मंगलवार, 6 अगस्त 2013

लोकतंत्र का मंदिर नहीं कैदखाना है संसद

मित्रों,मुझे जबसे होश हुआ है तभी से मैं पढ़ता और सुनता आ रहा हूँ कि भारत में न केवल लोकतंत्र है बल्कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भी है। अन्ना के अनशन के समय यह जुमला हमारे सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के मुखारविंदों से अनगिनत बार दोहराया गया कि चूँकि भारतीय संविधान ने संसद को सर्वोच्चता प्रदान की है अतः उसकी गरिमा को मटियामेट करने का कुत्सित प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। मैं भी यह मानता हूँ और हमारे देश की 90 प्रतिशत मूर्ख और 10 प्रतिशत बुद्धिमान जनता (बतौर काटजू साहब) भी मानती है कि भारत के वर्तमान संविधान के अनुसार संसद सर्वोच्च है लेकिन हमारे राजनेता यह भूल रहे हैं कि संविधान के अनुसार संसद सर्वोच्च जरूर है सबकुछ तो कतई नहीं है। संसद के अलावे कार्यपालिका (आजकल सपा नेता खुद के बिना नौकरशाही के ही उसी तरह का सुशासन दे सकने में सक्षम होने के दावे कर रहे हैं जैसा कि वे इन दिनों उत्तर प्रदेश में दे रहे हैं),न्यायपालिका (हमारे महानिकम्मे प्रधानमंत्री तक इसको अपनी सीमा में रहने की हिदायत अक्सर देते देखे जा सकते हैं) और मीडिया सहित ऐसा बहुत-कुछ है जिनका महत्त्व लोकतंत्र में जनविश्वास को बनाए रखने की दृष्टि से संसद से किंचित भी कम नहीं है। वैसे भी संविधान जनता द्वारा जनता को समर्पित है इसलिए सर्वोच्च तो जनता ही है। साथ ही यह भी गौरतलब है कि हमारी संविधान-सभा के सदस्यों ने जिस संसद को सर्वोच्चता सौंपी थी वो आदर्श संसद थी। उन्होंने तो सपने में भी एक-तिहाई शातिर अपराधियों और दो-तिहाई घोटालेबाजों से लबालब भरे पाप के घड़े समान संसद की कल्पना तक नहीं की थी।
                    मित्रों,यह बहुत-ही बिडंबनापूर्ण है कि आज भारतीय जनता और जनाकांक्षा की सर्वोच्च प्रतिनिधि संसद ही भारतीय लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लोकतंत्र के मंदिर संसद को दागमुक्त करने की जो पहल संसद को खुद करनी चाहिए थी वो उच्चतम न्यायालय को करनी पड़ रही है। और यह नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब संसद उच्चतम न्यायालय के संसद के दामन को पाक-साफ करने के प्रयासवाले क्रांतिकारी और ऐतिहासिक फैसले को ही पलटने की तैयारी में है। अगर वह ऐसा करती है तो उसका यह कदम निश्चित रूप से पश्चगामी और यथास्थितिवादी कदम होगा। अगरचे संसद को अपने दामन पर लगे कलंक को धोने के प्रयास खुद करने चाहिए थे तो वह बेहद शर्मनाक तरीके से उन्हें बनाए और बचाए रखने की यथासंभव कोशिश कर रही है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि संसद की गरिमा को बढ़ाने या बनाए रखने की महती जिम्मेदारी किसकी है और किस पर है? अगर सांसद खुद ही संसद की गरिमा को गिराएंगे तो जनता के मन में उसके प्रति सम्मान कैसे,कहाँ से और क्यों पैदा होगा?
                       मित्रों,इसी प्रकार यह बेहद अफसोसनाक है कि भारतीय लोकतंत्र में जनमत का निर्माण और शासन का संचालन करने की महान जिम्मेदारी जिन राजनैतिक दलों के कंधों पर है वे अपनी अकूत आमदनी का हिसाब-किताब देने से भाग रहे हैं। जबकि कुछ अपवादों के साथ पूरे भारत के पूरे सरकारी-तंत्र को सूचना का अधिकार (बिहार सहित कहीं-कहीं कागजी ही सही) के दायरे में ला दिया गया है तो फिर खुद के 'जनरंजन-चरण-कमल' (पढ़ें और समझें महाप्राण निराला की प्रसिद्ध कविता 'राम की शक्ति पूजा') होने का दावा करनेवाले राजनैतिक दलों को भी सूचना के अधिकार की सीमा में होना ही चाहिए। हमारे तंत्र में पारदर्शिता का होना जितना जरूरी है कहीं उससे ज्यादा आवश्यक है तंत्र के वास्तविक संचालनकर्त्ता राजनैतिक दलों का पारदर्शी होना क्योंकि वे वर्तमान काल में भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गए हैं। राजनैतिक दल किसी भी दृष्टि से निजी कंपनी या संपत्ति नहीं हो सकते क्योंकि वे सिर्फ और सिर्फ जनता के विश्वास और चंदे से संचालित होते हैं। अब जबकि भारत के मुख्य सूचना आयुक्त ने सभी राजनैतिक दलों को जनता को वांछित सूचना देने के लिए सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करने और प्रार्थियों को वांछित सूचना उपलब्ध करवाने का आदेश दिया है तब सारे-के-सारे राजनैतिक दल (तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर) सूचना देने से बचने की फिराक में सारे मतभेदों और मनभेदों को भुलाकर एकजुट हो गए हैं। वे लोग संसद से ऐसा विधेयक पारित करनेवाले हैं जिससे देश के सारे राजनैतिक दल सूचना का अधिकार के अधिकार-क्षेत्र से ही बाहर हो जाएंगे और उनको अपने लाखों करोड़ के आय-व्यय का ब्योरा नहीं देना पड़ेगा। इतना ही नहीं संसद में एम्स सहित विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में आरक्षण-संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को भी पलटने की तैयारी भी चल रही है।
                     मित्रों,आप ही बताईए कि अगर संसद इस तरह के पश्चगामी कानून बनाती है तो फिर कैसे जनता के मन में उसके प्रति सम्मान बढ़ेगा और कैसे उसकी गरिमा बढ़ेगी? अगर संसद के ऐसे क्रियाकलापों को ही लोकतंत्र और उसका विकास कहते हैं तो फिर क्या जरुरत है देश में ऐसे लोकतंत्र की? क्यों नहीं ऐसे लोकतंत्र का सर्वनाश हो जाना चाहिए?क्या करेंगे हम ऐसे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाकर जिनके संचालकों के मन में देशहित की भावना है ही नहीं, जिनके हृदय में किसी देशभक्त का दिल नहीं धड़कता बल्कि जिनके जिस्म में सिर्फ महास्वार्थी व दरिन्दे भेड़िये का दिमाग है?
                     मित्रों,अभी हमारा प्यारा देश चहुमुखी-बहुमुखी संकट के मुहाने पर खड़ा है। एक तरफ विकट आर्थिक संकट डरा रहा है तो दूसरी तरफ चीन-पाक की सीमा पर गुस्ताखी है तो वहीं तीसरी तरफ है बढ़ती बेरोजगारी और चौथी तरफ है अमीरी-गरीबी के मध्य लगातार बढ़ती खाई और पाँचवी,छठी,सातवीं तरफ है भुक्खड़ों की बढ़ती संख्या,नक्सलवाद,जनसंख्या-विस्फोट,आतंकवाद और जानलेवा महँगाई।
                       मित्रों,मैं नहीं समझता कि हमारी संसद या हमारा लोकतंत्र इन हिमालय सरीखी चुनौतियों से निबटने में सक्षम है। क्या करेंगे हम ऐसे लोकतंत्र को लेकर? क्या अँचार डालेंगे उसका या गले में ताबीज बनाकर पहनेंगे उसको? हमारी संसद और हमारा लोकतंत्र इस कदर पंगु और बेकार हो चुका है वो छोटे-से-छोटे संकट का भी सामना नहीं कर सकता इन बड़े संकटों का सामना करना तो उसके लिए दूर की कौड़ी ठहरी। लोकतंत्र वही सफल और दीर्घजीवी हो सकता है जो जनता की ईच्छाओं का सम्मान करे और बदलते वक्त के अनुसार खुद को बदलता रहे। जो लोकतंत्र बदलती जनाकांक्षाओं के अनुरूप खुद को नहीं बदलता है इतिहास गवाह है कि वह निश्चित रूप से अकाल-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। वास्तव में असलियत यह है कि हमारी संसद अब लोकतंत्र का मंदिर नहीं रह गई है बल्कि उसने हमारे लोकतंत्र को कैद कर लिया है और वह लोकतंत्र का कैदखाना बन गई है और लोकतंत्र को उसके जेलखाने से मुक्त करवाने की महती जिम्मेदारी अब हम जनता को ही निभानी पड़ेगी। दोस्तों,जो लोकतंत्र देश को फिर से गुलामी की अंधेरी सुरंग में धकेल दे क्यों नहीं उसको समाप्त हो जाना चाहिए और उसके अवशेषों पर किसी नई शासन-प्रणाली को स्थापित किया जाना चाहिए जैसे कि अध्यक्षीय शासन-प्रणाली।

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