सोमवार, 29 जनवरी 2024

बिहार में दोषी कौन, नीतीश, लालू या कांग्रेस?

मित्रों, कई दशक बीत गए. पिताजी डॉ. विष्णुपद सिंह आर.पी.एस. कॉलेज, महनार, वैशाली के प्रधानाचार्य के पद से रिटायर हो चुके थे. बचे हुए शिक्षकों में प्रधानाचार्य बनने के लिए बड़ी मारा-मारी थी. तभी हमने सुना कि महाविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक गिरी चाचा ने प्रधानाचार्य बनने के बाद पहनने के लिए कोट भी सिलवा लिया है हालांकि वरीयता क्रम के अनुसार उनके प्रधानाचार्य बनने में अभी देरी थी. मित्रों, ठीक इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी साल २०१३-१४ से अचकन सिलाए बैठे हैं इस प्रतीक्षा में कि जब वो प्रधानमंत्री बनेंगे तब इसको पहनेंगे. इस तरह की एक और घटना महनार में रहते हुए हमें देखने को मिली थी. एक अधेड़ उम्र का बढ़ई बाल-बच्चेदार होते हुए भी शादी करने के लिए बेहाल था. महनार के माली टोला के युवकों ने एक बार उसको शादी करवा देने का लालच दिया. उन युवकों में से ही एक युवक को दुल्हन बना दिया गया. जमकर दावत हुई और सुहागरात के दिन जो होना था वही हुआ. जब पोल खुली तब बढ़ई ने लोगों को जमकर गाली दी. मित्रों, माननीय नीतीश जी की हालत न सिर्फ गिरी चाचा से बल्कि उस बुजुर्ग बढ़ई से भी मिलती है. कोई भी उनको प्रधानमंत्री बनाने के सपने दिखाकर बेवकूफ बना जाता है जबकि उनके पास सिर्फ १६ सांसद है हालाँकि बिहार के पड़ोसी झारखण्ड में निर्दलीय भी मुख्यमंत्री हो चुका है. मान लिया कि नीतीश जी को प्रधानमंत्री के पद के झूठे सपने दिखाकर धोखा दिया गया लेकिन उनको चने के झाड़ पर चढ़ने को किसने कहा था? क्या वो भी राहुल गाँधी की तरह पप्पू हैं? मित्रों, मैं यह नहीं कहता कि कल की नीतीश की पल्टी के लिए सिर्फ नीतीश जी ही दोषी हैं. उनको झूठे सपने दिखाकर मूर्ख बनानेवाले भी कम दोषी नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा दोषी खुद नीतीश जी हैं इसमें कोई सन्देह नहीं. आखिर २०२० का विधानसभा चुनाव उन्होंने भाजपा के साथ रहकर जीता था फिर उनको जनमत का अपमान करने का अधिकार किसने दिया था? इसी तरह उन्होंने २०१७ में भी जनमत को ठेंगा दिखाया था जो गलत था. खैर लौट के बुद्धू घर को आए और उम्मीद करता हूँ कि अब वो पलटी नहीं मारेंगे. शायद!

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

मेरे पिता स्व. डॉ. विष्णुपद सिंह

मित्रों, मेरे पिता स्व. डॉ. विष्णुपद सिंह को दुनिया से गए आज पूरे तीन साल हो चुके हैं. आज ही के दिन रात के ९ बजे उन्होंने स्थानीय गणपति अस्पताल में अंतिम सांस ली थी हालाँकि वे ५ जनवरी २०२१ से ही बेहोश थे. इन तीन सालों में मैं अपने ही पिता को शाब्दिक श्रद्धांजलि नहीं दे पाया जबकि गाहे-बेगाहे लिखना मेरी आदत रही है. दरअसल मेरे पिता मेरे सूर्य थे और उनका अस्त हो जाना जैसे मेरे जीवन में अकस्मात् शाम नहीं सीधे अर्द्धरात्रि ले आया. उस अँधेरे में मैं उन शब्दों को खोजता रहा जिन शब्दों द्वारा मैं अपने पिता के जीवन और मेरे जीवन में उनके महत्व को अभिव्यक्त कर सकूं. पिताजी को याद करते ही मेरा मन और मेरी लेखनी का भावुकता के मारे गला ही रूंध जाता और बात शुरू होने से पहले ही रूक जाती. मित्रों, मेरे पिता मेरे गुरु, मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक सबकुछ एक साथ थे. वो इस घनघोर कलियुग में भी घनघोर ईमानदार और आदर्शवादी थे. जाहिर है उनका और हमारा जीवन घनघोर अभावों में बीता. चाहते तो अपने ईमान का सौदा करके वैभवपूर्ण जीवन जी सकते थे लेकिन निहायत नरम, विनम्र और लचीले स्वभाव वाले मेरे पिता ने इस एक मुद्दे पर कभी समझौता नहीं किया. हमेशा कर्ज में रहे लेकिन देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण को चुकता करने में कभी कंजूसी नहीं की. पटना यूनिवर्सिटी के टॉपर होते हुए भी आरपीएस कॉलेज, चकेयाज, महनार जैसे देहात में शिक्षण किया. खुद का चूल्हा भले ही जले या न जले गरीब विद्यार्थियों की फीस बेफिक्र होकर अपनी जेब से भर देते यहाँ तक कि कर्ज लेकर भी. अपने ३५-४० साल लम्बे अध्यापन काल के आरंभिक १५ वर्षों तक जब तक कॉलेज सरकारी नहीं हुआ था मामूली वेतन पर काम किया पर विद्यार्थियों को फ्री में ट्यूशन, गेस और नोट्स देते रहे. उनके नोट्स गागर में सागर होते. होते भी क्यों नहीं पिताजी एक साथ अंकगणित, हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी के विद्वान जो थे, इतिहास के तो वो प्राध्यापक ही थे. मित्रों, उन्होंने एक साथ तीन पीढ़ियों को पढाया लेकिन उनका कॉलेज में कभी किसी से न तो झगडा हुआ और न ही बहस हुई. जब कभी छात्र आपस में मारा-मारी करने लगते तब पिताजी बिना कुछ कहे अपने कमरे से बाहर आकर बरामदे में खड़ा भर हो जाते क्षण भर में झगडा स्वतः बंद हो जाता. मित्रों, पिताजी अजातशत्रु थे फिर भी अपनी ससुराल में उनको जमीन का मुकदमा लड़ना पड़ा ठीक उसी तरह जैसे धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन से लड़ना पड़ा था. पिताजी विनम्र थे लेकिन दृढप्रतिज्ञ भी थे. जो धर्मयुद्ध मेरी नानी श्रीमती धन्ना कुंवर ने प्रारंभ किया था उसे उन्होंने अंजाम तक पंहुचा कर छोड़ा. साथ ही उन्होंने जिस तरह मेरी नानी का ख्याल रखा आज भी पूरे ईलाके में मिसाल है. मित्रों, मेरी पिताजी से कुछ शिकायतें भी हैं. उन्होंने कभी अपने परिवार और अपने परिवार के कल की चिंता नहीं की. साथ ही सिर्फ वो माँ को ही परिवार समझने लगे थे अपने एकमात्र पुत्र और पुत्रवधू की उन्होंने कभी क़द्र नहीं की. यही कारण था कि जब वे धराधाम से विदा हुए तब उनके सर पर अपनी छत नहीं थी और किराये के घर से ही उनका श्राद्ध हुआ और उनकी अटैची से सिर्फ ६०००० रू. ही निकले. फिर भी मैं अपने महान पिताजी को आज उनकी मृत्यु की तीसरी वार्षिकी पर अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ. मुझे आज भी इस बात का मलाल है कि वे बिना कुछ कहे अचानक बेहोश हो गए और फिर होश में नहीं आए. मैं ८ दिनों तक अस्पताल की कुर्सी पर बैठे-बैठे माता भगवती से उनके फिर से उठ खड़े होने की प्रार्थना करता रहा लेकिन वो नहीं माने वर्ना माता उनकी बात काट ही नहीं सकती. पिताजी आप न सिर्फ मेरे पिता थे बल्कि आदर्श और गुरु भी थे और हमेशा रहेंगे. पिताजी मैं आपकी कमी रोजाना महसूस करता हूँ और प्रत्येक क्षण आपको याद करता हूं. आपको कोटिशः नमन बाबू. जब तक आप जीवित थे आपकी ख़ुशी में ही मैंने अपनी ख़ुशी समझी और अपना सबकुछ आपको समर्पित कर दिया. अब आप नहीं हैं तो मैं आपको अपने उद्गार चंद शब्दों के माध्यम से समर्पित करता हूँ. जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए, अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिए....

सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

ये कैसा मजहब है भाई

मित्रों, पिछले दिनों दुनिया में दो तरह की प्रगति देखने को मिली है। एक तरफ हिंदुत्व ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरी दुनिया को तू वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश दिया। पूरी दुनिया ने विश्व शांति के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को न सिर्फ महसूस किया बल्कि हिंदुत्व द्वारा किए गये अतिथि सत्कार से अभिभूत भी दिखी। हिंदुत्व सदियों से सह अस्तित्व की भावना का पालन करता आ रहा है और आगे भी करता रहेगा इस बात से पूरी दुनिया जी २० की बैठक के दौरान आश्वस्त दिखी। मित्रों, दूसरी तरफ मुसलमानों ने अभी- अभी इस्राएल पर जिस तरह हमला किया है उसे देखकर पूरी मानवता का सिर शर्म से झुक गया है। अल्ला हू अकबर के नारों के साथ महिलाओं के नग्न शवों की परेड निकाली गई, ५ साल के बच्चे का सिर काट कर उसे हाथ में लेकर नृत्य किया गया, सैंकड़ों यहूदियों का अपहरण कर लिया गया, महिलाओं के साथ बर्बरता पूर्वक सामूहिक बलात्कार किए गये और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वे काफिर थे, गैर-मुसलमान थे। मित्रों, हिंदुत्व तो सैंकड़ों सालों से इस्लाम का यह रूप देखता आ रहा है। सिंध पर अरबों के ७१० ई के आक्रमण के समय से ही भारत में करोड़ों निर्दोष हिंदुओं को मुसलमानों ने मारा, लाखों हिंदू महिलाओं को बंदी बनाया और १-२ दीनार में मध्य पूर्व में ले जाकर बेच दिया। दुनिया को यह समझना होगा कि इस्लाम धर्म नहीं अधर्म है, मानवता के नाम पर एक कलंक है, मानवता का दुश्मन है। दुनिया को यह समझना होगा कि सारे फ़साद और सारी जिहादी क्रूरता की जड़ कुरान की उन २६ आयतो़ में है जिनको पुस्तक से हटाने के लिए रिजवी साहब ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। मित्रों, अब जबकि यहूदियों ने बदले की कार्रवाई शुरू की है पूरी दुनिया के मुसलमान खुद को पीड़ित बताकर शांतिपाठ शुरू करनेवाले हैं। वो चाहते हैं कि सिर्फ गोधरा ट्रेन कांड हो उसकी प्रतिक्रिया नहीं हो, वो चाहते हैं सिर्फ हमास हिंसा करे यहूदी प्रतिहिंसा न करें। इसलिए सावधान रहें, सचेत रहें, सतर्क रहें। मुसलमानों से सावधान क्योंकि उनके पास है कुरान और वे कभी भी भारत को भी बना सकते हैं श्मशान।

शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

विश्वगुरु बनता भारत

मित्रों, अगर हम कहें कि इनदिनों भारतवासियों के कदम जमीन पर नहीं चाँद-सूरज पर हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. जहाँ भारत के कदम चाँद और सूरज पर हैं वहीँ पूरी दुनिया सिमट कर भारत के दिल दिल्ली में आ गई है. सारी-की-सारी रेटिंग एजेंसियों में जैसे भारत की रेटिंग बढ़ाने की होड़-सी लगी हुई है. मित्रों, वर्षा ऋतु में वसंत के आगमन से जहाँ भारतमाता के भक्तों में उल्लास और होली-दिवाली का माहौल है वहीँ भारत के आतंरिक और बाह्य शत्रुओं के चेहरे लौकी की माफिक लटक-से गए हैं. आपको याद होगा जब १९९९ समाप्त हो रहा था और दुनिया और भारत नई सहस्राब्दी में प्रवेश कर रहे थे तब कंधार विमान अपहरण के कारण हम सभी भारतवासियों में उदासी छाई हुई थी. तब किसी ने भी नहीं सोंचा था कि मात्र २३ साल बाद ऐसी स्थिति भी आएगी कि उधर चीन-पाकिस्तान जैसे भारत के चिर-शत्रुओं का सूर्य अस्त हो रहा होगा और ईधर भारत के भाग्य का सूरज पूर्व दिशा में क्षितिज पर दस्तक दे रहा होगा. मित्रों, किसी भी देश या समाज के जीवन में नेतृत्व का अपना अलग महत्व होता है वर्ना फ़्रांस में सिर्फ नेपोलियन ही तो राजा नहीं बना था. जहाँ भारत का पिछला नेतृत्व एक परिवार का गुलाम था, जहाँ उसको भारतवासियों की ख़ुशी, भारत के गौरव से कोई मतलब ही नहीं था, जहाँ वह थका-मांदा था, जहाँ उसके कंधे झुके हुए रहते थे, जहाँ वो वैश्विक मंचों पर कोनों की तलाश करता था वहीँ भारत का नया नेतृत्व नित-नई ऊर्जा से आप्लावित है, इस नए नेतृत्व के पास न केवल अपने देश के लिए योजनाएं हैं बल्कि वह पूरी दुनिया को किसी भी संकट से उबार लेने का माद्दा भी रखता है. न तो नेपोलियन के शब्दकोश में असंभव शब्द था और न ही नरेन्द्र मोदी के शब्दकोश में इस दुनिया के सबसे फालतू शब्द के लिए कोई स्थान है. मित्रों, जहाँ एक तरफ उस भारत का भाग्योदय हो रहा है जो एक हजार साल तक गुलाम रहा तो वहीँ दूसरी ओर भारत के उन घृणित लोगों के छिपे हुए उद्देश्य सामने आने लगे हैं जो सदा सनातन भारतीय धर्म और संस्कृति से बेवजह सख्त घृणा करते हैं. वो भूल गए हैं कि आज से पांच सौ साल पहले फ्रांस के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने भविष्यवाणी कर दी थी कि २१वीं सदी में जिस देश और धर्म का नाम एक महासागर के नाम पर होगा वो विश्व और मानवता का नेतृत्व करेगा. वो तो वाजपेयी और मोदी के बीच भारत के विघ्नसंतोषियों के हाथों में सत्ता चली गई थी वर्ना कई साल पहले भारत वैश्विक और आर्थिक महाशक्ति बन जाता. तो आईए जी२० के शिखर-सम्मलेन की पूर्व-संध्या पर दोनों मुट्ठियों को भींचकर पूरी ताकत के नारा लगाएं- जय भारत, जय जगत.

सोमवार, 7 अगस्त 2023

मणिपुर के बाद मेवात से भाग मिल्खा भाग

मित्रों, अपना भारत भी गजब देश है. दुनिया में ऐसा कोई दूसरा देश नहीं है जहाँ बहुसंख्यक हाशिए पर हों और अल्पसंख्यक इस कदर हावी हों कि बहुसंख्यकों के लिए अपने धार्मिक क्रिया-कलाप का पालन करना जानलेवा हो जाए. मानो हिन्दू न हुए बकरे हो गए जब जी चाहे दस-बीस के गले रेत डालो. मानो हिन्दू न हुए पंछी हो गए जब जी चाहे बन्दूक उठाओ और दस-बीस को मारकर गिरा दो. कभी बंगाल में कांवरियों को डरे-सहमे समुदाय द्वारा पीटा जाता है तो कभी मणिपुर में घुसपैठियों द्वारा उनका सामूहिक नरसंहार कर दिया जाता है तो कभी हरियाणा के मेवात में तीन तरफ से पहाड़ पर से घेरकर मंदिर गए हिन्दू श्रद्धालुओं पर गोलीबारी कर दी जाती है और न जाने हत्याकांड को सही ठहराने के लिए क्या-क्या बहाने बनाए जाते हैं. जैसे, उन्होंने जय श्रीराम के नारे क्यों लगाए? उनको यात्रा निकालने के लिए यही इलाका मिला था? उन्होंने हमारी बहन को गाली क्यों दी? उन्होंने एक मुसलमान की गाड़ी में धक्का क्यों मारा? उन्होंने बदतमीजी की आदि-आदि. हाय, कितने मासूम हैं वो कि बहाने बनाना भी नहीं आता, छिपाना चाहते हैं अपनी गंदी फितरत को छिपाना भी नहीं आता। मित्रों, हमने बचपन में अपनी पाठ्य-पुस्तक में एक कहानी पढी थी जो आज बड़ी शिद्दत से याद आ रही है. किसी जंगल में एक मेमना एक झरने से पानी पीने गया तभी उसने देखा कि एक भेड़िया भी उससे ऊपर झरने का पानी पी रहा है. बेचारा मेमना चुपचाप पानी पी रहा था कि तभी भेड़िया चिल्लाया कि तू मेरे पानी को जूठा कर रहे हो. सुनकर मेमना हैरान हो गया कि जबकि भेड़िया ऊपर पानी पी रहा है तो वो कैसे उसके पानी को जूठा कर सकता है. जब उसने भेड़िये को समझाने की कोशिश की तो भेड़िए ने आरोप बदल दिया और कहने लगा कि तेरे बाप ने मुझे बहुत दिन पहले गाली दी थी और फिर भेड़िया मेमने को खा गया. मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि भेड़िये को तो बस मेमने को मारकर खा जाने का बहाना चाहिए भले ही वो झूठा हो या फिर भले ही उसमें दम नहीं हो. मणिपुर में घुसपैठिए ईसाईयों को और मेवात में रोहिंग्या सहित सभी मुसलमानों को बस हिन्दुओं को मारना था, सबक सिखाना था, डराना था कि तुम जब तक हिन्दू रहोगे तुमको हम चैन से जीने नहीं देंगे. उनको हमसे समस्या और कुछ नहीं है बस इतनी-सी है कि हम हिन्दू क्यों हैं, ईसाई या मुसलमान क्यों नहीं हो जाते. २०२० के दिल्ली दंगों के बारे में कोर्ट भी कह चुका है कि मुसलमान हिन्दुओं को सबक सिखाना चाहते थे. मित्रों, आपने देखा होगा कि बलि या क़ुरबानी हमेशा मेमनों की दी जाती है शेर-बाघों की नहीं. फैसला अब हम हिन्दुओं को करना है कि हम मेमने बनकर रहेंगे या शेर बनकर. जो व्यक्ति अपने तन की भी रक्षा नहीं कर सकता वो देश-धर्म की रक्षा क्या करेगा. मिल्खा सिंह की तरह भागोगे तो बस भागते ही रहोगे, पाकिस्तान से भागकर भारत आ गए अब भारत से भागकर कहाँ जाओगे? कोई दूसरा हिन्दू देश तो है नहीं इस भूमंडल पर? इसलिए अपनी रक्षा करना सीखो, घमंड छोड़ो और पूरे हिन्दू समाज के बारे में सोंचो, सबको साथ लेकर चलना सीखो.

शनिवार, 22 जुलाई 2023

जलते मणिपुर के गुनाहगार

मित्रों, आज मणिपुर में गृहयुद्ध की स्थिति है. प्रदेश की ९० प्रतिशत जमीन पर काबिज ईसाई मणिपुर से हिन्दू मैतेई लोगों को खदेड़ देना चाहते हैं. जब तक ईसाई मार रहे थे और हिन्दू मर रहे थे तब तक तो सोनिया गाँधी जो ईटली से आई हुई कैथोलिक ईसाई है चुप रही लेकिन जैसे ही हिन्दुओं ने पलटवार शुरू किया उसके पेट में मरोड़ शुरू हो गया. न सिर्फ मणिपुर से हिन्दुओं को खदेड़ने की साजिश है बल्कि मिजोरम से भी मिजो ईसाई हिन्दुओं को भगा देने की धमकी दे रहे हैं. ऐसे में हिन्दुबहुल भारत में हिन्दू जाए तो कहाँ जाए? कोई दूसरा हिन्दू देश तो है नहीं. मित्रों, लगभग पूरे पूर्वोत्तर भारत में आजादी के बाद से जैसे-जैसे ईसाईयों की संख्या बढती गई अलगाववाद भी बढ़ता गया. स्वामी विवेकानन्द के इस कथन को हम पूर्वोत्तर में सत्य होता हुआ देख सकते हैं कि भारत में सिर्फ धर्मान्तरण नहीं हो रहा राष्ट्रान्तरण हो रहा है. फिर कांग्रेस की डबल ईंजन की सरकारों की अल्पसंख्यकवादी नीति ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया. फिर भी १९७१ तक पूर्वोत्तर की स्थिति कमोबेश नियंत्रण में थी. मित्रों, क्या आप बता सकते हैं कि १९७१ के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम उर्फ़ भारत-पाकिस्तान युद्ध से भारत को क्या लाभ हुए? आप नहीं बता सकते क्योंकि भारत को इस खामखा के युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ उलटे हानि हुई और वो भी जबरदस्त. सर्वप्रथम भारत की अर्थव्यवस्था पर युद्ध के खर्च का भारी बोझ पड़ा लेकिन इसके बदले भारत को एक ईंच भी जमीन नहीं मिली वह भी तब जबकि भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान के ९३ हजार सैनिकों को बंदी बना लिया था. परिणाम भयंकर और अभूतपूर्व महंगाई. पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में १९७१ के बाद पहले शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हुई फिर वामपंथियों और कांग्रेस पार्टी की कृपा से पूरा पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत घुसपैठियों से भर गया. अब तो दिल्ली, मुंबई और कश्मीर तक आपको घुसपैठिए नजर आ जाएंगे. सन १९७० तक मणिपुर में जहाँ 2-4 प्रतिशत कुकी ईसाई घुसपैठिए थे आज घुसपैठ और धर्मान्तरण के गंदे कांग्रेसी खेल के चलते मणिपुर में कुकी ईसाईयों की संख्या २१ प्रतिशत हो चुकी है. इतना ही नहीं कांग्रेस की हिंदुविरोधी नीतियों के कारण जहाँ हिन्दू मैतेई ईसाई बहुल पहाड़ी स्थानों में जमीन नहीं खरीद सकते वहीँ ईसाई हिन्दू बहुत घाटियों में आराम से जमीन खरीद सकते हैं. साथ ही कांग्रेस पार्टी ने ईसाई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देकर आरक्षण और अन्य लाभ दे दिए जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिए जाते हैं वो वहीँ हिन्दू मैतेई अपने ही हिन्दूबहुल देश में मुंहतका बनकर रह गए. मित्रों, फिर मणिपुर और केंद्र दोनों में भाजपा की सरकार बनी और निर्णय लिया गया कि मणिपुर के मैतेई हिन्दुओं के साथ पिछले ५० सालों से होनेवाले अन्याय और गैर बराबरी को दूर किया जाए और उनको भी उच्च न्यायालय के आदेशानुसार अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया जाए जिससे मैतेई हिन्दू भी आरक्षण का लाभ उठा सकें और ईसाई बहुल क्षेत्रों में जमीन भी खरीद सकें. लेकिन अब तक मणिपुर के ईसाई चीन और कांग्रेस परी की मदद से इतने शक्तिशाली हो चुके थे कि जब चाहे तब भारतीय सेना का मार्ग रोकने लगे थे. मणिपुर के ईसाई बहुल ईलाकों की तुलना हम अफगानिस्तान के तालिबानी क्षेत्रों से कर सकते हैं क्योंकि यहाँ भी अत्याधुनिक हथियारों से युक्त सेना बन चुकी है साथ ही तालिबानी क्षेत्रों की तरह गांजे और अफीम की खेती भी जमकर होती है. जैसे ही सरकार ने उच्च न्यायालय के आदेशानुसार मैतेई हिन्दुओं को आरक्षण देने की घोषणा की गई ईसाईयों ने मैतेई हिन्दुओं के साथ-साथ भारतीय सेना और सुरक्षा बलों पर हमले शुरू कर दिए और हिंसा की आग में पिछले ५० सालों से जल रहे मणिपुर में हिंसा की आग और भी तेजी से भड़क उठी जिसे हिन्दू विरोधी कांग्रेस ने और भी भड़काया, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से तो उसका समझौता है ही. मित्रों, इस बीच केंद्र सरकार ने मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में उग्रवादियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया आखिर कब तक भारतविरोधी शक्तियों को पाला जाए और बर्दाश्त किया जाए. बस तभी से कांग्रेस पार्टी के पेट में दर्द शुरू है वो देश-विदेश में भारत को बदनाम करने के अभियान में जुटी हुई है. एक पूरा-का-पूरा टूल किट गैंग सक्रिय है जिसमें न्यायपालिका तक शामिल है अन्यथा बंगाल में चुनाव के दौरान हुई हिंसा, हत्याएं, बलात्कार और महिलाओं को नंगा करके घुमाने की घटनाएँ न्यायपालिका को नजर नहीं आती लेकिन मणिपुर की नजर आ जाती है. राजस्थान की कांग्रेस सरकार का मंत्री सदन में खड़े होकर ख़ुद कह रहा है कि उनकी सरकार प्रदेश की महिलाओं की सुरक्षा करने में असफल हो गई है। उन्होंने यहाँ तक कह दिया, ‘मणिपुर के बजाय हमें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।’ लेकिन मी लार्ड को फिर भी राजस्थान में कोई अत्याचार नजर नहीं आता. मैं यह नहीं कहता कि मणिपुर में दो कुकी महिलाओं के साथ जो कुछ भी हुआ वो सही था लेकिन जब न्यायपालिका कांग्रेस और भाजपा शासित राज्यों के बीच भेदभाव करने लगेगी तो उस पर सवाल तो उठेंगे ही क्योंकि लोक से बड़ा न तो संविधान है और न ही तंत्र. कितनी विचित्र बात है कि केंद्र में ९ सालों से भाजपा की सरकार है लेकिन सिस्टम और न्यायपालिका पर आज भी कांग्रेस का कब्ज़ा है और जब तक न्यायपालिका में कोलेजियम सिस्टम रहेगा उनका कब्ज़ा बना रहेगा. मोदी सरकार ने प्रारंभ में कोलेजियम को समाप्त करने की कोशिश भी की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा होने नहीं दिया. अब मोदी सरकार ने भी मानों हार मान ली है जिस तरह से किरण रिजीजू को कानून मंत्री के पद से हटाया गया उससे तो ऐसा ही लगता है. मित्रों, अब तक आपको भी कांग्रेस के टूल किट गैंग और मणिपुर पर हंगामे की क्रोनोलॉजी समझ में आ गई होगी इसलिए भावनाओं में आकर बहिए नहीं क्योंकि उनको भी पता है कि हिन्दू भोले और दयालु होते हैं और वे अबतक इसका फायदा भी उठाते रहे हैं. इसी तरह कांग्रेस ने २००४ में भी आपको कथित ताबूत घोटाले के नाम पर भड़काया था और वाजपेयी जैसे ईमानदार चुनाव हार गए थे. फिर भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार सत्ता में आई थी और देश को कई साल पीछे धकेल दिया था. इस समय भी कांग्रेस उसी खेल को दोहरा रही है. भारत की अर्थव्यवस्था और विदेश नीति इस समय पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण बनी हुई है. भारत बहुत जल्द जर्मनी और जापान को पछाड़ कर वैश्विक अर्थव्यवस्था में नंबर तीन पर काबिज होने जा रहा है और यह हम नहीं विश्व बैंक और तमाम रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं. लगता है जैसे हम जागती आँखों से सपने देख रहे हैं. और उधर इसी बात से दिन-रात चीन के गुणगान करनेवाली कांग्रेस पार्टी की नींद उडी हुई है. तो हमें सावधान और सचेत रहना है अन्यथा चोरों का गिरोह जिसने आपको चकमा देने के लिए इंडिया नाम से गठबंधन बनाया है भारत के विश्वगुरु बनने के सपने को एक बार फिर से चकनाचूर करने के लिए तैयार बैठा है. पुनश्च- मणिपुर में बसी एक विदेशी मूल की जाति कुकी है, जो मात्र डेढ़ सौ वर्ष पहले पहाड़ों में आ कर बसी थी। ये मूलतः मंगोल नस्ल के लोग हैं। जब अंग्रेजों ने चीन में अफीम की खेती को बढ़ावा दिया तो उसके कुछ दशक बाद अंग्रेजों ने ही इन मंगोलों को बर्मा के पहाड़ी इलाके से ला कर मणिपुर में अफीम की खेती में लगाया। आपको आश्चर्य होगा कि तमाम कानूनों को धत्ता बता कर ये अब भी अफीम की खेती करते हैं और कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। इनके व्यवहार में अब भी वही मंगोली क्रूरता है, और व्यवस्था के प्रति प्रतिरोध का भाव है। मतलब नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे। अधिकांश कुकी यहाँ अंग्रेजों द्वारा बसाए गए हैं, पर कुछ उसके पहले ही रहते थे। उन्हें बर्मा से बुला कर मैतेई राजाओं ने बसाया था। क्यों? क्योंकि तब ये सस्ते सैनिक हुआ करते थे। सस्ते मजदूर के चक्कर में अपना नाश कर लेना कोई नई बीमारी नहीं है। आप भी ढूंढते हैं न सस्ते मजदूर? खैर... आप मणिपुर के लोकल न्यूज को पढ़ने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि कुकी अब भी अवैध तरीके से बर्मा से आ कर मणिपुर के सीमावर्ती जिलों में बस रहे हैं। सरकार इस घुसपैठ को रोकने का प्रयास कर रही है, पर पूर्णतः सफल नहीं है। आजादी के बाद जब उत्तर पूर्व में मिशनरियों को खुली छूट मिली तो उन्होंने इनका धर्म परिवर्तन कराया और अब लगभग सारे कुकी ईसाई हैं। और यही कारण है कि इनके मुद्दे पर एशिया-यूरोप सब एक सुर में बोलने लगते हैं। इन लोगों का एक विशेष गुण है। नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे। क्या सरकार, क्या सुप्रीम कोर्ट? अपुनिच सरकार है! "पुष्पा राज, झुकेगा नहीं साला" सरकार कहती है, अफीम की खेती अवैध है। ये कहते हैं, "तो क्या हुआ? हम करेंगे।" कोर्ट ने कहा, "मैतेई भी अनुसूचित जाति के लोग हैं।" ये कहते हैं, "कोर्ट कौन? हम कहते हैं कि वे अनुसूचित नहीं हैं, मतलब नहीं हैं। हमीं कोर्ट हैं। मैती, मैतेई या मैतई... ये मणिपुर के मूल निवासी हैं। सदैव वनवासियों की तरह प्राकृतिक वैष्णव जीवन जीने वाले लोग। पुराने दिनों में सत्ता इनकी थी, इन्हीं में से राजा हुआ करते थे। अब राज्य नहीं है, जमीन भी नहीं है। मणिपुर की जनसंख्या में ये आधे से अधिक हैं, पर भूमि इनके पास दस प्रतिशत के आसपास है। उधर कुकीयों की जनसंख्या 20% है, पर जमीन 90% है। 90% जमीन पर कब्जा रखने वाले कुकीयों की मांग है कि 10% जमीन वाले मैतेई लोगों को जनजाति का दर्जा न दिया जाय। वे लोग विकसित हैं, सम्पन्न हैं। यदि उनको यदि अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया तो हमारा विकास नहीं होगा। हमलोग शोषित हैं, कुपोषित हैं... कितनी अच्छी बात है न? अब मैतेई भाई बहनों की दशा देखिये। जनसंख्या इनकी अधिक है, विधायक इनके अधिक हैं, सरकार इनके समर्थन की है। पर कोर्ट से आदेश मिलने के बाद भी ये अपना हक नहीं ले पा रहे हैं। क्यों? इसका उत्तर समझना बहुत कठिन नहीं है।

गुरुवार, 29 जून 2023

भारत में क्यों जरुरी है समान नागरिक संहिता?

मित्रों, जब १९४७ में भारत को रक्तरंजित बंटवारे के बाद आजादी मिली तो भारत में दुर्भाग्यवश एक ऐसे व्यक्ति को जबरन प्रधानमंत्री बना दिया गया जो बस नाम का हिन्दू था और स्वयं कहता था कि By education I am an Englishman, by views an internationalist, by culture a Muslim and a Hindu only by accident of birth. उस व्यक्ति को मुस्लिम बहुल ईलाके में हिन्दुओं और सिखों के हो रहे नरसंहार की कोई चिंता नहीं थी बल्कि उसे हिन्दुबहुल ईलाके में रह रहे मुसलमानों की चिंता खाए जा रही थी. वह हिन्दू नामधारी मुसलमान जब अमेरिका की आधिकारिक यात्रा पर जाता तो अपनी बेटी के साथ बड़े ही चाव से गोमांस का भक्षण करता. मित्रों, जब ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री हो तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो हिन्दुओं के भले के बारे में सोंचेगा भी यही कारण है कि भारत के संविधान में बहुसंख्यकों की कोई चर्चा ही नहीं है जब अल्पसंख्यकों और उनके अधिकारों का बार-बार जिक्र है. यही कारण है कि धर्माधारित बंटवारे के बावजूद भारत में बड़ी संख्या में मुसलमान रह गए जो आज जनसँख्या जिहाद, जमीन जिहाद, लव जिहाद आदि जिहादों के माध्यम से देश की एकता-अखंडता और शांति-सद्भाव के लिए समस्या बन गए हैं. वह नेहरु ही थे जिनके चलते भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं हो पाई जबकि तब ऐसा कर पाना आज की तुलना में काफी आसान था. मित्रों, समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है कि हर धर्म, जाति, संप्रदाय, वर्ग के लिए पूरे देश में एक ही नियम. दूसरे शब्‍दों में कहें तो समान नागरिक संहिता का मतलब है कि पूरे देश के लिए एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने के नियम एक ही होंगे. संविधान के अनुच्छेद-44 में सभी नागरिकों के लिए समान कानून लागू करने की बात कही गई है. अनुच्छेद-44 संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है. इस अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’ के सिद्धांत का पालन करना है. बता दें कि भारत में सभी नागरिकों के लिए एक समान ‘आपराधिक संहिता’ है, लेकिन समान नागरिक कानून नहीं है. मित्रों, पिछले सालों में खुद भारत का सर्वोच्च न्यायालय कई बार भारत में समान नागरिक संहिता की जरुरत बता चुका है. ट्रिपल तलाक से जुड़े 1985 के चर्चित शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 44 एक ‘मृत पत्र’ जैसा हो गया है. साथ ही कोर्ट ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरुरत पर जोर दिया था. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि समान नागरिक संहिता विरोधी विचारधाराओं वाले कानून के प्रति असमान वफादारी को हटाकर राष्ट्रीय एकीकरण में मदद करेगी. इसी तरह बहुविवाह से जुड़े सरला मुद्गल बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने 1954 में संसद में समान नागरिक संहिता के बजाय हिंदू कोड बिल पेश किया था. इस दौरान उन्‍होंने बचाव करते हुए कहा था कि यूसीसी को आगे बढ़ाने की कोशिश करने का यह सही समय नहीं है. मित्रों, गोवा के लोगों से जुड़े 2019 के उत्तराधिकार मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की चर्चा करने वाले भाग चार के अनुच्छेद-44 में संविधान के संस्थापकों ने अपेक्षा की थी कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगा. लेकिन, आज तक इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया. मित्रों, समान नागरिक संहिता के मामले में गोवा अपवाद है. गोवा में यूसीसी पहले से ही लागू है. बता दें कि संविधान में गोवा को विशेष राज्‍य का दर्जा दिया गया है. वहीं, गोवा को पुर्तगाली सिविल कोड लागू करने का अधिकार भी मिला हुआ है. राज्‍य में सभी धर्म और जातियों के लिए फैमिली लॉ लागू है. इसके मुताबिक, सभी धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग से जुड़े लोगों के लिए शादी, तलाक, उत्‍तराधिकार के कानून समान हैं. गोवा में कोई भी ट्रिपल तलाक नहीं दे सकता है. रजिस्‍ट्रेशन कराए बिना शादी कानूनी तौर पर मान्‍य नहीं होगी. संपत्ति पर पति-पत्‍नी का समान अधिकार है. जहां मुस्लिमों को गोवा में चार शादी का अधिकार नहीं है. वहीं, हिंदुओं को दो शादी करने की छूट है. मित्रों, दुनिया के कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है. इनमें हमारे पड़ोसी देश पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश भी शामिल हैं. इन दोनों देशों में सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों पर शरिया पर आधारित एक समान कानून लागू होता है. इनके अलावा इजरायल, जापान, फ्रांस और रूस में भी समान नागरिक संहिता लागू है. हालांकि, कुछ मामलों के लिए समान दीवानी या आपराधिक कानून भी लागू हैं. यूरोपीय देशों और अमेरिका में धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो सभी धर्म के लोगों पर समान रूप से लागू होता है. दुनिया के ज्‍यादातर इस्लामिक देशों में शरिया पर आधारित एक समान कानून है, जो वहां रहने वाले सभी धर्म के लोगों को समान रूप से लागू होता है. मित्रों, भारत में अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ा दी जाएगी. इससे वे कम से कम ग्रेजुएट तक की पढ़ाई पूरी कर सकेंगी. वहीं, गांव स्‍तर तक शादी के पंजीकरण की सुविधा पहुंचाई जाएगी. अगर किसी की शादी पंजीकृत नहीं होगी तो दंपति को सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा. पति और पत्‍नी को तलाक के समान अधिकार मिलेंगे. एक से ज्‍यादा शादी करने पर पूरी तरह से रोक लग जाएगी. नौकरीपेशा बेटे की मौत होने पर पत्‍नी को मिले मुआवजे में माता-पिता के भरण पोषण की जिम्‍मेदारी भी शामिल होगी. उत्‍तराधिकार में बेटा और बेटी को बराबर का हक होगा. पत्‍नी की मौत के बाद उसके अकेले माता-पिता की देखभाल की जिम्‍मेदारी पति की होगी. वहीं, मुस्लिम महिलाओं को बच्‍चे गोद लेने का अधिकार मिल जाएगा. उन्‍हें हलाला और इद्दत से पूरी तरह से छुटकारा मिल जाएगा. लिव-इन रिलेशन में रहने वाले सभी लोगों को डिक्लेरेशन देना पड़ेगा. पति और पत्‍नी में अनबन होने पर उनके बच्‍चे की कस्‍टडी दादा-दादी या नाना-नानी में से किसी को दी जाएगी. बच्‍चे के अनाथ होने पर अभिभावक बनने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी. मित्रों, भाजपा की विचारधारा से जुड़े राम मंदिर और अनुच्छेद 370 की राह में कई कानूनी अड़चनें थी, मगर समान नागरिक संहिता मामले में ऐसा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई राज्यों के हाईकोर्ट ने कई बार इसकी जरूरत बताई है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के खिलाफ दायर याचिका खारिज कर दी। इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने भी शीर्ष अदालत में कहा था कि वह समान कानून के पक्ष में है। मित्रों, ये तो हुई समान नागरिक संहिता का कानूनी पक्ष मगर सच्चाई तो यह है कि अगर भविष्य में भारत को विभाजित होने से बचाना है तो यही समय है जब देश में समान नागरिक संहिता लागू कर देना चाहिए और अविलंब कर देना चाहिए. कोई बच्चा भी बता देगा कि भारत का अगर फिर से विभाजन होता है तो फिर से मुसलमानों के कारण ही होगा. समान नागरिक संहिता के आने से वक्फ बोर्ड कानून जो जमीन जिहाद को बढ़ावा देता है तो समाप्त होगा ही जनसँख्या जिहाद और लव जिहाद पर भी रोक लगेगी साथ ही मस्जिदों और चर्चों की तरह हिन्दुओं के मंदिर भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो जाएँगे.

रविवार, 7 मई 2023

अरविन्द केजरीवाल की नई राजनीति

मित्रों, क्या आपको साल २०१२-१३ याद है? तब अन्ना के नेतृत्व में दिल्ली में भ्रष्टाचारविरोधी आन्दोलन चल रहा था. पूरा देश रोमांचित था कि आन्दोलन रुपी यज्ञ से भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने का सूत्र निकलेगा. फिर बड़ी ही चालाकी से अन्ना को किनारे करके अरविन्द केजरीवाल नामक बड़बोले ने आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया. बड़े-बड़े वादे किए गए. लगा जैसे सादगी और ईमानदारी का मसीहा आ गया है. नई तरह की राजनीति के सब्जबाग दिखाए गए. उन दिनों उनके हाथों में दिल्ली की शीला दीक्षित की नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ कई सौ पृष्ठों का आरोपपत्र होता था. ७ जून, २०१३ को अरविन्द केजरीवाल ने एक शपथ-पत्र जारी किया जिसके अनुसार वो मुख्यमंत्री बनने के बाद न तो सरकारी गाड़ी का प्रयोग करनेवाले थे, न ही सरकारी सुरक्षा लेनेवाले थे और न ही बड़े निवास में रहनेवाले थे. मित्रों, धीरे-धीरे समय बीता. २०२० में केजरीवाल की पार्टी द्वारा प्रायोजित दिल्ली के हिन्दू-विरोधी दंगों ने दिल्ली की धरती को हिन्दुओं के खून से लाल कर दिया. शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ मुकदमा करना और चलाना तो दूर की बात रही राजनीति के कीचड़ के कथित अरविन्द यानि कमल ने अपनी पहली सरकार ही कांग्रेस के समर्थन से बनाई. धीरे-धीरे कालनेमि सरकार के कारनामे भी सामने आने लगे. फिर पहले तो सरकार का जेल मंत्री जेल में रहकर जेलों को सँभालने लगा बाद में उपमुख्यमंत्री जो वास्तव में मुख्यमंत्री थे भी तिहाड़ की शोभा बढाने लगे. अरविन्द केजरीवाल इतना शातिर था कि उसने सरकार में कोई विभाग नहीं लिया क्योंकि उसे घोटालों का पैसा तो चाहिए था जेल नहीं चाहिए था. लगा जैसे दिल्ली में एक बार फिर से रोबर्ट क्लाइव वाला द्वैध शासन आ गया है, जिम्मेदारी तुम्हारी मलाई हमारी. यूं तो स्वघोषित अराजकतावादी केजरीवाल ने बार-बार दिल्ली में अराजकता की स्थिति पैदा कर केंद्र की मोदी सरकार को परेशान किया लेकिन गनीमत यह थी कि अभी तक उसके हाथों में पुलिस नहीं थी. मित्रों, जैसे ही केजरीवाल ने पंजाब का चुनाव जीता उसकी यह ईच्छा भी पूरी हो गई. फिर तो पंजाब पुलिस दिल्ली में केजरीवाल के विरोधियों को पकड़ने दिल्ली पहुँचने लगी. अब जबकि उसके आम आदमीपन की पोल पट्टी उसके ४५ करोड़ के शीश महल की सच्चाई सामने आने के बाद पूरी तरह से खुल चुकी है दिल्ली प्रदेश का कथित प्रधानमंत्री केजरीवाल गुस्से से पागल हो गया है. वो कहते हैं न खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे तो दिन-रात लालू परिवार जैसे महाभ्रष्टों के साथ प्यार की पींगे पढनेवाले कथित महा ईमानदार केजरीवाल ने निरीह पत्रकारों को जेल भेजना शुरू कर दिया है वो भी झूठे मुकदमे में फंसाकर. ऐसा ही करके इन दिनों बिहार में भी लालू जी के बेटे लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं. खिलाफ में रिपोर्टिंग कईले तो गेले बेटा. मित्रों, कुल मिलाकर जिस तरह से केजरीवाल की कलई खुली है, नीला रंग उतरा है, उसके बाद सच मानिए तो बिहार और भारत की जनता किसी भी नए नेता का साथ देने में सौ बार सोंचेगी फिर चाहे वो प्रशांत किशोर ही क्यों न हों. खुद को अरविन्द यानि कमल बतानेवाला और झाड़ू हाथ में लेकर भारतीय राजनीति की गंदगी साफ़ करने का वादा करनेवाला आज भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी गंदगी बन गया है. का-का, छी-छी, केजरीवाल छी-छी.

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

अतीक के आतंक का अंत

मित्रों, यह धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष कोई आज का नहीं है बल्कि हमेशा से है. कहते हैं कि सतयुग में भगवान स्वयं आकर धर्म की जीत सुनिश्चित करते थे फिर त्रेता में उन्होंने रामावतार लिया और अपने अवतार के हाथों से धर्म की संस्थापना की. इसके बाद द्वापर में भगवान ने महाभारत में भाग नहीं लिया बल्कि सारथी बनकर धर्म की जीत को सुनिश्चित किया. अब जबकि कलियुग है भगवान ने सारथी बनना भी छोड़ दिया है और कर्मफल के आधार पर आतातियों का अंत करते हैं. मतलब कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा. मित्रों, हमारा तो यही मानना है अब कोई कथित आसमानी किताब चाहे कुछ भी कहती हो. अब परसों रात में मारे गए अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को ही ले लीजिए जिनका आतंक इतना ज्यादा था कि जज तक उसके डर से थर-थर कांपते थे. और उस आधुनिक युग के रावण को तीन छोटे-छोटे बच्चों ने मार डाला. कहते हैं कि चाहे कितना भी बड़ा गुंडा या राक्षस क्यों न हो सबका एक-न-एक दिन अंत निश्चित है. जिस तरह अतीक ने सैकड़ों लाशों की सीढी बनाकर फर्श से अर्श तक का सफ़र तय किया था वैसे ही उससे भी बड़ा डॉन बनने की महत्वाकांक्षा रखनेवाले तीन युवाओं ने उसे मौत के घाट उतार दिया. एक बार फिर से कर्मफल का सिद्धांत सत्य साबित हुआ. मित्रों, अब चाहे वह लोग कितनी भी छाती पीटें जो अतीक की मदद से चुनाव जीतते थे अतीक तो जिन्दा होने से रहा. इस हत्याकांड में पुलिस प्रशासन की क्या भूमिका थी या कोई भूमिका थी ही नहीं लेकिन यह पुलिस-प्रशासन की चूक तो है ही और अतीक और अशरफ की सुरक्षा में लगे कर्मियों और पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई भी हो रही है. मित्रों, अंत में समस्त भूमंडलवासियों से यह कहना चाहूंगा कि सत्कर्म पर चलिए और किसी कमजोर पर जुल्म मत ढाहिए. हो सकता है कि आप इंसानों की अदालत से बच जाएं लेकिन भगवान की अदालत जो सबसे बड़ी अदालत है से नहीं बच पाएंगे और उसकी लाठी बेआवाज होती है.

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

मनीष कश्यप, नीतीश कुमार और रामनवमी का त्योहार

मित्रों, कई साल पहले मैंने किसी कवि की एक रचना पढ़ी थी जिसका भाव कुछ इस प्रकार था- भारत में प्रत्येक मतदान के समय हम बकरियां यानि जनता अपने लिए सुयोग्य कसाई का चुनाव करते हैं. हर चुनाव के बाद जनता को लगता है कि इस बार भी उसे ठगा गया है. जिनको समझा था शरीफ जालिम निकले, इंसाफ के खूनी ही मुंसिफ और हाकिम निकले; जिन्होंने वादा किया था इंसाफ दिलाने का, वक्त आया तो वही चोर और कातिल निकले. मित्रों, यकीं नहीं होता कि बिहार को पिछले 33 सालों से बर्बाद और तबाह करनेवाले लोग बिहार आंदोलन की उपज हैं. उस बिहार आंदोलन की जो भारत में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर चलाया गया था. जिन नेताओं ने अपने बच्चों के नाम तक कुख्यात मीसा कानून के नाम पर रखे थे क्या विडंबना है कि आज उनके बच्चे अपनी और अपनी सरकार की आलोचना में एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं हैं. आप ही बताईए आखिर मनीष कश्यप का कसूर क्या था? यही न कि उसने आधुनिक युग के रावणों को सच का आईना दिखाने की कोशिश की, यही न कि उसने भारत के संविधान पर भरोसा किया जो भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. हो सकता है मनीष की भाषा आक्रामक हो लेकिन उसकी रिपोर्ट झूठ नहीं है उन्होंने उसी को चोर कहा है जो कोर्ट में चोर साबित हो चुके हैं. रही बात तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों की प्रताड़ना की तो अगर गरीबों के आंसुओं को अभिव्यक्ति देनेवाली रिपोर्टें झूठी हैं भी तो कार्रवाई बिहार के उन सारे मीडिया संस्थानों के खिलाफ भी होनी चाहिए जिनमें तमिलनाडु की रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी और जिन मीडिया संस्थानों ने सरकार के डर से अचानक तमिलनाडु की रिपोर्ट छापनी बंद कर दी. सवाल है कि क्या बिहार में लोकतंत्र है? क्या मनीष की गिरफ़्तारी लोकतंत्र की हत्या नहीं है. अब उन पत्रकारों को क्या कहें जिनको सांप सूंघ गया है. आपातकाल के समय पत्रकारों के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए लाल कृष्ण आडवानी ने कहा था कि सरकार ने तो उनको सिर्फ झुकने के लिए कहा था लेकिन वो तो रेंगने लगे. क्या बिहार के पत्रकार भी ठीक उसी तरह से नहीं डर गए हैं जैसे कक्षा के एक बच्चे की पिटाई से पूरी कक्षा के बच्चे डर जाते हैं? मित्रों, अब हम बात करेंगे रामनवमी के त्योहार के दौरान बिहार में रामजी की झांकी पर हुए पथराव और दो हिंदुओं की हत्या पर. यह कितना निराशाजनक है कि हम हिंदू अब बिहार में अपना त्योहार तक नहीं मना सकते. धीरे-धीरे पूरा भारत कश्मीर बनता जा रहा है. सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो सबके सब मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे हुए हैं. हिन्दुओं के जुलूसों पर पत्थरबाजी करनेवाली मस्जिदों और मजारों को ढाहने के बजाए नेतागण ईफ्तार पार्टी देने में मशगुल हैं. सबसे दुखद पहलू तो यह है कि रामनवमी की हिंसा में मारे भी हिंदू गये और गिरफ्तारी भी हिंदुओं की हो रही है. लगता है जैसे नीतीश कुमार ने बिहार में उस सोनिया कानून को लागू कर दिया है जो अगर यूपीए सरकार के समय लागू हो जाता तो चाहे दंगे एकतरफा तौर पर मुसलमान करते और एकतरफा तौर पर भले ही हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया जाता, दंगों के लिए दोषी हिन्दू ही माने जाते और जेल भी हिन्दू ही जाते. जाहिर है जब तक हिन्दू बंटा हुआ है तब तक कटता रहेगा. जिनका कुर्सी धरम है, जिनका कुर्सी ईमान है; वो न होंगे हिन्दुओं के, भले ही उनका हिन्दू नाम है.

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

अयोग्य ठहराए गए अयोग्य राहुल

मित्रों, कहने को तो भारत में लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में आज भी भारत में राजतन्त्र है. यहाँ मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री बनता है और प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री भले ही वो इन पदों के लायक हो या न हो. अब राहुल गाँधी को ही लीजिए. कल से जबसे उनको सूरत की अदालत ने अनाप-शनाप गाली बकने के मामले में दो साल कैद की सजा सुनाई है तभी से यह चर्चा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छिड़ी है कि उनको लोकसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है जैसे कि राहुल गाँधी बहुत बड़े समझदार नेता हों. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसलिए क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने भी इस मामले में अपनी नाक घुसेड़ने की कोशिश की है. कितनी तगड़ी लोबिंग है ईसाइयों की समझ में नहीं आता. राहुल गाँधी की जगह अगर कोई हिन्दुत्ववादी नेता होता तो निश्चित रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की नींद नहीं उड़ती. मित्रों, सवाल उठता है कि कई बड़े नेताओं की बेटों की तरह क्या राहुल गाँधी भी भारत की राजनीति के लायक हैं? क्या उनमें इतनी समझ है कि उनको भारत का प्रधानमंत्री तो दूर सांसद भी बनाया जा सके? जिस व्यक्ति की जीभ पर नियंत्रण नहीं हो वो भला कैसे राजनीति करेगा? साथ ही उनका मानसिक स्तर भी वैसा नहीं है जैसा कि एक जनप्रतिनिधि का होना चाहिए. हरेक भाषण से पहले उनको चार लोग मिलकर बताते हैं कि क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है लेकिन माईक पर जाते ही वो भूल जाते हैं और कुछ-न-कुछ विवादास्पद बोल जाते हैं. न जाने आरएसएस और सावरकर जी ने उनका क्या बिगाड़ा है कि वो बराबर इनके खिलाफ बोलते रहते हैं. अभी दो-तीन दिन पहले ही उन्होंने कहा कि वो सावरकर नहीं हैं राहुल गाँधी हैं. भला उनको कौन नहीं जानता जो वो इस प्रकार से अपना परिचय देते फिरते हैं? क्या राहुल जी सावरकर जी की चरण-धूलि के भी बराबर हैं? कदापि नहीं!!! सावरकर उद्दाम देशभक्त और परम विद्वान थे अच्छे वक्ता तो थे ही. जबकि राहुल गाँधी की छवि देशभक्त की नहीं देशविरोधी की है. विद्वता का तो यह हाल है कि कभी आलू से सोना बनाते हैं तो कभी खुद कहते हैं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वे संसद सदस्य हैं तो कभी कहते हैं कि उन्होंने खुद ही मार दिया है. ये लक्षण निश्चित रूप से मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति के हैं और संविधान कहता है कि कोई विक्षिप्त चुनाव नहीं लड़ ही नहीं सकता. मित्रों, मुझे कांग्रेस और राहुल गाँधी दोनों पर दया आती है. बचपन में मैंने अमरकांत जी की कहानी पढ़ी थी जिन्दगी और जोंक. इस कहानी में एक भिखारी लम्बे समय तक जीवित रहता है जबकि उनके जीने का कोई मतलब नहीं है. जैसे जिंदगी उससे जोंक की तरह चिपकी हुई है. जब उनकी मौत होती है तब अमरकांत जी लिखते हैं कि आज जिन्दगी उस व्यक्ति से और वह व्यक्ति जिंदगी से छुटकारा पा गया. कुछ ऐसी ही हालत कांग्रेस और गाँधी परिवार की है. यह सिद्ध हो चुका है कि न तो कांग्रेस गाँधी परिवार को बचा सकती है और न ही गाँधी परिवार कांग्रेस का पुनरुद्धार कर सकने की स्थिति में है लेकिन दोनों एक-दूसरे से जिंदगी और जोंक की तरह चिपके हुए हैं. न जाने दोनों को कब एक-दूसरे से मुक्ति मिलेगी. इतनी जबरदस्त फजीहत के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि राहुल गाँधी को राजनीति से और राजनीति को राहुल गाँधी से मुक्ति मिलने वाली है.

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

पंजाब को बचा लो मोदी जी

मित्रों, जबसे पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार आई है तभी से पंजाब के एक बार फिर से आतंकवाद की आग में जलने का खतरा उत्पन्न हो गया है. यह तो कोई नहीं कह सकता कि आप पार्टी के साथ खालिस्तानी अलगाववादियों के साथ क्या गुप्त संधि हुई है लेकिन पिछले दिनों पंजाब में जिस तरह की हिंसक घटनाएँ हो रहीं हैं उससे शक होता है कि सरकार ने राज्य को पूरी तरह से खालिस्तानियों के हवाले कर दिया है. पहले हिन्दू नेता सुधीर सूरी की पुलिस के सामने हत्या और अब सीधे पुलिस थाने पर हमले से यही संकेत मिलते हैं कि पंजाब में आप पार्टी बेहद गन्दी राजनीति कर रही है. मित्रों, मोहाली-चंडीगढ़ बॉर्डर पर बैठे एक अन्य गुट ने भी पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया था। ये लोग 14 साल की कैद पूरी कर चुके सिख कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे। हालांकि कई हमलावरों की पहचान की गई, लेकिन किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया। अजनाला मामले में भी एफआईआर नहीं हुई है। यह पुलिस बल के मनोबल को तोड़कर रख देगा इसमें कोई संदेह नहीं. मित्रों, अमृतपाल एक नया लड़का है जो दुबई से आया है। जो हुआ वह बहुत खुशी की बात नहीं है। अलगाववादी और हमारे पड़ोसी दुश्मन इसका फायदा उठाएंगे। उन्होंने (पुलिस और राज्य सरकार) अपना फैसला लिया। मुझे नहीं पता कि उन्होंने ऐसा फैसला क्यों लिया। पुलिस तो सरकार के इशारे पर काम करती है इसलिए उसका क्या कसूर? लेकिन कट्टरपंथियों की मांगों के आगे झुकना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है। शायद खालिस्तानियों ने आम आदमी पार्टी को अकूत पैसे दिए हों. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि लवप्रीत को छोड़ देने से अमृतपाल निश्चित रूप से जनता के लिए एक खतरनाक शख्सियत बन गया है। कुछ इसी तरह की गलती इंदिरा गाँधी ने भिंडरावाले के मामले में की थी. लम्हों ने खता की थी और कैसे सदियों ने सजा पाई हम सबने देखा है. मित्रों, हम मानते हैं कि राजनीति होनी चाहिए, राजनीतिज्ञ राजनीति करें लेकिन ऐसी राजनीति बिल्कुल न करें जिससे देश को नुकसान हो. पिछले साल जुलाई से पंजाब में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत स्थायी डीजीपी नहीं है। अगर राज्य सरकार की ओर से नियमों का ख्याल नहीं रखा जा रहा तो केंद्र को इसका संज्ञान लेना चाहिए. भारत सरकार को पंजाब को जलता देख मुंह नहीं ताकना चाहिए बल्कि संविधानप्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए पंजाब सरकार को सख्त निर्देश देने चाहिए और फिर भी न माने तो बर्खास्त कर देना चाहिए.

लफंगों के राष्ट्रकवि कुमार विश्वास

मित्रों, तुलसी रामचरितमानस में कह गए हैं कि पंडित सोई जो गाल बजाबा. निश्चित रूप से गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसा व्यंग्यपूर्वक कहा होगा लेकिन आज के कई कवि सिर्फ गाल बजाकर महाकवि बन गए हैं और ऐसे कवियों में सबसे अग्रगण्य हैं कुमार विश्वास. इन श्रीमान ने न जाने कौन-सी महान कविता लिखी है लेकिन ये लच्छेदार बातें करने में माहिर जरूर हैं और यही इनकी एकमात्र योग्यता भी है. इसी योग्यता के कारण इनको कथित कवि सम्मेलनों में मंच संचालन का भार दिया जाता है. कभी किसी कवि का परिचय देते हुए ये कहते हैं कि इन्होंने कविता लिखते समय दिमाग नहीं लगाया है तो कभी श्रोताओं को छिछोरों की तरह खींसे निपोरते हुए कहता है कि जो लोग दूसरों की पत्नियों के साथ आए हैं. मित्रों, इतना ही नहीं इन श्रीमान को यह भी पता नहीं है कि कबीर अकबर के समकालीन नहीं थे फिर भी टीन टप्पर ठोक पीट कर ट्रेन में चनाजोर बेचनेवालों की तरह घटिया तुकबंदी करनेवाला यह घटिया आदमी खुद को महान कबीर की परंपरा का महान कवि बताता है. कभी महादेवी वर्मा ने कहा था कि कवि सम्मलेन थकान मिटाने के साधन बनकर रह गए हैं लेकिन कुमार विश्वास जैसे बड़बोलों ने कवि सम्मेलनों का स्तर इतना ज्यादा गिरा दिया है कि कवि सम्मेलनों में ईज्जतदार लोगों ने जाना ही छोड़ दिया है. मैं नोएडा में रहने के दौरान कई बार इस व्यक्ति को मंच संचालित करते और कविता पाठ करते हुए देख चुका हूँ और इस व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर भी कह सकता हूँ कि यह आदमी पैसों पर नाचनेवाली रूपजीवाओं से ज्यादा कुछ भी नहीं है. इस व्यक्ति की तुलना कबीर से तो कदापि नहीं हो सकती अगर हो भी सकती है तो रीतिकाल के छिछोरे कवि बिहारी से हो सकती है. मित्रों, कुछ दिनों के लिए यह आदमी भारत का दूसरा सबसे महान राजनेता भी बना था और अन्ना हजारे के मंच से चीख-चीख कर भारत के सबसे घटिया नेता अरविन्द केजरीवाल को एशिया का सबसे योग्य युवा बता रहा था. बाद में जब उस एशिया के कथित सबसे योग्य युवा ने राज्य सभा में भेजने से मना कर दिया तबसे ये पागलों की तरह उसको गालियां देता फिरता है. इसकी इस हरकत की तुलना मंदिर के बाहर भीख मांगनेवाली उस बुढ़िया से की जा सकती है जो भीख न मिलने पर आगंतुक को बद्दुआएं देने लगती है. मित्रों, इस व्यक्ति को एक और लाईलाज बीमारी है और वो बीमारी है जबरदस्ती का संतुलन बनाने की. आपने देखा होगा कि कुछ लोग कहते हैं कि पीएफआई की तरह आरएसएस पर भी प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए वे लोग भी इसी बीमारी से ग्रस्त हैं. कुमार विश्वास का मानना है कि सिर्फ दानवों को बुरा-भला नहीं कह सकते बल्कि उनके साथ-साथ देवताओं में भी जबरन छिद्रान्वेषण करना होगा. इन साहिबान को आरएसएस और उसकी सेवा भावना के बारे में कुछ भी पता नहीं लेकिन इनकी सोच है कि आप सिर्फ रावण को गाली नहीं दे सकते राम को भी देना होगा या आप सिर्फ राम की बड़ाई नहीं कर सकते रावण की भी प्रशंसा करनी ही होगी. और अपनी इसी घटिया सोंच को ये बुद्धिहीन बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता का नाम देते हैं.

सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

हिन्दू महापुरुषों का बंटवारा

मित्रों, पिछले कुछ महीनों से मैं देख रहा हूँ कि कुछ नासमझ हिन्दू दिन-रात महापुरुषों को लेकर आपस में झगड़ते रहते हैं कि ये हमारी जाति के थे तो वो हमारी जाति में पैदा हुए थे. कई बार तो महापुरुषों को छीनने या उनकी चोरी करने के आरोप भी लगाए जाते हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि कोई भी महापुरुष किसी जाति विशेष के थे ही नहीं बल्कि सबके थे, हम सबके थे. कई बार तो हम उनको सिर्फ हिन्दू धर्म के संकीर्ण दायरे में भी नहीं बांध सकते. मित्रों, हम उदाहरण के लिए अगर बिहार बाँकुड़ा बाबू कुंवर सिंह को लें तो वे सिर्फ राजपूतों के महापुरुष नहीं थे क्योंकि वे न तो सिर्फ राजपूतों के लिए लड़ रहे थे और न तो उनकी सेना में सिर्फ राजपूत ही थे बल्कि इसके उलट उनकी सेना में सभी जातियों के हिन्दू तो थे ही बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे. इसी तरह महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी की सेना में भी सभी जातियों के लोग थे. स्वयं आल्हा-उदल की सेना में बिहार के भागलपुर के रहनेवाले भगोला नामक यादव महाबली-महावीर थे जो पेड़ों को जड़ से उखाड़ कर उससे और बड़े-बड़े पत्थरों से युद्ध करते थे और अपने आपमें एक किला थे. मित्रों, इसी तरह जब-जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर विधार्मियों के आक्रमण हुए चाहे वो तैमूर हो, बाबर हो, अब्दाली हो या नादिरशाह हो हर बार हिन्दुओं की सर्वजातीय सेना से उनका सामना हुआ भले ही नेतृत्व राजपूतों के हाथों में रहा हो. अयोध्या के राममंदिर के लिए तो सभी जातियों के हिन्दू शहीद हुए ही सिखों ने भी अपनी क़ुरबानी दी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ के गंगू मेहतर के योगदान को भला कोई कैसे भुला सकता है? महाराणा प्रताप की सेना में बड़ी संख्या में आदिवासी शामिल थे जिन्होंने युद्धों में अपने प्राण तो दिए ही जमकर शत्रुओं का आखेट भी किया. पुंजा भील को कौन नहीं जानता? इतना ही नहीं अगर भामाशाह ने अपना सबकुछ महाराणा सौंप नहीं दिया होता तो कदाचित उसी समय मेवाड़ का नाम भारत की वीरता के मानचित्र से मिट गया होता फिर महाराणा सिर्फ राजपूतों के महापुरुष कैसे हुए? मित्रों, इसी तरह महावीर पृथ्वीराज चौहान को लेकर राजपूत-गुज्जर बराबर लड़ते रहते हैं कि पृथ्वीराज राजपूत थे या गुज्जर? हद हो गई यार. चंदवरदाई को पढ़ लो और वो जो कहें मान लो, बात ख़त्म. फिर चाहे वह राजपूत हों या गुज्जर उनकी वीरता पूरे भारत की, पूरे हिन्दू समाज की धरोहर है. अगर महाराणा राजपूत न होकर चमार होते तो क्या इससे उनकी वीरता कम हो जाती? राजा सुहेलदेव जो पासी थे की तो कम नहीं हुई. मित्रों, विद्वता की ही तरह वीरता भी किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं है. बल्कि जो ज्ञानी है वो विद्वान है फिर चाहे तो राजेंद्र प्रसाद हों या अम्बेडकर, पाणिनि हों या वाल्मीकि, तुलसीदास हों या रैदास या कबीरदास. उसी तरह जो संकट आने पर वीरता दिखाए वो वीर है. यहाँ मैं एक उदाहरण पेश करना चाहूँगा. १६ अगस्त, १९४६ को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने की घोषणा की थी. मुसलमान अलहे सुबह तलवार लेकर सडकों पर निकल पड़े और कलकत्ता की सडकों को हिन्दुओं की लाशों से पाटना शुरू कर दिया. तब सारे सवर्ण हिन्दू अपने-अपने घरों में दुबक गए. फिर एक नीच कसाई जाति के हिन्दुओं ने गोपाल पांडा के नेतृत्व में हिन्दुओं की तरफ से मोर्चा संभाला और मुसलमानों को खदेड़ दिया. अब सवाल उठता है कि यथार्थ क्षत्रिय कौन हैं, घरों में दुबके लोग या खटिक जाति के लोग? मित्रों, इसलिए हम अपने देश की हिन्दू जनता से निवेदन करेंगे कि कृपया नेताओं के झांसे में आकर उनका वोट बैंक न बने. नेताओं का तो काम ही है महापुरुषों के नाम पर हिन्दू समाज को बांटकर चुनाव जीतना. मुझे आश्चर्य होता है कि कोई जाति राम या सम्राट अशोक के ऊपर अपना दावा कैसे ठोक सकती है? कैसे पता चलेगा कि वे वर्तमान की किस जाति में जन्मे थे?

मंगलवार, 31 जनवरी 2023

मुलायम को ताली, तुलसी को गाली

मित्रों, पिछले कुछ दिन भारत की राजनीति में बड़े छिछालेदार रहे हैं. एक तरफ तो राम के सबसे बड़े भक्तों में से एक के पीछे लोग डंडा लेकर पड़ गए हैं तो वहीँ दूसरी तरफ सबसे बड़े रामद्रोही को भारत का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान देकर सम्मानित किया जा रहा है. पता ही नहीं चलता कि क्या सही है और क्या गलत? मित्रों, बिहार के बैग में कारतूस लेकर चलनेवाले शिक्षा मंत्री द्वारा रामचरितमानस को लेकर उठाई गयी हवा धीरे-धीरे वबंडर का रूप लेती जा रही है. दोनों तरफ से तलवारें खिंच गई हैं. कुछ लोग कहने लगे हैं कि रामचरितमानस को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए. तो कुछ लोग कह रहे हैं कि यह सम्पूर्ण हिन्दू धर्म का अपमान है इसलिए रामचरितमानस के आलोचकों की जीभ काट लेनी चाहिए. कुछ लोग जो कुछ ज्यादा ही उत्साही हैं रामचरितमानस को ही जलाने लगे हैं जैसे वह उसकी अंतिम प्रति हो. मित्रों, मेरा मानना है कि हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे लचीला धर्म है. अगर किसी हिन्दू को किसी भी काव्य, महाकाव्य या धर्मग्रन्थ से परेशानी है तो उसे निश्चित रूप से इस पर सवाल उठाने का अधिकार है. स्वामी प्रसाद मौर्य के रामचरितमानस पर दिये गए बयान पर तल्ख़ प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं है। मौर्य ने रामचरितमानस का अपमान नहीं किया है मात्र कुछ अंशों पर आपत्ति जताई है। उन्होंने राम पर नहीं तुलसीदास पर सवाल उठाया है. उन्हें इसका अधिकार है। फिर, रामचरितमानस पर किसी जाति या वर्ग का विशेषाधिकार नहीं है। मित्रों, निश्चित रूप से भारतीय ग्रंथों ने समाज को गहराई से प्रभावित किया है। इन ग्रंथों में जातिवाद, ऊंचनीच, छुआछूत, जातीय श्रेष्ठता, हीनता आदि को दैवीय होना स्थापित किया गया है। अत: पीड़ित व्यक्ति या समाज अपना विरोध तो व्यक्त करेगा ही। किसी को भी भारतीय ग्रंथों पर एकाधिकार नहीं जताना चाहिए। कुछ अति उत्साही उच्च जाति के हिंदू ऐसे प्रत्येक विरोध को दबाना चाहते हैं। यह वर्ग चाहता है कि कोई इनका का विरोध न करे, क्योंकि वे इसे धर्मविरोधी बताते हैं। हिंदू समाज की एकता के लिए जरूरी है कि लोगों को अपना विरोध प्रकट करने दिया जाए। हिन्दू ग्रंथ सबके हैं। यह शोषित वर्ग हिंदू समाज में ही रहना चाहता है और रहता आया है इसीलिए विरोध करता रहता है। अन्यथा इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुका होता। अतीत में धर्मांतरण इस कारण से भी हुए हैं। मित्रों, चाहे वो रामचरितमानस हो, चाहे कई भाषाओँ में रचा गया रामायण हो या फिर वेद या पुराण हों किसी भी पुस्तक की प्रामाणिक प्रति कौन-सी है पहले यह निर्धारित करना ही कठिन है क्योंकि लम्बे समय तक इनको लिखा ही नहीं गया और सिर्फ कंठस्थ किया जाता रहा जिसके चलते इनकी विभिन्न प्रतियों में अंतर देखने को मिलता है. स्वयं रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि सारे धर्मग्रन्थ जूठे हैं अर्थात सबमें कलमकारों ने अपने हिसाब से क्षेपक जोड़े हैं. इसलिए भी दुनिया का कोई भी ग्रन्थ दैवीय या ईश्वरीय नहीं हो सकता. हो सकता है कि उपलब्ध रामचरितमानस अक्षरशः तुलसी ने ही लिखा हो तब भी तुलसी ने वही लिखा जो उस समय प्रचलन में था या ज्ञात था. चाहे बाइबिल हो या कुरान हो उस समय जो ज्ञात था रचनाकार ने वही लिखा और अपने ज्ञान को ईश्वर पर थोप दिया. ठीक वही बात तुलसी पर भी लागू होती है. इसलिए अगर कोई आधुनिक ज्ञान के आधार पर पुरानी किताबों में बदलाव करने की मांग करता है तो बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि उन ग्रंथों में यथोचित बदलाव करना चाहिए. जिद करने से न तो धरती चपटी हो जाएगी और न ही कोई जाति नीच या ऊंच हो जाएगी. मित्रों, तुलसी तो हमारे पूर्वज हैं ही राम और कृष्ण भी हमारे पूर्वज हैं। हम उनका अनुसरण करते हैं। हमें यह अधिकार है कि हम अपने पूर्वजों से प्रश्न करें। यह एक स्वस्थ समाज के विकास की स्वाभाविक गति है। राम और कृष्ण सहित अपने सभी पूर्वजों से उनके कई कार्यों के बारे में सदियों से आमलोग सवाल पूछते रहे हैं। यही उनकी व्यापक स्वीकार्यता का सबूत भी है इसलिए न तो किसी ग्रन्थ को जलाने की जरुरत है और न ही जीभ या सर काटने की बल्कि वर्तमान काल और परिस्थितियों के अनुसार उनमें अपेक्षित बदलाव करने की जरुरत है। मित्रों, समस्या राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध से नहीं है बल्कि राम, अल्लाह, परमेश्वर या बुद्ध की व्याख्या करने वालों से है. राम या कृष्ण या अल्लाह खुद तो किताबें लिखने नहीं आए बल्कि इंसानों ने उनको लिखा और उतना ही लिखा जितनी उसकी बुद्धि थी इसलिए भी धार्मिक पुस्तकों में जरुरत पड़ने पर परिवर्तन किए जा सकते हैं और किए भी जाने चाहिए. मित्रों, समस्या सिर्फ ग्रंथकारों से नहीं राजनीतिज्ञों के पल्टू दांव से भी है. पता ही नहीं चलता कि वो कब क्या कर जाएँ. अब इस साल के पद्म पुरस्कारों को ही लीजिए. इस साल भगवान राम के सबसे बड़े विरोधी मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण सम्मान देने की घोषणा की गई है. पता नहीं राम के नाम पर सत्ता में पहुंची भाजपा और मोदी ने मुलायम सिंह यादव में ऐसा कौन-सा गुण देख लिया जो यह निर्णय लिया. क्या यह रामभक्तों पर गोलियां चलवाने का ईनाम है? अभी पिछले साल ही हिन्दू ह्रदय सम्राट और राम मंदिर आन्दोलन के अगुआ बाबूजी कल्याण सिंह जी को भी पद्म विभूषण दिया गया था. तो क्या मोदी जी की नज़रों में रामभक्त और रामद्रोही दोनों एकसमान हैं? अगर ऐसा है तो हम मोदी समर्थक नाहक ही उनके और हिन्दू धर्म के विरोधियों पर दिन-रात बरसकर अपना श्रम और समय जाया करते रहते हैं. पता नहीं कब किसको मोदी सरकार पद्मविभूषण देकर विभूषित कर दे, ओवैसी या जाकिर नाईक को भी भारत रत्न दे दे.

मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

सुनीता, लालू, संविधान और भारतीय लोकतंत्र

मित्रों, आज मैं आपलोगों से सीधे-सीधे एक सवाल पूछता हूँ कि सरकार किसके लिए है या सरकार की जरुरत किसको है? सरकार अमीरों के लिए है या गरीबों के लिए? सरकार की जरुरत किसको है अमीरों को या गरीबों को? अमीरों का क्या वो तो पैसे से महंगा-से-महंगा ईलाज और शिक्षा खरीद लेगा या फिर मोटी रिश्वत अफसरों को देकर अपना काम करवा लेगा लेकिन अगर गरीबों को सरकार नहीं देखेगी, गरीबों का ध्यान नहीं रखेगी, गरीबों को भी जमीन, गहने या बरतन बेचकर मोटी रिश्वत देनी पड़ेगी तो मैं पूछता हूँ कि देश-प्रदेश में सरकारें क्यों होनी चाहिए या सरकार की आवश्यकता ही क्या है? क्या सरकार सिर्फ घूस खाने और भ्रष्टाचार करने के लिए होनी चाहिए? मित्रों, आपलोगों ने भी पढ़ा होगा कि इस समय लालू जी जिनके शासन में आते ही भेड़ियाधसान अपहरण का दौर चला था, लालू जी जिनके समय में बिहार का ऐसा कोई विभाग नहीं था जिसके फंड को दोनों हाथों लूटा न गया हो, लालू जी जो बचपन में भैंस चराया करते थे और कथित रूप से भैंस की सींग की तरफ से चढ़ते थे वही लालू जी इन दिनों सिंगापूर गए हुए हैं और दुनिया के सबसे महंगे अस्पताल में अपनी किडनी बदलवाने गए हुए हैं. सवाल उठता है कि लालूजी के पास इतना पैसा आया कहाँ से? वो तो लोहिया और कर्पूरी के चेले हैं? मित्रों, कुछ महीने पहले ही बिहार के मुजफ्फरपुर में एक बेहद गरीब महिला सुनीता जो जाति से चमार है और रोज कमाने-खानेवाले अकलू राम की पत्नी है की दोनों किडनी झोपड़ीनुमा निजी क्लीनिक से चोरी हो गई. जी हां, सही पढ़ा आपने किडनी चोरी हो गयी. बिहार में डाका-चोरी तो आम बात है ही अब किडनी और गर्भाशय की चोरी भी आम है. चोरी का इल्जाम एक ऐसे व्यक्ति पर लगा जो पहले सेब बेचता था और जिसके पास मेडिकल की कोई डिग्री नहीं थी. आज तक महागठबंधन की सरकार जिसमें माननीय लालू जी के बेटे स्वास्थ्य मंत्री हैं उस किडनी के लुटेरे को गिरफ्तार तक नहीं कर पाई है. बेचारी के बार-बार हाथ-पाँव फूल जा रहे हैं और डायलिसिस करवाना पड़ रहा है. सरकारी मदद गायब है और बेचारी के परिवार की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है. ऐसे ही दुःख भोगते-भोगते वो बेचारी एक दिन तड़प-तड़प कर मर जाएगी जैसे भागलपुर में कल-परसों नीलम यादव मर गई. बिहार में जन्म लेने का दंड तो भोगना पड़ेगा न. मित्रों, मैं पूछता हूँ कि अगर लालू जी या नीतीश जी के स्थान पर उनके कथित आदर्श या गुरु कर्पूरीजी या लोहिया जी बिहार की सरकार चला रहे होते और उनकी किडनी ख़राब हो गई होती वो क्या करते? क्या वह भी सुनीता देवी को मरता हुआ छोड़कर सिंगापूर जाकर अपना ईलाज करवाते? जहाँ तक मुझे लगता है वो ऐसा हरगिज नहीं करते. खैर छोडिए इस बात को. मुझे इस बात से भी कुछ भी लेना-देना नहीं है कि वो होते तो क्या करते क्योंकि यह एक काल्पनिक सवाल है. वास्तविक सवाल तो यह है कि कभी भैंस चरानेवाले, गरीबों के मसीहा, भारत के सबसे गरीब राज्य को १५ सालों तक बेरहमी से लूटनेवाले लालू जी अब बेहद अमीर हैं और उनको अपने ईलाज के लिए सरकार की मदद की जरुरत नहीं है इसलिए उन्होंने सिंगापूर जाकर अपना ईलाज करवा लिया जहाँ ईलाज करवाना तो दूर जाना तक हमारे लिए स्वप्न समान है लेकिन सुनीता देवी का क्या? अगर लाखों करोड़ का बजट बनाने वाली सरकार एक गरीब महिला के साथ हुई शारीरिक अंग लूट को रोक नहीं पा रही हो या लूट हो जाने के बाद उसकी प्राण रक्षा नहीं कर पा रही हो या करना ही नहीं चाहती हो तो फिर यह लोकतंत्र और सरकारें किस काम की? दुनिया का सबसे बड़ा संविधान किस काम का और उसमें लिखे अधिकार किस काम के?

शनिवार, 19 नवंबर 2022

अमित शाह जी आतंकवाद का भी धर्म होता है

मित्रों, कहते हैं कि एक बार भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु संसद की सीढियों पर लड़खड़ा गए थे तब दिनकर जी ने उनको संभाला था और मजाक में कहा था कि जब भी भारत की राजनीति लड़खड़ाएगी साहित्य आगे बढ़कर उसे संभाल लेगा. खैर ये तो हुई मजाक की बात. नेहरु ने भले कितनी भी गलतियाँ की हों, आजाद भारत में भी अंगेज को गवर्नर जनरल बनाए रखा हो, कश्मीर के महाराजा के विलय के प्रस्ताव पर कश्मीर के मुसलमानों की ईच्छा को तरजीह दी हो, अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर द्वारा चीनी हमले की आशंका पर ध्यान न दिया हो और हिन्दू विवाह कानून बनाकर हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया हो लेकिन फिर भी देश में जब तक कांग्रेस का शासन रहा भ्रष्टाचार कम रहा और राजनीतिज्ञों की आँखों में लाज थी. निस्संदेह सन १९६७ से देश की राजनीति लगातार पराभव की तरफ जाने लगी जबसे राजनीति में पिछड़ों की राजनीति करनेवाली शक्तियां मजबूत होने लगी. मित्रों, आज स्थिति क्या है? आज भारत की राजनीति से मूल्य बिलकुल ही गायब हो चुका है. नेता येन-केन-प्रकारेन गद्दी पा लेना चाहते हैं. मिनट-मिनट पर झूठ बोलना और जनता को ठगना ही उनके लिए राजधर्म बन गया है भले ही उनकी नीतियों से देश-प्रदेश को कितना ही दीर्घकालिक नुकसान क्यों न हो. एक तरफ केजरीवाल हैं जिनकी झूठ की ही खेती है और जिनके लिए दिल्ली में राजनीति का मतलब जनता को फ्री का लालच देकर गद्दी प्राप्त करना है और गद्दी प्राप्त करने के बाद खजाने को लूट लेना है. तो वहीँ केजरीवाल जी के लिए पंजाब में राजनीति का मतलब खालिस्तान समर्थकों के समर्थन से सत्ता प्राप्त करना है और जीतने के बाद तुभ्यदीयं गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पयामि के अंदाज में खालिस्तानियों के चरणों में दंडवत हो जाना है फिर राज्य आतंकवाद की आग में जले तो जले. मित्रों, बिहार के नेताओं की हालत भी कोई अलग नहीं है. यहाँ नौकरी पानेवालों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए सरकार नियुक्ति घोटाला कर रही है. जो लोग पहले से ही नौकरी में हैं उनको गाँधी मैदान में बुलाकर और करोड़ों रूपये खर्च कर समारोहपूर्वक फिर से नियुक्ति-पत्र बांटे जा रहे हैं. राजस्थान में महिलाओं की ईज्ज़त दुश्शासन दिन-दहाड़े लूट रहे हैं मगर वहां की सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा. कांग्रेस नेतृत्व यहाँ तक पतित हो चुकी है कि अपने ही पति की हत्या से राजनैतिक लाभ लेने के प्रयास कर रही है. उद्धव ठाकरे कुर्सी के लिए सावरकर को भुला देते हैं और दिन-रात पानी पी-पीकर सावरकर जी को गालियाँ देनेवाले लोगों के साथ मिलकर सरकार बनाते और चलाते हैं जबकि उनकी पार्टी शुरू से ही घनघोर हिंदुत्ववादी पार्टी रही है. मित्रों, ममता, सोरेन, स्टालिन और विजयन से मूल्यपरक राजनीति की उम्मीद करना सीधे-सीधे समय की बर्बादी होगी लेकिन हद तो तब हो गई जब भारत के गृह मंत्री माननीय अमित शाह ने कल कह दिया कि आतंकवाद को किसी धर्म के साथ नहीं जोड़ना चाहिए जबकि सच यह है कि उनकी पार्टी को हमेशा की तरह गुजरात में भी मुसलमानों का एक भी वोट नहीं मिलने जा रहा. अमित शाह जी आतंक को धर्म के साथ हिन्दुओं ने नहीं जोड़ा है फिर आप समझा किसको रहे हैं? आतंकवाद को धर्म से उन्होंने ही जोड़ा है जो धर्म के नाम पर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आतंक फैला रहे हैं और काफिरों को मारकर काल्पनिक स्वर्ग के लिए स्वर्ग समान धरती को नरक बना रहे हैं. आज पूरी दुनिया जानती है कि आतंकवाद का धर्म क्या है? पूरी दुनिया में अल्लाह हो अकबर का नारा लगाते हुए काफिरों पर हमले होते हैं. हाल में लन्दन में हिन्दुओं मंदिरों पर जब हमले हुए तब भी हमलावरों की भीड़ यही नारा लगा रही थी. अमित जी हमें कम-से-कम आपसे इस तरह के बयान की उम्मीद नहीं थी. माफ़ कीजिएगा आप भी बांकी दलों के कुर्सीवादी छद्मधर्मनिरपेक्षतावादियों की तरह दिशाहीन हो रहे हैं. याद रखिएगा जो गाडी बार-बार हर यू टर्न पर यू टर्न लेती है कभी भी मंजिल तक नहीं पहुँचती.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

क्या सावरकर अंग्रेजों के गुलाम थे?

मित्रों, पिछले दिनों नेहरु परिवार के युवराज व होनहार कांग्रेस नेता राहुल गाँधी जी ने अपनी कथित भारत जोड़ो यात्रा के दौरान वीरों के वीर वीर सावरकर जी पर अंग्रेजों की गुलामी करने के आरोप लगाए. हालाँकि अगर हम उस दौर में मोहन दास करमचंद गाँधी के पत्रों को देखें तो पता चलता है कि भारत के कथित राष्ट्रपिता ने भी ठीक उसी शैली में अंग्रेजों को पत्र लिखे थे जिस शैली में सावरकर जी ने जमानत और जेल में सुधार के लिए अंग्रेजों के समक्ष आवेदन दिया था. उदाहरण के लिए २२ जून, १९२२ को गांधीजी ने ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र लिखा था जिसके अंत में उन्होंने लिखा था- I have the honour to remain. your excellency's obedient servant. m. k. gandhi उक्त पत्र के इन पंक्तियों में गांधीजी लिख रहे हैं कि मुझे गर्व महसूस हो रहा है कि मैं आपका जीवनभर आज्ञाकारी नौकर रहना चाहता हूँ. तो क्या गाँधी जी भी अंग्रेजों के नौकर थे? गाँधी जी के एक और पत्र की जो उन्होंने फरवरी १९२० में ड्यूक ऑफ़ कनाट को लिखा था उसकी भाषा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है. I beg to remain. Your royal highness faithful servant. M. K. Gandhi. यहाँ गाँधी जी ने खुद को अंग्रेजों का विश्वास करने योग्य नौकर बताया है. इतना ही नहीं गाँधी जी अपने एक और पत्र में लिखते हैं कि उन्होंने चार बार ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अपने जीवन को दांव पर लगाया है और किसी अन्य भारतीय ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए उतना नहीं किया होगा जितना उन्होंने वो पिछले २९ सालों से लगातार करते आ रहे हैं. तो क्या गाँधी जी अंग्रेजों के साथ गुपचुप मिलकर भारत की जनता को धोखा दे रहे थे? एक और पत्र है जिसके एक पैराग्राफ में गाँधी जी ने चार बार योर एक्सेलेंसी लिखा है. लेकिन पत्र का शीर्षक इस प्रकार रखा है-We have lost faith in british justice. अर्थात अगर हम सिर्फ शाब्दिक अर्थ पर जाएंगे तो फिर गाँधी जी को अंगेजों का सबसे बड़ा गुलाम मानना चाहिए. इतना ही नहीं गाँधी ने तो इन्हीं शब्दों में १५ अगस्त १९१० को रुसी दार्शनिक लियो टोलस्टाय को भी पत्र लिखा था. मलतब गाँधी न सिर्फ अंग्रेजों के बल्कि रूस के भी नौकर थे. और अगर ऐसा है तो राहुल गाँधी के पूरे परिवार को गाँधी सरनेम का त्याग कर देना चाहिए और अपने दादा का सरनेम खान अपना लेना चाहिए. कुछ और विस्तार में जाएँ तो ६ अप्रैल १८६९ को अमेरिका के महानतम राष्ट्रपति जिन्होंने अमेरिका को टूटने से बचाया अब्राहम लिंकन ने अमेरिकी सांसद हेनरी एल्पियर्स को पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपना परिचय Your obedient servant लिखकर दिया था तो क्या लिंकन उक्त सांसद के गुलाम या नौकर हो गए? मित्रों, कहने का तात्पर्य यह कि सावरकर ने जिस भाषा में आवेदन दिया था उस समय वही प्रचलित भाषा थी जिसका हर शालीन व्यक्ति प्रयोग करता था. अब इतनी-सी बात कांग्रेस के युवराज की समझ में नहीं आ रही तो इसमें सावरकर की क्या गलती? और अगर सावरकर अंग्रेजों के गुलाम थे तो फिर अंग्रेजों ने उनको दो जन्मों के लिए कठोर कारावास की सजा क्यों दी थी? और सिर्फ सावरकर ही नहीं उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को भी कालापानी की सजा क्यों दी थी? और अगर सावरकर की गिरफ़्तारी का मामला अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय हेग में नहीं जाता तो बहुत संभव है कि उनको १९१० में ही फांसी पर चढ़ा दिया गया होता. क्या तब भी महान भाषा विज्ञानी राहुल गाँधी उनको गुलाम बताते?

शनिवार, 5 नवंबर 2022

जलती दिल्ली और जलता पंजाब के बाद केजरीवाल की गुजरात को जलाने की तैयारी

मित्रों, किसी गांव में एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना बनाई। एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा, “पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।” ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा है।” पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।” थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा, “पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए।” पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया। आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला। उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है। थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया। इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई। पंचतंत्र की इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है। अतः अपने दिमाग से काम लें और अपने आप पर विश्वास करें। मित्रों, ये तो रही कहानी और अब एक सच्ची घटना. आज से दो साल पहले बीकानेर में 6 साल की बच्ची के साथ दरिंदगी की चौंकाने वाली वारदात सामने आई थी। हुआ यह कि रामपुरा इलाके में एक युवक टॉफी दिलाने के नाम बच्ची को सुनसान जगह पर ले गया। वहां उसके साथ ज्यादती की। इस दौरान बच्ची चिल्लाने लगी तो आरोपी उसे छोड़कर भाग गया। बाद में बच्ची रोते हुए घर पहुंची और परिजनों को आप बीती बताई। इसके बाद परिजन बच्ची को पीबीएम अस्पताल ले गए, जहां उसकी हालत गंभीर है। पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर 24 घंटे में आरोपी को पकड़ लिया है। पुलिस ने बताया कि बुधवार रात को रामपुरा बस्ती में घर के आगे बच्ची खेल रही थी। रात 8-9 बजे एक युवक आया और बच्ची को टॉफी दिलाने के बहाने ले गया। सुनसान जगह पर बच्ची को ले जाकर उसके साथ ज्यादती की। नोट-इस दोनों घटनाओं का सीधा सम्बन्ध कतई केजरीवाल से ही है. सोनिया जो सीधे अपने पापा पोप के निर्देशों पर चलती है को निर्देश मिला है कि दिल्ली, पंजाब के बाद गुजरात में भी केजरीवाल को आगे जाने दो. अपना दिमाग खुला रखें और फ्री की टॉफी के चक्कर में न आएं.

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

इस लोकतंत्र से तो राजतन्त्र ही अच्छा था

मित्रों, पिछले दिनों मेरे साथ जो हुआ उसके बाद मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इस लोकतंत्र से तो राजतंत्र अच्छा था. हुआ यह कि मैंने महनार के सीओ के यहाँ फटिकवाडा मौजा में अपनी माँ के नाम से जमीन की दाखिल ख़ारिज के लिए आवेदन दिया. आवेदन देने के करीब एक साल बाद जब मैंने सीओ रमेश प्रसाद सिंह से संपर्क कर विलम्ब का कारण पूछा तो वो आवेदन रिजेक्ट कर देने की धमकी देने लगे जबकि हल्का कर्मचारी और सीआई की रिपोर्ट कह रही थी कि जमीन पाक-साफ़ है, जगरानी देवी के पास हाजीपुर कोर्ट की डिक्री है और जमीन पर उनका दखल कब्ज़ा भी है. फिर भी कागजात अपठनीय कहकर सीओ ने आवेदन रद्द कर दिया क्योंकि बिहार के सीओ बिना पैसा लिए दाखिल ख़ारिज करते ही नहीं है. मुझे आश्चर्यमिश्रित गुस्सा आया कि जो कागज कर्मचारी और सीआई के लिए पठनीय था सीओ के लिए अपठनीय कैसे हो गया? जब मैंने सीओ से बात की तो उन्होंने सीधा कहा अपील में जाईए मुझे जो करना था कर दिया. अब कुछ नहीं हो सकता चाहे कहीं भी चले जाईए. मित्रों, मैंने गुस्से में आकर नमो ऐप पर शिकायत की. मुझे पूरा विश्वास था कि प्रधानमंत्री जी के पास शिकायत करने से मेरी समस्या का समाधान हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पीएमओ ने मेरे मामले को जिला लोक शिकायत निवारण पदाधिकारी, वैशाली को भेज दिया जिन्होंने छह महीने दौड़ाने के बाद मेरे केस को रिजेक्ट कर दिया और कहा कि जो सीओ कह रहे हैं वही सही है जबकि मेरे पास सीओ को झूठा साबित करने के पर्याप्त प्रमाण थे. मित्रों, अब आप बताएं कि रिश्वतखोर अधिकारियों से त्रस्त जनता कहाँ जाए? मुख्यमंत्री सुनते नहीं, प्रधानमंत्री सिवाय औपचारिकता के कुछ कर नहीं सकते फिर बिहार की जनता करे तो क्या करे? क्या इसी दिन के लिए हमारे पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी? क्या इसी दिन के लिए ५५० से ज्यादा राजाओं ने अपने अधिकारों का त्याग किया था? आज सरकार काम के बदले सामाजिक समीकरण पर भरोसा करती है. चारों तरफ हंस चुगेगा दाना धूर्त कौआ मोती खाएगा वाली हालत है. खुलेआम घोटाले किए जा रहे, रिश्वत लिए जा रहे. क्या यही लोकतंत्र है. भारतीय लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ निरंकुश हो गए हैं और मनमानी कर रहे हैं. जज अपने पक्ष में फैसले दे रहे हैं और कोलेजियम पर अड़े हुए हैं, नेता अपने पेंशन और सुविधाओं को कायम रखने और बढ़ाने के लिए कानून बनाने की अपनी संवैधानिक शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हैं. कार्यपालिका ने खुद को ही क़ानून घोषित कर दिया है और कहती है आई एम द लॉ जैसा कि आपने मेरे मामले में देखा. हरेक दफ्तर को दुकान बनाकर रख दिया गया है जहाँ बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं होता. गुंडे-आवारा शिक्षक बन गए हैं और विद्वान भूखों मर रहे हैं. ७०००० प्राप्त करनेवाले सरकारी शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों जितना भी ज्ञान नहीं है और उनके बच्चों को ७००० पाने वाले निजी स्कूलों के शिक्षक पढ़ा रहे हैं. दहेज़ और हरिजन एक्ट सहित सारे कानूनों का जमकर दुरूपयोग हो रहा है. जो व्यक्ति मुखिया-सरपंच बनते समय पैदल होता है पांच साल में ही कार की सवारी करने लगता है. जिनको जेल में होना चाहिए वह देश-प्रदेश के कर्णधार बने हुए हैं. २०१५ के चुनावों के समय रवीश कुमार ने ठीक ही कहा था कि बिहार में बहार है. बिहार में बहार है रवीश जी मगर सिर्फ भ्रष्टाचारियों की बहार है. हर तरफ रूदन बर्बादी है क्या इसी का नाम आजादी है. मित्रों, हम सपना देख रहे हैं कि भारत को अमेरिका बना देंगे. मगर कैसे? नम्बी नारायण को झूठे मुकदमे में फंसाकर और थर्ड डिग्री देकर. अमेरिका तो अपने वैज्ञानिकों के साथ ऐसा नहीं करता. बल्कि वो तो थामस अल्वा एडिसन को सारी सुविधाएँ देता है ताकि वो रेल यात्रा के समय भी प्रयोग कर सकें और १४०० चीजों का आविष्कार कर सके. इस तरह तो प्रतिभा को लॉक उप में बंद कर भारत कभी अमेरिका नहीं बन पाएगा. जिस ढांचे और कानून के सहारे फिरंगियों ने भारत को लूटा अब नेता लूट रहे हैं और पकडे जाने पर अपनी जाति और धर्म की आड़ लेने लगते हैं. कई भ्रष्टाचारियों ने तो सीधे खुद को गाँधी और भगत सिंह तक घोषित कर रखा है. इतिहास गवाह है कि ऐसा तो राजतन्त्र में नहीं होता था. राजा रघु ने अपना सबकुछ दान कर दिया था, बलि ने देह तक नाप दिया था. राजतंत्र में आरक्षण के नाम पर प्रतिभा का गला नहीं घोंटा जाता था बल्कि उसका सम्मान किया जाता था. महेश दास को बीरबल की पदवी दी जाती थी, तो राम तनु पांडे को तानसेन की, टोडरमल का भी सम्मान था तो रामाकृष्णा तेनालीराम का भी, राम चन्द्र पांडुरंग को तात्या टोपे का ख़िताब देकर सेनापति बनाया जाता था. अंगराज कर्ण और बीआर अम्बेदकर भी तमाम आलोचनाओं के बावजूद राजतंत्र की ही देन थे. अब आप ही बताईए इस लोकतंत्र का हम करें तो क्या करें जहाँ प्रधानमंत्री तक लाचार है. सड़ी हुई चीजों का तो अंचार भी नहीं डाल सकते.

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

राघोपुर के स्कूलों की सुध लीजिए तेजस्वी जी

मित्रों, पिछले साल जब मैं अपने चाचा के श्राद्ध में अपने गाँव जुड़ावनपुर बरारी गया था तब मेरे गाँव के एक बुजुर्ग में मुझसे शिकायत की थी कि बेटा गाँव के बच्चे बर्बाद हो रहे हैं क्योंकि गाँव के स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती इस पर ध्यान दो. वापस आते ही मैंने इसी ब्लॉग ब्रज की दुनिया पर एक आलेख लिखा तेजस्वी सो रहे हैं कृपया हॉर्न न बजाएँ . मुझे लगा कि हमारे विधायक परम आदरणीय तेजस्वी प्रसाद यादव जी इस आलेख को पढ़कर जाग जाएंगे क्योंकि सोने के लिए प्रसिद्ध कुम्भकर्ण भी ६ महीने बाद ही सही जागता तो था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. जब बिहार के भाग्य पर कुंडली मारकर बैठे नीतीश जी से उनके ही गाँव में सोनू नामक बच्चे ने स्कूल में मास्टर के नहीं आने और पढ़ाई नहीं होने की शिकायत की तब कुछ दिनों के लिए राघोपुर के मास्टरों और मास्टरनियों को जरूर मन मारकर रोज स्कूल आना पड़ा. उनको निर्देश दिया गया कि रोजाना स्कूल से सेल्फी लेकर प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को भेजना है. लेकिन जैसे ही चकौसन स्थित पीपा पुल खुला फिर से स्थिति पहले जैसी हो गई. जी हाँ मैं तेजस्वी यादव जी जो वर्तमान में बिहार के उपमुख्यमंत्री बन चुके हैं के विधानसभा क्षेत्र राघोपुर के दियारा इलाके की बात कर रहा हूँ. एक बार फिर से चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात वाली कहावत राघोपुर दियारा के स्कूलों में चरितार्थ होने लगी. मित्रों, जब इन दिनों बिहार में लोकतंत्र की मलाई खा रहे बिहार सरकार में शामिल राजाओं ने स्वतः संज्ञान नहीं लिया तब मैंने २५ सितम्बर, २००२ को माननीय मुख्यमंत्री, बिहार को संबोधित करते हुए एक ई मेल मुख्यमंत्री, शिक्षा सचिव और तेजस्वी जी को भेजा लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. मित्रों, मानव जीवन में शिक्षा का क्या स्थान है इससे आपलोग भी परिचित होंगे. यूनानी दार्शनिक डायोजनीज ने कहा था कि हर देश की नींव उसके युवाओं की शिक्षा है। वही गिल्बर्ट के चेस्टर्टन का मानना था कि शिक्षा समाज की आत्मा है क्योंकि यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाती है। प्रसिद्ध शिक्षाविद जॉन डूई ने कहा है कि शिक्षा जीवन के लिए तैयारी नहीं है; शिक्षा ही जीवन है। एलम ब्लूम का कहना था कि शिक्षा अंधकार से प्रकाश की ओर चलना है। तो वहीँ इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री बेंजामिन डिसरायली ने कहा था कि एक देश के लोगों की शिक्षा पर उस देश का भाग्य निर्भर करता है। तो वहीँ डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था कि हमें शिक्षा के प्रसार को उतना ही महत्व देना चाहिए जितना कि हम राजनीतिक आंदोलन को महत्व देते हैं। किसी भी समाज का उत्थान उस समाज में शिक्षा की प्रगति पर निर्भर करता है. मित्रों, बिडम्बना यह है कि जो नेता दिन-रात बाबा साहेब अम्बेडकर जी का नाम जपते हैं वो भी शिक्षा के महत्व को नजरंदाज कर रहे हैं जबकि राघोपुर समेत पूरे बिहार की शिक्षा भ्रष्टाचार के कारण ध्वस्त हो चुकी है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारत का सबसे पिछड़ा और बर्बाद राज्य और भी बर्बाद हो रहा है लेकिन यहाँ के सियासतदानों को जैसे इससे कोई मतलब ही नहीं है. मैं हमारे विधायक तेजस्वी जी से पूछना चाहता हूँ कि आप राजधानी पटना के अस्पतालों का तो लगातार औचक निरीक्षण कर रहे हैं. अच्छा कदम है हम आपकी सराहना करते हैं लेकिन पूछना चाहते हैं कि पटना से कुछेक किलोमीटर दूर राघोपुर दियारा के स्कूलों का आप कब औचक निरीक्षण करने वाले हैं. इसके लिए आप सरकारी हेलीकॉप्टर का उपयोग कर सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे के जे राव साहब ने २००५ के बिहार विधानसभा चुनावों में किया था. विशेष रूप से जुड़ावनपुर बरारी, जुड़ावनपुर करारी और रामपुर करारी बरारी के उच्च और मध्य विद्यालय आपका इंतजार कर रहे हैं. माना कि आपको कम पढ़ा-लिखा होने पर भी सबकुछ मिल गया लेकिन राघोपुर प्रखंड के गरीबों के बच्चों से साथ तो ऐसा होने से रहा. उनको तो अच्छी शिक्षा मिलेगी तभी वे जीवन में सफलता प्राप्त कर पाएँगे जैसे कभी बाबासाहेब अम्बेडकर ने प्राप्त की थी.

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

बाई बाई पीएफआई

मित्रों, आतंकी संगठन पीएफआई अब गुजरे हुए कल की बात हो गई है. केंद्र सरकार की कार्रवाई और संगठन पर प्रतिबन्ध के बाद स्वयं संगठन ने खुद को समाप्त घोषित कर दिया है. निश्चित रूप से केंद्र सरकार का यह उचित समय पर उठाया गया उचित कदम है. लेकिन सवाल उठता है कि जब सिम्मी पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तो फिर यह उससे भी ज्यादा हिंदूविरोधी तदनुसार भारतविरोधी संगठन पैदा कैसे हो गया और किन लोगों ने इसके पैदा होने व पल्लवित-पुष्पित होने में सहायता की? सवाल उठता है कि भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति और सोनिया गाँधी परिवार के लाडले मोहम्मद हामिद अंसारी साल २०१७ में इस आतंकी संगठन के कार्यक्रम में भाग लेने क्यों गए थे? जबकि यह जेहादी और आतंकी काम तो करता ही है, केरल में देशभक्तों की निर्मम हत्याओं में भी इनके कार्यकर्ता आरोपित हैं. इतना ही नहीं दिल्ली में हिन्दुओं के नरसंहार, शाहीन बाग़ सड़क जाम, उत्तर प्रदेश की तोड़फोड़ समेत तमाम ऐसे सारे हिंसक कृत्यों में इसके हाथ होने के प्रमाण हैं जिनमें मुसलमान संगठित रूप से शामिल हैं. मित्रों, इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे पूर्व उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी और उनकी कांग्रेस पार्टी ने हिन्दुओं और हिन्दुस्थान के लिए बेहद खतरनाक इस आतंकी संगठन के पैदा होने और पनपने में नैतिक समर्थन दिया और बदले में चुनावों में थोक में मुस्लिम वोट बैंक का समर्थन हासिल किया. इतना ही नहीं आज जब इस संगठन पर कार्रवाई हुई है तो भाजपा को छोड़कर किसी भी राजनैतिक दल ने कार्रवाई का समर्थन नहीं किया है बल्कि कुछ मुस्लिमजीवी कथित हिन्दू नेताओं ने तो कार्रवाई का विरोध करते हुए महान राष्ट्रवादी संगठन आरएसएस को भी प्रतिबंधित करने की मांग तक कर दी है. इन छद्मधर्मनिरपेक्ष परिवारवादी भ्रष्टाचारवादियों का वश चले तो ये सारे हिन्दुओं का सुन्नत करवा देंगे बस इनको देश और प्रदेश को लूटने का सुनहरा अवसर मिलना चाहिए और बार-बार मिलना चाहिए. केंद्र सरकार को ऐसे नेताओं के साथ पीएफआई के संबंधों की भी जाँच करनी चाहिए और उनको भी जेल में डालना चाहिए. मित्रों, जैसा कि हमने कहा कि पीएफआई पर केंद्र सरकार की कार्रवाई की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह पर्याप्त है? क्या इस रक्तबीज के रक्त से आगे कोई राक्षसी संगठन जन्म नहीं लेगा? क्या सिम्मी पर प्रतिबन्ध के बाद उसके अशुद्ध रक्त से पीएफआई पैदा नहीं हो गया था? फिर क्या गारंटी है कि पीएफआई के बाद कोई आतंकी संगठन पैदा नहीं होगा? दरअसल इन सारे फसादों की जड़ कुरान के उन २६ आयातों में है जिन्हें इस पुस्तक से हटाने की मांग सुप्रीम कोर्ट में जीतेंद्र नारायण त्यागी जी ने की थी जब वो वसीम रिजवी थे. अब इस महान आसमानी पुस्तक पर तो रोक लग नहीं सकती क्योंकि भाजपा में भी नकवी जैसे नेता हैं इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि कानून बनाकर मदरसों पर रोक लगाए. साथ ही जनसंख्या कानून और समान नागरिक संहिता को तुरंत लागू किया जाए. पीएफआई के दस्तावेज भी बताते हैं कि वो जनसंख्या बढाकर भारत में इस्लाम का शासन लाना चाहता था. ऐसे इन दोनों कानूनों को और नहीं टाला जा सकता. इसके साथ ही धार्मिक स्थल कानून, १९९१ और वक्फ बोर्ड को हिन्दुओं के मंदिर और जमीनों पर कब्ज़ा करने की असीमित शक्ति देनेवाले सारे कानूनों को भी तत्काल समाप्त करना चाहिए. तभी देशविरोधी और हिंदूविरोधी सोंच और विचारधारा को कमजोर किया जा सकेगा क्योंकि पीएफआई एक संगठन नहीं विचारधारा है और हमें उस विचारधारा को जड़ से उखाड़कर उसकी जड़ों में मट्ठा डालना है.

रविवार, 18 सितंबर 2022

राहुल गाँधी की भारत तोड़ो यात्रा

मित्रों, तथाकथित भारत जोड़ो यात्रा के क्रम में राहुल गाँधी कन्याकुमारी, तमिलनाडु से यात्रा शुरू कर फिलहाल केरल में है। वाम दलों द्वारा शासित इस राज्य में यह यात्रा करीब 18 दिन रहेगी। ज्ञात हो कि केरल की वायनाड लोकसभा क्षेत्र से राहुल गांधी सांसद हैं। 20 लोकसभा सीटों वाले केरल की राष्ट्रीय राजनीति में वैसी अहमियत नहीं, जैसी कहीं अधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बंगाल आदि की है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यह यात्रा चुनाव वाले राज्यों हिमाचल और गुजरात से नहीं गुजर रही है। मित्रों, अब यह कहा जा रहा है कि यह यात्रा पूरी हो जाने के बाद उसका दूसरा चरण गुजरात से शुरू होगा। इसका अर्थ है कि यह काम करीब पांच माह बाद होगा। भारत जोड़ो यात्रा केरल में तो 18 दिन रहेगी, लेकिन 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में चार-पांच दिन। इसे लेकर सवाल उठ रहे हैं और सबसे पहला सवाल केरल सरकार का नेतृत्व कर रही माकपा ने उठाया। उसने इसे सीट जोड़ो यात्रा करार दिया, जिसके जवाब में कांग्रेस ने उसे भाजपा की बी टीम बता दिया। ध्यान रहे कि माकपा के साथ मिलकर कांग्रेस ने बंगाल में विधानसभा चुनाव लड़ा था। जिससे लगता है कि यह यात्रा भारत जोड़ो यात्रा नहीं बल्कि विपक्षी एकता तोड़ो यात्रा है. मित्रों, एक समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस का गढ़ था। नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी यहीं से चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने, लेकिन लगता है कि कांग्रेस इस राज्य में अपने लिए कोई उम्मीद नहीं देख रही है। भारत जोड़ो यात्रा का उत्तर प्रदेश में केवल चार-पांच दिन का सफर कांग्रेसजनों के लिए भी आश्चर्य का विषय है। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश की मानें तो इस यात्रा का उद्देश्य पार्टी को मजबूती देना है, न कि विपक्षी एकता को बल देना, लेकिन वह इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि कांग्रेस अपने बूते कितनी भी मजबूती पा ले, बिना गठबंधन वह कोई ख़ास छाप नहीं छोड़ पाएगी। जयराम रमेश का यह भी मानना है कि यदि कांग्रेस मजबूत होगी तो विपक्षी दल खुद उसके साथ आ जाएंगे, पर यह भी उनकी एक भूल ही है, क्योंकि अधिकांश भाजपा विरोधी दल उसकी कमजोरी का लाभ उठाकर उसके ही वोट बैंक में सेंध लगा रहे हैं। कांग्रेस इसीलिए कमजोर हुई, क्योंकि वह क्षेत्रीय दलों को साथ लेने के फेर में अपनी राजनीतिक जमीन उनके लिए छोड़ती गई। कांग्रेस भले ही यह कहे कि इस यात्रा का उद्देश्य पार्टी को मजबूती देना है, लेकिन लगता यही है कि इसका मकसद राहुल गांधी का कद बढ़ाना भर है। मित्रों, भारत जोड़ो यात्रा को शुरू हुए अभी दस दिन ही हुए हैं, लेकिन वह कई विवादों से दो-चार होकर विवादों भरी यात्रा बन चुकी है। एक विवाद जहरीले नफरती बयान देने वाले पादरी से राहुल की मुलाकात से उभरा और दूसरा कांग्रेस की ओर से आरएसएस के गणवेश को आग लगाते हुए ट्वीट से। इस ट्वीट से यही स्पष्ट हुआ कि कांग्रेस भारत जोड़ने के नाम पर आरएसएस और भाजपा पर निशाना साधना चाहती है। साथ ही राहुल और पादरी की मुलाकात का वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें जॉर्ज पोन्नैया राहुल को समझाते नजर आते हैं कि केवल जीसस क्राइस्ट यानी यीशु मसीह ही एकमात्र वास्तविक भगवान हैं, कोई शक्ति देवी या देवता भगवान नहीं हैं। मतलब जिन हिन्दुओं को कांग्रेस को अपने साथ जोड़ना चाहिए उन्हीं हिन्दुओं को वो उल्टे नाराज कर रही है. कांग्रेस आज भी यह मानने को तैयार नहीं है कि हिंदुस्तान हिन्दुओं का देश है. ऐसा लगता है कि भारत को जोड़ने के लिए नहीं बल्कि हिन्दुओं से नफरत करनेवालों को अपने साथ जोड़ने निकले हैं। तभी तो उन्होंने जॉर्ज पोन्नैया जैसे व्यक्ति को भारत जोड़ो यात्रा का पोस्टर बॉय बनाया है, जिसने हिंदुओं को चुनौती दी, धमकी दी और भारत माता के बारे में अनुचित बातें कहीं। इसमें संदेह नहीं कि स्वयं कांग्रेस का हिंदू विरोधी होने का लंबा इतिहास रहा है। मित्रों, सवाल उठता है और उठाना भी चाहिए कि यदि कांग्रेस का उद्देश्य वास्तव में भारत को जोड़ना है, तो फिर वह अपने आचार-व्यवहार के माध्यम से आरएसएस-भाजपा की विचारधारा से प्रभावित हिन्दुओं को आकर्षित करने का काम क्यों नहीं करती? यदि भारत जोड़ो यात्रा का उद्देश्य सचमुच लोगों से जुड़ना है तो फिर विरोधी दलों पर अनावश्यक टीका-टिप्पणी करने का क्या मतलब है? इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस यात्रा में राहुल गांधी वही सब बयान दोहरा रहे हैं, जो वह बीते तीन-चार साल से कहते चले आ रहे हैं। इसका अर्थ है कि वह आम जनता के समक्ष कोई नया विचार नहीं रखने जा रहे हैं या फिर उनके पास कोई नवीन विचार है ही नहीं। मित्रों, भारत जोड़ो यात्रा के बीच ही गोवा के आठ कांग्रेस विधायक जिस तरह टूट कर भाजपा में चले गए, उससे कांग्रेस को झटका तो लगा ही, यह भी प्रकट हुआ कि ये विधायक पार्टी में अपना कोई भविष्य नहीं देख रहे थे। जब विधायकों का यह हाल है तो सामान्य कार्यकर्ताओं के मनोबल का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। कांग्रेस में ऐसे नेताओं की संख्या बढ़ती जा रही है, जो यह मान रहे हैं कि कुछेक चाटुकार नेता गांधी परिवार का गुणगान कर अपना हित साधने में लगे हुए हैं। उनके पास ऐसी कोई रणनीति नहीं कि देश को आगे कैसे ले जाया जाए और जनता के सामने क्या ठोस विकल्प पेश किया जाए? उनकी इस खोखली सोच के कारण ही इस समय जदयू, टीआरएस, तृणमूल कांग्रेस आदि अपने-अपने हिसाब से विपक्षी एका की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। मित्रों, मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है. कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता संभव नहीं, लेकिन ममता बनर्जी और केसीआर उसे साथ लिए बिना विपक्ष को एकजुट करना चाहते हैं। ये नेता यह भूल रहे हैं कि कांग्रेस के पास आज भी कहीं अधिक वोट हैं और उसे केंद्र में शासन करने का अनुभव भी है। इस सबके बावजूद कांग्रेस जिस तरह गांधी परिवार को ही अपना उद्धारक बताने में समय जाया कर रही है, वह उसकी मुश्किलों को बढ़ा रहा है। मित्रों, कांग्रेस की मुश्किलें इसलिए भी बढ़ रही हैं, क्योंकि सोनिया गांधी हों या राहुल, उनका एकमात्र लक्ष्य हर विषय पर प्रधानमंत्री को कोसना और उन्हें नीचा दिखाना है। राहुल यही काम भारत जोड़ो यात्रा के जरिये कर रहे हैं। उनके बयान उनकी नकारात्मक राजनीति को ही रेखांकित कर रहे हैं। भारत जोड़ो यात्रा यह भी बता रही है कि राहुल उन राज्यों से बचना चाहते हैं, जहां भाजपा राजनीतिक रूप से कहीं अधिक सशक्त है। भाजपा विरोधी दलों के नेता जिस तरह अपने-अपने तरीके से विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, उससे यही स्पष्ट होता है कि उनका लक्ष्य प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी को मजबूत करना है। मुश्किल यह है कि इनमें से किसी नेता का अपने राज्य के बाहर कोई प्रभाव नहीं। इन दलों के मुकाबले कांग्रेस का प्रभाव कहीं अधिक है, लेकिन वह अपनी मूर्खतापूर्ण राजनीति के कारण न तो अपनी छवि सुधार पा रही है और न ही देश की जनता का ध्यान अपनी ओर खींच पा रही है। मित्रों, ४०० से ४४ तक पहुँचने के बाद भी कांग्रेस किस तरह विचारशून्यता और दिशाहीनता से ग्रस्त है, उससे पता चलता है कि उसके नेता और खासकर राहुल गांधी कोई नया विमर्श नहीं खड़ा कर पा रहे हैं। कांग्रेस की एक अन्य समस्या यह भी है कि वह वामपंथी और समाजवादी हिंदुविरोधी सोच से बाहर निकलने के बजाय उससे और अधिक ग्रस्त होती जा रही है. जबकि देश अब हिन्दू-राष्ट्र बनने की ओर बढ़ चुका है. साथ ही यह यात्रा उसी तरह की अत्यंत आरामदायक पांचसितारा पैदल यात्रा है जैसे गांधीजी की एक्सपेंसिव पावर्टी यानि महँगी गरीबी. जनता इस बात को भी समझ रही है.

रविवार, 11 सितंबर 2022

पीके से भयभीत नीतीश

मित्रों, करीब ढाई-तीन दशक पहले की बात है. जब मैं बीए में पढ़ रहा था तब मुझ पर शतरंज सीखने का नशा चढ़ा. मुझे लगता था कि मैं काफी तेज दिमाग का हूँ. मैंने एक किताब शतरंज कैसे खेलें और बिसात-मोहरे आदि खरीदे. जब शतरंज की एबीसीडी सीख ली तब समस्या यह थी कि खेलूँ किसके साथ. उस समय मेरा भांजा बंटी हमारे यहाँ ही रहता था. तब वो मात्र आठ-नौ साल का रहा होगा. मैंने उसे अपने साथ शतरंज खेलने को कहा. शुरू में चूंकि उसे शतरंज आती नहीं थी इसलिए मैं एकतरफा जीतता रहा. फिर एक दिन उसने मुझे मात दे दी. मैं गुस्से में आ गया और बिसात ही पलट दी. थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि खेल तो खेल है इसमें जीत-हार होती रहती है. मित्रों, हमारे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बिहार में अपनी संभावित हार को देखते हुए बौखला गए हैं. दरअसल उनको लगता है कि उनको कोई हरा ही नहीं सकता. वो यह समझने को तैयार ही नहीं हैं कि राजनीति भी शतरंज के खेल के समान होती है और नीतीश जी राजनीति की बिसात पर अब तक की सबसे गलत चाल चल चुके हैं. जिस परिवार और विचारधारा के खिलाफ नीतीश जी पिछले २५ सालों से राजनीति करते आ रहे हैं उसी के चरणों में जाकर लमलेट हो गए. इतना ही नहीं जो परिवार कल तक नीतीश जी की नजरों में भ्रष्टाचार का प्रतीक था आज परम पवित्र हो गया? आज उस परिवार की घोटालों से अर्जित कई हजार करोड़ की संपत्ति अचानक महा सफ़ेद हो गई? सारे पाप समाप्त? मित्रों, इतना ही नहीं नीतीश जी कह रहे हैं कि प्रशांत किशोर जी को दिख नहीं रहा कि उन्होंने बिहार के लिए क्या किया है. तो मैं नीतीश जी से कहना चाहता हूँ कि दिख तो आपको भी नहीं रहा है कि आपने बिहार के लिए क्या किया है. आज झूठे हैं और इसलिए आपका स्वयं को बिहार-निर्माता मानने का घमंड भी झूठा है क्योंकि हर झूठे व्यक्ति में झूठा घमंड होता ही है. बिहार के लिए आपने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिसका आप जिक्र कर सकें. नीतीश जी पहले बिहार में एक ही लालू थे अब हजारों लालू हैं जो कलम दिखाकर आपकी सरकार के हजारों कार्यालयों में जनता को दिन-रात लूट रहे हैं. नीतीशजी आपके कार्यकाल में भ्रष्टाचार और नौकरशाही चरम पर है. हर तरफ रूदन और बर्बादी है. ये जंगल राज टाइप टू है. पहले गुंडे लूट रहे थे अब अधिकारी लूट रहे हैं. रक्षक भक्षक बन गए हैं. लोक शिकायत कार्यालयों में कोई समाधान नहीं मिल रहा सिर्फ मामलों को निष्पादित किया जाता है. जज को दारोगा न सिर्फ उनके चेंबर में घुसकर पीटता है बल्कि उसके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज करता है और आप कहते हैं कि बिहार में कहाँ जंगल राज है. आपको अपनी ही आँख का ढेढ़र सूझ नहीं रहा है? आपके सातों निश्चय बहुत पहले दम तोड़ चुके हैं. तोड़ते भी क्यों नहीं आपने सारे ईमानदार अधिकारियों को मक्खी मारने का काम जो दे रखा है और सारे बेईमान अधिकारियों को फिल्ड में लगा रखा है. मित्रों, पूरी बिहार सरकार का ऐसा कोई महकमा नहीं जो ठीक-ठाक काम कर रहा हो. पुलिस स्वयं सबसे ज्यादा कानून तोडती है, थानों में बिना रिश्वत एफआईआर दर्ज नहीं होता. बीपीएससी दुकान बन गई है, पुल उद्घाटन से पहले गिर जा रहे हैं, नौकरी मांगने पर लाठी मारी जाती है, तिरंगे तक का अपमान किया जाता है लेकिन अधिकारी का बाल भी बांका नहीं होता. बिहार में सरकार नाम की चीज नहीं है और नीतीश जी प्रधानमंत्री बनकर पूरे भारत को बिहार बना देने के सपने देख रहे हैं. एक शाहे बेखबर मुग़ल बादशाह बहादुर शाह प्रथम था और दूसरे नीतीश कुमार जी हुए हैं. एक और मुग़ल बादशाह शाह आलम के बारे में कहा जाता था कि शहंशाहे शाह आलम, दिल्ली ते पालम. अर्थात शाह आलम का शासन तो कम-से-कम दिल्ली से पालम तक था नीतीश जी का कहीं नहीं है. मित्रों, पूरे बिहार की जनता के विश्वास के साथ धोखा करने वाले, पूरे बिहार की जनता के त्याग के साथ धोखा करनेवाले नीतीश कुमार को अब भी लगता है कि वो बिना कोई उल्लेखनीय काम किए सिर्फ सामाजिक समीकरण के बल पर फिर से चुनाव जीत जाएंगे. नीतीश जी सत्ता के नशे से बाहर आईए. आप प्रशांत जी से भयभीत हैं इसलिए अंड-बंड बोल रहे हैं. २०१५ में आपके सारथी रहे प्रशांत किशोर जी ने अब आपकी निकम्मी सरकार को उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठा लिया है. २ अक्तूबर से उनका दांडी मार्च भी शुरू हो जाएगा जो आपके घमंड के ताबूत की आखिरी कील साबित होगा. बस दिन गिनने शुरू कर दीजिए.

रविवार, 4 सितंबर 2022

जय बोलो सुशासन की

हर दफ्तर में घूसासन की, दागी मंत्री के शपथासन की, कुर्सी पर चिपकासन की, जय बोलो सुशासन की. पुलिस के लूटासन की, सीओ के मनमनासन की, राजस्व कर्मचारी के झांसन की, काम के लटकासन की, जय बोलो सुशासन की. शिक्षा के मरणासन की, अस्पतालों के सड़नासन की, डॉक्टर इंजिनियर के कुबेरासन की, गांजा चिलम भाषण की, जय बोलो सुशासन की. सड़कों, बांधों के टूटासन की, पुलों के गिरासन की, पीएम बनने के स्वपनासन की, जय बोलो सुशासन की. भ्रष्ट परिवार से हाथ मिलासन की, पल्टूराम के पलटासन की, डाल डाल कूदासन की, नैतिकता के शीर्षासन की, बंदर के हाथ में शासन की, जय बोलो सुशासन की. जनता दरबार के ढोंगासन की, गुंडाराज के लौटासन की, सरकार के लापतासन की, जय बोलो सुशासन की.

शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

नीतीश कुमार का मंकी पॉलिटिक्स

मित्रों, आज से ४० साल पहले जब हम सुनते थे कि अमेरिका-यूरोप में छोटी-छोटी बातों पर विवाह टूट जाता है तो हमें घोर आश्चर्य होता. जैसे अगर पति-पत्नी में से कोई एक खर्राटा लेता है, पति-पत्नी के पसंद के भोजन अलग-अलग हैं इत्यादि. फिर पति और पत्नी अलग. इस तरह एक-एक पुरुष या महिला पूरे जीवन में कई-कई शादियाँ कर चुके होते हैं. मित्रों, आज जब हम बिहार के कथित समाजवादी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी की राजनीति को देखते हैं तब हमें यूरोप और अमेरिका में छोटी-छोटी बातों पर होनेवाले तलाकों पर आश्चर्य नहीं हो रहा क्योंकि यह आदमी तो कुर्सी पर बने रहने के लिए बार-बार जनमत का भी अपमान कर दे रहा है. इसके लिए जैसे गठबंधन और चुनाव बेमानी हो गए हैं. चुनाव किसी और के साथ मिलकर लड़ो और सरकार किसी और के साथ बना लो. शादी किसी और के साथ और सुहागरात किसी और के साथ. जिस देश में अटल जी ने अपनी सरकार एक वोट से गिरवा ली लेकिन खरीद-फरोख्त नहीं किया उसी देश में उनकी सहायता से बिहार की राजनीति में शून्य से शिखर तक की यात्रा करनेवाला व्यक्ति ऐसा कर रहा है. मित्रों, जिन लोगों को लगता है कि नीतीश कुमार ने अचानक रामचंद्र प्रसाद सिंह से परेशान होकर यह कदम उठाया है तो उन लोगों को हम बताना चाहेंगे कि ऐसा हरगिज नहीं है. कुछ भी अचानक नहीं हुआ है बल्कि सबकुछ सुनियोजित था. दरअसल नीतीश कुमार की राजनीति ही इसी तरह की रही है. वे हमेशा एकसाथ दो नावों की सवारी करते रहे हैं. वो जब सरकार में भाजपा के साथ होते हैं तो राजद से मेलजोल बनाए रखते हैं और जब राजद के साथ होते हैं तो भाजपा के साथ. जब-जब उनको लगने लगता है कि अब गठबंधन का सहयोगी उनके ऊपर हावी होने लगा है तब-तब वो नाव बदल लेते हैं. फिर कुछ दिनों तक जब तक हनीमून पीरियड रहता है सबकुछ ठीक लगता है और उसके बाद फिर से वही गन्दा खेल . निकाह, तलाक, हलाला और फिर से निकाह. नीतीश अचानक कुछ भी नहीं करते. नीतीश पहले गठबंधन से भागने की योजना बनाते है फिर बहानों की तलाश करते हैं. मित्रों, एक कहावत है कि लालचियों की बस्ती में ठग कभी भूखो नहीं मरते. बिहार में भी ऐसा ही हो रहा है. सत्ता किसे नहीं चाहिए? भले ही वो आधी सत्ता ही क्यों न हो सो जब भी नीतीश भाजपा या राजद की तरफ हाथ बढ़ाते हैं दोनों लपक लेते हैं और इस प्रकार पिछले २० सालों से नीतीश कुमार बिना विधायक का एक भी चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बने हुए हैं. हमने अपने २ जनवरी, २०२२ के आलेख भाजपा-जदयू का लठबंधन में कहा था कि नीतीश विश्वसनीय नहीं है और कभी भी भाजपा के पेड़ से राजद के पेड़ पर छलांग लगा सकते हैं. मित्रों, ये तो रहा नीतीश कुमार का स्वभाव, उनकी आदत. अब बात करते हैं कि नीतीश जी की गुलाटी के पीछे और कौन-कौन से कारण हैं. तो पहला कारण है नीतीश जी का २०२० के चुनावों में बिहार की जनता से अंतिम बार वोट मांगना. २०२० के बिहार विधान सभा चुनावों में नीतीश जी बिहार की जनता से कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री के पद के लिए यह उनका अंतिम चुनाव है. अब जबकि अगले विधान-सभा चुनाव में मात्र ३ साल बचे हैं तो नीतीश जी को उसकी तैयारी के लिए समय चाहिए. फिर भाजपा तो उनको २०२५ में मुख्यमंत्री पद के लिए आगे करने से रही क्योंकि नीतीश वादा कर चुके हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में यह उनका अन्तिम कार्यकाल है. इसलिए भी नीतीश कुमार भाग लिए. मित्रों, एक सम्भावना यह भी है कि तेजस्वी भी उनको २०२५ में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार न करें तो उनके भूतपूर्व पल्टूराम और अबके पल्टूचाचा ने इसके बारे में भी सोंच रखा है और अब जबकि भाजपा ने उनको राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति नहीं बनाया तो वो प्रधानमंत्री बनने का प्रयास करेंगे. सफल हुए तो ठीक और नहीं हुए तो मुख्यमंत्री तो हैं ही. भाजपा तो उनको प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कभी बनाती नहीं. डूबती हुई कान्ग्रेस और सत्ता के लिए छछा रहे राजद के लिए तो इस समय नीतीश सोने की खदान दिख रहे हैं. फिर राजद और विकास का तो शुरू से ही ३६ का आंकड़ा रहा है. उसको तो बस लूटना है कभी देश को तो कभी प्रदेश को. हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि नीतीश फिर से कब भाजपा की गोद में बैठ जाएं. तो कहने का तात्पर्य यह कि नीतीश कुमार की मंकी पॉलिटिक्स को जो लोग ऐतिहासिक साबित करने में लगे हैं उन लोगों को समझ लेना चाहिए कि यह व्यक्ति चाइल्ड ऑफ़ टाइम यानी गौं का यार है. यह न तो उसका पहला पाला बदल है और न ही आखिरी. इस व्यक्ति का राजनैतिक डीएनए सचमुच गड़बड़ है. इसलिए राजद को भी यह सोंच-समझकर ही चलना होगा कि उसके साथ भी एकबार फिर से २०१७ की तरह धोखा हो सकता है. मित्रों, सवाल उठता है कि ऐसे में बिहार की जनता क्या करे? बिहार की जनता के समक्ष विकल्प क्या हैं? अभी परसों से नई सरकार का मुस्लिम तुष्टिकरण शुरू हो चुका है कल से तेजस्वी ने अपने चुनावी वादों से पल्टी मारना शुरू कर यह बता दिया है जैसे चाचा हैं वैसा ही भतीजा भी है इसलिए कथित नई सरकार से कोई उम्मीद नहीं पालिए. मेरी मानिए तो बिहार की जनता के समक्ष बस दो ही विकल्प हैं कि अब वो या तो भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत से जिताए या फिर नए लोगों को जिताए. बिहार में पिछले ३२ सालों से कथित समाजवादी लालू-नीतीश-राबड़ी का शासन है फिर भी बिहार आज भी देश का सबसे पिछड़ा और गरीब राज्य है. आज भी बिहार की हर कुर्सी भ्रष्ट है. इसलिए बिहार की जनता उसे जिताए जिसके पास जोश हो, होश हो, योजनाएं हों, ताजगी हो, लालच नहीं हो और जो जाति-संप्रदाय की राजनीति नहीं करता हो. मेरा मतलब एक बार फिर प्रशांत किशोर जी से है.