कल जब ६ महीने की नरसिंह राव स्टाइल चुप्पी के बाद राव के सच्चे राजनैतिक शिष्य प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया के सामने उपस्थित हुए तो उम्मीद की जा रही थी कि वे भ्रष्टाचार व महंगाई से निबटने का कोई-न-कोई रोडमैप अवश्य साथ में लाए होंगे.लेकिन देश की जनता के साथ पत्रकारों को भी यह देखकर भारी निराशा हुई कि प्रधानमंत्री के पास ऐसा कोई रोडमैप नहीं था बल्कि उनकी झोली पूरी तरह खाली थी.उनके पास अगर कुछ था तो बस मजबूरियों का रोना था.आश्चर्य है कि विपक्ष बरसों से मनमोहन को भारत का सबसे मजबूर प्रधानमंत्री बता रहा था और कांग्रेस इसका खंडन करती जा रही थी;प्रधानमंत्री ने मजबूरी के विधवा-विलाप द्वारा उनके इस आरोप को स्वयं सत्य साबित कर दिया.अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि मनमोहन सिंह भारतीय इतिहास के सबसे कमजोर और मजबूर प्रधानमंत्री हैं.दुर्भाग्यवश वह भी ऐसे कालखंड में जब देश एक साथ कई-कई गंभीर संकटों का सामना कर रहा है और देश को सशक्त व निर्णायक नेतृत्व की सर्वाधिक आवश्यकता है.
अर्थव्यस्था विशेषज्ञ डॉक्टर साहब फरमाते हैं कि वे तो गठबंधन धर्म का पालन कर रहे हैं लेकिन अन्य दल नहीं कर रहे हैं तो वे क्या कर सकते हैं?मनमोहन जी को कोई तो बतलाये कि गठबंधन धर्म के पालन का मतलब यह नहीं कि वे अन्य दलों के मंत्रियों को देश को लूटने की खुली छूट दे दें.फिर उन्होंने जो शपथ पदभार ग्रहण करते समय ली थी वो क्या था?क्यों ली थी अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन की शपथ?इसके बदले कैमरे के सामने उन्हें सिर्फ गठबंधन धर्म का पालन करने की शपथ लेनी चाहिए थी.क्यों शासन की शुरुआत ही उन्होंने इस धोखेबाजी से की?
हद तो यह है कि जिस मुंह से सच्चाई के आला अलंबरदार मनमोहन गठबंधन की मजबूरी का रोना रोते हैं उसी मुंह से उसी समय देश को यह भरोसा भी देते हैं कि भ्रष्टाचारियों को कदापि नहीं बख्शा जाएगा.क्या अब ऐसा करने से उनकी सरकार गिरेगी नहीं और हर ६ महीने पर चुनाव की नौबत नहीं आएगी?इसका भी जवाब दिया उन्होंने लेकिन परोक्ष रूप से और कहा कि गठबंधन मजबूत है,नहीं टूटनेवाला.एक साथ मनमोहन कई-कई तरह की बातें कर लेते हैं और सभी एक-दूसरे से पूर्णतया प्रतिकूल.किसे सच मानें और किसे झूठ?किस बात पर भरोसा करें;किस पर नहीं?रावण की तरह उनके भी दस मुंह होता तो ऐसा कृत्य क्षम्य होता लेकिन मनमोहन के तो एक ही मुंह है और एक ही जुबान भी.तो क्या हम यह नहीं समझें कि मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ उतनी ही और सीमित कार्रवाई करेगी जिससे गठबंधन बिखरने से बचा रहे.तभी तो वे यह दावा कर रहे हैं कि गठबंधन को बिखरने भी नहीं देंगे और भ्रष्टाचार को नियंत्रित भी कर लेंगे.मुंह फुलाना और हँसना एक मुंह वाले किसी भी इन्सान के लिए संभव नहीं,शायद मनमोहन के लिए संभव हो.
जहाँ तक महंगाई का प्रश्न है तो मनमोहन जी ने बताया कि उनको पता है कि गरीबों पर ही महंगाई की मार सबसे ज्यादा पड़ती है.लेकिन वे उच्च विकास दर के लिए ७% तक की मुद्रास्फीति को जरुरी मानते हैं.यानि उनकी पहली प्राथमिकता ऊंची विकास दर है और आखिरी प्राथमिकता महंगाई पर नियंत्रण.गरीबों को चाहिए कि वह उच्च विकास दर की ख़बरों से अटे-पटे अख़बार ख़रीदे और उनकी रोटी बनाकर खा ले;हर तीन महीने में एक बार और अपने को भाग्यशाली समझे कि वह उच्च विकास दर वाले समय में जी रहा है.
बेसिरपैर की तुलना करने में हमारे मनमोहनजी का कोई जवाब नहीं.कब किसकी तुलना किससे कर दें देवो न जानाति?कल भी उन्होंने कालिदास की उपमाशक्ति को कई प्रकाशवर्ष पीछे छोड़ते हुए २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गयी रकम की तुलना गरीबों को दी जा रही सब्सिडी से कर दी.कल वे किसी अन्य घोटाले में हुए नुकसान की तुलना वेतन पर होनेवाले खर्च और भ्रष्टाचार-नियंत्रण पर होनेवाले व्यय से करेंगे और अपनी अद्भूत उपमा शक्ति का फिर से परिचय देंगे.कालिदास को अभी पानी-पानी ही किया है;शर्म की नदी में डुबकी लगाने को भी विवश कर देंगे.
प्रधानमंत्रीजी विपक्ष पर आरोप लगा रहे हैं कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफा दिलवाकर बदला सधा रहा है.अगर यह सच है भी तो विपक्ष क्या गलत कर रहा है?सरदारजी खुद अपने कर्तव्यों का पालन तो कर नहीं रहे हैं और चले हैं विपक्ष और मीडिया को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाने.कई सालों तक हार्वर्ड में शिक्षक जो रह चुके हैं महानुभाव.शिक्षक तो पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब भी बने थे और कई बार बने थे लेकिन एक आदर्श स्थापित करने के बाद.लेकिन मनमोहन का आदर्शों से क्या लेना-देना?वे तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे में विश्वास रखते हैं;अटूट विश्वास.जब मौका मिलता है उपदेश देने लगते हैं कि यह होना चाहिए,वह होना चाहिए.जैसे देश में किसी को पता ही नहीं हो कि क्या होना चाहिए?हम जनता ने यह जानने-सुनने के लिए उन्हें भारत की सबसे बड़ी कुर्सी नहीं सौंपी है कि यह होना चाहिए और यह नहीं होना चाहिए;हरगिज नहीं!!!जनता ने उन्हें इसलिए वोट दिया है क्योंकि उसे विश्वास है कि यह शख्स जो होना चाहिए उसे करके दिखाएगा.जैसे इसने देश को कर्ज और पूँजी की कमी के दलदल से बाहर निकाला;उसी प्रतिबद्धता के साथ यह लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार के दलदल से भी हमें बाहर निकलेगा.लेकिन हाय री किस्मत!जिस पर मजबूत समझकर भरोसा किया वही सबसे ज्यादा मजबूर निकला.मजबूर भी ऐसा कि न तो अपनी मर्जी से भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई ही कर सके और नाराज होने पर न तो अपनी मर्जी से इस्तीफा ही दे सके.कल ही उन्होंने एक बार फिर से कहा कि वे इस्तीफा नहीं देंगे.दें भी कैसे मैडम का आदेश जो नहीं होगा.
उनकी कई जुबानों वाले मुंह की एक और बाजीगरी देखिए.मनमोहनजी ने ७० हजार करोड़ रूपये के राष्ट्रमंडल घोटाले के बारे में कहा था कि ९० दिनों में जाँच पूरी कर ली जाएगी.जबकि वास्तविकता यह है कि जाँच अभी सही तरीके से शुरू भी नहीं हो सकी है;हालाँकि भ्रष्टाचार के इन खेलों को समाप्त हुए चार महीना पूरा होने को है.भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाने के लिए अपनी आदत के अनुसार प्रधानमंत्री ने प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में एक समिति का गठन कर दिया है जो ६० दिनों में अपनी रिपोर्ट देगी.देखिए अब यह समिति क्या कहती है?वह जन लोकपाल की सिफारिश करती है या लोकपाल की?वह भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करती है या बचाने की.मनमोहन जी विपक्ष पर बचकाना आरोप लगा रहे हैं कि विपक्ष महत्वपूर्ण बिलों को पारित करने में सहयोग नहीं कर रहा.किस बिल की बात कर रहे हैं वे?अगर बात प्रस्तावित लोकपाल बिल की हो रही है तो फिर विपक्ष को धन्यवाद् देना चाहिए क्योंकि यह बिल तो रद्दी की टोकरी में भी फेंकने लायक नहीं है;बल्कि सीधे दाह-संस्कार का अधिकारी है.
झूठ बोलते मनमोहन यही नहीं रुके.वे यह भी बोल गए कि तेज विकास दर के चलते भारत का दुनिया में मान बढ़ रहा है.पहले तो मनमोहन बताएं कि विकास दर का ४५-५० डिग्री का कोण लिए ग्राफ किसके विकास की देन है.गाँव में आधा पेट खाकर महंगाई से लड़ रहे गरीब की या फिर टाटा और मित्तल की जिनकी कम्पनियाँ आईटी क्रांति के रॉकेट पर सवार है.जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान बढ़ने का उनका दावा है तो वह उनकी सरकार की अन्य उपलब्धियों की तरह ही खोखला है;पूरी तरह से खोखला.अमेरिका में हमारे बच्चों के गले और पैरों में कुत्तों की तरह पट्टा डालने और श्रीलंका द्वारा हमारे मछुआरों के साथ लगातार बदतमीजी की बढती घटनाएँ इसका प्रमाण हैं कि भारत का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान बढ़ा नहीं है बल्कि घटा है और जब तक सरकार चीन से डरती रहेगी और यह सोंचती रहेगी कि चीनी खतरे को नजरंदाज कर देने से भारत की ओर बढ़ रहा चीनी खतरा टल जाएगा तब तक भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्मान में क्षरण होता रहेगा.जब तक दूसरे का भाषण पढने लगनेवाला खुद से भी बेखबर व्यक्ति भारत का विदेशमंत्री बना रहेगा;भारत की अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर फजीहत होती रहेगी,भारत का सम्मान बढनेवाला नहीं है.
अबोध व मासूम मनमोहन जी को दुःख है की उन पर भी अब भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं.वे खुद को सीजर की पत्नी बता रहे हैं.जनता के विश्वास का खून करनेवाला कैसे सीजर की पत्नी हो सकता है,वह तो ब्रूटस हुआ न?फिर मनमोहन का आचरण कैसे संदेहों से परे हो गया?क्या वे अपने को इन्सान नहीं मानते;भगवान मानते हैं?एक तरफ तो वे मानते हैं कि उनसे गलतियाँ हुई हैं और दूसरी तरफ खुद को पाक-साफ भी बता रहे हैं.लगता है जैसे मनमोहन कोई सात घूंघटोंवाली ऐसी महिला हैं जिसके हर घूंघट में अलग-अलग चेहरा है.कौन-सा चेहरा सच्चा है,कोई नहीं बता सकता.
मैं परम विद्वान मनमोहन जी को याद दिलाना चाहूँगा कि सदियों पहले गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं कि जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,सो नृप अवस नरक अधिकारी.अभी भी उतनी देर नहीं हुई है;देर नहीं हुई यह कहना भी सत्य नहीं होगा.अब से भी जनता के दुखदर्द को समझने का प्रयास कीजिए और उन्हें दूर करिए.अब जमाना इंदिरा या सोनिया या राहुल इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा,सोनिया या राहुलवाला नहीं रहा.आज जमाना तहरीर चौक का है.कल जो कुछ उन्होंने कहा उसके अनुसार मनमोहनजी को अगर ऐसा लगता है कि भारत में मिस्र जैसी क्रांति नहीं हो सकती क्योंकि वे लोग जनता को समय-समय पर झूठी हरी,पीली,नीली,उजली,काली क्रांति दिखाते रहते हैं तो बेहतर होगा कि वे इस ग़लतफ़हमी को आगे नहीं पालें और अपने दिमाग के तबेले से खदेड़ डालें.
भारत में जो विस्फोटक हालात उनकी भ्रष्ट और निकम्मी सरकार तैयार कर रही है वह किसी भी तरह से फ़्रांस,रूस,चीन या मिस्र की क्रांतिपूर्व की स्थिति से अलग नहीं है.भारत की जनता भी क्षुब्ध है और उच्च विकास दर की ख़बरों से भरे पड़े समाचार-पत्रों को निचोड़ने से न तो दूध निकल सकता है और न ही रोटी.जनता का धैर्य ऊपरी सीमा की ओर बढ़ रहा है.जनता समझ गयी है कि चुनाव-दर-चुनाव मतदान करने से सिर्फ शासक बदल रहे हैं शासन का चरित्र नहीं.व्यवस्थापकों को बदलना अब काफी नहीं है अब समय आ गया है जब व्यवस्था को बदला जाए.इससे पहले मनमोहन जी की पार्टी १९७४ देख चुकी है अब शायद आगे जब जनता सडकों पर आएगी तो १९७४ से नहीं मानेगी बल्कि १९४२ होगा और १९१७ होगा.व्यवस्था बदल दी जाएगी और भ्रष्ट काले अंग्रेजों को भी भारत छोड़कर जाना पड़ेगा,गोरे अंग्रेजों की तरह.हाँ,मैं मानता हूँ कि अभी देश में गाँधी जैसा नेतृत्व नहीं है लेकिन कभी-कभी मुद्दे ही नेतृत्व बन जाया करते हैं,हमरी न मानो तो हुस्नी मुबारक से पूछो.मैं सचेत करना चाहूँगा भारत सरकार को कि भारत में जिस तरह लोकतंत्र वरदान के बजाए अभिशाप बनता जा रहा है वह देश को सिर्फ और सिर्फ रक्तरंजित क्रांति की ओर ले जाएगा.मिस्र से चली बदलाव की हवा ने अब तूफ़ान का स्वरुप ग्रहण कर लिया है और लीबिया,यमन,बहरीन होते हुए क्रांति के दबाव का क्षेत्र हमारे पड़ोस के पड़ोस ईरान तक में बनने लगा है और ईरान न तो भारत से ज्यादा दूर ही है और न ही भारत की स्थिति ईरान से बहुत अलग ही है.
पुनश्च-मित्रों यह लेख मैंने कल ही लिख लिया था लेकिन बिजली नहीं रहने के कारण कल प्रकाशित नहीं कर पाया और आज कर रहा हूँ.
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