अख़बारों में विज्ञान एक्सप्रेस ट्रेन को लेकर आ रही उत्साहपूर्ण ख़बरों ने मुझमें इतना जोश भर दिया कि कल मैं खुद को सोनपुर जाने से रोक नहीं पाया.मेरी ७० वर्षीया माँ जगरानी देवी भी मेरे साथ हो ली.हालांकि वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन उसके कुछ सीखने के जज्बे को देखते हुए मैं उसे साथ ले जाने से मना नहीं कर पाया.लेकिन जब हम सोनपुर स्टेशन पहुंचे तो पाया कि रेल प्रदर्शनी देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ जमा है.इसमें भी ९० प्रतिशत स्कूली बच्चे थे तो कई कूड़ा-कोयला चुननेवाली महिलाएं भी पंक्तियों में लगी थीं.कई युवाओं को यह कहते भी सुना कि यार अगर अख़बार में यह भी छपता कि यहाँ इतनी भीड़ जमा हो रही है तो मैं आता ही नहीं.खैर,यह तो आप भी जानते हैं कि मैं कमजोर ईरादोंवाला तो हूँ नहीं.वो कहते हैं न कि गिरते हैं शह सवार ही मैदाने जंग में,वो तल्ख़ क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें.सो हमने पहले तो १ किलोमीटर लम्बी पंक्ति का सबसे पिछला सिरा खोजा और खड़े हो गए.पंक्ति में कई परिचितों को खड़ा पाकर जोश और बढ़ गया.
खैर,ये तो रहा दर्शकों का हाल.वास्तव में हमसे ज्यादा फटी हुई थी वहां उपस्थित व्यवस्थापकों की.एक फट्टू महाशय बार-बार कण्ट्रोल रूम को मोबाइल पर फोन किए जा रहे थे कि भीड़ काफी बढ़ गई है,क्या करुँ?बच्चे ज्यादा हैं,कोई भी हादसा हुआ तो आपलोग समझिएगा?शायद उनकी पूरी ज़िन्दगी किसी वातानुकूलित कमरे में गुजरी थी या फ़िर महाशय साइबेरिया-अन्टार्क्टिका जैसे किसी निर्जन स्थल से पधारे थे.श्रीमान बार-बार व्यवस्था में लगे एन.सी.सी. कैडेटों पर चिल्ला रहे थे जिसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था पंक्ति में मस्ती में लगे गरीब बच्चों को.टाई-शू वाले भी मस्ती कर रहे थे और इनसे कहीं ज्यादा कर रहे थे.लेकिन वे तो ठहरे देश के भविष्य सो उन्हें कौन टोंकता?मेरे सामने मेरे मना करने पर भी कई मैले-कुचैले कपडे पहने गरीब बच्चों को लाईन से बाहर कर दिया गया.बेचारों की २ घन्टे की तपस्या पर इस जाड़े में ठंडा पानी डाल दिया गया.उन्होंने चुपचाप बस्ता उठाया और भारी मन से चल पड़े,अनजाने सफ़र पर.क्या पाता वे भविष्य में फ़िर से इस तरह की पंक्ति में खड़े होने की हिम्मत करें भी या नहीं?
जब हम १६ बोगियों वाली इस ट्रेन में दाखिल हुए तो पाया कि अन्दर भी पंक्ति लगाकर रखी गई है और हद तो यह है कि पंक्ति को रूकने नहीं दिया जा रहा है.मुझे गुस्सा आ गया और मैंने यह कहकर इसका विरोध किया कि लोग कुछ सीखने-जानने आए हैं कोई बाबा हरिहरनाथ का दर्शन करने नहीं आए हैं.फ़िर मैं अपनी माँ के साथ पंक्ति से हट गया और आराम से प्रदर्शनी देखने लगा.प्रदर्शनी थी बड़ी ज्ञानवर्धक.विज्ञान का ऐसा कोई कोना नहीं जिसके बारे में उसमें बताया नहीं गया हो.बीच-बीच में लड़के खड़े थे जो बता रहे थे कि कहाँ किस चीज का मॉडल है.एक जगह हमें एक भविष्य के उपग्रह के मॉडल के बारे में बताया गया कि यह भारत का पहला उपग्रह होगा.मैंने प्रतिवाद किया कि भारत का पहला उपग्रह तो आर्यभट्ट था तब बताया गया कि यह पूरी तरह से भारत में बना पहला उपग्रह होगा.देर तक मैंने हर बोगी में रूककर प्रदर्शनी देखी और माँ को भी दिखाया.कुछ कमी-सी भी लगी.हमें लगा कि आगंतुकों को कुछ पाठ्य-सामग्री भी देनी चाहिए थी.
हम तो पंक्ति से अलग हो चुके थे लेकिन पंक्तिबद्ध लोगों के प्रति व्यवस्था में लगे लोगों का रवैया अब भी वही था.बच्चों को इस तरह आगे बढाया जा रहा था जैसे इस प्रदर्शनी का कोई उद्देश्य ही नहीं हो.मैंने ऐसा करनेवाले एक वोलेंतियर से कहा भी कि भीड़ का ही डर था तो या तो इसे बिहार में लाना ही नहीं चाहिए था या फ़िर १०-१५ दिनों के लिए लाना था.तीन दिन के लिए लाओगे तो भीड़ तो होगी ही.गलत तो नहीं कहा.इस तरह की जल्दीबाजी से इस प्रदर्शनी ट्रेन से न तो छात्र विज्ञान की तरफ आकर्षित हो सकेंगे और न ही वैज्ञानिक समाज की स्थापना में ही मदद मिलेगी.मैं कई सालों से कहता आ रहा हूँ कि अपने देश में जो भी समस्या है वह सिर्फ व्यवस्था में है और जहाँ व्यवस्था ठीक भी है तो डरपोक अधिकारी व्यवस्था को सही नहीं रहने देते.ऐसा क्यों है कि अमेरिका की प्रयोगशालाएँ भारतीय वैज्ञानिकों से पटी पड़ी हैं और यहाँ देश में प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों का टोंटा पड़ा है.भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब भी हमारे बच्चों में विज्ञान के प्रति घटती अभिरूचि पर कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं.इस तरह के औपचारिकतावश किए गए प्रयासों से तो ऐसा होने से रहा.इसके लिए विस्तृत योजना बनानी पड़ेगी.सुदूर-भीतरी ग्रामीण इलाकों तक ऐसी ट्रेनों को ले जाना पड़ेगा,वैज्ञानिकों को ले जाना पड़ेगा और फ़िर जो बच्चे विज्ञान को अपना जीवन बनाने को तैयार होंगे उन्हें कदम-कदम पर हर तरह से प्रोत्साहित करना पड़ेगा,सहायता करनी पड़ेगी.खर्च भी ज्यादा नहीं होगा,शायद २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गई राशि से भी कम.वरना जो चलता है वही चलता रहेगा.पढ़ाने पर खर्च करेंगे हम और फायदा उठाएगा अमेरिका.
खैर,ये तो रहा दर्शकों का हाल.वास्तव में हमसे ज्यादा फटी हुई थी वहां उपस्थित व्यवस्थापकों की.एक फट्टू महाशय बार-बार कण्ट्रोल रूम को मोबाइल पर फोन किए जा रहे थे कि भीड़ काफी बढ़ गई है,क्या करुँ?बच्चे ज्यादा हैं,कोई भी हादसा हुआ तो आपलोग समझिएगा?शायद उनकी पूरी ज़िन्दगी किसी वातानुकूलित कमरे में गुजरी थी या फ़िर महाशय साइबेरिया-अन्टार्क्टिका जैसे किसी निर्जन स्थल से पधारे थे.श्रीमान बार-बार व्यवस्था में लगे एन.सी.सी. कैडेटों पर चिल्ला रहे थे जिसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था पंक्ति में मस्ती में लगे गरीब बच्चों को.टाई-शू वाले भी मस्ती कर रहे थे और इनसे कहीं ज्यादा कर रहे थे.लेकिन वे तो ठहरे देश के भविष्य सो उन्हें कौन टोंकता?मेरे सामने मेरे मना करने पर भी कई मैले-कुचैले कपडे पहने गरीब बच्चों को लाईन से बाहर कर दिया गया.बेचारों की २ घन्टे की तपस्या पर इस जाड़े में ठंडा पानी डाल दिया गया.उन्होंने चुपचाप बस्ता उठाया और भारी मन से चल पड़े,अनजाने सफ़र पर.क्या पाता वे भविष्य में फ़िर से इस तरह की पंक्ति में खड़े होने की हिम्मत करें भी या नहीं?
जब हम १६ बोगियों वाली इस ट्रेन में दाखिल हुए तो पाया कि अन्दर भी पंक्ति लगाकर रखी गई है और हद तो यह है कि पंक्ति को रूकने नहीं दिया जा रहा है.मुझे गुस्सा आ गया और मैंने यह कहकर इसका विरोध किया कि लोग कुछ सीखने-जानने आए हैं कोई बाबा हरिहरनाथ का दर्शन करने नहीं आए हैं.फ़िर मैं अपनी माँ के साथ पंक्ति से हट गया और आराम से प्रदर्शनी देखने लगा.प्रदर्शनी थी बड़ी ज्ञानवर्धक.विज्ञान का ऐसा कोई कोना नहीं जिसके बारे में उसमें बताया नहीं गया हो.बीच-बीच में लड़के खड़े थे जो बता रहे थे कि कहाँ किस चीज का मॉडल है.एक जगह हमें एक भविष्य के उपग्रह के मॉडल के बारे में बताया गया कि यह भारत का पहला उपग्रह होगा.मैंने प्रतिवाद किया कि भारत का पहला उपग्रह तो आर्यभट्ट था तब बताया गया कि यह पूरी तरह से भारत में बना पहला उपग्रह होगा.देर तक मैंने हर बोगी में रूककर प्रदर्शनी देखी और माँ को भी दिखाया.कुछ कमी-सी भी लगी.हमें लगा कि आगंतुकों को कुछ पाठ्य-सामग्री भी देनी चाहिए थी.
हम तो पंक्ति से अलग हो चुके थे लेकिन पंक्तिबद्ध लोगों के प्रति व्यवस्था में लगे लोगों का रवैया अब भी वही था.बच्चों को इस तरह आगे बढाया जा रहा था जैसे इस प्रदर्शनी का कोई उद्देश्य ही नहीं हो.मैंने ऐसा करनेवाले एक वोलेंतियर से कहा भी कि भीड़ का ही डर था तो या तो इसे बिहार में लाना ही नहीं चाहिए था या फ़िर १०-१५ दिनों के लिए लाना था.तीन दिन के लिए लाओगे तो भीड़ तो होगी ही.गलत तो नहीं कहा.इस तरह की जल्दीबाजी से इस प्रदर्शनी ट्रेन से न तो छात्र विज्ञान की तरफ आकर्षित हो सकेंगे और न ही वैज्ञानिक समाज की स्थापना में ही मदद मिलेगी.मैं कई सालों से कहता आ रहा हूँ कि अपने देश में जो भी समस्या है वह सिर्फ व्यवस्था में है और जहाँ व्यवस्था ठीक भी है तो डरपोक अधिकारी व्यवस्था को सही नहीं रहने देते.ऐसा क्यों है कि अमेरिका की प्रयोगशालाएँ भारतीय वैज्ञानिकों से पटी पड़ी हैं और यहाँ देश में प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों का टोंटा पड़ा है.भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब भी हमारे बच्चों में विज्ञान के प्रति घटती अभिरूचि पर कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं.इस तरह के औपचारिकतावश किए गए प्रयासों से तो ऐसा होने से रहा.इसके लिए विस्तृत योजना बनानी पड़ेगी.सुदूर-भीतरी ग्रामीण इलाकों तक ऐसी ट्रेनों को ले जाना पड़ेगा,वैज्ञानिकों को ले जाना पड़ेगा और फ़िर जो बच्चे विज्ञान को अपना जीवन बनाने को तैयार होंगे उन्हें कदम-कदम पर हर तरह से प्रोत्साहित करना पड़ेगा,सहायता करनी पड़ेगी.खर्च भी ज्यादा नहीं होगा,शायद २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गई राशि से भी कम.वरना जो चलता है वही चलता रहेगा.पढ़ाने पर खर्च करेंगे हम और फायदा उठाएगा अमेरिका.
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