रविवार, 16 जनवरी 2022

जबरदस्ती के गृहमंत्री नीतीश कुमार

मित्रों, अगर हम आपसे पूछें कि भारत में पुलिस को किस आधार पर काम करना चाहिए तो आप कहेंगे कि आईपीसी, सीआरपीसी, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के आदेश, संसद और राज्यों की विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों व सरकारों और उच्चाधिकारियों द्वारा जारी आदेशों के आलोक में पुलिस को काम करना चाहिए. लेकिन वास्तविकता है क्या? बिहार की पुलिस को तो जैसे किसी कानून से मतलब ही नहीं है. जो थानेदार और पुलिस अधिकारी करें और बोलें वही कानून. मित्रों, फिर अगर हम आपसे पूछें कि पुलिस का पहला काम क्या है तो आप कहेंगे कि पुलिस का प्रथम या प्राथमिक कार्य प्राथमिकी यानि एफआईआर लिखना है. लेकिन बिहार पुलिस तो एफआईआर लिखती ही नहीं है सिर्फ सनहा दर्ज करती है. अभी दो दिन पहले बिहार की राजधानी पटना के जिस सचिवालय से बिहार का शासन चलता है उस सचिवालय की महिला कर्मचारी को किस तरह से सचिवालय थाना में महिला एएसपी और थानेदार द्वारा एफआईआर आवेदन की रिसीविंग मांगने पर अपमानित किया गया, किस तरह जेल में डाल देने की ठीक उसी तरह धमकी दी गई जैसे गंगाजल फिल्म में एसपी अमित कुमार को दारोगा मंगनीराम ने दी थी सारी दुनिया ने देखा है. मित्रों, ऐसी यह ईकलौती घटना हो ऐसा बिलकुल भी नहीं है. खुद जब मेरे साथ १ फरवरी,२०२१ को साइबर ठगी हुई और जब मैं हाजीपुर नगर थाना में एफआईआर दर्ज करवाने गया तो मुझे भी रिसीविंग नहीं दी गई. बाद में जब भी मैंने थानेदार सुबोध सिंह से संपर्क किया तो उन्होंने मुंशी से संपर्क करने को कहा. जब मुंशी से संपर्क किया तो उसने थानेदार से संपर्क करने के लिए कहा. फिर मैंने थाने पर यह सोंचकर जाना ही बंद कर दिया कि जो पुलिस एफआईआर ही नहीं दर्ज कर रही है वो मेरे १९८५६ रूपये क्या खाक बरामद करवाएगी. मित्रों, इससे पहले जब २०१७ की दिवाली के दिन राजेंद्र चौक, हाजीपुर से मेरा मोबाईल चोरी हो गया और मैं नगर थाने पर एफआईआर दर्ज करवाने गया तब मुंशी ने मुझे चोरी के एफआईआर के बदले मोबाईल गुम जाने का सनहा दर्ज करवाने को कहा और जब वो किसी तरह नहीं माना तो मुझे सनहा ही दर्ज करवाना पड़ा. बाद में मैंने अख़बार में पढ़ा कि बिहार पुलिस मोबाईल चोरी के मामले में एफआईआर दर्ज ही नहीं करती सिर्फ सनहा लिखती है. मित्रों, बलात्कार से लेकर चोरी तक के ऐसे हजारों समाचार पिछले सालों में बिहार में छप चुके हैं जिनमें फरियादी को एफआईआर के लिए कोर्ट जाना पड़ा है. यहाँ तक कि बिहार के मुख्यमंत्री ने जब जनता के दरबार में मुख्यमंत्री कार्यक्रम दोबारा शुरू किया तब सबसे ज्यादा शिकायतें बिहार पुलिस के खिलाफ ही आईं. अभी जब ३ जनवरी, २०२२ को अंतिम बार जनता का दरबार लगा उस दिन भी बिहार पुलिस के खिलाफ ऐसे-ऐसे मामले सामने आए कि बिहार के मुख्यमंत्री को जो गृह मंत्री भी हैं को चुल्लू भर पानी में डूब जाना चाहिए. किसी का बेटा दो साल से अपहृत है लेकिन एफआईआर के दो साल बाद भी न तो कोई गिरफ़्तारी ही हुई है न ही बच्चा ही बरामद हुआ है. रूपसपुर, पटना की लड़की ने आरोप लगाया कि उसके साथ बलात्कार हुआ है और कई महीने बाद भी बलात्कारी न सिर्फ खुलेआम घूम रहे हैं बल्कि दोबारा बलात्कार की धमकी भी दे रहे हैं. अररिया से आए एक युवक ने आरोप लगाया कि उसके भाई की २०२० में ही हत्या हुई लेकिन आज तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है. इसी तरह ६ दिसंबर, २०२१ के जनता दरबार में मधेपुरा से आए एक युवक ने आरोप लगाया कि उसे ४ गोली मारी गई थी लेकिन थानेदार अभियुक्तों की गिरफ़्तारी के लिए ४ लाख रूपया मांग रहे हैं मतलब चार गोली का चार लाख. एक गोली का रेट १ लाख. मित्रों, अभी कुछ दिन पहले बेगुसराय और भागलपुर के सोना व्यवसायी को जान से मारने की धमकी देते हुए रंगदारी मांगी गयी. दोनों ही मामलों में पुलिस ने कुछ भी नहीं किया है जबकि हर हफ्ते बिहार में कहीं-न-कहीं सोना व्यवसायी की हत्या हो रही है. बेगुसराय के पीपी ज्वेलर्स के मालिक ने तो वीडियो जारी कर नीतीश कुमार पर बिहार में फिर से जंगलराज लाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि उन्होंने शराब की बोतल पकड़ने के लिए उनको मुख्यमंत्री नहीं बनाया था. मित्रों, ईधर बिहार पुलिस का मन इतना बढ़ गया है, खास तौर पर उन थानों में जहाँ पर थानेदार कुर्मी जाति से आते हैं कि बेवजह पहले निर्दोष लोगों को उठा लिया जाता है बाद में जंग लगे हथियार की बरामदगी दिखाकर केस बनाया जाता है. वैशाली जिले के चांदपुरा ओपी में पिछले महीनों में कई सारी ऐसी घटनाएँ घट चुकी हैं. मधुबनी के महमदपुर हत्याकांड से पहले किस तरह दारोगा महेंद्र सिंह ने संजय सिंह को झूठे एससीएसटी एक्ट मुकदमे में फंसाया था इसे भी पूरी दुनिया ने देखा है. साथ ही बिहार की सबसे विवादित पुलिस अधिकारी और मुख्यमंत्री की नाक की बाल लिपि सिंह के नेतृत्व में कैसे पूर्व डॉन पप्पू देव को उठाने के बाद पीट-पीट कर मार दिया गया यह भी पूरी दुनिया ने देखा है. मित्रों, यह बिहार पुलिस की अकर्मण्यता ही है जिसके चलते बिहार में सूचना का अधिकार का प्रयोग करना अपनी मौत को आमंत्रण देना है. पिछले ५ सालों में बिहार में २० से ज्यादा आरटीआई कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या हो चुकी है. मित्रों, ऐसी स्थिति में जबकि पुलिस पर मुख्यमंत्री का कोई नियंत्रण ही नहीं रह गया है न जाने क्यों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गृहमंत्री की कुर्सी पर कुंडली मारे बैठे हैं? उनके गृह मंत्री रहने से बिहार की जनता को तो कोई लाभ नहीं है अगर पूरे बिहार में किसी को कोई लाभ हो रहा है तो सिर्फ एक आदमी को है और वो आदमी हैं नीतीश कुमार. हरियाणा में जब मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर जी को लगा कि वे गृह मंत्री के पद से न्याय नहीं कर पा रहे हैं तो उन्होंने तेज तर्रार अनिल विज को गृह मंत्री बना दिया. आज तो यह विश्वास करने को भी मन नहीं कर रहा कि किसी समय नीतीश कुमार ने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा भी दिया था.

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