शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

मोदीजी को अर्थव्यवस्था के लुढकने की बधाई


मित्रों, कई दशक पहले ७वीं कक्षा में मैंने गणित का एक प्रश्न पढ़ा था कि एक बन्दर एक खम्भे पर एक मिनट में १० मीटर चढ़ता है और दूसरे मिनट में ५ मीटर फिसल जाता है तो वो कितनी देर में खम्भे पर चढ़ जाएगा. अब अगर इस सवाल को उलट दें मतलब कि पहले मिनट में बन्दर ५ मीटर चढ़े और दूसरे मिनट में १० मीटर फिसल जाए तो? तो शायद बन्दर कभी खम्भे पर नहीं चढ़ पाएगा.
मित्रों, आजकल यही स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था की है. एक तिमाही में यह जितनी चढ़ रही है दूसरी तिमाही में उससे ज्यादा उतर जा रही है. पिछले साल से ही प्रत्येक सेक्टर में खासकर विनिर्माण में भारी गिरावट आ रही है जिससे रोजगार की स्थिति काफी ख़राब है और दिन-ब-दिन ख़राब ही होती जा रही है. शेयर बाज़ार को अर्थव्यवस्था का थर्मामीटर कहा जाता है और वहां भी स्थिति कत्लेआम वाली ही है. और अब तो विश्वबैंक के नए आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि हमने २०१७ में जो पाया था उसे २०१९ में गँवा दिया है. अर्थात हम जिस सातवें स्थान से उछलकर वैश्विक अर्थव्यवस्था में ५वें स्थान पर पहुंचे थे एक बार फिर से पुनर्मूषिको भव की तरह उसी ७ वें स्थान पर पहुँच गए हैं.
मित्रों, आगे मुझे लगता है कि हमारी स्थिति उस बन्दर वाली होनेवाली है जो पहले मिनट में ५ मीटर चढ़ता था और दूसरे मिनट में १० मीटर फिसल जाता था. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सरकार खुद ही अर्थव्यवस्था की बाट लगानेवाले कदम उठा रही है और लगातार उठा रही है. बैटरीचालित गाड़ियों की कीमत पर ऑटोमोबाइल उद्योग का भट्ठा बैठाने की पूरी व्यूह-रचना तैयार है. मैं पूछता हूँ कि क्या इस काम को ऑटोमोबाइल सेक्टर को बचाते हुए नहीं किया जा सकता था या किया जा सकता है? इससे पहले रियल स्टेट सेक्टर को प्रयत्नपूर्वक बर्बाद कर दिया गया. सरकार उत्पादन बढ़ाने की दिशा में तो काम कर रही है लेकिन यह नहीं समझ पा रही है कि मांग कैसे पैदा होगी? राजकोषीय घाटे का कम होना जरूरी है लेकिन इतना भी नहीं कि मांग ही समाप्त हो जाए. इतना ही नहीं एक-एक कर सारी सरकारी नवरत्न कंपनियों को काफी मेहनत करके बीमार किया जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब मांझी ही नाव को डुबो देना चाहता है तो उसे बचाया कैसे जाए? इसी तरह परिवहन कानूनों में बदलाव कर जुर्माने को बढ़ाने से किसी भी तरह सरकार की आमदनी नहीं बढ़ेगी बल्कि पुलिसवालों की बढ़ेगी.
मित्रों, मैंने कई साल पहले ही मोदी जी को अपने एक आलेख में कहा था कि एक वित्त मंत्रालय चाहे तो पूरे देश को बर्बाद कर सकता है और आपने उसी को अरुण जेटली जैसे नासमझ अर्थशास्त्री के हाथों में दे दिया है. लेकिन अब मुझे लगता है कि इस सरकार में चाहे वित्त मंत्री कोई भी रहे नीति वही रहेगी जिससे सिर्फ-और-सिर्फ मंदी आएगी. कदाचित इस सरकार के ईंजन में सिर्फ बैक गियर है फॉरवर्ड गियर है ही नहीं. मैं यह नहीं कहता कि सरकार को सामाजिक सुधारों को नहीं करना चाहिए लेकिन उसके साथ-साथ अर्थव्यवस्था की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है यह भी समझना होगा. वैसे अगर हर मामले में पाकिस्तान के साथ तुलना करके खुश होना है तो होईए और होते रहिए लेकिन तब विश्वगुरु बनने के सपने को भूल समझ कर भूल जाना होगा. वैसे कभी-कभी मेरे दिल में यह ख्याल भी आता है कि क्या बन्दर खम्भे पर बिना फिसले नहीं चढ़ सकता था? 

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