शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

कैसी है तेरी दुनिया कैसा ये बसेरा है


fam

कैसी है तेरी दुनिया कैसा ये बसेरा है,
कहीं पे रौशनी है कहीं पे अँधेरा है;
कैसी है तेरी दुनिया कैसा ये बसेरा है.

अपने पास भी कुछ जमीन थी,
अपने भी कुछ काम थे;
अब तक जमीन के कागजातों पर पूर्वजों के नाम थे;
नामांतरण हेतु मैं गया अंचल कार्यालय में,
पैसे की मांग हुई उस सरकारी देवालय में;
लिखी हुई थी ईबारत,
शायद किसी ने की थी शरारत;
ईमानदारी की हर जगह क़द्र होती है,
झूठ है यह बेचारी तो हर जगह बेपर्द होती है;
रूक जाता है काम,बिन पैसों के मेरे राम;
किससे जाकर सुनें फरियादें अपने मन की,
हर तरफ घूसखोरी हर पद पे लुटेरा है,
कैसी है तेरी दुनिया कैसा ये बसेरा है.

मिलता है वृद्धावस्था पेंशन,हर लम्हा नया टेंशन;
आधी रकम दलाली में,आधी मुट्ठी खाली में;
थोड़ी-सी रकम में भला कैसे हो गुजारा,
लूटते थे फिरंगी पहले अब तो अपनों ने ही मारा;
बिना रजाई-कम्बल के कटता है जाड़ा,
ऐसे काटते हैं वक़्त लोग जैसे टूटा हुआ तारा;
उनके लिए हर लम्हा है परेशानी का सबब,
चाहे ढल रही शाम है या फिर चाहे सबेरा है;
कैसी है तेरी दुनिया कैसा ये बसेरा है.

अब पूछो उनकी जो हमको लूटते हैं,
अपनी सारी कमाई वो किस तरह फूंकते है;
पढ़ते हैं उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में,
पढ़ते हैं हमारे बच्चे घुटने-भर धूलों में;
हमारे ही पैसों से बनाते हैं हमें नौकर,
खाते हैं रसगुल्ला रोज खोलते हैं लॉकर;
लुटेरे हैं लूटते हैं करते हैं पाप,
कहते हैं फिर भी हुजूर माई-बाप;
इनके बच्चे करते हैं सड़कों पर छेड़खानी,
लगाती है जब पिटाई होती है मानहानि;
ले आते हैं खरीदकर ये कोई भी चीज,
चाहे हो कारें या चाहे हो फ्रिज;
लगता है मानो पैसे नहीं बुलबुले हों,
सड़क चलते उठाए गए माटी के ढेले हों;
क्या यही गाँधी के सपनों का लोकतंत्र है,
जहाँ हर कोई अपनी मनमानी को स्वतंत्र है;
मूर्खों के राज में ढाई से अनाज के पीछे भागते हैं लोग,
राहत के नाम पर लूटते हैं घूस देकर छूटते हैं लोग;
लगता है डूबकर ही रहेगी मुल्क की कश्ती,
हर तरफ से इसको तूफानों ने घेरा है;
कैसी है तेरी दुनिया कैसा ये बसेरा है.