सोमवार, 24 जनवरी 2022
रेप रेप में फर्क
मित्रों, मेरे इस आलेख का शीर्षक देखकर आप चौंक जरूर गए होंगे. आप सोंच रहे होंगे कि रेप रेप होता है, सबसे जघन्य अपराध होता है, सारी रेप पीड़िताओं को एक समान दर्द होता है फिर फर्क कैसा? हमारे आपके लिए नहीं होता है, कोई फर्क नहीं होता है लेकिन सियासत के लिए फर्क होता है और बहुत होता है.
मित्रों, सबसे पहले तो यह देखा जाता है कि रेप हुआ किसके साथ है. क्या वो दलित है? ऐसे मामले बड़े ही गंभीर होते हैं. फिर देखा जाता है कि आरोपी कौन है सवर्ण या अवर्ण या मुसलमान? आरोपी अगर सवर्ण और पीडिता दलित हुई तो मामला फिर काफी बिकाऊ और लम्बा चलनेवाला हो जाता है. पूरी-की-पूरी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियाँ आनन-फानन में घटनास्थल पर पहुँच जाती हैं और पीडिता को तत्काल बिटिया का ख़िताब दे दिया जाता है. लेकिन अगर पीडिता दलित और आरोपी मुसलमान हुआ तो ऐसा मान लिया जाता है कि पीडिता को कोई दर्द नहीं हुआ होगा, यह भी मान लिया जाता है कि गलती लड़की की ही रही होगी. फिर तो कोई राजनैतिक दल उसके घर के कई सौ किलोमीटर के पास से नहीं फटकते. ऐसा लगने लगता है कि जैसे किसी हिन्दू लड़की के साथ बलात्कार भारत में नहीं पाकिस्तान में हुआ हो. अगर पीडिता सवर्ण है और आरोपी चाहे दलित, अवर्ण, मुसलमान या कोई भी हो तो मामला दबा देने लायक होता है क्योंकि सवर्णों को दर्द तो होता ही नहीं है.
मित्रों, इतना ही नहीं रेप के मामलों में सियासत यह भी देखती है कि जिस राज्य में रेप हुआ है वहां किस पार्टी की सरकार है. अगर भाजपा की हुई तो मामला काफी गंभीर और अक्षम्य हो जाता है. फिर तो अगर दलित पीडिता के पड़ोस में किसी राजपूत का घर हुआ तो उसे ही बलात्कारी मान लिया जाता है फिर चाहे बलात्कार न भी हुआ हो या फिर पीडिता की मौत खुद उसके भाई की पिटाई से ही क्यों न हुई हो. आखिर राजपूतों ने आज से ८०० साल पहले तक देश पर शासन जो किया था और देश की रक्षा में करोड़ों की संख्या में बलिदान जो दिया है, आखिर राजपूतों ने हिन्दू ललनाओं की आततायियों से रक्षा के लिए अपनी जान दी है. फिर आप पूछेंगे कि जब इतिहास में राजपूतों के किसी दुष्कर्म का जिक्र ही नहीं है तो फिर वे प्रमाणित दुष्कर्मी कैसे हो गए? तो इसका जवाब है कि चूँकि बॉलीवुड की सलीम-जावेद लिखित फ़िल्में राजपूतों को बलात्कारी बताती हैं इसलिए वे बलात्कारी होते हैं, होने चाहिए और हैं. फिर चाहे हाथरस में उन्होंने पीडिता की पानी पिलाकर प्राणरक्षा ही क्यों न की हो, फिर चाहे वो कथित बलात्कार के समय फैक्ट्री में क्यों न हों. फिर चाहे वो नाटकवाली बाई पीडिता की भाभी क्यों न बन गई हो जैसे रेप न हुआ हो रेप का नाटक हो रहा हो, कोई खेल चल रहा हो और खेल-खेल में बिना किसी सबूत के घटना के ७ दिन बाद मुआवजे के लिए केस का मजमून बदल दिया जाता है और चार निरपराध राजपूतों को जेल में डाल दिया जाता है क्योंकि यही सियासत की मांग है.
मित्रों, आप पूछेंगे कि अगर राज्य में कांग्रेस या दूसरे गैर भाजपाई दलों का शासन हो तब? तब तो जादूगर सरकार बड़े ही आराम से रेप को सड़क-दुर्घटना में बदल देती है और घटना-स्थल को धुलवा देती है जिससे सारे सबूत मिट जाएँ लेकिन सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं होता कि ऐसी कौन-सी सड़क-दुर्घटना होती है जिसमें बोतल पीडिता के गुप्तांग में घुस जाता है?
मित्रों, एक और तरह का रेप होता है और वो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में होता है. यहाँ आरोपी मुसलमान और पीडिता दलित होती है. आप पार्टी का नेता आरोपी जेल से वापस आने के बाद पीडिता के चाचा को सरेआम पुलिसवालों के सामने गोली मार देता है और आराम से टहलता हुआ निकल जाता है जैसे वो भारत में नहीं पाकिस्तान में हो. फिर भी किसी भी दल का कोई राजनेता पीडिता के घर झाँकने तक नहीं आता और ऐसा तब होता है जबकि दिल्ली पुलिस पर हिन्दुत्ववादी सरकार का नियंत्रण होता है.
मित्रों, अब तो आप समझ ही गए होंगे कि सारे रेप एक जैसे नहीं होते और उनमें भारी अंतर होता है भले ही पीडिताओं के दर्द में कोई अंतर नहीं हो रेप को देखने का सियासत का चश्मा जरूर अलग-अलग होता है.
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