मित्रों, कई बार यह सवाल विभिन्न मंचों पर उठता रहता है कि भारत पिछड़ा क्यों है. साथ ही यह सवाल भी उठता रहा है कि आखिर जापान के पास ऐसा क्या है जो वह द्वितीय विश्वयुद्ध में पूरी तरह से बर्बाद होने के बाद कुछ ही दशकों में एक बार फिर से अर्थव्यवस्था के मामले में अमेरिका से टक्कर लेने लगा?
मित्रों, इन दोनों सवालों का बस एक ही उत्तर है और बड़ा ही संक्षिप्त उत्तर है कि जहाँ भारत में प्रतिभा की कोई क़द्र नहीं है और अँधा बांटे रेवड़ी वाली हालत है वहीँ जापान में सिर्फ प्रतिभा की क़द्र है. कल जबसे बिहार, भारत और दुनिया के महान गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह का देहावसान हुआ है तभी से मैं काफी उद्वेलित हूँ कि भगवान ने तो हमें हीरा सौंपा था लेकिन हमने उसकी पत्थर के बराबर भी क़द्र नहीं की. मैं सोंचता हूँ कि न जाने वो कौन-सी मनहूस घडी थी जब देशप्रेम की भावना में बहकर वशिष्ठ बाबू ने अमेरिका से वापस आने का निर्णय लिया था. इससे पहले वशिष्ठ बाबू को अमेरिका की वर्कले यूनिवर्सिटी जीनियसों का जीनियस घोषित कर चुकी थी और पूरा अमेरिका उनकी प्रतिभा के आगे न सिर्फ चमत्कृत था बल्कि नतमस्तक भी था.उस समय अगर हमारे वशिष्ठ नासा में नहीं होते तो चाँद पर ही नील आर्मस्ट्रांग की समाधि बन गई होती.
मित्रों, भारत वापस आते ही वशिष्ठ जैसे विशिष्ट का पाला पड़ा भारत के अशिष्ट तंत्र से. वे बार-बार संस्थान बदलते रहे लेकिन भागते रहने से भला किसी समस्या का समाधान हुआ है जो होता. दुर्भाग्यवश एक तरफ तो दमघोंटू तंत्र उनका गला घोंट रहा था वहीँ दूसरी तरफ पत्नी की बेवफाई ने उनको इस कदर तोड़कर रख दिया कि वे पागलखाने पहुँच गए.
मित्रों, इसके बाद तो स्थिति और भी बिगड़ गयी. तब तक उनकी नौकरी जाती रही थी जिससे रोटी तक के लाले पड़ गए थे ईलाज कहाँ से होता. इस बीच बिहार में आती-जाती सरकारें ईलाज के नाम पर खानापूरी करती रही. फिर वशिष्ठ बाबू गायब हो गए और जब मिले तो कूड़े के ढेर पर से कुत्तों के साथ सडा-गला और जूठन खाते हुए. यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जिस आदमी का दिमाग अलबर्ट आईन्सटीन से भी तेज था उसकी कुल मिलाकर ७७ साल की जिंदगी में ४४ तक दिमाग बेकार पड़ा रहा.
मित्रों, जीवित रहते तो तंत्र ने वशिष्ठ बाबू का कदम-कदम पर अपमान किया ही मरने के बाद रही-सही कसर भी पूरी कर दी. कई घंटों तक उनकी लाश पीएमसीएच के दरवाजे पर पड़ी रही लेकिन एक अदद एम्बुलेंस तक उपलब्ध नहीं कराई गई. ऊपर से ५००० रूपये की रिश्वत भी मांगी गयी. बाद में जब सोशल मीडिया पर महानतम गणितज्ञ के अपमान की खबर आग की तरह फैली तब जाकर सरकारी तंत्र नींद से जागा और घोषणा की गई कि उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा.
मित्रों, इस सन्दर्भ में मुझे याद आता है अपने गाँव का वो वाकया कि एक बूढ़े पिता को उसके बेटों-बहुओं ने जीते-जी कभी ठीक से सूखी रोटी तक नहीं दी लेकिन मर जाने के बाद ५० गांवों को भोज दिया और पंडितों को दोनों हाथों दान दिया. तबसे हमारे गाँव में यह कहावत प्रचलन में है कि जिन्दा में गूं-भात और मरने पर दूध-भात. मैं समझता हूँ कि वशिष्ठ बाबू के साथ भी इन दिनों बिहार की सरकार ऐसा ही कर रही है. वैसे हम सिर्फ बिहार सरकार को ही क्यों दोष दें? क्या वशिष्ठ बाबू सिर्फ बिहार की धरोहर थे? क्या उनके सन्दर्भ में केंद्र सरकार का कोई कर्त्तव्य नहीं था? हो सकता है कि अगर वशिष्ठ बाबू स्वस्थ रहते या हो जाते तो देश के लिए ऐसे अविश्वसनीय आविष्कार करते जिससे एक झटके में पूरी दुनिया भारत के कदमों में होती. लेकिन हमारा देश तो आरक्षण का देश है. एक ऐसा देश जहाँ ९०० नंबर लानेवाला डीएम बन जाता है और ९५० लानेवाला क्लर्क भी नहीं बन पाता. जिस देश में कम्पाउण्डर डॉक्टर से और क्लर्क ऑफिसर से ज्यादा योग्य हो वह देश कभी विश्वगुरु नहीं बन सकता,मैं दावे और पूरी जिम्मेदारी के साथ ऐसा कहता हूँ. बल्कि इसके लिए तो प्रतिभा को महत्व देना होगा,सिर्फ प्रतिभा को, जाति, विचारधारा और धर्म से परे होकर.
मित्रों, इस सन्दर्भ में मुझे एक कहानी याद आती है. अमेरिका में उन दिनों गृहयुद्ध चरम पर था और अमेरिका के १६वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन काफी परेशान थे. उन्होंने तब एक ऐसे व्यक्ति को अमेरिका का सेनापति बनाया जो उनका सबसे कटु आलोचक था. लिंकन के इर्द-गिर्द रहनेवाले लोगों ने इसके लिए जब उनसे नाराजगी जताई तो उन्होंने कहा कि इस काम के लिए देश में इस समय सबसे योग्य यही व्यक्ति है. जब तक अपने देश में भी ऐसा नहीं होता तब तक हजारों वशिष्ठ पागल होते रहेंगे और ऐसे ही मरते रहेंगे. अंत में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि दुर्भाग्यवश मोदी सरकार भी ऐसा नहीं कर रही है. उसे भी हर पद पर सिर्फ संघी और चापलूसी करनेवाला चाहिए भले ही वो कितना ही अयोग्य क्यों न हो?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें