मित्रों,अपने प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार किसी भी लोकतंत्र में जनता का सबसे मूलभूत अधिकार होता है.भारत की जनता पिछले ५८ वर्षों से अपने इस अधिकार का प्रयोग करती आ रही है.आजादी के बाद कुछ वर्षों तक तो जनता उम्मीदवारों की योग्यता के आधार पर वोट डालती रही लेकिन इसी बीच उम्मीदवार पैसों के बल पर जनमत को प्रभावित करने का प्रयास करने लगे.शुरुआत में ऐसा करनेवाले लोग ईक्का-दुक्का थे लेकिन अब इस प्रवृत्ति ने संस्थागत स्वरुप ग्रहण कर लिया है.हालाँकि इसी बीच बंदूक के बल पर चुनाव जीतनेवाले चुनाव आयोग की सख्ती के कारण हाशिये पर चले गए हैं.
मित्रों,सैद्धांतिक तौर पर तो चुनाव उम्मीदवारों की योग्यता और राजनीतिक दलों की नीतियों के आधार पर लड़े जाते हैं लेकिन व्यवहार में होता ऐसा नहीं है.होता यह है कि चुनावों में पैसा उम्मीदवार होता है,पैसा ही प्रचार करता है,पैसा ही वोट डालता है,पैसा ही चुनाव जीतता और फिर पैसा ही शासन (शोषण) करता है.अच्छे गुण मुंह ताकते रह जाते हैं और पैसा बाजी मार ले जाता है.इस समय तमिलनाडु,केरल,पश्चिम बंगाल और असम से और इनमें भी विशेषकर तमिलनाडु से जिस तरह उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं के बीच करोड़ों रूपये बाँटने की खबरें आ रही हैं वह किसी भी तरह भारतीय लोकतंत्र के शुभचिंतकों की तंदरुस्ती को बढ़ानेवाली नहीं हैं.अकेले तमिलनाडु में ही चुनाव आयोग पक्ष और विपक्ष द्वारा जनता के बीच बाँटने के लिए ले जाए जा रहे ४० करोड़ से भी अधिक रूपये जब्त कर चुकी है.उधर बंगाल में भी ममता बनर्जी जनता से अपील करती फिर रही हैं कि चाहे पैसे किसी भी राजनीतिक दल से ले लो;वोट मुझे ही देना.
मित्रों,बिहार में भी इस दिनों पंचायत चुनाव की प्रक्रिया चल रही है.पिछले चुनावों में मेरी सबसे बड़ी दीदी श्रीमती सुनीता देवी डुमरांव से जिला परिषद् सदस्य पद के लिए चुनाव लड़ रही थीं.माहौल पक्ष में लग रहा था.तभी चुनाव के ठीक पहले वाली रात प्रतिद्वंद्वी के परिजनों ने मतदाताओं के बीच जमकर रूपये बांटे और देखते-ही-देखते हवा ही बदल गयी.इस बार भी गांववालों ने दीदी से खड़े होने का अनुरोध किया था लेकिन जीजाजी का तर्क था,जो सही भी था कि पिछली बार पैसा बांटकर विजयी होनेवाले उम्मीदवार ने अपने पद और अधिकार का दुरुपयोग करके खूब पैसा बनाया है इसलिए इस बार तो उसे सामने टिक पाना और भी मुश्किल होगा.
मित्रों,यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि पंचायत से संसद तक हमारे देश में चुनाव जीतनेवाला प्रायः प्रत्येक व्यक्ति काम करने की फ़िक्र में नहीं रहता बल्कि सही-गलत तरीके से पैसा बनाने के चक्कर में लगा रहता है.उसे पता होता है कि चुनावों के समय पैसे ही काम देंगे कोई काम काम नहीं देगा.इन तथ्यों से पूरी तरह अवगत होते हुए भी हमारी केंद्र सरकार ने सांसद क्षेत्रीय विकास निधि को २ करोड़ से बढाकर ५ करोड़ रूपये कर दिया है.इसका सीधा मतलब होगा कि अगले चुनावों में और उसके बाद भी विजयी होनेवाले उम्मीदवारों के पास जनता के बीच बाँटने के लिए काफी ज्यादा धन होगा जिससे अन्य उम्मीदवारों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.
मित्रों,कुल मिलाकर अभी चुनावों के मोर्चे पर गंभीर व प्रभावी सुधारों की गुंजाईश बनी हुई है.शीघ्रातिशीघ्र चुनाव सुधारों को प्राथमिकता के आधार पर लेते हुए कानून में केंद्र सरकार को ऐसे संशोधन करने चाहिए और ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे चुनावों में पैसों का खुल्लम खेल दरबारी बंद हो और विजयी होनेवाले उम्मीदवार अपने कर्तव्यों के प्रति गंभीर होने को बाध्य हो जाएँ.इसमें कोई शक नहीं कि चुनावों में पैसों का जोर होने से कहीं-न-कहीं देश का विकास भी प्रभावित होता है.मैं मानता हूँ कि ऐसा होने के लिए खुद जनता भी दोषी है लेकिन सरकार सिर्फ जनता के कन्धों पर दोषों का बोझ डालकर अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ सकती.अगर वह ऐसा करती है तो फिर उसके होने का मतलब ही क्या है?क्या देश को सही दिशा में ले जाना,अग्रसर करना सरकार का प्रथम और अंतिम कर्तव्य नहीं है?
1 टिप्पणी:
आपके एक एक शब्द से सहमत हूं ब्रजेश भाई । ऐसी परिस्थितियों से ही बचने का एक उपाय है right to recall लेकिन शायद उससे भी जरूरी है जनता को ये समझाना कि उसका भला बुरा किसमें है और इसके लिए उनका शिक्षित होना बहुत जरूरी है । समस्या गंभीर हैं और काम बहुत सारे हैं करने के लिए ..सही कहा आपने
एक टिप्पणी भेजें