शनिवार, 23 जनवरी 2016

लालू जी के मामले में कानून अपना काम क्यों नहीं करेगा नीतीश जी?


हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिेंह। मित्रों,हम वर्षों से यह पढ़ते चले आ रहे हैं कि अंग्रेजों की भारत को सबसे बड़ी देन देश में कानून का शासन और कानून के समक्ष समानता है। आपको याद होगा कि जब बिहार के निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नया-नया मुख्यमंत्री बने थे तब कानून-व्यवस्था से संबंधित प्रत्येक मामले में उनका एक ही रटा-रटाया उत्तर होता था कि कानून अपना काम करेगा। कानून ने अपना काम भी किया था और बिहार की कानून-व्यवस्था की स्थिति में एक लंबे समय के बाद सुधार देखने को मिला था।
मित्रों,लेकिन अभी दो-तीन दिन पहले उन्हीं नीतीश कुमार की सरकार ने पिछले साल बिहार बंद के दौरान राजद कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़-फोड़,मारपीट और कानून के उल्लंघन से संबंधित मामलों को वापस ले लिया है। चूँकि इन मामलों में आरोपी रहे लालू प्रसाद यादव और उनके बेटे अब उनके गठबंधन और उनकी सरकार में हैं इसलिए नीतीश कुमार जी ने इस मामले यह नहीं कहा कि कानून अपना काम करेगा बल्कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय का लब्बोलुआब यह था कि इस मामले में कानून अपना काम नहीं करेगा क्योंकि वे कानून को अपना काम करने ही नहीं देंगे।
मित्रों,दूसरी तरफ जदयू विधायक सरफराज आलम के मामले में लालू-नीतीश-तेजस्वी-तेजप्रताप सभी एक स्वर में कह रहे हैं कि विधायक के खिलाफ कानूनसम्मत कार्रवाई होनी चाहिए। अगर हम दोनों घटनाक्रम को एक साथ जोड़कर देखें तो हमारी समझ में आ जाएगा कि अब नीतीश कुमार जी का कहना है कि कानून उन्हीं मामलों में अपना काम करेगा जिन मामलों में वे चाहेंगे कि वो अपना काम करे और जिन मामलों में वे नहीं चाहेंगे कि कानून अपना काम नहीं करे कानून अपना काम नहीं करेगा। घटनाक्रम को देखकर आसानी से विश्वास नहीं होता कि ये वही नीतीश कुमार जी हैं जिन्होंने कभी राज्य में कानून का शासन स्थापित करने के लिए काफी लंबी लड़ाई लड़ी थी।
मित्रों,इस प्रकार हम पाते हैं कि नीतीश कुमार की सरकार कानून के समक्ष समानता के संवैधानिक अधिकार का तो उल्लंघन कर ही रही है साथ ही कानून के शासन का भी खुलकर मजाक उड़ा रही है। कहने को तो वे और उनके गठबंधन और सरकार के साझीदार एक स्वर में कह रहे हैं कि राज्य में कानून का शासन है और रहेगा लेकिन वास्तविकता यही है कि राज्य में कानून का शासन है ही नहीं,मनमाना शासन है। अब जब मुख्यमंत्री और कैबिनेट ही कानून के शासन और कानून के समक्ष समानता के मौलिक सिद्धान्त की खिल्ली उड़ा रहे हैं तो फिर निचले स्तर पर क्यों नहीं अधिकारी खिल्ली उड़ाएंगे? फिर क्यों नहीं घूसखोरी और रसूखदारी का बाजार गर्म होगा? संस्कृत में कहा भी गया है कि महाजनो येन गतः स पंथाः अर्थात् बड़े लोग जिस मार्ग का अनुशरण करते हैं बाँकी लोग भी उसी मार्ग पर चलते हैं।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

रोहित की कायरता पर छाती पीटनेवाले सावन पर खामोश क्यों?


हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बंगाल और असम का चुनाव सिर पर है। ऐसे में पुरस्कार-सम्मान लौटाऊ गैंग और कथित पंथनिरपेक्ष मीडिया का आर्तनाद फिर से प्रारंभ हो गया है। इस बार इन भारतविरोधियों ने इसके लिए बहाना लिया है हैदराबाद में आत्महत्या जैसी सबसे बड़ी कायरता का प्रदर्शन करनेवाले कथित दलित रोहित का। बिहार चुनाव के बाद अर्द्धनिद्रा में चले गए धूर्त बुद्धि से अटे-पटे और अक्ल से हीन शकुनिसदृश लोग फिर से अपने रंग में आकर रंगभूमि में पधार चुके हैं।
मित्रों,मैं अपने पहले के आलेखों में भी इन मक्कारों की पोल खोलता रहा हूँ। आप भी जानते-मानते हैं कि आत्महत्या से बड़ी कोई कायरता हो ही नहीं सकती। भले ही आप 84 लाख योनियों में भटकने के शास्त्रीय सिद्धांत को नहीं मानें लेकिन इतना तो जरूर मानेंगे कि जीवन अनमोल होता है और यूँ ही खो देने के लिए नहीं होता। संघर्ष तो राम को भी करना पड़ा था,राजा हरिश्चंद्र को भी करना पड़ा था फिर हम किस खेत की मूली हैं। फिर हमें यह भी देखना चाहिए कि खुदकुशी करनेवाले की विचारधारा क्या थी,उसकी सोंच कैसी थी।
मित्रों,यह अबतक जगजाहिर हो चुका है कि रोहित वेमुला चाहे वो पिछड़ी जाति से आता हो या दलित जाति से ओवैसी जैसे भारतविरोधियों के गंदे हाथों का खिलौना था। ब्रेनवॉश करके उसके मन में अपने ही पंथ के प्रति इस कदर जहर भर दिया गया था कि वो हिन्दुओं को देखना तक पसंद नहीं करता था। यहाँ तक वह इस कदर मानसिक विकृति का शिकार था कि जाने-अनजाने में याकूब मेनन जैसे आतंकवादियों का न केवल प्रशंसक बल्कि भक्त बन चुका था।
मित्रों,आश्चर्य है कि फिर भी वोट-बैंक की गंदी राजनीति करनेवाले लोग उसके लिए हाय-हाय कर रहे हैं। वोट-बैंक की राजनीति की पहली शर्त ही यही होती है कि उस वोट-बैंक से आनेवाला व्यक्ति चाहे कितना ही गिरा-पड़ा क्यों न हो उनका पृष्ठपोषण करना है और दूसरा पक्ष चाहे पीड़क की जगह पीड़ित ही क्यों न हो उसकी उपेक्षा या उसका विरोध करना है। कुछ इसी तरह के कार्य इशरत जहाँ की मौत के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया था जिससे लाभ उठाकर वे तीसरी बार मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं।
मित्रों,इसी दौरान पुणे के पंढ़रपुर में भी एक घटना घटी है। आत्महत्या की नहीं नृशंस हत्या की जिसको देखकर जंगली,हिंसक पशुओं को भी शर्म आ जाए लेकिन छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी गिद्ध तो बहुत पहले ही शरमोहया को तिलांजलि दे चुके हैं। सावन राठौड़ नामक एक 17 साला महादलित युवक नाली साफ करने के दौरान 13 जनवरी को पुणे के बिठोबानगरी पंढ़रपुर में सड़क किनारे पेशाब कर रहा था। तभी इब्राहिम महबूब शेख,जुबेर तंबोली (26) और इमरान तंबोली (28) ने उससे पूछा कि वो हिंदू है या मुसलमान और हिंदू बताते ही उनलोगों ने घनघोर असहिष्णुता और क्रूरता का परिचय देते हुए बिना किसी पूर्व परिचय के पूर्व शत्रुता की दूर की बात रही पहले तो पटककर उसको पेट्रोल पिलाया और फिर आग लगा दी।
मित्रों,पुणे के सासून अस्पताल में घर से बाप से झगड़ाकर भागे गरीब ने दो दिन बाद दम तोड़ दिया। उसके पिता एक ईट भट्ठे में मजदूरी करते हैं। पीड़ित ने मरने से पहले अपने आखिरी बयान में जो कहा है बस उतना ही कहा है जितना ऊपर हमने आपको बताया। लेकिन आश्चर्य है कि रोहित वेमुला की कायरता पर चीत्कार करने वाले लोग सावन के परिवार के आस-पास भी नहीं फटक रहे हैं। खैर उनको तो लगता है कि सावन के घर जाने से छोटे वोटबैंक के चक्कर में बड़ा वोटबैंक नाराज हो जाएगा। लेकिन आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि महाराष्ट्र में सरकार चला रही भाजपा भी इस घनघोर सांप्रदायिक घटना को कानून-व्यवस्था से संबंधित छोटी घटना बता रही है जबकि उसको यह अच्छी तरह से पता है कि उसको मुसलमानों ने न कभी वोट दिया है और न कभी देंगे।
मित्रों,मेरा हमेशा से ऐसा मानना रहा है कि हिंदुस्तान को असली खतरा मुसलमानों से नहीं है,न ही पाकिस्तान या चीन से हैं बल्कि उन हिंदुओं से है जो क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत होकर देशहित में नहीं सोंचते हैं और छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी,भेदभावपूर्ण व्यवहार करने लगते हैं और करने लगे हैं। जिनको दादरी तो दिखाई देती है लेकिन मालदा और पूर्णिया नजर नहीं आते। मैं यह नहीं कहता कि दादरी की घटना की प्रशंसा की जानी चाहिए लेकिन मैं यह भी नहीं कहता कि मुसलमानों को हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए खुलेआम सरेबाजार गोवध करना चाहिए। खाने के लिए उनके खुदा ने इतनी चीजें दी हैं क्या वे उसमें से केवल एक का त्याग नहीं कर सकते? यहाँ मैंने उनके खुदा शब्द का प्रयोग न चाहते हुए भी इसलिए किया क्योंकि पिछले सप्ताह मिस्र की एक विद्वान महिला मुसलमान प्रोफेसर ने कहा है कि उनका खुदा मुसलमानों को गैरमुस्लिम महिलाओं के साथ गैंग रेप करने की ईजाजत देता है। पता नहीं उनका खुदा हमारे भगवान से कब और कैसे अलग हो गया जो दया को ही धर्म कहता है,अपनी स्त्री के अलावे सारी स्त्रियों को माता मानने की हिदायत देता है। वैसे पता नहीं भारत के छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी हिंदुओं का कौन-सा वो खुदा है जो कहता है कि आत्मघाती रोहित के लिए हल्ला बोल दो और वास्तविक पीड़ित सावन के परिवार के आसपास भी नहीं फटको क्योंकि उनका अगर कोई भगवान होता तो वे यकीनन इसका उलट कर रहे होते।

बुधवार, 20 जनवरी 2016

छाती पीटिए क्योंकि नीतीश सरकार काम कर रही है


वैधानिक चेतावनी-यद्यपि यह रचना व्यंग्य नहीं है तथापि अगर पढ़ते समय या पढ़ने के बाद आपको लगे कि यह व्यंग्य ही है तो इसे हम आपकी कृपा समझेंगे।
हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आप कहेंगे कि जब नीतीश सरकार काम कर रही है तो ताली पीटना चाहिए छाती क्यों पीटें? लगता है आप नहीं समझे आजकल वाला विकास के बिहार मॉडल को। पहले वाला मॉडल भाजपा का था अब वाला भाई-भतीजा का है। नीतीश जी का अपना कोई मॉडल न पहले था और न अब है। जब जिसके साथ रहे तब उसका वाला मॉडल ले लिए।
मित्रों,पहले नीतीश जी की सहयोगी भाजपा मानती थी कि सुशासन स्थापित करने से और विकास करने से वोट मिलता है। वोट मिला भी 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश और भाजपा दोनों को मिला। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ज्यादा मिला और नीतीश जी को कम। मतलब यह कि जिसका विकास मॉडल था लोग बिहार की लगभग सब सीट भी उसी को दे दिया।
मित्रों,तब नीतीश जी का माथा ठनका और वो होश में आ गए। सारा भ्रम टूट गया कि जिसको लोग बिहार का विकास मॉडल कहते हैं वो उनका था। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश जी के पास न तो वोट था और न ही कोई मॉडल ही बचा था। तब उन्होंने लालू जी से संपर्क किया जिनके पास उनसे ज्यादा वोट भी था और एक विकास का मॉडल भी था जिसको एक समय नीतीश जी भी विनाश का मॉडल,जंगलराज और आतंकराज कहते थे।
मित्रों,लेकिन अब स्थितियाँ अलग थीं। नीतीश जी लंबे समय से सत्ता में थे और किसी भी कीमत पर बिहार के राजपाठ को हाथ से जाना नहीं देना चाहते थे। अबतक वे अच्छी तरह से समझ चुके थे कि न तो विकास का कोई मतलब होता है और न ही विकास मॉडल का असली सार तो सत्ता में बने रहने में हैं। फिर चाहे इसके लिए घिनौने बड़े भैया की गोद में बैठना पड़े या फिर शरारती-बदनाम भतीजों को अपनी गोद में बैठाना पड़े।
मित्रों,आपको याद होगा कि साल 1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी स्टाईल बिहार मॉडल से कैसे बिहार का विकास हुआ था। जनता का एक वर्ग जो साध था छाती पीट रहा था और दूसरा वर्ग जो अपराधी था वो पहले वर्ग को पीट रहा था। ताली सिर्फ लालू-राबड़ी और उनके दरबारी पीट रहे थे। अब नीतीश कुमार जी अगर कहते हैं कि जितनी छाती पीटनी है पीटिए हम तो अपना काम करेंगे तो इसका कोई और मतलब नहीं निकालिए। उनके कहने का मतलब बस इतना है कि 1990 से 2005 तक जो लोग छाती पीट रहे थे एकबार फिर से पीट सकते हैं उनको फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब उनके साथ ताली पीटने के लिए वे सारे लोग आ गए हैं जो उस महान् कालखंड में ताली पीट रहे थे। और जब छाती और ताली पीटनेवाले मौजूद हैं तो फिर जबतक छाती पीटनेवालों को पीटनेवाले नहीं हों तो विकास का मॉडल पूरा कैसे होगा,अधूरा नहीं रह जाएगा? सो अब बिहार में खून-तून सब माफ होगा लेकिन नीतीश जी बस इतना ही गुनगुनाते रहेंगे कि आबो हवा बिहार की बहुत साफ है, कायदा है कानून है इंसाफ है,अल्ला मियाँ जाने कोई जिए या मरे,बिहार में खून-तून सब माफ है। इसे ही तो कहते हैं कानून के राज के साथ-साथ न्याय के साथ विकास भी और गरीबों का राज भी। अब बिहार में कोई जंगलराज नहीं बोलेगा और नीतीश जी के सामने तो हरगिज नहीं क्योंकि इस शब्द को बिहार में प्रतिबंधित कर दिया गया है। बोला नहीं कि गया बेट्टा!!! कहाँ जाने की बात हो रही है अगर जानना है तो पहले उस बस वाले से पूछिए जो बस के पीछे लिखवाए हुए है कि लटकले त गेले बेटा।

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

धर्मनिरपेक्ष हिंसा हिंसा न भवति


हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,अगर आपने भारतेंदु साहित्य को पढ़ा होगा तो पाया होगा और कदाचित् पढ़ा भी होगा उनकी एक रचना को जिसका नाम है वैदिक हिंसा हिंसा न भवति। खैर ये तो बात हुई डेढ़ सौ साल पहले की लेकिन आज वोट बैंक और कुत्सित राजनीति की बदौलत इस श्लोक का स्वरूप बदल गया है और आजकल इस प्रसिद्ध श्लोक के उलट धर्मनिरपेक्ष हिंसा हिंसा न भवति वास्तविकता बन गई है।
मित्रों,आज भी चकरा गए होंगे कि हिंसा भी कहीं धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होती है। परंतु सच्चाई यही है कि इस समय हिंसा भी भारत में दो प्रकार की हो गई है-एक जो हिंदू करें और दूसरी जो मुसलमान करें। जो हिंसा हिंदू करते हैं उसका आकार चाहे जितना छोटा हो,प्रभावित होनेवाले लोगों की संख्या चाहे जितनी कम हो वह हिंसा सांप्रदायिक हिंसा होती है और जो हिंसा मुसलमान करते हैं उससे चाहे हजारों लोग मारे जाएँ वह धर्मनिरपेक्ष होती है और जो हिंसा धर्मनिरपेक्ष हो वह हिंसा ही कैसे हो सकती है।
मित्रों,हमारी बिकाऊ मीडिया और धूर्त बुद्धिजीवियों का मानना है कि चाहे मुसलमान सैंकड़ों गोधरा कर डालें उनके खिलाफ किसी भी तरह के कदम नहीं उठाए जाने चाहिए। गोधरा की आगजनी,मानव-दहन धर्मनिरपेक्ष होता है। उस आग में जलनेवाले को दर्द नहीं होता, दर्द तो सिर्फ मुसलमानों को होता है। मुसलमान चाहें तो खुलेआम सड़कों पर गोहत्या करें क्योंकि वह हिंसा तो हिंसा होती ही नहीं है न। गाय भी अपने पूजक हिंदुओं की तरह सांप्रदायिक होती है इसलिए गाय के न तो खून होता है,न छटपटाहट और न ही दर्द। लेकिन कोई हजरत मोहम्मद के चरित्र के बारे में कुछ नहीं कह सकता भले ही वो सच्चाई पर आधारित हो,फैक्ट हो क्योंकि हजरत मोहम्मद मुसलमानों के पूज्य हैं और मुसलमान या उनके पूज्य तो गलती कर ही नहीं सकते क्योंकि वे तो एकजुट होकर वोट डालते हैं। लेकिन अगर कोई कला के नाम पर हिंदुओं के पूज्यों-पूजनीयों को अपमानित करता है ऐसा वो निर्भय होकर कर सकता है क्योंकि तब उसका कृत्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत माना जाएगा। क्या ऐसा इसलिए नहीं क्योंकि हिंदू एकजुट होकर वोट नहीं डालते??
मित्रों,प. बंगाल की मुख्यमंत्री का आँख मूंदकर मानना है कि मालदा में ढाई लाख मुसलमानों द्वारा हिंदुओं की संपत्ति के साथ की गई तोड़-फोड़ को सांप्रदायिक हिंसा नहीं कहा जाना चाहिए। तो फिर क्या कहा जाना चाहिए,धर्मनिरपेक्ष हिंसा??? हिंदुओं को जो नुकसान हुआ क्या वो नुकसान नहीं था,हिंदुओं ने जो खून-पसीना बहाकर धन कमाया क्या वो खून-पसीना खून-पसीना नहीं था? दादरी या कहीं भी एक मुसलमान की हत्या हो जाए तो वह धर्मनिरपेक्षता की हत्या होती है क्योंकि मुसलमान तो धर्मनिरपेक्ष होते हैं न। आज पूरी दुनिया मुसलमानों से परेशान है,जेहादी या फसादी हिंसा से परेशान है। अगर मुसलमान धर्मनिरपेक्ष होते तो ऐसा क्यों होता?? हम हिंदू गलत हो सकते हैं लेकिन क्या पूरी दुनिया के अन्य धर्मावलंबी भी गलत हैं? पूरी दुनिया गलत है? क्या एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर पूरी दुनिया में हिंसा का तूफान पैदा कर देना धर्मनिरपेक्षता है?? हमारे यहाँ कहावत है कि मरा घोड़ा घास नहीं खाता लेकिन कई मुसलमान मानते हैं कि वे निर्दोषों को मारने के क्रम में मरने के बाद स्वर्ग जाएंगे जहाँ उनको सुंदर लड़कों-लड़कियों के साथ सेक्स का आनंद लेने का अवसर मिलेगा। कई युवक तो यौनांगों पर लौह-कवच लगाकर मरना पसंद करते हैं। कितना मूर्खतापूर्ण विश्वास है!!! मरने के बाद क्या होता है किसने देखा है या जाना है? आप कहेंगे कि हिंदू भी तो मृत्योपरांत जीवन की बात करते हैं। जरूर करते हैं पुनर्जन्म की भी और स्वर्ग-नरक की भी। लेकिन सर्वोपरि हिंदू ग्रंथ गीता कहती है कि जैसा करोगे वैसा जरूर भरोगे और इसी जन्म में भरोगे। अगला जन्म भी होगा लेकिन वह जन्म आत्मा का होगा शरीर का नहीं इसलिए स्वर्ग में हूर या गिलमा मिलने का तो सवाल ही नहीं।
मित्रों,सांप्रदायिक हिंदुओं के ग्रंथ कहते हैं कि परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नहीं है और परपीड़ा से बड़ा कोई पाप नहीं। हमारा कोई भी ग्रंथ यह नहीं कहता कि जो तुम्हारे धर्म को नहीं माने उसका गला रेत दो,उनकी स्त्रियों के साथ सामूहिक, नारकीय बलात्कार करो,उनको बेच दो और उनका मांस पकाकर खा जाओ। जो तुमसे भिन्न मत रखे उसे तड़पा-तड़पाकर मार डालो या जबरन हिंदू बना लो बल्कि वह तो कहता है कि मुंडे-मुंडे मति भिन्नाः।
मित्रों,अगर कोई धर्मग्रंथ या धर्म इस तरह के घोर पैशाचिक कुकर्मों का समर्थन करता है तो वह ईसानों का नहीं पिशाचों का धर्मग्रंथ है,धर्म है और उसको बदल देना चाहिए या फिर मिटा देना चाहिए। अमेरिका में तो इस बार का राष्ट्रपति चुनाव ही इस्लाम और इस्लामिक कट्टरता के मुद्दे पर होने जा रहा है। शायद ऐसा इसलिए क्योंकि बहुसंख्यक अमेरिकी जो ईसाई हैं एकजुट होकर मतदान करते हैं और उनके लिए देशहित ही सर्वोपरि है जाति-पाति या साईकिल राशि या छात्रवृत्ति या आरक्षण नहीं। कहने का तात्पर्य यह कि जबतक हिंदू बँटे रहेंगे तबतक क्षुद्र स्वार्थी नेताओं की नजरों में सांप्रदायिक बने रहेंगे और जिस दिन एकजुट हो जाएंगे उसी दिन से वे ममता-लालू-नीतीश-सोनिया-माया-मुलायम आदि के लिए धर्मनिरपेक्ष हो जाएंगे। तब कोई ममता बनर्जी हिंदू होते हुए भी निर्मम होकर यह नहीं कह सकेगी कि मालदा की हिंसा सांप्रदायिक हिंसा नहीं थी या लालू यादव यह नहीं कहेंगे गोधरा में ट्रेन में आग खुद कारसेवकों ने ही लगाई थी। उसी दिन से भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण की राष्ट्रविरोधी,विनाशक नीति का अंत हो जाएगा और हमारे छद्म धर्मनिरपेक्ष नेता प्रत्येक समस्या और हर तरह की हिंसा का विश्लेषण भी सिर्फ और सिर्फ गुण-दोष के आधार पर करने लगेंगे। तब कोई नहीं कहेगा कि धर्मनिरपेक्ष हिंसा हिंसा न भवति बल्कि सब कहेंगे कि प्रत्येक हिंसा हिंसा भवति।

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

लालू-नीतीश का रणनीतिकार ब्राह्मण क्यों?


हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आज प्रशांत किशोर को कौन नहीं जानता? वे किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वह एक ऐसी शख्सियत के रूप में उभरे हैं जिसका चुनावी रणनीति बनाने में कोई जवाब नहीं है।  जब प्रशांत ने मोदी के अभियान का नेतृत्व किया तब किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ लेकिन जब लालू-नीतीश ने उनको अपनी नैया का खेवनहार बनाया तो वह जरूर आश्चर्यचकित कर देनेवाला निर्णय था। आश्चर्यचकित कर देनेवाला इसलिए क्योंकि लालू-नीतीश हमेशा से ब्राह्मणविरोधी आरक्षणवादी व्यवस्था के कट्टर समर्थक रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि उन्होंने क्यों और कैसे एक ब्राह्मण प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया।
मित्रों,जब इनलोगों को डॉक्टर बनाना होता है तो वे 100 में से 90 अंक लानेवाले डॉक्टर की जगह 10 नंबर लानेवाले को डॉक्टर बनाते हैं,गांवों में प्रतिभावान  पढ़े-लिखे नेतृत्व की जगह अंगूठाछाप को मुखिया-सरपंच बनाते हैं तो इनको अपना रणनीतिकार बनाने में भी तो आरक्षण लागू करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि तब सवाल राज्य या पंचायत के विकास का नहीं था बल्कि अपनी कुर्सी का था,अपने भविष्य का था इसलिए किसी भी तरह का जोखिम नहीं लिया जा सकता था। इसलिए इनलोगों ने सर्वश्रेष्ठ दिमागवाले,प्रतिभावाले को अपनी रणनीति बनाने का भार सौंपा। मुझे पूरा यकीन है कि चाहे लालू-नीतीश हों या मुलायम-माया जब ये लोग बीमार होंगे तो ये सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर के पास ही जाएंगे फिर वो डॉक्टर किसी वैसी जाति से ही क्यों न आता हो जिनको वे जीवनभर गालियाँ देते रहे हों। तब ये लोग 100 में से 10 अंक पाकर प्रवेश परीक्षा में जाति के बल पर सफल घोषित होनेवाले से अपना ईलाज हरगिज नहीं करवाएंगे बल्कि तब इनको 100 में से 91 अंक लानेवाले के पास ही जाएंगे फिर भले ही वो क्यों न तिलक,तराजू और तलवार या भूराबाल वाली जातियों से आते हों। माया ने तो पिछले दो चुनावों से अपना नारा भी बदल दिया है-ब्राह्मण शंख बचाएगा,हाथी बढ़ता जाएगा। बहनजी, 5 साल पहले तक आपके करकमलों से जूते खानेवाला ब्राह्मण क्यों शंख बजाएगा?
मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है कि न कथित समाजवादी और कथित मनुवाद-विरोधी नेताओं का न तो कोई सिद्धांत है और न ही कोई मूल्य। इनको तो बस किसी भी तरह से चुनाव जीतना है। ये लोग जब राज्य का सवाल आएगा तब तो प्रतिभा की जगह वोटबैंक को प्राथमिकता देंगे,दूसरों की हजामत होनी हो तो बंदर के हाथ भी उस्तरा पकड़ा देंगे लेकिन जब सवाल खुद अपने भविष्य या अपनी जान का आएगा तब ये लोग किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेंगे और सर्वश्रेष्ठ को ही अपना सहायक या खेवनहार बनाएंगे। यहाँ मेरे कहने यह तात्पर्य नहीं है कि पिछड़ी जातियों या दलित-आदिवासियों में कोई प्रतिभावान है ही नहीं। मेरा उद्देश्य तो इन घनघोर जातिवादी नेताओं के दोहरे मापदंड यानि अपने लिए कुछ और राज्य के मामले में कुछ और की पोल खोलना मात्र है।

रविवार, 3 जनवरी 2016

राजगीर पे करम सही मगर वैशाली पे सितम क्यों?


हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,किसी को भी पता नहीं है कि बिहार सरकार का पर्यटन के लिए रोडमैप क्या है। अगर तनिक गौर से भी देखा जाए तो हम पाएंगे कि बिहार की वर्तमान सरकार के लिए राजगीर और नालंदा ही पर्यटन की दृष्टि से सबकुछ है। अगर हम यह कहें कि नालंदा जिला ही नीतीश कुमार के लिए पूरा बिहार है तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मित्रों,कोई भी नेता या सीएम पहली प्राथमिकता अपने इलाके को देता है इसलिए अगर नीतीश कुमार भी ऐसा करते हैं तो जरूर करें लेकिन न जाने क्यों वे बिहार के दूसरे सबसे महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल वैशाली से नाराज दिखते हैं। राजगीर तो वे बार-बार जाते हैं,टमटम की सवारी करते हैं,वहाँ नौका विहार भी करते हैं लेकिन कभी वैशाली के लिए वक्त नहीं निकालते। यहाँ तक कि वैशाली महोत्सव के उद्घाटन में भी नहीं आते। अभी वैशाली के जिला मुख्यालय हाजीपुर से सटे दुनिया के सबसे बड़े मेले सोनपुर मेले का समापन हुआ है नीतीश जी इसके उद्घाटन में तो नहीं ही आते हैं मेला घूमने भी नहीं आते। हम बराबर अखबार में पढ़ते हैं कि राजगीर में यह बन रहा है या यह बन चुका है लेकिन वैशाली में? इतिहास साक्षी है कि भगवान बुद्ध को वैशाली भी कम प्रिय नहीं थी फिर यह नीतीश कुमार जी और उनकी सरकार को अप्रिय क्यों है?
मित्रों,हद तो तब हो जाती है जब हम पाते हैं कि विगत कई वर्षों से बिहार सरकार जैनियों के अंतिम तीर्थंकर महावीर का जन्मोत्सव वैशाली के बाहर मगध के किसी स्थान पर मनाने लगी है। यह तो बहुत पहले ही सिद्ध हो चुका है और इतिहासकारों में निर्विवादित तथ्य भी है कि महावीर का जन्म वैशाली के लिच्छवी गणतंत्र के राजपरिवार में हुआ था। यह भी निर्विवादित तथ्य है कि लिच्छवी गणतंत्र गंगा के उत्तर में स्थित था फिर पिछले कुछ वर्षों में महावीर गंगा के दक्षिण मगध या अंग क्षेत्र में कैसे पैदा होने लगे हैं समझ में नहीं आता। क्या गंगा के दक्षिण दक्षिण बिहार में महावीर जन्मोत्सव मनाना वैशाली के खिलाफ कोई सरकारी साजिश है? यह सही है कि महावीर ने नालंदा जिले के पावापुरी में अपने प्राण त्यागे थे लेकिन जन्म तो उन्होंने वैशाली में ही लिया था और जैन और बौद्ध धर्मग्रंथ भी तो ऐसा ही मानते हैं। अगर बिहार सरकार या नीतीश कुमार के मन में वैशाली के खिलाफ कोई साजिश चल रही है तो बिहार के हित में उस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगनी चाहिए। वैसे इतिहास साक्षी है कि नीतीश जी के मगध और हमारी वैशाली के बीच लंबे समय तक शत्रुता चलती रही लेकिन उसे समाप्त हुए तो हजारों साल बीत चुके हैं।
मित्रों,अब थोड़ी बात कर लेते हैं बिहार की बिगड़ती कानून-व्यवस्था पर। पिछले दिनों मुख्यमंत्री बिहार जो गृह मंत्री भी हैं ने राजधानी पटना में लगातार कई दिनों तक राज्य के वरीय पुलिस अधिकारियों के साथ मीटिंग की। एक मीटिंग से तो उन्होंने कई अधिकारियों को उसी तरह बाहर निकाल दिया जैसे कि अयोग्य शिक्षक कक्षाओं से शरारती बच्चों को निकाल देते हैं। यहाँ तात्पर्य उन शिक्षकों से है जिनको पढ़ाना तो आता नहीं सिर्फ अनुशासन का डंडा फटकारना आता है। कदाचित् नीतीश जी भी बिहार की कानून-व्यवस्था के मामले में कुछ इसी तरह का आडंबरपूर्ण रवैया अख्तियार किए हुए हैं। सारे योग्य अधिकारियों को तो उन्होंने संटिंग में डाल रखा है और जमकर ट्रांस्फर और पोस्टिंग के नाम पर पैसा भी बना रहे हैं। उनकी जिद है कि हम गदहों से ही घोड़ों का काम लेंगे। दूसरी तरफ उनके बड़े भाई लालू प्रसाद जी प्रसिद्ध पुलिस अधिकारी अभयानंद के पीछे पड़े हुए हैं जबकि यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नीतीश कुमार के सीएम बनने के बाद अभयानंद जी के फार्मूले पर चलने से ही बिहार की कानून-व्यवस्था में सुधार हुआ था। यह बात भी किसी से छिपी हुई नहीं है कि लालू जी को अपने एकछत्र राज के समय से ही अभयानंद,डीएन गौतम और किशोर कुणाल जैसे वर्तमान और अवकाशप्राप्त जिद्दी, ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों से चिढ़ है।
मित्रों,ऐसे में सोंचना नीतीश जी को है कि वे बिहार को किस बिहार मॉडल से चलाना चाहते हैं-अपने मॉडल से जिस पर उन्होंने शासन संभालने के आरंभिक वर्षों में अमल किया था या फिर लालू जी के मॉडल से जिस पर चलकर कोई दशकों तक लगातार किसी राज्य को बर्बाद करते हुए भी सत्ता में बना रह सकता है।