शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

हर हर मोदी हर जगह मोदी

मित्रों, अडोल्फ हिटलर का जन्म आस्ट्रिया के वॉन नामक स्थान पर 20 अप्रैल 1889 को हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लिंज नामक स्थान पर हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की अवस्था में वे वियना चले गए। कला विद्यालय में प्रविष्ट होने में असफल होकर वे पोस्टकार्डों पर चित्र बनाकर अपना निर्वाह करने लगे। इसी समय से वे साम्यवादियों और यहूदियों से घृणा करने लगे। जब प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ तो वे सेना में भर्ती हो गए और फ्रांस में कई लड़ाइयों में उन्होंने भाग लिया। 1918 ई. में युद्ध में घायल होने के कारण वे अस्पताल में रहे। जर्मनी की पराजय का उनको बहुत दु:ख हुआ। 1918 ई. में उन्होंने नाजी दल की स्थापना की। इसका उद्देश्य साम्यवादियों और यहूदियों से सब अधिकार छीनना था। इसके सदस्यों में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा था। इस दल ने यहूदियों को प्रथम विश्वयुद्ध की हार के लिए दोषी ठहराया। आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण जब नाजी दल के नेता हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों में उसे ठीक करने का आश्वासन दिया तो अनेक जर्मन इस दल के सदस्य हो गए। हिटलर ने भूमिसुधार करने, वर्साय संधि को समाप्त करने और एक विशाल जर्मन साम्राज्य की स्थापना का लक्ष्य जनता के सामने रखा जिससे जर्मन लोग सुख से रह सकें। इस प्रकार १९२२ ई. में हिटलर एक प्रभावशाली व्यक्ति हो गए। उन्होंने स्वास्तिक को अपने दल का चिह्र बनाया जो कि हिन्दुओं का शुभ चिह्र है. समाचारपत्रों के द्वारा हिटलर ने अपने दल के सिद्धांतों का प्रचार जनता में किया। भूरे रंग की पोशाक पहने सैनिकों की टुकड़ी तैयार की गई। 1923 ई. में हिटलर ने जर्मन सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। इसमें वे असफल रहे और जेलखाने में डाल दिए गए। वहीं उन्होंने मीन कैम्फ ("मेरा संघर्ष") नामक अपनी आत्मकथा लिखी। इसमें नाजी दल के सिद्धांतों का विवेचन किया। उन्होंने लिखा कि आर्य जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और जर्मन आर्य हैं। उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए। यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। जर्मन लोगों को साम्राज्यविस्तार का पूर्ण अधिकार है। फ्रांस और रूस से लड़कर उन्हें जीवित रहने के लिए भूमि प्राप्ति करनी चाहिए। १९३०-३२ में जर्मनी में बेरोज़गारी बहुत बढ़ गई। संसद में नाजी दल के सदस्यों की संख्या २३० हो गई। १९३२ के चुनाव में हिटलर को राष्ट्रपति के चुनाव में सफलता नहीं मिली। जर्मनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई और विजयी देशों ने उसे सैनिक शक्ति बढ़ाने की अनुमति दी। १९३३ में हिटलर चांसलर बना और चांसलर बनते ही हिटलर ने जर्मन संसद को भंग कर दिया, साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया और राष्ट्र को स्वावलंबी बनाने के लिए ललकारा। हिटलर ने डॉ॰ जोज़ेफ गोयबल्स को अपना प्रचारमंत्री नियुक्त किया। नाज़ी दल के विरोधी व्यक्तियों को जेलखानों में डाल दिया गया। कार्यकारिणी और कानून बनाने की सारी शक्तियाँ हिटलर ने अपने हाथों में ले ली। १९३४ में उन्होंने अपने को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया। उसी वर्ष हिंडनबर्ग की मृत्यु के पश्चात् वे राष्ट्रपति भी बन बैठे। नाजी दल का आतंक जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छा गया। १९३३ से १९३८ तक लाखों यहूदियों की हत्या कर दी गई। नवयुवकों में राष्ट्रपति के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करने की भावना भर दी गई और जर्मन जाति का भाग्य सुधारने के लिए सारी शक्ति हिटलर ने अपने हाथ में ले ली। हिटलर ने १९३३ में राष्ट्रसंघ को छोड़ दिया और भावी युद्ध को ध्यान में रखकर जर्मनी की सैन्य शक्ति बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। प्राय: सारी जर्मन जाति को सैनिक प्रशिक्षण दिया गया।
मित्रों, आप सोंच रहे होंगे कि मुझे हो क्या गया है? शीर्षक में तो हिटलर नहीं था फिर आलेख की शुरुआत हिटलर के जिक्र से क्यों. दरअसल कभी-कभी वर्तमान की जड़ें काफी गहरे तक भूतकाल तक गई हुई होती हैं इसलिए इतिहास के आईने में झांकना जरूरी हो जाता है. मैं नहीं जानता कि आपको याद है या नहीं लेकिन मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मोदी जी २०१४ में प्रधानमंत्री बने थे तब उनका व्यवहार कैसा था. उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री की जगह प्रधानसेवक और चौकीदार बताया था. जब वे पहली बार संसद पहुंचे तो संसद को मंदिर का दर्जा देते हुए उसकी सीढियों पर मत्था टेका था. भाजपा के नवनिर्वाचित सांसदों की बैठक में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के चरण छुए थे और गले लगकर रोने लगे थे. लगा जैसे भारत की सत्ता एक संत के हाथों में आ गयी है. लेकिन धीरे-धीरे मोदी ने हिटलर की तरह वन मैन शो की तरफ बढ़ना शुरू किया. उम्र सीमा का बहाना बनाकर किसी भी बुजुर्ग को मंत्री नहीं बनाया. हर महीने के आखिरी रविवार को खुद ही देश के साथ सीधा संवाद करना शुरू कर दिया मानों उन्हें मीडिया की जरुरत ही नहीं. इसके साथ-साथ मीडिया पर अपना विरोधी होने का जमकर प्रचार भी किया. जब-जब चुनाव आया पाकिस्तान पर हमला करके देश में सैन्य राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर दी. सारे आर्थिक-सामाजिक आंकड़ों को दबाने का प्रयास किया जिससे जनता को वास्तविकता का पता न चले. २०१९ के चुनाव में सारे बुजुर्गों के टिकट काट दिए गए. २०१९ के चुनावों के समय अपना टीवी चैनल नमो टीवी संचालित किया. जबसे प्रधानमंत्री बने कोई प्रेस वार्ता आयोजित नहीं की क्योंकि उनको बोलना और आदेश देना अच्छा लगता है सुनना और सवालों का उत्तर देना पसंद नहीं है. जब भी विदेश यात्रा पर गए अकेले हवाई जहाज में चढ़ते और उतरते हुए दिखे जैसे कि हवाई जहाज में वे अकेले थे और हवाई जहाज को स्वयं ही उड़ा रहे थे और जैसे कि भारत की विदेश नीति का सञ्चालन वे अकेले ही करते हैं. जब भी कोई मंत्री अच्छा काम करता हुआ दिखा या तो उसके पर क़तर दिए गए या फिर बाहर कर दिया गया. सर्वोच्च न्यायालय को अपने पक्ष में करने का भरसक प्रयास किया गया. राष्ट्रपति एक ऐसे व्यक्ति को बनाया जो कभी उनकी बात को टाल नहीं सके. सारे राज्यपाल आज मोदी के आदेशपाल बनकर रह गए हैं. देश में मोदी विरोध को देशद्रोह का पर्याय बना दिया गया मानों मोदी ही भारत हैं. एक ऐसी महिला को वित्त मंत्री बनाया जिसे इस विषय का कोई ज्ञान ही नहीं है. इस प्रकार देश की उडान भर रही अर्थव्यवस्था आज क्रैश लैंडिंग की स्थिति में पहुँच गयी है. पूरे मंत्रीमंडल में लगता है जैसे कोई मंत्री है ही नहीं सिर्फ मोदी हैं. सारे सरकारी निगमों, विश्वविद्यालयों को अपने भजनकर्ताओं से भर दिया. सारे पेट्रोलपम्पों और सार्वजनिक स्थानों पर सिर्फ अपनी तस्वीर लगवाई मानों एक अकेला व्यक्ति पूरे देश को चला रहा है और बांकी के लोग झक मार रहे हैं. हिन्दुओं के मन में श्रेष्ठता-भाव को उग्रता की हद तक ले जाने की कोशिश की गयी. देश में मुस्लिम-विरोधी माहौल उत्पन्न करने का यथासंभव प्रयास किया. यहाँ तक कि गाँधी-नेहरू का भी जमकर चरित्र-हनन किया गया. विपरीत और मध्यमार्गी विचारधाराओं के खिलाफ जमकर प्रचार किया गया. बार-बार देश में पहली बार वाक्य का प्रयोग किया गया जैसे २०१४ से पहले भारत था ही नहीं. अपनी और अपनी सरकार की सारी विफलताओं के लिए पिछली सरकार और पंडित नेहरु को दोषी ठहराया गया मानों इनको जनता ने बस इसी काम के लिए चुना था. मीडिया को अपने गुणगान करने के लिए येन-केन-प्रकारेन प्रभावित किया गया भले ही सरकार के कदम कितने ही मूर्खतापूर्ण क्यों न हों जैसे कि देश का अति तीव्र गति से निजीकरण, जीएसटी और पागलपन भरा नोटबंदी. अपने गठबंधन के सहयोगियों को समान मानने के बदले पिछलग्गू बनाकर रखने का प्रयास किया गया. वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह को गृह मंत्री से हटाकर अपने चहेते अमित शाह को गृह मंत्री बनाया. आज आकाशवाणी समाचार में सिर्फ नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ भाजपा के वरिष्ठ नेता संबोधन बोला जाता है मानों वे भाजपा में अकेले वरिष्ठ नेता हैं. आज जिस भी पद पर नियुक्ति का अधिकार भारत सरकार को है हर जगह सिर्फ और सिर्फ मोदी की भजन मंडली के लोग बिठा दिए गए हैं और चूंकि साहेब को आलोचना से सख्त नफरत है इसलिए वे दिन-रात उनकी झूठी प्रशंसा करते रहते हैं.
मित्रों, कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इतिहास अपने को दोहरा रहा है. जो कुछ भी सौ साल पहले जर्मनी में हुआ था वैसा ही भारत में करने की कोशिश की जा रही है. मैं यह तो नहीं जानता कि इस दिशा में मोदी किस हद तक जाएंगे लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ भारत जर्मनी नहीं है इसलिए बहुत जल्द उनका पराभव निश्चित है और कदाचित प्रारंभ हो भी चुका है. वैसे सत्ता आने पर अभिमान तो हर किसी में आ जाता है. गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के बाल काण्ड में दक्ष प्रजापति प्रसंग में कहा है कि- नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥ तथापि सत्य तो यह भी है कि अहंकार भगवान का भोजन है.
भगवान किसी का अहंकार रहने नहीं देते। उसे नष्ट कर देते हैं जब उनकी इच्छा हो जाती है। जग छूट जाता है, बड़े-बड़ों का घमंड टूट जाता है। एक समय हिटलर का अहंकार भी टूटा था.

सोमवार, 25 नवंबर 2019

लोकतंत्र का चीरहरण करते उसके बेटे


मित्रों, हम भारत की जनता बहुत बड़े वाले अभागे हैं. हम चाहे जिस भी नेता पर दांव लगाएं आगे चलकर वो धोखेबाज ही निकलता है. अब नरेन्द्र मोदी को ही ले लें. हमने देखा था और गौरवान्वित हुए थे कि यह आदमी पहली बार जब संसद पहुंचा तो इसने उसकी सीढियों पर मत्था टेका जैसे वो संसद नहीं सचमुच का मंदिर हो. लेकिन आदमी जैसा दिखता है वैसा होता कहाँ है. बहुत जल्द परिदृश्य बदल गया और वही व्यक्ति लोकतंत्र का चीरहरण करता हुआ दिखने लगा. लगा जैसे लोकतंत्र द्रौपदी बन गई है और भरी सभा में विलाप कर रही है कि मुझे मेरे बेटों से बचाओ अन्यथा ये मेरी ईज्जत तार-तार कर देंगे. वह आर्तनाद कर रही है, बार-बार उनको याद दिला रही है कि तुमने मेरे ही गर्भ से जन्म लिया है लेकिन सत्ता के मद में चूर उनके बेटे उसकी एक नहीं सुन रहे. द्वापर होता तो योगेश्वर कृष्ण जरुर आते उसकी ईज्जत बचाने लेकिन कलियुग का भगवान तो कोई और है और वो है पैसा और पैसा सत्ता से आता है. अगर कलियुग में भगवान भगवान होते तो हमारे अख़बार रोजाना रंगे नहीं होते बलात्कार की खबरों से. भगवान ने चमत्कार करके बलात्कारियों के सर के सौ टुकड़े नहीं कर दिए होते? इसलिए वही प्रश्न शेष है कि ऐसे में कौन बचाएगा इस अबला नारी की ईज्जत? कैसे शेष बचेगा भारत में लोकतंत्र का अस्तित्व? हमने तो सोंचा था, इस देश की बहुसंख्य जनता ने सोंचा था, निराश-हताश मन में उम्मीद बाँधी थी कि ये लोग भारत को सचमुच विश्वगुरु बनाने के लिए आए हैं लेकिन इनके मन में कुछ और था और जुबान पर कुछ और. हम भारतीय इतने भोले और भावुक हैं कि हम एकल चेहरा नहीं पढ़ पाते फिर लोकतंत्र के इन बेटों के तो अनगिनत चेहरे थे और उनका अभिनय इतना उच्चस्तरीय था कि उनके समक्ष शायद भगवान भी होते तो धोखा खा जाते फिर आदम जात की क्या बिसात!

मित्रों, एक वो नारायण थे जिन्होंने धर्म की स्थापना के लिए बार-बार अवतार लिया और एक यह नारायण राणे है जो कहता है कि उसने लोकतंत्र को मंडी में, बाज़ार में बदल दिया है और इस बाज़ार में बिकने के लिए बहुत-सारे विधायक सज-धज कर तैयार बैठे हैं. ऐसे में आप ही बताईये कि कैसे बचेगी लोकतंत्र की जान और अगर जान बच भी गई तो ईज्जत खो चुकी यह आधुनिक द्रौपदी कैसे कर पाएगी दुनिया के प्रश्नवाचक-शरारत भरी नज़रों का सामना? इस बेचारी का जो अपमान बूथ लूट से शुरू हुआ था अब वो चरम पर पहुँच चुका है. अब सीधे सांसदों-विधायकों की लूट होने लगी है, सरकार की लूट होने लगी है. खुद बहुत-सारे सांसद-विधायक बिकने को तैयार बैठे हैं. नीलामी शुरू है,लोग बोलियाँ लगा रहे हैं, २० करोड़-३० करोड़-५० करोड़. जैसे दुनिया को शून्य देनेवाले देश में १ के बाद शून्य का कोई महत्त्व ही नहीं रह गया हो. पार्टियाँ विधायकों को जानवरों के बाड़े की तरह होटल में बंद करके रख रही हैं ताकि उनको बिकने से बचाया जा सके. संविधान और विधान बेमतलब हो गए हैं. लोकतंत्र का आधुनिक मंदिर संसद के स्थान पर होटल बन गए हैं और यह सब उनके इशारों पर हो रहा है जिन्होंने कभी संसद की सीढियों पर मत्था टेका था. इतना बड़ा धोखा! इस इंसान को क्या समझा था और क्या निकला! हा दैव, अब हम किसे पुकारें, कौन करेगा हमारी रक्षा जब सारे रक्षक ही भक्षक बन गए हैं. उल्लू तो फिर भी ठीक थे तुमने तो हर डाल पे गिद्ध बैठा दिए हैं प्रभु.

शनिवार, 23 नवंबर 2019

शून्य पर सवार भारतीय राजनीति


मित्रों, जबकि इस घनघोर कलियुग में भगवान की भक्ति तक को गंदा धंधा बना दिया गया है राजनीति के गन्दा हो जाने को बिलकुल भी अनपेक्षित नहीं कहा जा सकता. एक समय था जब दिल्ली में सोनिया माता का शासन था और उनका स्पष्ट रूप से मानना था कि दाग बुरे नहीं बल्कि अच्छे हैं. शायद इसलिए उनदिनों कांग्रेस में जो जितना ज्यादा बदनाम था वो सरकार में उतने ही बड़े पद पर था. फिर अन्ना हजारे केजरीवाल नामक स्वघोषित महासत्यवादी को साथ लेकर आए जिन्होंने अपने बच्चों की कसम खाकर अन्ना के मंच से घोषणा की कि वे कभी राजनीति में नहीं जाएंगे. लेकिन सारे कसमों को तोड़ते हुए केजरीवाल राजनीति में आ गए और यह कहते हुए आए कि उन्होंने ऐसा मजबूरी में किया है क्योंकि वे राजनीति से गंदगी को साफ़ करने आए हैं. बहुत जल्द उनकी बार-बार की बन्दरगुलाटी से जनता उब गयी और जो केजरीवाल केंद्र में सरकार गठन के सपने देख रहे थे सिर्फ दिल्ली में सिमट कर रह गए.
मित्रों, इस बीच जो शून्य भारतीय राजनीति में पैदा हुआ उससे जमकर लाभ उठाया भारतीय जनता पार्टी ने और मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनावों के समय वादों की झड़ी लगा दी. लगा जैसे अब भारत और भारतीय राजनीति में राम राज्य आकर रहेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं और भारत में रामराज्य के बदले अम्बानी-अडानी राज आ गया. जो सरकारी कंपनियां कभी नवरत्न थी आज नौ-नौ पैसे में बेची जा रही हैं. मोदी ने चुनावों के समय कांग्रेस पर देश में भ्रष्टाचार फ़ैलाने का आरोप लगाते हुए देश को कांग्रेसमुक्त करने का वादा किया था लेकिन चुनावों के बाद उन्होंने भाजपा को जैसे गंगा बना दिया. कांग्रेस के लोग झुण्ड-के-झुण्ड भाजपा के घाट पर आने लगे और डुबकी लगाकर पवित्र होने लगे.
मित्रों, आज की तारीख आते-आते देश की राजनीति में ऐसी स्थिति हो गयी है कि भाजपा विधायकों को खरीद कर हारा हुआ चुनाव भी जीत जा रही है. जैसे हमारे देश के राजनीतिज्ञों के शब्दकोश में नैतिकता शब्द है ही नहीं. बस येन-केन-प्रकारेण भाजपा को कुर्सी चाहिए. वैसे आज सुबह महाराष्ट्र में जो कुछ भी हुआ उसके लिए सिर्फ भाजपा ही दोषी हो ऐसा भी नहीं है. जब शिवसेना ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उसे चुनावों के बाद भी भाजपा के साथ ही रहना चाहिए था लेकिन उसने जनादेश का अपमान करते हुए एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला लिया.
मित्रों, आज सुबह जो खेल महाराष्ट्र में हुआ उसमें अगर सबसे ज्यादा नुकसान किसी को हुआ है वो है कांग्रेस पार्टी. शिवसेना को तो नुकसान हुआ ही है मगर कांग्रेस ने यह दिखा दिया कि सत्ता के लिए वो अपनी विचारधारा से भी समझौता कर सकती है. पवार फिर से महाराष्ट्र की राजनीति के सिकंदर बनकर उभरे हैं और सबसे ज्यादा फायदा उनको ही हुआ है. भाजपा के खेमे आ जाने से उनका पूरा परिवार अनगिनत घोटालों के आरोपों से रातोंरात मुक्त हो गया है. जहाँ तक भाजपा का सवाल है तो भाजपा के लिए महाराष्ट्र में सरकार का गठन भले ही तात्कालिक लाभ देनेवाला हो दीर्घकालिक रूप से उसके लिए नुकसानदेह ही साबित होगा क्योंकि अब उसका असली चेहरा भारत की जनता के समक्ष उजागर हो गया है और वो यह है कि भाजपा कहीं से भी पार्टी विथ डिफरेंस नहीं है बल्कि वो बांकी पार्टियों के मुकाबले कहीं ज्यादा लालची, अनैतिक और राजनैतिक शुचिता और मूल्यों से विहीन है. आज की भाजपा अटल-आडवाणी वाली भाजपा नहीं है बल्कि देश को बेच डालनेवाली महाभ्रष्ट पार्टी है और देश और देश की गरीब जनता के लिए हानिकारक हो चुकी है. निस्संदेह देश की राजनीति में फिर से बहुत बड़ा शून्य पैदा हो गया है.

सोमवार, 18 नवंबर 2019

आंकड़ों से भयभीत क्यों है मोदी सरकार?

मित्रों, जबसे केंद्र में मोदी सरकार का पदार्पण हुआ है तभी से ऐसा देखा जा रहा है कि जब भी कोई आर्थिक आंकड़ा सामने आता है सरकार के हाथ-पांव कांपने लगते हैं, सांसें फूलने लगती है और सरकार इस प्रयास में लग जाती है कि उन आकड़ों को कैसे जनता के सामने लाने से बचा जाए. कई बार तो सरकार ने आंकड़े तैयार करने का तरीका तक बदल डाला है.
मित्रों, जैसे ही २०१४ में मोदी सरकार सत्ता में आई इसने सबसे पहले जीडीपी का आधार वर्ष बदल दिया. सरकार समय-समय पर आधार वर्ष में बदलाव इसलिए करती है ताकि देश की अर्थव्यवस्था के बारे में आंकड़ों का दुनिया के हिसाब से तालमेल रखा जा सके. ऐसा माना जाता है अर्थव्यवस्था के सही आकलन के लिए हर पांच साल पर आधार वर्ष बदल देना चाहिए. साल 2015 में सरकार ने जीडीपी का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया था. लेकिन सरकार इतने पर ही नहीं रुकी उसने कहा कि आधार वर्ष के बदलने के बाद उसके पिछले वर्षों में जारी जीडीपी आंकड़ों में भी बदलाव किए जाने चाहिए. इसकी वजह से वित्त वर्ष 2006 से 2012 के बीच के जीडीपी आंकड़ों में कटौती कर दी गई, जबकि वे मनमोहन सिंह के दौर के ऊंचे जीडीपी वाले साल थे. यूपीए सरकार के छह साल (वित्त वर्ष 2006 से 2012) के दौरान औसत जीडीपी बढ़त को 7.75 फीसदी से घटाकर 6.82 फीसदी कर दिया गया.
मित्रों, साल 2015 में सरकार ने जीडीपी की गणना के तरीके में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव भी किए थे जिसकी तुलना आप नाच न जाने आँगन टेढ़ा कहावत से कर सकते हैं. इसके पहले तक जीडीपी को नापने के लिए कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र को जगह दी जाती थी. इसके तहत कृषि क्षेत्र में पशुपालन, मछली पालन, बागवानी और अन्य कई सेक्टरों को जोड़ दिया गया, जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादन का आंकड़ा बढ़ गया. ठीक इसी तरह से उत्पादन क्षेत्र में पहले टीवी और स्मार्टफोन से आने वाले पैसे को जगह नहीं दी जाती थी. 2015 में हुए बदलाव में इन सेक्टरों को भी शामिल किया गया है.  इसको लेकर भी आलोचकों ने कहा कि सरकार किसी भी तरह से जीडीपी के आंकड़े बढ़ा- चढ़ाकर दिखाने की कोशि‍श कर रही है.
मित्रों, दूसरी बार आंकड़ों को लेकर सरकार की घबराहट तब देखी गई जब केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने सरकार से हरी झंडी मिलने के बाद मोदी सरकार की ताजपोशी के अगले ही दिन २७ मई २०१९ को बेरोजगारी के आंकड़े जारी कर दिए. चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष के दावों को खारिज करती रही सरकार ने आखिरकार यह मान लिया कि बेरोजगारी की दर 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर है.जारी आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही. सवाल उठता है कि ये आंकड़े चुनाव-प्रचार के दौरान क्यों जारी नहीं किए गए या फिर सरकार इस दौरान क्यों झूठ बोलती रही कि रिपोर्ट में ऐसा नहीं कहा गया है? इस बीच नेशनल स्टेटिस्टिकल कमीशन यानी एनएससी के चेयरमैन समेत दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था। इन लोगों का आरोप था कि सरकार ने इस रिपोर्ट को छिपाकर रखा है और सार्वजनिक करने में आनाकानी कर रही है। यहाँ हम यह बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार दिया जाएगा।
 
मित्रों, अब केंद्र सरकार ने एक बार फिर नेशनल स्टैस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के 2017-18 के उपभोक्ता खर्च सर्वे डेटा को जारी नहीं करने का फ़ैसला किया है. सरकार ने कहा है कि डेटा की 'गुणवत्ता' में कमी के कारण इसे जारी नहीं किया जाएगा. सांख्यिकी और योजना कार्यान्वयन मंत्रालय ने बताया कि 'गुणवत्ता' को देखते हुए मंत्रालय ने 2017-18 के कंज्यूमर एक्सपेंडेचर सर्वे का डेटा नहीं जारी करने का फ़ैसला किया है. मंत्रालय ने कहा है, ''मंत्रालय 2020-21 और 2021-22 में उपभोक्ता खर्च सर्वे कराने की संभावनाओं पर विचार कर रही है.'' विशेषज्ञों का मानना है कि अगर ये डेटा जारी नहीं होता है तो भारत में दस सालों की ग़रीबी का अनुमान मुश्किल होगा. इससे पहले यह सर्वे 2011-12 में हुआ था. इस डेटा के ज़रिए सरकार देश में ग़रीबी और विषमता का आकलन करती है. इससे पहले बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार ने उपभोक्ता खर्च सर्वे की अहम बातें १४ नवम्बर, २०१९ को प्रकाशित करने का दावा किया था. इसमें बताया गया है कि पिछले 40 सालों में लोगों के खर्च करने क्षमता पहली बार कम हुई है. नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) के लीक हुए सर्वे के अनुसार एक महीने में एक भारतीय द्वारा खर्च की गई औसत राशि 2011-12 में 1,501 रुपये से गिरकर 2017-18 में 1,446 रुपये रह गई।
 
मित्रों, जब भी हम कोई परीक्षा देते हैं तो हम परिणाम का बेसब्री से इंतजार करते हैं. तब हम शिक्षक को यह नहीं कह सकते कि चूँकि मेरा प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है इसलिए परिणाम को जारी मत करो. ठीक उसी तरह ये आंकड़े सरकार के परीक्षा-परिणाम हैं फिर सरकार इनको जारी करने से कैसे बच सकती है? प्रश्न यह भी उठता है कि अगर दोबारा सर्वेक्षण कराने के बाद भी आंकड़ें सरकार के मन-मुताबिक नहीं आए तो सरकार क्या करेगी? ये तो वही बात हुई कि ६० के दशक से लेकर १९८९ तक जब रोमानिया में निकोलस चाचेस्कू नामक तानाशाह का शासन था तब उसकी पत्नी एलीना फ़ुटबाल मैच से पहले यह निर्धारित करती थी कि मैच में कौन जीतेगा और कितने गोल से जीतेगा.मित्रों, अब थोडा-सा परिचय चाचा चाचेस्कू का भी प्राप्त कर लिया जाए क्योंकि हमें लगता है कि भारत भी धीरे-धीरे उसी रास्ते पर अग्रसर है. बहुत से लोग अब शायद यकीन न करें लेकिन 60 के दशक से लेकर १९८९ तक रोमानिया में निकोलस चाचेस्कू ने न सिर्फ़ अपने देश के मीडिया की आवाज़ नहीं निकलने दी बल्कि खाने, पानी, तेल और यहाँ तक कि दवाओं तक पर राशन लगा दिया. नतीजा ये हुआ कि हज़ारों लोग बीमारी और भुखमरी के शिकार हो गए और उस पर तुर्रा ये कि उनकी ख़ुफ़िया पुलिस 'सेक्योरिटेट' ने लगातार इस बात की निगरानी रखी कि आम लोग अपनी निजी ज़िंदगी में क्या कर रहे हैं.  लोग सोते समय घर की खिड़कियाँ बंद नहीं कर सकते थे. नाटे क़द के चाचेस्कू का क़द था मात्र 5 फ़ीट 4 इंच, इसलिए पूरे रोमानिया के फ़ोटोग्राफ़रों को हिदायत थी कि वो उनकी इस तरह तस्वीरें खीचें कि वो सबको बड़े क़द के दिखाई दे. 70 की उम्र पार हो जाने के बाद भी उनकी वही तस्वीरें छपती थीं जो उनकी 40 साल की उम्र में खीचीं गई थीं. एलीना को तो ये तक पसंद नहीं था कि कोई सुंदर महिला उनके बग़ल में खड़े हो कर तस्वीर खिंचवाए. एलीना ने कई विषयों में फ़ेल होने के बाद 14 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी थी लेकिन रोमानिया की फ़र्स्ट लेडी बनने के बाद उन्होंने ऐलान करवा दिया था कि उनके पास रसायन शास्त्र में 'पीएचडी' की डिग्री है. ज़ाहिर है ये डिग्री जाली थी. चाचेस्कू की व्यक्ति पूजा का आलम ये था कि ये क़ानून बना दिया गया था कि हर पाठ्य पुस्तक के पहले पन्ने पर उनका चित्र होना ज़रूरी था. टेलीविजन पर सिर्फ़ एक चैनल से प्रसारण होता था. आधे कार्यक्रमों में सिर्फ़ चासेस्कू की गतिविधियाँ और उपलब्धियाँ दिखाई जाती थीं. किताबों की दुकानों और म्यूज़िक स्टोर्स के लिए उनके भाषणों का संग्रह रखना ज़रूरी था. देश में छोटे-से-छोटा फ़ैसला भी बिना चाचेस्कू की अनुमति के नहीं लिया जा सकता था. अंत में सबसे खास बात यह कि चाचेस्कू साम्यवाद और सोवियत संघ का घनघोर शत्रु था.

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

आरक्षण के देश में वशिष्ठ बाबू


मित्रों, कई बार यह सवाल विभिन्न मंचों पर उठता रहता है कि भारत पिछड़ा क्यों है. साथ ही यह सवाल भी उठता रहा है कि आखिर जापान के पास ऐसा क्या है जो वह द्वितीय विश्वयुद्ध में पूरी तरह से बर्बाद होने के बाद कुछ ही दशकों में एक बार फिर से अर्थव्यवस्था के मामले में अमेरिका से टक्कर लेने लगा?
मित्रों, इन दोनों सवालों का बस एक ही उत्तर है और बड़ा ही संक्षिप्त उत्तर है कि जहाँ भारत में प्रतिभा की कोई क़द्र नहीं है और अँधा बांटे रेवड़ी वाली हालत है वहीँ जापान में सिर्फ प्रतिभा की क़द्र है. कल जबसे बिहार, भारत और दुनिया के महान गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह का देहावसान हुआ है तभी से मैं काफी उद्वेलित हूँ कि भगवान ने तो हमें हीरा सौंपा था लेकिन हमने उसकी पत्थर के बराबर भी क़द्र नहीं की. मैं सोंचता हूँ कि न जाने वो कौन-सी मनहूस घडी थी जब देशप्रेम की भावना में बहकर वशिष्ठ बाबू ने अमेरिका से वापस आने का निर्णय लिया था. इससे पहले वशिष्ठ बाबू को अमेरिका की वर्कले यूनिवर्सिटी जीनियसों का जीनियस घोषित कर चुकी थी और पूरा अमेरिका उनकी प्रतिभा के आगे न सिर्फ चमत्कृत था बल्कि नतमस्तक भी था.उस समय अगर हमारे वशिष्ठ नासा में नहीं होते तो चाँद पर ही नील आर्मस्ट्रांग की समाधि बन गई होती.
मित्रों, भारत वापस आते ही वशिष्ठ जैसे विशिष्ट का पाला पड़ा भारत के अशिष्ट तंत्र से. वे बार-बार संस्थान बदलते रहे लेकिन भागते रहने से भला किसी समस्या का समाधान हुआ है जो होता. दुर्भाग्यवश एक तरफ तो दमघोंटू तंत्र उनका गला घोंट रहा था वहीँ दूसरी तरफ पत्नी की बेवफाई ने उनको इस कदर तोड़कर रख दिया कि वे पागलखाने पहुँच गए.
मित्रों, इसके बाद तो स्थिति और भी बिगड़ गयी. तब तक उनकी नौकरी जाती रही थी जिससे रोटी तक के लाले पड़ गए थे ईलाज कहाँ से होता. इस बीच बिहार में आती-जाती सरकारें ईलाज के नाम पर खानापूरी करती रही. फिर वशिष्ठ बाबू गायब हो गए और जब मिले तो कूड़े के ढेर पर से कुत्तों के साथ सडा-गला और जूठन खाते हुए. यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जिस आदमी का दिमाग अलबर्ट आईन्सटीन से भी तेज था उसकी कुल मिलाकर ७७ साल की जिंदगी में ४४ तक दिमाग बेकार पड़ा रहा.
मित्रों, जीवित रहते तो तंत्र ने वशिष्ठ बाबू का कदम-कदम पर अपमान किया ही मरने के बाद रही-सही कसर भी पूरी कर दी. कई घंटों तक उनकी लाश पीएमसीएच के दरवाजे पर पड़ी रही लेकिन एक अदद एम्बुलेंस तक उपलब्ध नहीं कराई गई. ऊपर से ५००० रूपये की रिश्वत भी मांगी गयी. बाद में जब सोशल मीडिया पर महानतम गणितज्ञ के अपमान की खबर आग की तरह फैली तब जाकर सरकारी तंत्र नींद से जागा और घोषणा की गई कि उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा.
मित्रों, इस सन्दर्भ में मुझे याद आता है अपने गाँव का वो वाकया कि एक बूढ़े पिता को उसके बेटों-बहुओं ने जीते-जी कभी ठीक से सूखी रोटी तक नहीं दी लेकिन मर जाने के बाद ५० गांवों को भोज दिया और पंडितों को दोनों हाथों दान दिया. तबसे हमारे गाँव में यह कहावत प्रचलन में है कि जिन्दा में गूं-भात और मरने पर दूध-भात. मैं समझता हूँ कि वशिष्ठ बाबू के साथ भी इन दिनों बिहार की सरकार ऐसा ही कर रही है. वैसे हम सिर्फ बिहार सरकार को ही क्यों दोष दें? क्या वशिष्ठ बाबू सिर्फ बिहार की धरोहर थे? क्या उनके सन्दर्भ में केंद्र सरकार का कोई कर्त्तव्य नहीं था? हो सकता है कि अगर वशिष्ठ बाबू स्वस्थ रहते या हो जाते तो देश के लिए ऐसे अविश्वसनीय आविष्कार करते जिससे एक झटके में पूरी दुनिया भारत के कदमों में होती. लेकिन हमारा देश तो आरक्षण का देश है. एक ऐसा देश जहाँ ९०० नंबर लानेवाला डीएम बन जाता है और ९५० लानेवाला क्लर्क भी नहीं बन पाता. जिस देश में कम्पाउण्डर डॉक्टर से और क्लर्क ऑफिसर से ज्यादा योग्य हो वह देश कभी विश्वगुरु नहीं बन सकता,मैं दावे और पूरी जिम्मेदारी के साथ ऐसा कहता हूँ. बल्कि इसके लिए तो प्रतिभा को महत्व देना होगा,सिर्फ प्रतिभा को, जाति, विचारधारा और धर्म से परे होकर.
मित्रों, इस सन्दर्भ में मुझे एक कहानी याद आती है. अमेरिका में उन दिनों गृहयुद्ध चरम पर था और अमेरिका के १६वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन काफी परेशान थे. उन्होंने तब एक ऐसे व्यक्ति को अमेरिका का सेनापति बनाया जो उनका सबसे कटु आलोचक था. लिंकन के इर्द-गिर्द रहनेवाले लोगों ने इसके लिए जब उनसे नाराजगी जताई तो उन्होंने कहा कि इस काम के लिए देश में इस समय सबसे योग्य यही व्यक्ति है. जब तक अपने देश में भी ऐसा नहीं होता तब तक हजारों वशिष्ठ पागल होते रहेंगे और ऐसे ही मरते रहेंगे. अंत में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि दुर्भाग्यवश मोदी सरकार भी ऐसा नहीं कर रही है. उसे भी हर पद पर सिर्फ संघी और चापलूसी करनेवाला चाहिए भले ही वो कितना ही अयोग्य क्यों न हो?

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

हमारा राम रो रहा है


मित्रों, अगर हम कहें कि अपने भारत के रोम-रोम में, पल-प्रतिपल में, घाट-घाट और घट-घट में राम समाए हुए हैं तो ऐसा कहना कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं होगी. हमारी दिनचर्या की शुरुआत राम से होती है और समाप्ति भी राम से. हम किसी का अभिवादन करते हैं तो कहते हैं राम-राम जी. जब कोई पूछता है कि आगे क्या होनेवाला है तो हम कहते हैं कि राम जाने, जब हमें अपनी प्राप्ति या उपलब्धि बतानी होती है तो हम उसका श्री भी राम जी को यह कहकर देते हैं कि राम जी की देनी से या रामजी की ईच्छा से ऐसा संभव हुआ है. यहाँ तक कि जब हम परेशान या उदास होते हैं तब भी हमारे मुंह से हठात निकलता है हे राम. अर्थात भारत के जन-मन के हर कण में राम ही राम बसे हुए हैं. राम के बिना हम भारत की कल्पना तक नहीं कर सकते.
मित्रों, यह भारत का दुर्भाग्य है कि ऐसे राम को हमने न्यायालय में ले जाकर खड़ा कर दिया. इतना ही नहीं दुर्भाग्यवश ऐसे राम को कई दशकों तक न्याय के लिए प्रतीक्षा भी करनी पड़ी. हालांकि अब माननीय उच्चतम न्यायालय ने राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है लेकिन सवाल उठता है कि क्या कोर्ट में मुकदमा जीतने मात्र से हमारे राम खुश हो जाएँगे और राम ने जिन मूल्यों और आदर्शों की हमारे समाज में स्थापना की थी उनकी स्थिति क्या है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मेरे राम ने सोने की लंका को जीतने के बाद विभीषण को दे दिया था.
मित्रों, यह तो निश्चित है कि मेरे और हमारे राम ने जिन मूल्यों की स्थापना की और जिन आदर्शों को जिया आज समाज में उनका लगातार क्षरण हो रहा है. हम अपने बच्चों के नाम राम के नाम पर रख देते हैं लेकिन उनके भीतर, उनके अंतर्मन में राम के बदले रावण बसने लगता है और फिर वो इतने गिरे हुए कर्म करता है कि राम तो क्या रावण को भी उबकाई आने लगे. इस सन्दर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निर्भया के बलात्कारियों में से एक राम सिंह भी था जिसने बाद में तिहाड़ जेल में आत्महत्या कर ली.
मित्रों, यह अच्छी बात है कि राम जन्मभूमि पर अब राम का भव्य मंदिर फिर से बन जाएगा लेकिन मुझे नहीं लगता कि मेरे ऐसे राम इतने भर से प्रसन्न हो जाएँगे जिनके लिए पिता की आज्ञा और माता की ईच्छा के समक्ष अयोध्या का राज्यसिंहासन तृण के बराबर भी मूल्य नहीं रखता. हम देखते हैं कि आज के घनघोर पूंजीवादी समाज में अगर किसी चीज का मूल्य है तो वो सिर्फ पैसा. जिसको भी देखिए वो पैसे के पीछे भाग रहा है. सबको सुख और भोग चाहिए. भोगवाद ने हमारी अंतर्मन को इतना बीमार बना दिया है कि आज सारे पवित्र सामाजिक व पारिवारिक रिश्ते खतरे में पड़ गए हैं. राम के देश में रोजाना नए वृद्धाश्रम खुल रहे हैं, बालिका-गृहों में बालिकाओं से वेश्यावृत्ति करवाई जा रही है, भाई भाई की, पिता पुत्र की, पुत्र पिता की और पत्नी पति की हत्या कर और करवा रहे हैं, बाप स्वयं अपनी पुत्री की और भाई बहन की ईज्जत लूट रहा है, हर कोई अंधाधुंध पैसे के पीछे इस तरह भाग रहा है कि भगवान की मूर्तियाँ भी सुरक्षित नहीं हैं, ईमानदारों की कोई क़द्र नहीं है और हर चुनाव में चोर जीत रहे हैं और हम समझते हैं कि हमारा राम खुश है. वो कैसे खुश हो सकता है? असलीयत तो यह है कि हमारा राम रो रहा है और पछता रहा है कि उसने कैसे देश में जन्म लिया था. हमारा राम रो रहा है.....

सोमवार, 4 नवंबर 2019

बैंकों में जमा गरीबों के पैसों की सुरक्षा सुनिश्चित करे सरकार


मित्रों, एक जमाना था जब लोग चोर-डाकुओं के भय से जमीन के नीचे गाड़कर पैसे रखा करते थे. फिर आया बैंक का जमाना और लोग बैंकों में पैसा जमा करने लगे. फिर आए नॉन बैंकिंग संस्थान. लोगों ने अपना पेट काटकर इनमें ज्यादा ब्याज के लालच में जमकर पैसे जमा कराए. लेकिन १९९७ में एक समय ऐसा भी आया जब बहुत सी नॉन बैंकिंग कंपनियां रातों-रात लोगों के पैसे लेकर फरार हो गईं और देश की गरीब जनता रोती-बिलखती रह गयी. तब ऐसा कोई कानून था ही नहीं जिसके माध्यम से जनता की खून-पसीने की कमाई की बरामदगी हो पाती.
मित्रों, फिर वर्ष २०१७ में मोदी सरकार ने ऐसा कानून बनाया जिसके अंतर्गत बैंक बंद होने, दिवालिया होने या बैंक का विलय होने पर जमा धारकों को उनका पैसा मिलने की गारंटी दी गयी लेकिन दुर्भाग्यवश वह गारंटी सिर्फ १ लाख तक की ही दी गयी. अर्थात अगर आपका बैंक डूबता है तो आपको अधिकतम १ लाख रूपया ही प्राप्त होगा भले ही आपने करोड़ों रूपये जमा कर रखे हों.
मित्रों, पंजाब एंड महाराष्ट्र कॉपरेटिव (पीएमसी) बैंक के संकट में पड़ने के बाद बैंक में जमा रकम के बीमा का मुद्दा चर्चा में आ गया है। इस बैंक में जमा राशि के फंस जाने से लोगों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पिछले दिनों पैसे की किल्लत से जूझ रहे पीएमसी बैंक के कुछ ग्राहकों की मौत भी हो गई।
मित्रों, जैसा कि मैंने ऊपर बताया कि भारतीय बैंकों में जमा रकम पर ग्राहकों को अधिकतम एक लाख रुपए का बीमा मिलता है। बीमा का यह स्तर दुनिया के अधिकतर देशों में मिलने वाले बीमे के मुकाबले कम है। यही नहीं एशियाई देशों और ब्रिक्स समूह के देशों से भी तुलना की जाए, तो भारतीय बैंकों का डिपॉजिट बीमा काफी कम है। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक रूस में बैंकों की जमा पर 13.6 लाख रुपए का बीमा कवर मिलता है। यह बीमा कवर ब्राजील में 45.36 लाख रुपए है। कनाडा में बैंक डिपॉजिट पर 51.2 लाख रुपए का बीमा कवर मिलता है। जापान में यह कवर 62.9 लाख रुपए है। फ्रांस में यह कवर 77.1 लाख रुपए, जर्मनी और इटली में भी यह कवर इतना ही है। ब्रिटेन में यह 78.7 लाख रुपए, ऑस्ट्रेलिया में 1.3 करोड़ रुपए और अमेरिका में यह डिपॉजिट कवर 1.77 करोड़ रुपए है।
मित्रों, भारत में बैंक डिपॉजिट पर जो बीमा कवर है, वह देश की प्रति व्यक्ति आय के मुकाबले 70 फीसदी है। रूस में यह प्रति व्यक्ति आय के मुकाबले 2.2 गुना है। ब्राजील में यह 7.4 गुना, कनाडा में 1.7 गुना, जापान में 2.3 गुना, फ्रांस में तीन गुना, जर्मनी में 2.6 गुना, इटली में 3.6 गुना, ब्रिटेन में 2.8 गुना, ऑस्ट्रेलिया में गुना और अमेरिका में 4.4 गुना है।  ब्रिक्स समूह में ब्राजील में 45.36 लाख रुपए और रूस में 13.6 लाख रुपए का डिपॉजिट कवर मिलता है। वहीं ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन में 57.3 लाख रुपए तक का बीमा कवर मिलता है। अगर हम एशियाई देशों की तरफ दृष्टिपात करें तो फीलीपींस में बैंक डिपॉजिट पर 67.3 लाख रुपए का बीमा कवर है। थाईलैंड में यह कवर 1.13 करोड़ रुपए है।
मित्रों, आप देख सकते हैं कि भारत में बैंक जमा राशि पर गारंटी बहुत कम है. अभी पीएमसी बैंक के डूबने के बाद उसके जमाकर्ताओं की हालत काफी चिंताजनक है. आरबीआई ने ६ महीने में मात्र ४० हजार रूपये निकालने की अनुमति दी है जो वर्तमान हालात में काफी कम है. फिर जिसको बेटी की शादी करनी होगी या घर बनाना होगा, बच्चों की पढाई का खर्च उठाना होगा उनका तो पूरा भविष्य ही ख़राब हो गया. सवाल उठता है कि मात्र एक लाख तक की ही गारंटी क्यों? यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं कि अगर कोई सरकारी बैंक भी बंद होता या उसका विलय होता है तब भी ग्राहक मात्र एक लाख अधिकतम का ही हकदार होगा. तो मैं कह रहा था कि सिर्फ १ लाख तक की ही गारंटी क्यों? क्यों जनता की एक-एक पाई की गारंटी नहीं देनी चाहिए? एक तरफ बड़े-बड़े पूंजीपति हजारों करोड़ का ऋण लेकर विदेश भाग जा रहे हैं, हजारों करोड़ों के उनके ऋण माफ़ कर दिए जा रहे हैं तो वहीँ दूसरी ओर गरीबों के खुद की मेहनत की कमाई की भी गारंटी नहीं. ऐसा क्यों? भारत में लोकतंत्र है या अमीर तंत्र? या फिर बचपन में स्टेशन पर चाय बेचनेवाले की सरकार यह चाहती है कि लोग फिर से बाग़-बगीचे में जमीन के नीचे पैसे गाड़कर रखें?