गुरुवार, 15 अगस्त 2019

बच्चों को कब मिलेगी आज़ादी


मित्रों, कहते हैं कि बचपन हर गम से बेगाना होता है लेकिन सच्चाई तो यह है कि आज बच्चे जैसे ही स्कूल जाना शुरू करते हैं उनके ऊपर भारी-भरकम बोझ डाल दिया जाता है. उदाहरण के लिए मेरे बेटे भगत को ही लें तो वो साढ़े सात-पौने आठ बजे स्कूल बस से अपने स्कूल श्रीराम इंटरनेशनल स्कूल मुस्ताफापुर-चकौसन, वैशाली, बिहार के लिए रवाना हो जाता है और वापस लौटता है साढ़े तीन-पौने चार बजे. इस तरह कुल मिलाकर उस ६ साल के प्रेप में पढनेवाले बच्चे को ८ घंटे स्कूल में रहना पड़ता है. जब मैंने स्कूल प्रशासन से इस बारे में शिकायत की और कहा कि बच्चे के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड रहा है तो उनका कहना था कि सीबीएसई के नियमानुसार ऐसा करना जरूरी है. तथापि मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई निर्देश सीबीएसई ने कभी जारी किया है और वो भी प्रेप के विद्यार्थियों के लिए. कम-से-कम मुझे सीबीएसई की वेबसाईट पर तो ऐसा कुछ नहीं मिला.
मित्रों, इतना ही नहीं शिक्षा के बाजारीकरण ने बच्चों की शिक्षा को बेहद महंगा बना दिया है.  बिहार और भारत के सबसे गरीब ईलाकों में से एक वैशाली जिले के निरा देहात में मुझे अपने बच्चे के लिए ३००० महीने की फीस भरनी पड़ती है. १९८० के दशक में जब मैं स्कूल में पढता था तब शायद पूरे दस साल में कुल मिलाकर भी मुझे इतनी फीस नहीं देनी पड़ी थी. लेकिन वह दौर सरकारी स्कूलों का था और आज सरकारी स्कूलों में बांकी सबकुछ होता है बस पढाई नहीं होती. ऐसे माहौल में कोई गरीब कहाँ से और कैसे अपने बच्चे को पढ़ाएगा. उस पर तुर्रा यह कि इन स्कूलों में बराबर कोई-न-कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता रहता है जिसके कारण अभिभावकों को अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है. आज स्थिति इतनी ख़राब है कि पहले लोग बिमारियों के कारण गरीबी रेखा के नीचे चले जाते थे और आज बच्चों को पढ़ाने के चक्कर में भी महाजनों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. और कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि बंधक रखा गहना छूट भी नहीं पाता और डूब जाता है. मुझे खुद भगत के नामांकन में २५००० रू. से ज्यादा खर्च करने पड़े और गहना बंधक रखना पड़ा.
मित्रों, यह बहुत अच्छी बात है कि गरीबों के स्वास्थ्य को लेकर सरकार चिंतित है लेकिन यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि बच्चों की शिक्षा को लेकर सरकार कतई चिंतित नहीं है. निजी स्कूलों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर सरकार का रवैया हम मुजफ्फरपुर में फैले चमकी बुखार के समय अभी कुछ हफ्ते पहले ही देख चुके हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि देश के उन बच्चों का क्या होगा जिनके हाथों में देश का भविष्य है? वैसे भी हमारे संविधान का सार कहा जानेवाले प्रस्तावना के अनुसार भारत एक लोककल्याणकारी गणराज्य है. ऐसे में सरकार कैसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के हवाले कर सकती है? फिर तो भारत लोककल्याणकारी राज्य के बदले धनपतिकल्याणकारी राज्य बनकर रह जाएगा.
मित्रों, हम बार-बार दम भरते हैं कि हमें भारत को अमेरिका बनाना है तो मैं बता दूं कि अमेरिका में भी १९३९ में महामंदी आई थी और तब वहां की सरकार को भी घनघोर पूंजीवाद के स्थान पर कई लोककल्याणकारी कदम उठाने पड़े थे. यकीं न हो तो वित्त मंत्री अमेरिका का इतिहास पढ़ सकती हैं. मैं समझता हूँ कि इस समय हमारी अर्थव्यवस्था भी महामंदी की तरफ अग्रसर है.
मित्रों, विषयांतर के लिए क्षमा मांगते हुए आज ७३ वें स्वाधीनता दिवस के अवसर पर मैं भारत सरकार से अनुरोध करता हूँ कि वो ऐसे प्रबंध करे जिससे देश के मासूम बच्चों को भी सही मायने में आजादी मिल सके-अज्ञानता से आजादी, कुपोषण से आजादी, शिक्षा के नाम पर किए जानेवाले आर्थिक शोषण से आजादी.

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