मित्रों, इन दिनों हम महात्मा गाँधी की १५०वीं वर्षगांठ मना रहे हैं. यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने पिछले दशकों में गाँधी जी को बुद्ध और कबीर की तरह सीधे भगवान ही बना दिया जबकि गाँधी भी इनकी ही तरह मानव थे. बुद्ध और कबीर ने तो लोगों को मना भी किया था कि मरने के बाद मुझे भगवान मत बना देना लेकिन भारत की जनता सुनती कहाँ हैं वो तो बस पूजती है. अगर महापुरुषों की सुनती तो आज भारत की हालत वो नहीं होती जो है.
मित्रों, मेरी बातों से आप अब तक यह समझ गए होंगे कि मैं गाँधी जी को भगवान नहीं मानता इसलिए मैं उनका भक्त भी नहीं हूँ और इसलिए मैं उनके मूल्यांकन में निर्ममता बरतनेवाला हूँ. मैं समझता हूँ कि खुद गाँधी ने भी अपना निर्मम और तटस्थ मूल्यांकन करने की कोशिश की थी वरना वे अपनी आत्मकथा में उन बातों का जिक्र नहीं करते जो अश्लील तो हैं ही खुद उनका चरित्रहनन करती हैं. जी हाँ, आपने सही समझा मैं उनकी आत्मकथा में वर्णित शादी के तत्काल बाद पत्नी कस्तूरबा का साथ किए गए सेक्स और बुढ़ापे में नंगी लड़कियों के साथ नंगे सोकर किए गए ब्रह्मचर्य के अनूठे प्रयोग की बात कर रहा हूँ.
मित्रों, हम सभी अपनी जीवन में बहुत सारे ऐसा काम करते हैं जिनको प्रकट करना समाजोपयोगी नहीं होता. मैं समझता हूँ कि भले ही गाँधी जी सत्यवादी थे लेकिन हम जानते हैं कि गाँधी संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे और संस्कृत कहता है- सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात अप्रियम सत्यम. गांधीजी को समझना चाहिए था कि ऐसा नंगा सत्य किसी के काम का नहीं होता जो खुद आपको ही नंगा कर दे. सच्चाई अच्छी चीज है लेकिन उससे कहीं ज्यादा जरूरी है व्यावहारिकता. यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि गाँधी का ब्रह्मचर्य को लेकर किये गए प्रयोग किसी भी तरह से नैतिक नहीं थे. ब्रह्मचर्य की जांच के और भी तरीके हो सकते हैं लेकिन यह तरीका नहीं हो सकता.
मित्रों, बहुत सारे लोग समझते हैं कि गाँधी जी काफी विनम्र, अभिमानरहित और लोकतान्त्रिक थे लेकिन अगर हम गाँधी जी के जीवन को देखें तो हम पाते हैं कि ऊपर से गाँधी भले ही विनम्र दिखें लेकिन अन्दर से वे अभिमानी और तानशाह थे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि गाँधी १९२० के बाद से ही कांग्रेस को अपने इशारों पर चलाते रहे यहाँ तक कि १९३४ में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी मगर कांग्रेस फिर भी उनका जेबी संगठन बना रहा. यहाँ तक कि १९३९ में जब त्रिपुरी अधिवेशन में गाँधी के उम्मीदवार पट्टाभिसीतारमैया को हराकर सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए तब गाँधी जी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार माना और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों पर अपने प्रभाव का बेजा इस्तेमाल करते हुए सुभाष बाबू को काम करने से रोक दिया. अंततः बड़े ही भरे मन से सुभाष बाबू को कांग्रेस अध्यक्ष के पद इस्तीफा देना पड़ा. अगर गाँधी जी निरभिमानी और लोकतांत्रिक होते तो मैं समझता हूँ कि सुभाष बाबू का साथ देते न कि विरोध करते. बाद में हम पाते हैं कि जब आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री चुनने का अवसर आया तब भी गाँधी ने सीडबल्यूसी के बहुमत को नजरअंदाज करते हुए पटेल की जगह नेहरू को भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जो तत्कालीन परिस्थितियों में बिलकुल भी सही नहीं थे और जिनकी गलतियों का परिणाम आज भी भारत भुगत रहा है.
मित्रों, इसी तरह गाँधी का मुस्लिमों के प्रति तुष्टीकरण वाला व्यवहार कई बार इतने आगे तक चला जाता था कि हिन्दुओं को क्षति उठानी पड़ रही थी. चाहे दंगें हो या पाकिस्तान को पैसा देने के लिए अनशन करना. मैं समझता हूँ कि गाँधी उसी तरह दिन-ब-दिन भारत के लिए ज्यादा हानिकारक होते जा रहे थे जैसे कि महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह धर्म और पांडवों की जीत में रोड़ा बन गए थे. जैसे भीष्म पर प्रहार करते समय अर्जुन का ह्रदय रो रहा था उसी तरह से गाँधी पर गोली चलाते समय नाथूराम गोडसे भी दुखी थे.
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