा नीतीश जी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गए और उनको दोबारा के लिए सीएम मैटेरियल समझ लिया।
मित्रों,कल लगातार दसवीं बार मुझे लाल किले से अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सुनने का अवसर मिला। इसे मैं सुअवसर कहूँ या कुअवसर समझ में नहीं आता। कितनी बड़ी विडंबना है कि आज आजादी के 67 साल बाद भी प्रधानमंत्री ने देश के समक्ष कमोबेश वही चुनौतियाँ गिनाईं जिनको 15 अगस्त,1952 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने गिनाई थी। इसका सीधा मतलब यह है कि कैलेंडरों में भले ही 60 साल गुजर गए मगर हमारा देश आज भी वहीं-का-वहीं खड़ा है। वही गरीबी,वही भुखमरी,वही बेरोजगारी,वही सीमा विवाद,वही जनसंख्या-विस्फोट और वही सांप्रदायिक दंगे।
मित्रों,फिर हमने गुजरात के मुख्यमंत्री और भारत के कथित भावी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी सुना जो लालन कॉलेज,भुज से जनता को संबोधित कर रहे थे। उनमें जोश था,ओज था,देश के बेहतर भविष्य के लिए योजनाएँ थीं। उन्होंने भ्रष्टाचार पर खूब बातें कीं,जमकर हल्ला बोला। पारदर्शिता बढ़ाने पर भी जोर दिया लेकिन यह नहीं बताया कि राजनैतिक दलों को सूचना का अधिकार के दायरे से बाहर कर देने से कैसे तंत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि गुजरात में लोकायुक्त नहीं होने से भ्रष्टाचार को कम करने में कैसे सहायता मिल रही है। वैसे मैं आपको यह भी बता दूँ कि अधिकतर राज्यों में लोकायुक्त महोदय भ्रष्टाचार का कुछ खास नहीं उखाड़ पाए हैं और यह पद अभी भी महज सांकेतिक ही बना हुआ है। इतना ही नहीं आज भी जबकि मोदीजी की पार्टी में दागियों की बड़ी फौज मौजूद है तो फिर उनकी पार्टी कैसे पार्टी विथ डिफरेंस हुई?
मित्रों,2014 के चुनावों में किस पार्टी को बहुमत मिलेगा या फिर किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिलेगा अभी से कहा नहीं जा सकता। ऐसे में अगर भाजपा और एनडीए को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाता है तो पता नहीं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी को किन-किन मुद्दों पर कौन-कौन से समझौते करने पड़ेंगे? फिर क्या पता कि आज से दस साल बाद नरेंद्र मोदी की भी वही स्थिति हो जाए,उनका स्वर भी उसी तरह निराशाजनक हो जाए जिस तरह कि आज 15 अगस्त,2004 को उम्मीदों से लबरेज रहे मनमोहन सिंह का है।
मित्रों, यह सच है कि वर्तमान दशक में हमारे राजनेताओं का काफी तेजी से नैतिक स्खलन हुआ है जिससे जनता का उनमें विश्वास लगातार बहुत तेजी से कम हुआ है लेकिन यह हमारे लोकतंत्र की मूलभूत कमजोरी नहीं है। हमारे लोकतंत्र की मूलभूत समस्या नेता नहीं हैं बल्कि मौलिक समस्या है हमारी गलत और खर्चीली चुनाव प्रणाली। आपको यह जानकर घोर आश्चर्य हो सकता है कि कई बार चुनावों में कुल जमा ज्यादा मत पानेवाला दल हार जाता है और कुल जमा कम मत पानेवाले दल की जीत हो जाती है। कोई भी दल मात्र 20-30% मतदाताओं का समर्थन पाकर ही प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ जाता है जबकि असलियत तो यही होती है कि वह सरकार कुल प्राप्त मतों के आधार पर अल्पमत की सरकार होती है।
मित्रों,यह घोर दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछले कुछ सालों में गाँव से लेकर संसद तक के लिए होनेवाले चुनावों में पैसों का जोर बढ़ा है। आज किसी भी विधानसभा चुनाव में प्रति उम्मीदवार कम-से-कम 1 करोड़ और लोकसभा चुनाव में प्रति उम्मीदवार कम-से-कम 10 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। हमारे राजनेताओं ने चुनाव-दर-चुनाव जनता के साथ इतनी वादाखिलाफी की है कि अब जनता यह मानकर चलने लगी है कि हमारा नेता वादों को पूरा करनेवाला है नहीं इसलिए जनता चुनावों के समय ही उम्मीदवारों से पैसे मांगने लगी है और अब वह मत का दान नहीं करती बल्कि अपनी मत बेचती है। जनप्रतिनिधियों और जनता के इस द्विपक्षीय नैतिक स्खलन का परिणाम यह हुआ है कि अब ईमानदार और गरीब व्यक्तियों के लिए चुनाव लड़ना और लड़कर जीतना संभव ही नहीं रह गया है। जनबल पर धनबल के हावी होने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम जो बीते वर्षों में सामने आया है वह यह है कि राज्यसभा और विधान परिषद् जो कभी गैर राजनैतिक गणमान्य लोगों की सभा मानी जाती थी आज पूंजीपतियों का आरामगाह बन गई है। आज सरकारों के गठन में जमकर सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त की जाती है। राजनीति ने व्यवसाय का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। पहले चुनाव में पूंजी लगाओ और फिर जीत के बाद वैध-अवैध तरीके से जमकर पैसे बनाओ और बनाने दो। लूटो और लूटने दो। कभी तो नेताओं के खराब होने से तंत्र खराब होता है तो कभी तंत्र के भ्रष्ट होने से नेता भ्रष्ट हो जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस बिगड़ैल तंत्र को सुधारने का मंत्र क्या है?
मित्रों,मैं आपसे बार-बार निवेदन कर चुका हूँ कि जब तक भारत में संसदीय शासन-प्रणाली है हम भय,भूख और भ्रष्टाचार का कुछ नहीं उखाड़ सकते। देश में जनप्रतिनिधियों द्वारा सत्ता के प्रधान के चुनाव की परंपरा तुरंत बंद होनी चाहिए क्योंकि हमारे वार्ड सदस्य,पंचायत-समिति सदस्य,जिला-परिषद् सदस्य,विधायक और सांसद चोर और लालची हो गए हैं,उनके मन में अब रंचमात्र भी जनकल्याण की भावना शेष नहीं बची है। कुछेक को छोड़कर सबके सब सिर्फ आत्मकल्याण में लगे हुए हैं इसलिए अब जनता को सीधे-सीधे अपना शासक चुनने का अधिकार मिलना चाहिए कुछ-कुछ उसी तरह जैसे ग्राम-पंचायतों में ग्रामीणों को मुखिया को चुनने का मिला हुआ है। चुनावों के समय जनता दोहरा मतदान करे। मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री के लिए अलग और विधायक-सांसद के लिए अलग ठीक पंचायत चुनावों की तरह।
मित्रों,ऐसा जब होगा तब होगा आज की कड़वी सच्चाई तो यही है कि हमें संसदीय शासन-प्रणाली के माध्यम ही अगले साल मोदी और मनमोहन में से एक को चुनना होगा। यदि हम दोनों के कल के भाषण की तुलना और देश की विस्फोटक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे सामने मोदी को चुनने के अलावा कोई विकल्प है ही नहीं। दरअसल मनमोहन चुके हुए तीर हैं,गीले हो चुके बारूद हैं,बुझी हुई मोमबत्ती के मोम हैं,घोटालों के घंटाघर और नाकामियों का नगाड़ा हैं,मात खा चुके राजा हैं इसके विपरीत मोदी में अपार संभावनाएँ हैं,उम्मीदें हैं,जोश है,जुनून है और सिर्फ देश के लिए जीने-मरने का जज्बा है। एक डूबता हुआ सूरज है दूसरा ऊपर चढ़ता पूर्णमासी का चंद्रमा। एक ने विषम परिस्थितियों से पूरी तरह से हार मान ली है तो दूसरे ने कभी हार मानना सीखा ही नहीं है। एक बीमार है तो दूसरा बलवान तन से भी और मन से भी। मोदी कुछ भाइयों के लिए कड़वे कुनैन भी हो सकते हैं लेकिन सच्चाई तो यही है कि देश को चढ़ रहे मलेरिया बुखार से निजात पाने के लिए हमें देर-सबेर उनको स्वीकार करना ही पड़ेगा।
मित्रों,आईए हम डूबते हुए सूरज को अलविदा कहें और क्षितिज पर निविड़ अंधकार को अपने तेज से चीर कर उभरते हुए मृगांक का स्वागत करें। यही वर्तमान समय की जरुरत है और हमारी खतरे में पड़ती दिख रही आजादी की रक्षा के लिए अपरिहार्य भी। अगर हम आजाद रहे फिर कभी संविधान और शासन-प्रणाली को भी बदल लेंगे। देखिए नजर उठाकर उत्तर की ओर कि किस प्रकार से शंकरपुरी में चीन की सेना आक्रामक हो रही है और किस तरह कश्मीर में पाकिस्तान पागल हुआ जा रहा है। मनमोहन की अब तक की सबसे मजबूर,कमजोर और सत्तालोलुप सरकार ने अपनी नाकामियों से इनके मन में एक बार फिर भारत-विजय की आस जगा दी है। अब हमें कदापि केंद्र में मजबूर नेता या सरकार नहीं चाहिए बल्कि बेहद मजबूत मनस्वी प्रधानमंत्री और सिंह-गर्जना करनेवाली सरकार चाहिए (हमारे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी यही चाहते हैं) और वैसी सरकार खुद को देंगे,खुद के लिए चुनेंगे हम। क्योंकि हमीं इस मुल्क के असली मालिक हैं,कोई संसद या सांसद नहीं।
मित्रों,मुझे जबसे होश हुआ है तभी से मैं पढ़ता और सुनता आ रहा हूँ कि भारत में न केवल लोकतंत्र है बल्कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भी है। अन्ना के अनशन के समय यह जुमला हमारे सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के मुखारविंदों से अनगिनत बार दोहराया गया कि चूँकि भारतीय संविधान ने संसद को सर्वोच्चता प्रदान की है अतः उसकी गरिमा को मटियामेट करने का कुत्सित प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। मैं भी यह मानता हूँ और हमारे देश की 90 प्रतिशत मूर्ख और 10 प्रतिशत बुद्धिमान जनता (बतौर काटजू साहब) भी मानती है कि भारत के वर्तमान संविधान के अनुसार संसद सर्वोच्च है लेकिन हमारे राजनेता यह भूल रहे हैं कि संविधान के अनुसार संसद सर्वोच्च जरूर है सबकुछ तो कतई नहीं है। संसद के अलावे कार्यपालिका (आजकल सपा नेता खुद के बिना नौकरशाही के ही उसी तरह का सुशासन दे सकने में सक्षम होने के दावे कर रहे हैं जैसा कि वे इन दिनों उत्तर प्रदेश में दे रहे हैं),न्यायपालिका (हमारे महानिकम्मे प्रधानमंत्री तक इसको अपनी सीमा में रहने की हिदायत अक्सर देते देखे जा सकते हैं) और मीडिया सहित ऐसा बहुत-कुछ है जिनका महत्त्व लोकतंत्र में जनविश्वास को बनाए रखने की दृष्टि से संसद से किंचित भी कम नहीं है। वैसे भी संविधान जनता द्वारा जनता को समर्पित है इसलिए सर्वोच्च तो जनता ही है। साथ ही यह भी गौरतलब है कि हमारी संविधान-सभा के सदस्यों ने जिस संसद को सर्वोच्चता सौंपी थी वो आदर्श संसद थी। उन्होंने तो सपने में भी एक-तिहाई शातिर अपराधियों और दो-तिहाई घोटालेबाजों से लबालब भरे पाप के घड़े समान संसद की कल्पना तक नहीं की थी।
मित्रों,यह बहुत-ही बिडंबनापूर्ण है कि आज भारतीय जनता और जनाकांक्षा की सर्वोच्च प्रतिनिधि संसद ही भारतीय लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोकतंत्र के मंदिर संसद को दागमुक्त करने की जो पहल संसद को खुद करनी चाहिए थी वो उच्चतम न्यायालय को करनी पड़ रही है। और यह नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब संसद उच्चतम न्यायालय के संसद के दामन को पाक-साफ करने के प्रयासवाले क्रांतिकारी और ऐतिहासिक फैसले को ही पलटने की तैयारी में है। अगर वह ऐसा करती है तो उसका यह कदम निश्चित रूप से पश्चगामी और यथास्थितिवादी कदम होगा। अगरचे संसद को अपने दामन पर लगे कलंक को धोने के प्रयास खुद करने चाहिए थे तो वह बेहद शर्मनाक तरीके से उन्हें बनाए और बचाए रखने की यथासंभव कोशिश कर रही है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि संसद की गरिमा को बढ़ाने या बनाए रखने की महती जिम्मेदारी किसकी है और किस पर है? अगर सांसद खुद ही संसद की गरिमा को गिराएंगे तो जनता के मन में उसके प्रति सम्मान कैसे,कहाँ से और क्यों पैदा होगा?
मित्रों,इसी प्रकार यह बेहद अफसोसनाक है कि भारतीय लोकतंत्र में जनमत का निर्माण और शासन का संचालन करने की महान जिम्मेदारी जिन राजनैतिक दलों के कंधों पर है वे अपनी अकूत आमदनी का हिसाब-किताब देने से भाग रहे हैं। जबकि कुछ अपवादों के साथ पूरे भारत के पूरे सरकारी-तंत्र को सूचना का अधिकार (बिहार सहित कहीं-कहीं कागजी ही सही) के दायरे में ला दिया गया है तो फिर खुद के 'जनरंजन-चरण-कमल' (पढ़ें और समझें महाप्राण निराला की प्रसिद्ध कविता 'राम की शक्ति पूजा') होने का दावा करनेवाले राजनैतिक दलों को भी सूचना के अधिकार की सीमा में होना ही चाहिए। हमारे तंत्र में पारदर्शिता का होना जितना जरूरी है कहीं उससे ज्यादा आवश्यक है तंत्र के वास्तविक संचालनकर्त्ता राजनैतिक दलों का पारदर्शी होना क्योंकि वे वर्तमान काल में भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गए हैं। राजनैतिक दल किसी भी दृष्टि से निजी कंपनी या संपत्ति नहीं हो सकते क्योंकि वे सिर्फ और सिर्फ जनता के विश्वास और चंदे से संचालित होते हैं। अब जबकि भारत के मुख्य सूचना आयुक्त ने सभी राजनैतिक दलों को जनता को वांछित सूचना देने के लिए सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करने और प्रार्थियों को वांछित सूचना उपलब्ध करवाने का आदेश दिया है तब सारे-के-सारे राजनैतिक दल (तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर) सूचना देने से बचने की फिराक में सारे मतभेदों और मनभेदों को भुलाकर एकजुट हो गए हैं। वे लोग संसद से ऐसा विधेयक पारित करनेवाले हैं जिससे देश के सारे राजनैतिक दल सूचना का अधिकार के अधिकार-क्षेत्र से ही बाहर हो जाएंगे और उनको अपने लाखों करोड़ के आय-व्यय का ब्योरा नहीं देना पड़ेगा। इतना ही नहीं संसद में एम्स सहित विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में आरक्षण-संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को भी पलटने की तैयारी भी चल रही है।
मित्रों,आप ही बताईए कि अगर संसद इस तरह के पश्चगामी कानून बनाती है तो फिर कैसे जनता के मन में उसके प्रति सम्मान बढ़ेगा और कैसे उसकी गरिमा बढ़ेगी? अगर संसद के ऐसे क्रियाकलापों को ही लोकतंत्र और उसका विकास कहते हैं तो फिर क्या जरुरत है देश में ऐसे लोकतंत्र की? क्यों नहीं ऐसे लोकतंत्र का सर्वनाश हो जाना चाहिए?क्या करेंगे हम ऐसे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाकर जिनके संचालकों के मन में देशहित की भावना है ही नहीं, जिनके हृदय में किसी देशभक्त का दिल नहीं धड़कता बल्कि जिनके जिस्म में सिर्फ महास्वार्थी व दरिन्दे भेड़िये का दिमाग है?
मित्रों,अभी हमारा प्यारा देश चहुमुखी-बहुमुखी संकट के मुहाने पर खड़ा है। एक तरफ विकट आर्थिक संकट डरा रहा है तो दूसरी तरफ चीन-पाक की सीमा पर गुस्ताखी है तो वहीं तीसरी तरफ है बढ़ती बेरोजगारी और चौथी तरफ है अमीरी-गरीबी के मध्य लगातार बढ़ती खाई और पाँचवी,छठी,सातवीं तरफ है भुक्खड़ों की बढ़ती संख्या,नक्सलवाद,जनसंख्या-विस्फोट,आतंकवाद और जानलेवा महँगाई।
मित्रों,मैं नहीं समझता कि हमारी संसद या हमारा लोकतंत्र इन हिमालय सरीखी चुनौतियों से निबटने में सक्षम है। क्या करेंगे हम ऐसे लोकतंत्र को लेकर? क्या अँचार डालेंगे उसका या गले में ताबीज बनाकर पहनेंगे उसको? हमारी संसद और हमारा लोकतंत्र इस कदर पंगु और बेकार हो चुका है वो छोटे-से-छोटे संकट का भी सामना नहीं कर सकता इन बड़े संकटों का सामना करना तो उसके लिए दूर की कौड़ी ठहरी। लोकतंत्र वही सफल और दीर्घजीवी हो सकता है जो जनता की ईच्छाओं का सम्मान करे और बदलते वक्त के अनुसार खुद को बदलता रहे। जो लोकतंत्र बदलती जनाकांक्षाओं के अनुरूप खुद को नहीं बदलता है इतिहास गवाह है कि वह निश्चित रूप से अकाल-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में असलियत यह है कि हमारी संसद अब लोकतंत्र का मंदिर नहीं रह गई है बल्कि उसने हमारे लोकतंत्र को कैद कर लिया है और वह लोकतंत्र का कैदखाना बन गई है और लोकतंत्र को उसके जेलखाने से मुक्त करवाने की महती जिम्मेदारी अब हम जनता को ही निभानी पड़ेगी। दोस्तों,जो लोकतंत्र देश को फिर से गुलामी की अंधेरी सुरंग में धकेल दे क्यों नहीं उसको समाप्त हो जाना चाहिए और उसके अवशेषों पर किसी नई शासन-प्रणाली को स्थापित किया जाना चाहिए जैसे कि अध्यक्षीय शासन-प्रणाली।