मंगलवार, 31 मई 2011

राहुल गाँधी प्रकरण और आरटीआई का सच


अमित जेठवा
 अमित जेठवा

मित्रों,वर्ष २००५ में जब अनलिमिटेड प्रोब्लेम्स एलायंस ने सूचना का अधिकार लागू किया था तब सोनिया गाँधी एंड फेमिली फूली नहीं समा रही थी.उनकी तरफ से बार-बार आत्मप्रशंसा से भरी घोषणाएं की जा रही थीं कि हमने जनता को वो चीज दे दी है जो आजादी के बाद से उसे नहीं मिली थी.उन्होंने मन-ही-मन कल्पना कर ली कि अब भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा क्योंकि उनका और देश की जनता का बहुत बड़ा सपना सच हो गया है.सत्य अगर इतना ही सरल होने लगे तो देश में राम-राज्य नहीं कायम हो जाए?इस कानून के आने के ६ साल बाद भी वास्तविकता तो यह है कि किसी भी राज्य में यह कानून लागू हुआ ही नहीं है;जो कुछ भी हुआ है सब सिर्फ कागज पर हुआ है.
मित्रों,कोई भी कानून अच्छा या बुरा नहीं होता;अच्छे और बुरे होते हैं उन्हें लागू करनेवाले लोग.अब सूचना का अधिकार कानून को ही लीजिए;इस कानून का बेड़ा उन्हीं लोक सूचना पदाधिकारियों ने गर्क किया है जिन पर इसे लागू करने की महती जिम्मेदारी थी.कहीं-कहीं राज्य सरकारों ने भी राज्य सूचना आयोग में पदों को रिक्त रखकर इस दिशा में अपना महान योगदान दिया है.बिहार की हालत से एक आरटीआई कार्यकर्ता होने के नाते मैं अच्छी तरह से वाकिफ हूँ.यहाँ के लोक सूचना पदाधिकारी सूचना देने से ज्यादा सहूलियत जुर्माना भरने में महसूस करते हैं.अधिकारी घूस में कमाई गयी पतली कमाई को पतली गली से जुर्माना के रूप में सरकारी खजाने में जमा कर दे रहे हैं लेकिन सूचना नहीं देते.साथ ही बिहार सरकार ने पिछले दिनों कई महीनों तक राज्य सूचना आयोग में सभी महत्वपूर्ण पदों महीनों तक रिक्त रखा.
मित्रों,विकास दर के मामले में चीन से टक्कर लेनेवाले राज्य गुजरात में आरटीआई कार्यकर्ताओं को सरेआम गोलियों से भून दिया जाता है.वहां अभी भी एक आरटीआई कार्यकर्ता सरकारी अधिकारियों द्वारा झूठे मुकदमों में फँसाए जाने से परेशान होकर कई हफ़्तों से अनशन पर बैठा है.उत्तर प्रदेश में भी इस कानून की हालत लगातार चिंताजनक बनी हुई है.अभी कुछ ही दिनों पहले यूपीए के युवराज राहुल गाँधी ने वहां के स्वास्थ्य विभाग से कुछ सूचनाएं मांगी थीं.उन्हें सूचना देने के बदले विभाग ने उल्टे खर्च के नाम पर लाखों रूपये मांग दिए.ऐसा हमारे साथ भी बिहार में हो चुका है.२०-२५ लोगों के नामों की सूची मांगने पर मुझसे खर्च के नाम पर लाखों रूपये मांग दिए गए.कई बार तो बिहार में लोक सूचना पदाधिकारी आवेदन-पत्र ग्रहण करने से ही मना कर दे रहे हैं और पत्र वापस आ जा रहा है.
मित्रों,जब राहुल गाँधी जैसी शख्सियत को यह अधिकार प्राप्त नहीं हो पाया तो फिर प्रदेश में किसे प्राप्त होगा?केंद्र सरकार की स्थिति इस मामले में संतोषजनक जरुर है लेकिन राज्यों में तो आज तक जनता को यह अधिकार मिला ही नहीं.सूचना मांगो तो खर्च के नाम पर लम्बी-चौड़ी राशि की मांग कर दी जाती है.जहाँ केंद्र सरकार से सम्बद्ध मामलों में अपील करने पर कोई शुल्क नहीं लगता,राज्य सरकारों ने अपील के लिए मोटी फ़ीस निर्धारित कर दी है.स्पष्ट है कि राज्य सरकारें नहीं चाहतीं कि कोई व्यक्ति सूचना से संतुष्ट नहीं होने पर अपील करे.बिहार में यह राशि ५० रूपया है.उस पर बिहार सरकार ने इस कानून में प्रश्नों की संख्या भी अपनी ओर से निर्धारित कर दी है.आप बिहार में एक आवेदन पर सिर्फ और सिर्फ एक ही प्रश्न पूछ सकते हैं.
मित्रों,वर्तमान केंद्र सरकार जिसने भारतीय जनता को यह महत्वपूर्ण अधिकार दिया है;राहुल-प्रकरण से अच्छी तरह से समझ गयी होगी कि यह कानून पूरी तरह से फेल हो चुका है.भ्रष्टाचार के सीने पर चलाया गया यह ब्रह्मास्त्र अपने लक्ष्य से पूरी तरह चूक चुका है.केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस कानून की अविलम्ब समीक्षा करे और पता लगाए कि इसमें कहाँ-कहाँ कमी रह गयी है और तदनुसार सुधार के लिए अपेक्षित कदम उठाए.दोषी अधिकारियों को केवल आर्थिक दंड देने से काम नहीं चलनेवाला;उन्हें निलंबित और बर्खास्त करने की भी इस कानून में व्यवस्था की जानी चाहिए.अच्छा हो कि राज्य सरकारों से इस विधेयक में संशोधन करने का अधिकार ही छीन लिया जाए.अगर केंद्र सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो फिर इसे वापस ही ले ले जिससे जनता इस अधिकार के भुलावे में आकर अपने धन,श्रम और समय का अपव्यय करने से बच सके.

शुक्रवार, 27 मई 2011

थप्पड़ की गूँज


agnivesh

मित्रों,लोकतंत्र में नाराज होना और उसे अभिव्यक्त करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है लेकिन उसका तरीका क्या होना चाहिए;विवादित है.वर्तमान काल में किसी बड़ी शख्शियत से अपना विरोध जताने के लिए लोग उसकी ओर जूते-चप्पल उछालना ज्यादा बेहतर मानते हैं.अगर जूते-चप्पल अवकाश-प्राप्ति की स्थिति में पहुँच गए हों तो यह तरीका और भी कारगर हो जाता है.
           मित्रों,कई लोग अपनी नाराजगी दिखाने के लिए शारीरिक क्षति पहुँचाने से भी नहीं चूकते.पहले लक्षित व्यक्ति को और बाद में पुलिस के हाथों पिटकर खुद अपने-आपको को इस प्रक्रिया में भारी शारीरिक कष्ट उठाना पड़ता है.कभी-कभी गलती एक ही पक्ष यानि आक्रामक पक्ष की होती है तो कभी-कभी दोनों पक्षों की.
             मित्रों,कुछ दिनों पहले प्रख्यात समाजसेवी,आर्यसमाजी और संन्यासी स्वामी अग्निवेश ने अमरनाथ यात्रा को लेकर अभद्र टिपण्णी की.भारत आदिकाल से ही सहअस्तित्व का समर्थक रहा है.सम्राट अशोक ने सवा दो हजार साल पहले अपने शिलालेखों और स्तम्भलेखों में उत्कीर्ण करवाया था कि किसी भी संप्रदाय को मानने वाला दूसरे संप्रदाय वालों की पूजा-पद्धति की निंदा नहीं करे अन्यथा वह राजदंड का भागी होगा.लगता है प्रसिद्धि के मद में स्वामी अग्निवेश सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए है.हम मूर्तिपूजक भी आर्यसमाजियों की तरह भलीभांति जानते हैं कि मूर्ति या तस्वीर भगवान नहीं होता;वह सिर्फ एक प्रतीक होता है,माध्यम होता है.स्वामी जी को अगर मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ करना था तो वे अपनी ईच्छा जाहिर करते और तब अगर वे विजयी होते तो लोग उनका सम्मान करते न कि थप्पड़ मारते.लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अमरनाथ यात्रा पर सार्वजनिक रूप से उटपटांग बयान दे दिया.अगर कोई मूर्तिपूजा करता है तो वह उनका या किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ता,यह कार्य पूरी तरह से व्यक्तिगत और हिंसा या हानि से रहित है इसलिए भी स्वामी अग्निवेश जैसे बुद्धिजीवी को बेवजह इसकी आलोचना करना किसी भी दृष्टिकोण से शोभा नहीं देता.
               दोस्तों,मैं स्वामी नित्यानंद ने स्वामी अग्निवेश के साथ जो कुछ भी किया उसका कतई समर्थन नहीं करता हूँ;उन्हें ऐसा हरगिज नहीं करना चाहिए था.उन्हें बात का जवाब बात से देना चाहिए था और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए था.यहाँ कोई ऐसी स्थिति नहीं थी कि हिंसा का प्रयोग अपरिहार्य हो जाए.भारत मुंडे मुंडे मति भिन्नाः का आदि प्रतिपादक रहा है अतः कम-से-कम आर्यावर्त की इस पवित्र धरती पर साम,दाम और दंड को छोड़कर सीधे भेद पर उतारू हो जाने को उचित नहीं ठहराया जा सकता.
                दोस्तों,संन्यास आश्रम शास्त्रवर्णित चारों आश्रमों में सबसे कठिन और गरिमामय है.प्रत्येक संन्यासी से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इन्द्रियों के साथ-साथ मन पर भी नियंत्रण रखते हुए अपने जीवन को मानव-सेवा में लगाएंगे या फिर ईश्वराधना में.लगातार चिंतन-मनन करेंगे और अपने अनुभवों से अवगत कराके पूरी दुनिया को लाभ पहुँचाएंगे.मैं नहीं समझता कि स्वामी अग्निवेश जैसे प्रबुद्ध-विद्वान संन्यासी ने जो कुछ भी किया-कहा वह किसी भी तरह संन्यास की अतिकठिन कसौटी पर खरा उतरता है.मैंने माना कि गरीबों की मदद करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है लेकिन क्या दूसरों की धार्मिक भावनाओं का आदर करना भी एक महत्वपूर्ण नागरिक कर्त्तव्य नहीं है?धार्मिक आस्था और समाजसेवा दो अलग-अलग बातें हैं फिर भला दोनों को एक साथ जोड़कर बात करने की स्वामीजी की क्या मजबूरी थी?
               मित्रों,मतभेद मतभेद तक ही सीमित रहे तो ठीक है उसका मनभेद में बदल जाना न तो समाज के लिए अच्छा है और न ही उस राष्ट्र के लिए जिसकी नींव ही प्रेम और सद्भाव पर टिकी हो इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि इस थप्पड़ की गूँज यहीं थम जाएगी और हमारे सामने फिर से उसकी प्रतिध्वनि सुनने का कुअवसर नहीं आएगा.नाराजगी या विरोध प्रकट करने के बहुत-से स्वस्थ तरीके भी हैं;लोग उनका ही प्रयोग करें तो बेहतर होगा हमारे समाज के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए.

बुधवार, 25 मई 2011

अगले जनम मोहे ऑडिटर ही कीजो

auditor
मित्रों,किसी ने क्या खूब कहा है-’यहाँ किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता;जमीं मिलती है तो आसमां नहीं मिलता.बचपन में शिक्षकों ने हमसे कौन क्या बनना चाहता है;जानने के लिए बहुत-से निबंध लिखवाए.कई बार तो निबंध लिखते समय तक के लिए हमें प्रधानमंत्री तक बना दिया गया और कहा गया कि ‘अगर मैं प्रधानमंत्री होता’ विषय पर निबंध लिखो.परन्तु क्या कुछ बन जाना या हो जाना इतना आसान है?क्या हम जो बनना चाहते हैं वही बन पाते हैं?अगर ऐसा संभव होता तो आज अपने देश भारत में अनगिनत प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं होते?
दोस्तों,आप जानते हैं कि मैं अभी एक स्वतंत्र (सरल शब्दों में बेरोजगार) पत्रकार हूँ.मैं जो कुछ भी हूँ वह हरगिज नहीं बनना चाहता था.सच्चाई तो यह है कि मैं एक आईइएस अधिकारी बनना चाहता था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.एक-एक करके मेरे चारों अवसर समाप्त हो गए और मैं मुख्य परीक्षा से आगे बढ़ ही नहीं पाया.थक-हारकर मुझे पत्रकारिता से एमए करने का निर्णय लेना पड़ा और भगवान की अकृपा से मैं आज एक पत्रकार हूँ.
मित्रों,भले ही इस जन्म में मेरा सपना आईएएस बनने का रहा हो अगले जन्म में मैं हरगिज आईएएस बनना नहीं चाहूँगा.बल्कि अगले जन्म में मैं अंकेक्षक या ऑडिटर बनना चाहूँगा.गजब पेशा है ऑडिटिंग;हर्रे लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा होए.इस व्यवसाय का भविष्य भी काफी उज्ज्वल है.जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में निजी कम्पनियों की भागेदारी बढती जाएगी ऑडिटरों का महत्त्व लगातार बढ़ता ही जाएगा.क्या फर्जीवाड़ा है कि कम्पनी दिवालियेपन की ओर बढ़ रही होती है और ऑडिटर पैसे लेकर लिख देता है कि कंपनी की तो बीसों ऊँगलियाँ घी में है और सिर कड़ाही में.क्या बिडम्बना है कि जिस संस्था का जन्म आर्थिक गड़बड़ियों को रोकने के लिए हुआ वही स्वयं इसे बढ़ावा दे रही है.हू विल गार्ड द गार्ड्स?ऐसा सिर्फ अपने भारत में नहीं हो रहा है बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी निजीकरण का जोर है;हो रहा है.भारत में सत्यम घोटाला और अमेरिका में एनरौन घोटाला तो ऑडिटरों की बेईमानी की जिंदा मिसालें बन चुकी हैं.
दोस्तों,मैं पिछले साल एक कंगाल एनजीओ का अवैतनिक अध्यक्ष भी रहा.जब भी कहीं टेंडर प्राप्त करने या भरने का प्रयास करता;पता चलता कि सरकार ने इस काम के लिए इच्छुक एनजीओ के लिए पिछले तीन सालों में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम ३ लाख या कभी-कभी तो इससे भी अधिक का काम करवाने या सरकारी टेंडर प्राप्त करने की पात्रता निर्धारित करके रखी है.बार-बार समस्या खड़ी हो जाती कि टेंडर लेने की पात्रता कैसे प्राप्त की जाए जबकि सच्चाई तो यह थी कि हमारे एनजीओ को तो पिछले ३ वर्षों में दस-बीस हजार का भी सरकारी काम या टेंडर नहीं मिला था.मैंने जब सचिव महोदय से समस्या बताई तो वे बोले कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है;चलिए किसी प्राईवेट ऑडिटर से प्रमाण-पत्र ले लेते हैं.जब हम ऑडिटर के पास गए तो पाया कि श्रीमान ऑडिटर महोदय ने तो एनजीओ और कम्पनियों के लिए खुलेआम घूस की रेटलिस्ट बना रखी है;जैसे १०० रूपये में १ लाख,२०० रूपये में २ लाख रूपये का प्रमाण-पत्र या फिर इतने रूपये में कंपनी या फर्म की बैलेंस-शीट में इतने की हेराफेरी.
मित्रों,आप शायद नहीं जानते होंगे कि हमारा शहर हाजीपुर बिहार विश्वविद्यालय में आता है.इस समय इस विश्वविद्यालय के सभी २३०० पेंशनधारी शिक्षक परेशान हैं.एक तरफ सभी गुरुजनों के बकाए और अवकाश-प्राप्ति लाभ का निपटारा होना है वहीं दूसरी ओर नए वेतनमान के निर्धारण का काम भी चल रहा है.अभी यहाँ जो स्थिति है वह ‘सब शुभकाम ऑडिटर के हाथा’ वाली है.जिन शिक्षकों ने विश्वविद्यालय के ऑडिटरों की मुट्ठी गरम कर दी है उनकी तो पौ-बारह है लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया है वे परेशान-ही-परेशान हैं.उनमें से एक तिहाई तो घूस देने में बेवजह की हिचक के चलते पटना उच्च न्यायलय भी पहुँच गए हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें न्यायालय जाने का भी कोई लाभ नहीं हो रहा है और उनकी फाइलें अंत में भूदेव ऑडिटरों के पास जाकर अँटक जा रही है.उच्च न्यायालय इनकी जूती की नोंक पर है.ऑडिटर उनसे बार-बार बेतुके कागजात मांग रहे हैं.कई बार तो ऐसे कागजातों की मांग भी की जाती है जो विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को भेजता ही नहीं है.मजबूरी में कोई १० हजार तो कोई २० हजार या इससे भी ज्यादा देकर अपना कल्याण करवा रहा है.इसलिए मेरी ईच्छा के भीतर एक और ईच्छा है कि मैं अगले जन्म में ऑडिटर तो बनूँ ही साथ ही बिहार विश्वविद्यालय का ऑडिटर बनूँ.
दोस्तों,इस समय पूरी दुनिया के लोग निजी और सरकारी क्षेत्रों में बढ़ते घोटालों से चिंतित है और इससे पार पाने का उपाय खोज रहे हैं.मेरी नजर में उपाय एकदम सरल है.बस ऑडिटरों के स्क्रू को टाईट कर दिया जाए;सारे घपले-घोटाले खुद-ब-खुद रूक जाएँगे.सोंचिए अगर भारत का सीएजी ईमानदार नहीं होता तो क्या कभी घोटालों का राजा ए. राजा दुनिया का दूसरा सबसे भ्रष्ट महापुरुष बनने का गौरव प्राप्त कर पाता?खैर जब मेरे सुझाव पर अगले सौ-दो सौ सालों में अमल होगा तब होगा फिलहाल तो जो स्थिति है उसमें भगवान से यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हे सर्वशक्तिमान मेरी ईच्छा पूर्ण करो.हे अंतर्यामी;मैं अगले जन्म में सिर्फ और सिर्फ ऑडिटर ही बनना चाहता हूँ.

मित्रों,किसी ने क्या खूब कहा है-'यहाँ किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता;जमीं मिलती है तो आसमां नहीं मिलता.बचपन में शिक्षकों ने हमसे कौन क्या बनना चाहता है;जानने के लिए बहुत-से निबंध लिखवाए.कई बार तो निबंध लिखते समय तक के लिए हमें प्रधानमंत्री तक बना दिया गया और कहा गया कि 'अगर मैं प्रधानमंत्री होता' विषय पर निबंध लिखो.परन्तु क्या कुछ बन जाना या हो जाना इतना आसान है?क्या हम जो बनना चाहते हैं वही बन पाते हैं?अगर ऐसा संभव होता तो आज अपने देश भारत में अनगिनत प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं होते?
              दोस्तों,आप जानते हैं कि मैं अभी एक स्वतंत्र (सरल शब्दों में बेरोजगार) पत्रकार हूँ.मैं जो कुछ भी हूँ वह हरगिज नहीं बनना चाहता था.सच्चाई तो यह है कि मैं एक आईइएस अधिकारी बनना चाहता था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.एक-एक करके मेरे चारों अवसर समाप्त हो गए और मैं मुख्य परीक्षा से आगे बढ़ ही नहीं पाया.थक-हारकर मुझे पत्रकारिता से एमए करने का निर्णय लेना पड़ा और भगवान की अकृपा से मैं आज एक पत्रकार हूँ.
             मित्रों,भले ही इस जन्म में मेरा सपना आईएएस बनने का रहा हो अगले जन्म में मैं हरगिज आईएएस बनना नहीं चाहूँगा.बल्कि अगले जन्म में मैं अंकेक्षक या ऑडिटर बनना चाहूँगा.गजब पेशा है ऑडिटिंग;हर्रे लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा होए.इस व्यवसाय का भविष्य भी काफी उज्ज्वल है.जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में निजी कम्पनियों की भागेदारी बढती जाएगी ऑडिटरों का महत्त्व लगातार बढ़ता ही जाएगा.क्या फर्जीवाड़ा है कि कम्पनी दिवालियेपन की ओर बढ़ रही होती है और ऑडिटर पैसे लेकर लिख देता है कि कंपनी की तो बीसों ऊँगलियाँ घी में है और सिर कड़ाही में.क्या बिडम्बना है कि जिस संस्था का जन्म आर्थिक गड़बड़ियों को रोकने के लिए हुआ वही स्वयं इसे बढ़ावा दे रही है.हू विल गार्ड द गार्ड्स?ऐसा सिर्फ अपने भारत में नहीं हो रहा है बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी निजीकरण का जोर है;हो रहा है.भारत में सत्यम घोटाला और अमेरिका में एनरौन घोटाला तो ऑडिटरों की बेईमानी की जिंदा मिसालें बन चुकी हैं.
              दोस्तों,मैं पिछले साल एक कंगाल एनजीओ का अवैतनिक अध्यक्ष भी रहा.जब भी कहीं टेंडर प्राप्त करने या भरने का प्रयास करता;पता चलता कि सरकार ने इस काम के लिए इच्छुक एनजीओ के लिए पिछले तीन सालों में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम ३ लाख या कभी-कभी तो इससे भी अधिक का काम करवाने या सरकारी टेंडर प्राप्त करने की पात्रता निर्धारित करके रखी है.बार-बार समस्या खड़ी हो जाती कि टेंडर लेने की पात्रता कैसे प्राप्त की जाए जबकि सच्चाई तो यह थी कि हमारे एनजीओ को तो पिछले ३ वर्षों में दस-बीस हजार का भी सरकारी काम या टेंडर नहीं मिला था.मैंने जब सचिव महोदय से समस्या बताई तो वे बोले कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है;चलिए किसी प्राईवेट ऑडिटर से प्रमाण-पत्र ले लेते हैं.जब हम ऑडिटर के पास गए तो पाया कि श्रीमान ऑडिटर महोदय ने तो एनजीओ और कम्पनियों के लिए खुलेआम घूस की रेटलिस्ट बना रखी है;जैसे १०० रूपये में १ लाख,२०० रूपये में २ लाख रूपये का प्रमाण-पत्र या फिर इतने रूपये में कंपनी या फर्म की बैलेंस-शीट में इतने की हेराफेरी.
               मित्रों,आप शायद नहीं जानते होंगे कि हमारा शहर हाजीपुर बिहार विश्वविद्यालय में आता है.इस समय इस विश्वविद्यालय के सभी २३०० पेंशनधारी शिक्षक परेशान हैं.एक तरफ सभी गुरुजनों के बकाए और अवकाश-प्राप्ति लाभ का निपटारा होना है वहीं दूसरी ओर नए वेतनमान के निर्धारण का काम भी चल रहा है.अभी यहाँ जो स्थिति है वह 'सब शुभकाम ऑडिटर के हाथा' वाली है.जिन शिक्षकों ने विश्वविद्यालय के ऑडिटरों की मुट्ठी गरम कर दी है उनकी तो पौ-बारह है लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया है वे परेशान-ही-परेशान हैं.उनमें से एक तिहाई तो घूस देने में बेवजह की हिचक के चलते पटना उच्च न्यायलय भी पहुँच गए हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें न्यायालय जाने का भी कोई लाभ नहीं हो रहा है और उनकी फाइलें अंत में भूदेव ऑडिटरों के पास जाकर अँटक जा रही है.उच्च न्यायालय इनकी जूती की नोंक पर है.ऑडिटर उनसे बार-बार बेतुके कागजात मांग रहे हैं.कई बार तो ऐसे कागजातों की मांग भी की जाती है जो विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को भेजता ही नहीं है.मजबूरी में कोई १० हजार तो कोई २० हजार या इससे भी ज्यादा देकर अपना कल्याण करवा रहा है.इसलिए मेरी ईच्छा के भीतर एक और ईच्छा है कि मैं अगले जन्म में ऑडिटर तो बनूँ ही साथ ही बिहार विश्वविद्यालय का ऑडिटर बनूँ.
                   दोस्तों,इस समय पूरी दुनिया के लोग निजी और सरकारी क्षेत्रों में बढ़ते घोटालों से चिंतित है और इससे पार पाने का उपाय खोज रहे हैं.मेरी नजर में उपाय एकदम सरल है.बस ऑडिटरों के स्क्रू को टाईट कर दिया जाए;सारे घपले-घोटाले खुद-ब-खुद रूक जाएँगे.सोंचिए अगर भारत का सीएजी ईमानदार नहीं होता तो क्या कभी घोटालों का राजा ए. राजा दुनिया का दूसरा सबसे भ्रष्ट महापुरुष बनने का गौरव प्राप्त कर पाता?खैर जब मेरे सुझाव पर अगले सौ-दो सौ सालों में अमल होगा तब होगा फिलहाल तो जो स्थिति है उसमें भगवान से यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हे सर्वशक्तिमान मेरी ईच्छा पूर्ण करो.हे अंतर्यामी;मैं अगले जन्म में सिर्फ और सिर्फ ऑडिटर ही बनना चाहता हूँ.

सोमवार, 23 मई 2011

बलात्कारियों को दी जाए लिंग-विच्छेदन की सजा

rape
मित्रों,मैं जब भी कोई उदाहरण देता हूँ तो मेरी कोशिश यही रहती है कि घटना मेरे खुद के जीवन की या मेरे आसपास की हो.इस लेख की शुरुआत भी मैं आँखों-देखी यथार्थ से करूँगा.मेरे ननिहाल में एक छोटी-सी बच्ची थी.उम्र में तो मुझसे ७-८ साल छोटी थी लेकिन रिश्ते में मेरी मौसी लगती थी.गौरवर्ण,तीखे नयन-नक्श;बालोचित सरल स्वाभाव.जब मैं गाँव छोड़कर शहर में रहने आ गया तब उसके जीवन में अचानक तूफ़ान खड़ा हो गया.हालाँकि ऐसा होने में कहीं से भी उसका कोई दोष नहीं था लेकिन जैसे उसकी दुनिया ही वीरान हो गयी और अकस्मात् ज़िन्दगी के सारे मकसद समाप्त हो गए.बलात्कारी कोई और नहीं था उसके आँगन का ही लड़का था जो स्कूल के दिनों में मेरा सहपाठी रह चुका है.जब वह बाढ़ के पानी से नहाकर लौट रही थी तब उस वासना के पुतले ने जो रिश्ते में उसका भतीजा लगता था उसकी दुनिया उजाड़ दी.उसे ऐसे करते हुए कई ग्रामीणों ने देखा.हल्ला होने पर वह भाग निकला और लौटकर घर भी नहीं गया.मुझे कल होकर इस शर्मनाक घटना की जानकारी मिली.मैं पीड़िता के घर पर गया और उससे बात करने की कोशिश भी की लेकिन वह तो सिर्फ रोये जा रही थी.नानी यानि उसकी माँ से पता चला कि घटना के बाद से उसने कुछ भी खाया-पीया नहीं था.कुछ ही दिनों के बाद बच्ची की मौत हो गयी.एक कली खिलने से पहले ही सूख गयी,एक तितली उडान भरने के पूर्व ही शिकारी जानवर का शिकार हो गयी.मैं पीड़िताओं द्वारा इस प्रकार का पलायनवादी रवैय्या अपनाने का विरोधी हूँ.आखिर जो अपराध उसने किया ही नहीं उसके लिए अपराध-बोध मन में रखना कहीं से भी उचित नहीं है.उचित है समाज से टकराना.माना कि जीवन में परेशानियाँ आएँगी लेकिन परेशानियाँ किससे जीवन में नहीं आती हैं?हो सकता है कि उसकी शादी नहीं हो पाए लेकिन सिर्फ शादी-ब्याह ही तो जिंदगी नहीं है.वैसे आज ऐसे युवकों की भी कमी नहीं है जो समाज को अनदेखा करते हुए बलत्कृत ललनाओं से शादी करने को तैयार हैं.
                   मित्रों,मेरी कहानी अभी भी अधूरी है.कोई एक-डेढ़ साल बाद बलात्कारी गाँव वापस आ गया और शादी-ब्याह करके सुखी वैवाहिक जीवन जीने लगा.गाँव वालों ने उसका सामाजिक बहिष्कार करने की कोशिश तक नहीं की.आज भी जब मैं उसे देखता हूँ तो मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है;लेकिन जब पीड़िता के परिवारवाले आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं थे तो मैं क्या करता?परिवारवालों ने तो बीमार होने पर उसका ईलाज भी नहीं करवाया क्योंकि उनका मानना था कि ऐसी जिंदगी से तो मौत ही अच्छी होगी.सबने,पूरे गाँव-समाज ने मामले को भगवान के प्राकृतिक न्याय पर छोड़ दिया.ऐसा भी नहीं है कि भगवान ने न्याय नहीं किया हो.उसने न्याय किया और कुछ ही महीने पहले बलात्कारी की छोटी बहन पास के गाँव के एक विवाहित हरिजन के साथ भाग गयी.कितनी बड़ी बिडम्बना है कि जो युवक बलात्कारी होने के बाद भी गर्व से मस्तक ऊंचा किए घूमता था आज अपनी बहन की करनी के चलते शर्म के मारे घर से बाहर भी नहीं निकलता है.
                   मित्रों,मेरा आज भी कर्मयोग और कर्मवाद में पूरा विश्वास है.मैं अपने इस विश्वास पर आज भी दृढ हूँ कि जो जैसा करता है वैसा ही भरता है लेकिन क्या हमारे समाज का किसी गंभीर मुद्दे पर पूरी तरह से तटस्थ या अकर्मण्य हो जाना कर्मयोग का उल्लंघन नहीं है?क्या किसी समाज के भविष्य के लिए खतरनाक नहीं है?मेरे इस समाज में गाँव के साधारण लोग,न्यायपालिका,संसद और अन्य सभी ज्ञात-अज्ञात वर्गों के लोग शामिल हैं.
                        मित्रों,द्वापर युग में सिर्फ एक दुर्योधन या दुश्शासन थे आज तो पग-पग पर दुर्योधन और दुश्शासन हैं.ट्रेन में चलते समय,कार्यालय से घर आते-जाते हुए,घर के भीतर और घर के बाहर कहीं भी स्त्री सुरक्षित नहीं है.कौन जाने कब कौन दुर्योधन-दुश्शासन बन जाए या कहाँ इनसे सामना हो जाए?यहाँ तक कि इस खतरे से आज अतिविशिष्ट महिलाएँ भी सुरक्षित नहीं हैं.
                     मित्रों,मैं मानता हूँ कि बलात्कार की बढती घटनाओं को सिर्फ दंड के माध्यम से नहीं रोका जा सकता.चूंकि यह अपराध हत्या से भी ज्यादा जघन्य है इसलिए इसकी सजा मृत्युदंड से भी ज्यादा भयानक होनी चाहिए.जहाँ हत्या में सिर्फ शरीर की मौत होती है बलात्कार तो आत्मा को ही मार डालता है इसलिए इसकी सजा कुछ इस तरह की होनी चाहिए कि जिसे देखकर मौत भी कांपने लगे.मैं न्यायालय के इस सुझाव से पूर्णतः सहमत हूँ कि अपराधी को जिंदा तो रखा जाए लेकिन इस तरह से कि उसके जीवन का प्रत्येक क्षण उसे युगों से भारी लगे.मौत की सजा में तो क्षणभर के कष्ट के बाद ही मुक्ति मिल जाती है लेकिन न्यायालय के सुझाव के अनुसार अगर उसका चिकित्सीय या रासायनिक तरीके से बधियाकरण कर दिया जाए तो उसे अपने-आपसे ही घृणा होने लगेगी,अपने जीवन से ही नफरत होने लगेगी और तभी वह उस दर्द को महसूस कर सकेगा जिसको कि बलात्कार-पीड़िता जीवनभर भोगती है.बल्कि मैं तो कहूँगा कि बधियाकरण करने के साथ-साथ बलात्कारी के लिंग को भी काटकर हटा दिया जाए.जहाँ तक ऐसा करने में मानवाधिकार का सवाल है तो मानवाधिकार मानवों के हुआ करते हैं दानवों के नहीं.
                     मित्रों,मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ कि दंड इस बीमारी का तात्कालिक ईलाज मात्र है.अगर हमें इस अपराध को जड़-मूल से मिटाना है तो हमें अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालने होंगे,विशुद्ध भारतीय संस्कार.उनको पश्चिमी भोगवाद की हवा में बह जाने से बचाना होगा और ऐसा सिर्फ कोरे उपदेशों से ही संभव नहीं है.इसके लिए हमें अपने बच्चों के सामने खुद ही उदाहरण बनना पड़ेगा;दृष्टान्त बनना पड़ेगा.

शनिवार, 21 मई 2011

ब्रेकिंग न्यूज़-भंगेरी हैं केंद्र सरकार के मंत्री

bhang

मित्रों,भकुआना बुरा नहीं है.कभी-कभी लोग जब सो के उठते हैं तो भकुआए हुए रहते हैं.फिर दो-चार बूँद चाय हलक के नीचे गयी और ताजगी की लहर तन-मन में दौड़ने लगती है.कभी-कभी लोग जानबूझकर भी शौकिया तौर पर भकुआते हैं.गांवों में भकुआना बहुत सस्ता है.खेत में जाईए भांग की पत्तियों को तोड़कर घोंटिए और कैलाशपति भोलेशंकर का नाम लेकर घोंट जाईए.ऐसा करना शाम के समय अच्छा रहता है.सुबह-सुबह भकुआ गए तो दिनभर कोई काम नहीं कर पायेंगे.दो को चार और गड्ढे को समतल समझते रहेंगे.कार्यालय में गलती हो गयी तो आपके बदले भोलेशंकर नहीं आएँगे डाँट सुनने.बड़े शहरों में कई लोग भकुआने के लिए अफीम जैसे महंगे साधनों की भी मदद लेते हैं.खैर हमें इस महंगाई में जब रोटी-दाल का जुगाड़ करना ही मुश्किल हो गया है भकुआने के इन महंगे उपायों का नाम लेकर मुंह नहीं जलाना.
                        मित्रों,गांवों में भी सारे लोग भांग नहीं घोंटते.कुछ लोग घोंटते हैं तो कुछ लोग नहीं भी घोंटते हैं.यह सही भी है गाँव में काम-धाम के चलते रहने के लिए ऐसा होना जरुरी है.लेकिन यह बात केंद्र सरकार पर लागू नहीं होती.जिस तरह से केंद्र सरकार काम कर रही है उससे तो यही लगता है कि इसके सारे मंत्री भांग घोंटते हैं और फिर दिनभर भकुआए रहते हैं.शायद इसके सारे मंत्री हमारे गाँव के रमेसरी काका की तरह सुबह-सुबह भांग घोंट लेते हैं.मंत्रालय भी जाते हैं लेकिन भकुआया हुआ आदमी जिस तरह काम करता है उसी तरह से काम करते हैं.हाय-हाय १९९१ में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बनाए गए थे तब तो बिलकुल भी भांग नहीं पीते थे.कीड़े पड़े उस नासपीटे को जिसने उदारीकरण के इस राजकुमार को यह बुरी लत लगा दी और कहीं का नहीं छोड़ा.लेकिन सोनिया जी को तो पता लगा लेना चाहिए था ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने से पहले.सुबह से शाम तक मुंहझौसा कुछ नहीं करता सिवाय भकुआए रहने के और ऊंघते रहने के.जब कोई बिगडैल मंत्री बहुत बड़ा घोटाला कर देता है तब फट से कह देता है कि हमें तो पता ही नहीं था कि कौन-सा मंत्री क्या कर रहा है?पता रहे भी कैसे श्रीमान सुबह-सुबह काजू-बादाम दी हुई स्पेशल भांग की दर्जनों गोलियां जो गटक जाते हैं.१५ अगस्त को झंडा तक तो खुद फहरा नहीं सकते सरकार क्या खाक चलाएंगे?
                          मित्रों,उसी केंद्र सरकार में एक और मंत्री भी ऐसे है जो भांग की गोलियां गटकने में वर्ल्ड चैम्पियन हैं और वे हैं हमारे विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा.उनको तो इतना नशा चढ़ जाता है कि कुछ भी भूल जाते हैं.एक बार क्या हुआ कि अमेरिका की यात्रा पर गए और दिमाग वहां के होटल में भूलकर चले आए.तब से क्या बताएँ कि उनकी हालत है?आपने देखा होगा कि तभी से भारत का पूरा विदेशी मामला अमेरिका देख रहा है.संयुक्त राष्ट्र संघ में कभी पुर्तगाल के विदेशमंत्री का भाषण पढने लगते हैं तो कभी जब नशा बहुत ही ज्यादा चढ़ जाता है तब चुप्पी लगा जाते हैं.अभी भी चुप हैं.पूरी दुनिया पाकिस्तान के खिलाफ हाय-हाय कर रही है लेकिन इनके मुंह से बकार ही नहीं निकल रहा.कभी रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी को तो कभी गृहमंत्री पी.चिदम्बरम को उनके बदले कुछ-न-कुछ अंट-शंट बोलते रहना पड़ रहा है.
              मित्रों,अब लीजिए चिदंबरम जी का नाम आया तब याद आया कि वे तो भोलेनाथ की नगरी दक्षिण भारत की काशी चिदंबरम नगरी के रहनेवाले हैं.नाम भी भोलेनाथवाला ही है सो स्वाभाविक तौर पर उनको भांग घोंटने की बड़ी पुरानी आदत है.पेट के मजबूत हैं,पचा जाते हैं जाहिर नहीं होने देते लेकिन कभी-कभी फिर भी गलती कर ही जाते हैं.बेचारे पिछले २ साल से पाकिस्तान को डोजियर पर डोजियर भेजे जा रहे थे.५० आतंकवादियों की लम्बी-सी लिस्ट बनाए हुए थे और पाकिस्तान को कह रहे थे कि इनको पकड़ के हमारे हवाले करो.बाद में पता चला कि इन ५० लोगों में से कई लोग तो भारत में ही हैं.उनमें से कुछ को तो इस लिस्ट को बनानेवाली सीबीआई ने खुद ही पकड़ा है.लेकिन अपने भारत में लेटलतीफी और अकर्मण्यता की पुरानी गौरवपूर्ण संस्कृति रही है.इसलिए सीबीआई के दुलरुआ भाई लोगों ने इनका नाम लिस्ट से हटाने की जहमत नहीं उठाई और फंस गए बेचारे मंत्री जी.इस समय सबसे महत्वपूर्व मंत्रालयों में से एक रेलवे कागजी रूप से मंत्रीविहीन हो गया है.बिना कागज पर तो बेचारा पिछले दो सालों से मंत्री के आने की बाट जोह रहा था.उसके मंत्री को बंगाली भांगवाली जलेबी खाने की जिद थी लेकिन पूरे गोदाम पर ३४ सालों से कब्ज़ा था माकपाईयों का.कई साल तक घिरियाते-घिरियाते आखिर उन्होंने गोदाम की चाभी छीन ही ली और अब देखिए कि बंगाल में उनका शासन कैसा चकाकक रहता है बंगाली धोती-कुरता की तरह भकभक उज्जर या फिर घोटालों की खूबसूरत छीटों से छींटदार बन जाता है.यह सब निर्भर करेगा इस बात पर कि वे भांगवाली जलेबी कितना खाती हैं और उनकी पचाने की क्षमता कितनी है.
                    मित्रों,केंद्रीय मंत्रिमंडल में अब बंगाली दीदी भले ही नहीं हों बंगाली दादा अभी भी बने हुए हैं.बूढ़े हैं,अच्छी-खासी उम्र हो चुकी है सो उन्हें कायदे से तो टॉनिक-वौनिक पीना चाहिए लेकिन लेते हैं वे भी भांग ही.आम आदमी की सरकार के वित्त मंत्री हैं इसलिए विदेशी उनको जमता नहीं है.उनको जब नशा चढ़ता है तब बड़बड़ाने लगते हैं.पिनक में कभी बोलते हैं कि जनवरी से महंगाई कम होगी तो कभी कहते हैं जून से.कोई इंतजाम नहीं करते और जैसे बांकी मंत्री भोलेनाथ की बूटी और उनकी कृपा पर भरोसा करते हुए विभाग संभाल रहे हैं वे भी सिर्फ भांग का गिलास सँभालने में लीन हैं.अब उनको कौन बताए और कैसे बताए कि सिर्फ मुद्रा-नीति के बल पर महंगाई नियंत्रण में नहीं आनेवाली.खेती,उद्योग,मांग और आपूर्ति सबकी स्थिति को सुधारना पड़ेगा.कोई समझाता भी है तो कहते हैं तुम्हारी उम्र ही कितनी है जो चले आए समझाने.तुम्हारा बाप तो हमारे आगे नंगा घूमा करता था.बुढ़ापा जैसे-जैसे बढ़ रहा है जिद भी बढती जा रही है.एक तो उम्र का असर और फिर भांग,शिव,शिव,शिव,शिव.दादा कहते हैं कि हम तो इसी तरह महंगाई नियंत्रित करेंगे ब्याज-दर बढ़ा-बढाकर तुमको जो उखाड़ना है उखाड़ लो.
              मित्रों,बहुत हो गया भांग पुराण.अब हमको भी भांग का अमल जोर मरने लगा है.देखिए हमने जो कुछ भी अभी लिखा है हमने नहीं सब भांग की हरी-हरी,प्यारी-प्यारी पत्तियों ने लिखा.खदेरन,ऐ खदेरन भंगमा पिसा गया.का कहा एक घंटा पहिले.तब एतना देर से क्या कर रहा था भकचोन्हर.तनी देखो त नशा कम रहने के चलते हम का-का लिख गए.शिव,शिव,शिव,शिव.जय हो शिवशंकर........................

गुरुवार, 19 मई 2011

बीपीएससी यानि बेकार पब्लिक सर्विस कमीशन

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बिहार की ही तरह बिहार लोक सेवा आयोग का इतिहास भी दोनों तरह का रहा है:उज्ज्वल भी और काला भी.समाज में धन के बढ़ते प्रभाव से यह गौरवशाली संस्था भी अछूती नहीं रही है.इसके जीवनकाल में एक समय तो वह भी आया जब बीपीएससी द्वारा ली जानेवाली परीक्षाओं में पास करनेवालों में एक बड़ी संख्या मंत्रियों-विधायकों के नाते-रिश्तेदारों की होती थी.परीक्षाओं में पारदर्शिता का आलम यह था कि रात के अँधेरे में आयोग के स्ट्रौंग-रूम का ताला खुलने लगा.जो परीक्षा प्रत्येक वर्ष होनी चाहिए थी उसका पांच-पांच साल पर होना आम बात हो गयी.
                   मित्रों,फिर सत्ता बदली और लाखों आँखों में उम्मीदें जगीं कि अब बिहार में सिविल सेवा परीक्षा प्रतिवर्ष आयोजित हो सकेगी और आयोग में व्याप्त अव्यवस्था और गड़बड़ियाँ दूर हो जाएंगी.मैंने खुद २००५-०६ में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कई बार ई-मेल भेजकर इस सम्बन्ध में आवश्यक कदम उठाने का अनुरोध किया था.लेकिन समय गुजरने के साथ उम्मीदें दम तोड़ने लगीं.कई वर्षों की देरी के बाद एक साथ पाँच साल की परीक्षाएं ले ली गईं.इसका सीधा मतलब था एक ही बार में उम्मीदवारों के परीक्षा में शामिल होने के ५ अवसरों का समाप्त हो जाना.कई लोगों की तो बेवजह अकस्मात् उम्र ही समाप्त हो गयी जबकि परीक्षा में देरी होने में उनका कोई हाथ नहीं था.पहले आयोग द्वारा आयोजित प्रारंभिक परीक्षाओं में जहाँ २-४ प्रश्न गलत होते थे ४८वीं से ५२वीं की परीक्षा में अभूतपूर्व रूप से १४ प्रश्न गलत थे.मामला पटना उच्च न्यायलय में पहुंचा और उच्च न्यायलय की एकल पीठ ने बिहार लोक सेवा आयोग के इतिहास में पहली बार प्रारंभिक परीक्षा को ही अवैध घोषित कर दिया.सकते में आई राज्य सरकार मामले को डबल बेंच में ले गयी जिसने निर्णय को पलटते हुए परीक्षा की वैधता बहाल कर दी.बाद में उच्चतम न्यायालय ने भी इसे कायम रखते हुए बिहार सरकार को एक बड़ी फजीहत से बचा लिया.इस पूरी प्रक्रिया में ५ साल गुजर गए और फिर से सत्र पीछे हो गया.
           मित्रों,अब आयोग फिर से तीन साल की परीक्षाएं एक साथ ले रहा है.प्रारंभिक परीक्षा सम्पन्न भी हो चुकी है;लेकिन जिस तरह से परीक्षा ली गयी उससे कई प्रश्न खड़े हो गए हैं.जहाँ पहले ली गयी परीक्षाओं में प्रश्न-पत्रों के पैकेट परीक्षा भवन में फाड़े जाते थे और गवाह के तौर पर उम्मीदवारों से हस्ताक्षर करवाया जाता था;इस बार प्रश्न-पत्र बिना पैकेट के थे और केन्द्राधीक्षकों द्वारा वीक्षकों को गिनकर दे दिए गए थे.इतना ही नहीं प्रश्न-पत्रों में सील भी लगा हुआ नहीं था.ऐसा क्यों हुआ,किन परिस्थितियों में हुआ और कैसे हुआ;कुछ कहा नहीं जा सकता है;लेकिन इससे इस परीक्षा की पारदर्शिता तो संशय के घेरे में आ ही जाती है.
           मित्रों,इस बार जब परीक्षा-प्रपत्र भरवाया और जमा करवाया जा रहा था तब प्रत्येक उम्मीदवार से अपना पता लिखा दो लिफाफा जिनमें से प्रत्येक पर 25-25 रूपये के डाक टिकट लगे हुए थे;भी जमा करवाया गया था.लेकिन आश्चर्य की बात है कि बाद में आयोग ने अपनी वेबसाइट पर प्रवेश-पत्र डालकर विज्ञापन प्रकाशित करवा दिया कि उम्मीदवार कृपया आयोग की वेबसाइट से अपना प्रवेश-पत्र डाउनलोड कर लें क्योंकि आयोग डाक द्वारा प्रवेश-पत्र भेजने नहीं जा रहा है.जब प्रवेश-पत्र डाक द्वारा भेजना ही नहीं था तब फिर ५० रूपये का डाक-टिकट लगा लिफाफा लिया ही क्यों गया?क्या आयोग को उम्मीदवारों का ५०-५० रूपया लौटा नहीं देना चाहिए?अभी-अभी मैट्रिक की परीक्षा में बिहार में कई विषयों के प्रश्न-पत्र आउट हो गए.परीक्षार्थियों से दोबारा फॉर्म भरने को कहा गया और इसके लिए फिर से फीस की मांग की गयी जबकि प्रश्न-पत्रों के आउट होने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी.बाद में मुद्दा बिहार विधानं-सभा में उठा तब सरकार ने घोषणा की कि परीक्षार्थियों से दोबारा फीस नहीं ली जाएगी.क्या सरकार या आयोग इस मामले में भी पैसा लौटाने के लिए विधान-सभा में मुद्दे के उठाए जाने का इंतजार कर रहे हैं?
        मित्रों,कुल मिलाकर इस बदनाम आयोग की स्थिति निजाम के बदलने के ६ साल बाद भी जस-की-तस बनी हुई है.न तो सत्र नियमित हो पा रहा है और न ही प्रश्नों के गलत होने का सिलसिला ही समाप्त हो रहा है.इस बार भी प्रारंभिक परीक्षा में कम-से-कम ४ प्रश्न ऐसे थे जिनका उत्तर विकल्पों में था ही नहीं.प्रश्न उठता है कि अगर आयोग के सभी सदस्य योग्य और विद्वान हैं तब फिर प्रश्न-पत्रों में ऐसी गलती लगातार कैसे हो रही है?प्रश्न-पत्रों का पैकेटों में नहीं होना और सील नहीं होना अगर आयोग में व्याप्त अव्यवस्था का परिचायक नहीं है तो फिर और क्या है?उस पर ५०-५० रूपये का डाक टिकट हड़प जाने के पीछे अगर कोई वित्तीय घोटाला हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर पहले बिहार घोटालों के लिए ही तो जाना जाता था.अंत में नीतीश कुमार जी से एक प्रश्न कि हे सुशासन बाबू!बिहार लोक सेवा आयोग में जो कुछ भी हो रहा है क्या वह आपके सुशासन की परिभाषा में आता है?अगर हाँ तब तो कोई बात नहीं परन्तु अगर ना तो फिर आप इसका नाम बेकार लोक सेवा आयोग क्यों नहीं कर देते?

बुधवार, 18 मई 2011

भारतीय राजनीति का सबसे विकृत चेहरा अमर सिंह

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मित्रों,कभी जनसेवा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मानी जानेवाली राजनीति आज अपने वास्तविक अर्थ को खोकर एक गाली बन गयी है.पिछले दिनों कुछ राजनेताओं (अमर सिंह भी शामिल) की आलोचनाओं से क्षुब्ध होकर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को कहना पड़ा कि आज भी भारत में अच्छे नेता हैं.कभी साफ-सुथरा माने जानेवाले इस क्षेत्र को काजल की कोठरी बनाने में यूं तो अनगिनत भ्रष्ट राजनेताओं का हाथ है लेकिन कुछ नेता तो स्वयं इस कोठरी के काजल हैं;जो कोई भी उनके संपर्क में आया उसने अपना चेहरा काला करवाया;बच पाने का प्रश्न ही नहीं.ऐसे नेताओं में सबसे आगे माने जाते हैं अमर सिंह.
           मित्रों,अमर सिंह राजनेताओं की उस जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सिर्फ परिणाम की चिंता करता है.साधन की पवित्रता और अपवित्रता से जिसका दूर-दूर तक कुछ भी लेना-देना नहीं होता.यूं तो इसे राजनीति में लाने का श्रेय जाता है उत्तर प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को लेकिन वास्तव में यह व्यक्ति तब चर्चा में आया जब इसने कर्ज में डूबे बालीवुड मेगास्टार अमिताभ बच्चन की मदद की और प्रत्येक जगह कुत्ते की दुम की तरह उनके साथ दिखने लगा.वैसे इससे पहले वह कथित रूप से लोहिया के अनुयायी मुलायम सिंह यादव से चिपक चुका था.फिर तो वह समय भी आया कि जब वह गाड़ी में चलता तो भारत के सबसे बड़े चार धनपति उसके साथ होते.वह उनकी अक्सर सरकार से मदद करवाता.उसकी पहुँच समान रूप से विभिन्न घोर विरोधी विचारधारा वाले नेताओं तक थी.होती भी क्यों नहीं वह एक अच्छा लायर तो है ही उससे भी कहीं अच्छा सप्लायर है.
             मित्रों,उसके लिए कोई नैतिकता-अनैतिकता की कोई सीमा नहीं;कोई हिचक नहीं.वह इन समस्त सीमाओं से ऊपर है.वह खुलेआम खुद को भोगवादी बताता है और कहता है कि जब उसकी पत्नी को इससे कोई परेशानी नहीं;बेटी को कोई समस्या नहीं तो आपको क्यों है?वह यह नहीं समझ पाता कि कहीं-न-कहीं उसकी विकृत गतिविधियों के कारण समाज भी विकृत होता है.वह अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के साथ फोन पर अश्लील बातें करता है और मामला उजागर हो जाने पर बेशर्मी से स्वीकार भी कर लेता है.क्या पता वह अपनी बेटियों का सामना कैसे करता है?उसके कुकर्मों से शायद शर्म को भी शर्म आ जाए लेकिन उसकी आँखों का पानी तो कब का सूख चुका है.मित्रों अपने वाक्-चातुर्य और विवादस्पद बयानों के चलते यह शख्स जल्दी ही टेलीविजन चैनलों पर सबसे ज्यादा नजर आनेवाला चेहरा बन जाता है.रिमोट से चैनल बदलते जाइए,प्रत्येक चैनल पर यही नजर आता है;आप चाहे तो देखें या टी.वी. ही बंद कर दें.
              मित्रों,अमर सिंह भारतीय राजनीति में संकटमोचक के नाम से भी जाने जाते हैं.सरकार को बचाने के लिए विधायक या सांसदों का जुगाड़ करना है अमर सिंह हैं न,किसी ईमानदार शख्सियत को बदनाम करना है नकली सी.डी.बनवाने के लिए अमर सिंह हैं न.काम चाहे कितना भी घटिया क्यों न हो अमर सिंह हैं न;इन्हें तो सिर्फ अपना उल्लू सीधा होने से मतलब है चाहे इसके लिए किसी को भी उल्लू क्यों न बनाना पड़े.इससे लाभ लेनेवाले कई बार हानि भी उठाते हैं.देखिए आजकल अनिल अम्बानी की क्या गत है?अनिल २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल जाते-जाते बचे हैं तो अमर सिंह के ही कारण.यह बात और है कि उनके जेल जाने की नौबत भी इसलिए आई क्योंकि वे अमर सिंह के नजदीकी थे.
                 मित्रों,संस्कृत में एक श्लोक है-दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः,दुखभागी च सततं व्याधिरल्पायुरेव च.अमर सिंह को निंदा से कोई फर्क ही नहीं पड़ता बल्कि वे तो उन लोगों में से हैं जो यह मानते हैं कि बदनाम हुआ तो क्या हुआ फिर भी नाम तो हुआ ही.बुढ़ापे में दुखभागी तो प्रत्येक व्यक्ति होता है;अब बचा उसके अल्पायु होने का प्रश्न तो यह व्यक्ति यमराज की कृपा से अच्छी-खासी जिंदगी जी ही चुका है.यानि अमर सिंह शाश्वत सत्य को धारण करनेवाले इस श्लोक को भी पूरी तरह से झूठा साबित कर चुका है;लगता है जैसे उसने भगवान को भी कुछ सप्लाई-तप्लाई करके मैनेज कर लिया है और युग के अनुसार युगधर्म निभाने के कारण भगवान ने उसे माफ़ भी कर दिया है.दोस्तों,अभी तो अमर सिंह दिल से जवान हैं.आगे उन्हें बहुत-सारे कारनामे करने बांकी हैं;अभी उन्हें अपनी नातिन की उम्र की लड़कियों के साथ रंगरेलियां मनाना भी शेष है;बहुत-सी भ्रष्ट सरकारों और भ्रष्ट लोगों के लिए संकटमोचक बनना है और देश को संकट के महासागर में धकेलना है.तो आईये आप भी सुबह-सुबह मेरे साथ इनके लिए प्रार्थना करिए-हे ईश्वर,इन्हें शतजीवी बनाना.

सोमवार, 16 मई 2011

आदर्श स्थापित कर रही आदर्श घोटाले की जाँच

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मित्रों,वर्षों पहले की घटना है.वर्ष १९८७ में बिहार के तत्कालीन शिक्षा राज्यमंत्री स्व.अनुग्रह नारायण सिंह मेरे स्कूल राजकीय मध्य विद्यालय,बासुदेवपुर चंदेल में पधारे थे.कुछ फूले से,कुछ भूले से.कुर्सी की गर्मी सर-माथे पर चढ़कर बोल रही थी.मंत्री जी बार-बार एक ही शब्द का रट्टा लगा रहे थे.यह शब्द उनके दिलो-दिमाग पर छाया हुआ लगता तो नहीं था लेकिन मुंह से फिर भी बार-बार निकल रहा था.प्रत्येक पंक्ति में कम-से-कम एक बार और किसी-किसी पंक्ति में उससे भी ज्यादा मर्तबा.मंत्रीजी फरमा रहे थे कि हमें विद्यालय को आदर्श विद्यालय बनाना है और समाज को आदर्श नागरिक देकर आदर्श स्थापित करना है.मैं दर्शकों के बीच बैठा सोंच रहा था कि आखिर आदर्श होता क्या है?कर्मों की दृष्टि से भी पवित्रता बरतना या फिर खुद तो निषिद्ध कर्मों में संलिप्त रहना और दूसरों को आदर्श स्थापित करने की शिक्षा देना.           मित्रों,फिर आया १९९० का साल.लालू जी बिहार को आदर्श प्रदेश बनाने के वादे के साथ सत्तासीन हुए.उनके और उनकी अनपढ़ पत्नी के शासन में बिहार आदर्श प्रदेश तो नहीं बन सका लेकिन अनगिनत घोटालों का गवाह जरूर बना.चारा,अलकतरा,मेधा आदि जितने मंत्रालय उतने घोटाले.फिर मैंने सोंचा कि शायद राजनीतिज्ञों द्वारा आदर्श प्रदेशों का निर्माण ऐसे ही किया जाता है.
               मित्रों,लालू जी की पार्टी में एक नेता हुआ करते हैं श्री रघुवंश प्रसाद सिंह जो मेरे मामा लगते हैं.उनका गाँव मेरे ननिहाल जगन्नाथपुर के बगल में है,एक ही पंचायत में भी.मामा जी अपने गंवई अंदाज के लिए सर्वत्र जाने जाते हैं.उन्होंने गांवों को आदर्श बनाने की ठानी,केंद्र में ग्रामीण विकास मंत्री जो थे.फिर बड़ी संख्या में गांवों को आदर्श-ग्राम का पुरस्कार दिया जाने लगा.मेरे मन में उत्कंठा जगी देखूं तो आदर्श गाँव होते कैसे हैं?कई गांवों में घूमा,कोई बदलाव नजर नहीं आया;जो कुछ भी आदर्श था सब सिर्फ कागजात पर था.
             मित्रों,मेरे मन को फिर भी एक कमी खटक रही थी.अब तक व्यक्तियों,प्रदेशों और गांवों को तो आदर्श बनाया जा चुका था लेकिन घोटालों को आदर्श नहीं बनाया जा सका था.नामानुसार भारत के एकमात्र महान राज्य महाराष्ट्र के परम भ्रष्ट राजनेताओं,महाराष्ट्र सरकार के अति उर्वर मस्तिष्क वाले अधिकारियों और भारतीय सेना के सबसे ज्यादा देशभक्त कई-कई वीरता पुरस्कारों से सम्मानित अवकाशप्राप्त अफसरों की कृपा से यह भी बहुत ही जल्दी संभव हो गया.अचानक एक घोटाला सामने आया और देखते-ही-देखते सारे समाचार माध्यमों में छा गया;नाम था आदर्श सोसाईटी घोटाला.नाम से भी और काम से भी आदर्श.इन भाई लोगों ने देशभक्ति से सराबोर होकर निर्णय लिया था कि कारगिल के शहीदों के परिवारवालों के लिए मुम्बई के सबसे पॉश इलाके में एक शहरी सोसाईटी बनाई जाए,बहुमंजिली और गगनचुम्बी.जमीन सेना की,स्थान पर्यावरणीय और सामरिक तौर पर अतिसंवेदनशील.चूंकि मामले में अतिविशिष्ट लोगों की खासी अभिरूचि थी इसलिए फाइलें बुलेट ट्रेन की रफ़्तार में चलीं और टेबल-टेबल पर विभिन्न नियमों-उपनियमों की अवहेलना करती हुई चली.काम शुरू भी हुआ और ख़त्म भी.जब १५-१५ करोड़ रूपये बाजार मूल्य के फ्लैटों वाली सोसाईटी में लोग रहने को आने लगे तब पता चला कि ईमारत में से कारगिल के शहीदों के किसी परिवारवाले को तो कोई आवासीय इकाई मिली ही नहीं.महाभोज में जो कुछ भी मिला,भ्रष्ट नेता,सिविल अफसर और फौजी अधिकारियों के रिश्तेदारों को.
                  मित्रों,आनन-फानन में केंद्र और राज्य में ब्लैक मेंस बर्डेन संभाल रही कांग्रेस पार्टी ने अपनी छवि की क्षतिपूर्ति का काम शुरू कर दिया.मुख्यमंत्री को बदल दिया गया और जोर-शोर से सरकारी भोंपुओं द्वारा घोषणा की और करवाई जाने लगी कि इस आदर्श घोटाले की जाँच पूरी तरह आदर्श तरीके से करवाई जाएगी.फिर शुरू हुई आदर्श तरीके से जाँच.बारी-बारी से घोटाले की फाइलें विभिन्न सम्बद्ध विभागों से गायब होने लगीं.न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.जब फाइलें ही नहीं मिलेंगी तो सजा कैसे होगी और किसको होगी?ऊपर से केंद्र सरकार का कुत्ता यानि सी.बी.आई.अपनी आदर्श मजबूरी का रोना रही है.इस सरकार में मजबूर होना ही सबसे बड़ा आदर्श जो है,प्राप्य जो है.
                 मित्रों,आप अब तक समझ ही गए होंगे कि आदर्श सोसाईटी घोटाले की आदर्श जाँच का क्या आदर्श परिणाम निकलने वाला है.अंत में किसी भी आरोपी को सजा नहीं होगी और सभी लोग किसी आदर्श न्यायाधीश द्वारा आदर्श सुनवाई के बाद आदर्श तरीके से बाइज्ज़त बरी कर दिए जाएँगे.लालू राज में बिहार सरकार के सचिवालयों में बराबर शार्ट सर्किट हो जाने से आग लग जाया करती थी और शार्ट सर्किट भी होने के लिए उन्हीं विभागों को चुनती थी जिनमें घोटाला हुआ करता था.महाराष्ट्र में इस समय बिना आग लगाए घोटाले की फाइलों का निबटान किया जा रहा है.उस समय जहाँ लालू का सामना (सख्त ईमानदार)सी.बी.आई.के तत्कालीन संयुक्त निदेशक यू.एन.विश्वास (जो इस बार पश्चिम बंगाल से विधायक बन गए हैं)से था जबकि आदर्श घोटालेबाजों के सामने केंद्र के अति आज्ञाकारी सी.बी.आई. अधिकारी हैं.इसलिए आग लगाने की कोई जरुरत ही नहीं.घोटाले की जाँच की कहानी,संवाद,संगीत और क्लाईमेक्स सबकुछ केंद्र सरकार द्वारा पूर्व निर्धारित है;इसलिए तो मेरे भीतर का कवि कहता है कि भाया जो होना है सो होगा रोता है क्या;आगे-आगे देखो होता है क्या?अभी भी बहुत से क्षेत्र आदर्श स्थापित किए जाने के इंतजार में लाइन लगाए खड़े हैं.देखिए उन उपेक्षित क्षेत्रों पर हमारे नीति-नियंताओं की कृपादृष्टि कब तक पड़ती है.

शनिवार, 14 मई 2011

सांपनाथ हारे नागनाथ जीते

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यह युग चयन की समस्या का युग है.जरुरत होने का नहीं जरुरत पैदा करने का समय है.आप कोई भी सामान खरीदने जाईए सेल्समैन आपके सामने उत्पादों का ढेर लगा देगा और सबमें अलग-अलग विशेषता होगी.क्या ऐसी ही समस्या कमोबेश हमारे मतदाताओं के सामने नहीं है?कमोबेश इसलिए क्योंकि उपभोक्ता के रूप में जो व्यक्ति संतुष्टि नहीं होने पर सारे उत्पादों को एकसाथ नकार दे सकता है मतदाता के रूप में उसके समक्ष यह नकारने का विकल्प नहीं होता.जब संविधान का निर्माण चल रहा था तब शायद हमारे तपोपूत पूर्वजों ने यह सोंचा भी नहीं होगा कि मतदाताओं के समक्ष कभी इस तरह की समस्या भी उत्पन्न होगी और उन्हें सांपनाथ और नागनाथ के बीच में से किसी एक को चुनना होगा.
               मित्रों,सबसे पहले बात करते हैं उस राज्य की;उत्सवधर्मिता जिसके खून में है.वहां लगातार रिकार्ड ३४ सालों तक सत्ता में रहने के बाद साम्यवादियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा है.इसलिए उनकी यह हार बेशक महान हार है;शायद जीतने वाले की जीत से भी ज्यादा महान.साम्यवाद ने बंगाल के निवासियों को बराबरी दी लेकिन उनकी समृद्धि नष्ट कर दी;सबको गरीब बना दिया.आज भी कोलकाता गरीबों के लिए सबसे मुफीद शहर है.आप वहां २० रूपये में भरपेट गुणवत्तापूर्ण खाना खा सकते हैं,दस रूपये में पूरे महानगर की सैर कर सकते हैं.लेकिन सैर करते समय आपको वह शहर अपने पुराने वैभव को खोता हुआ-सा दिखेगा.बंद कल-कारखानों,ढहते महलों वाला शहर.कमोबेश ऐसी ही स्थिति राज्य के बाँकी हिस्सों की भी है.दरअसल वहां के साम्यवादियों की स्थिति धीरे-धीरे गाँव के उस जमींदार वाली हो गयी थी जो बदलते समय से सीख नहीं लेने की जिद पर अड़ा है और कहता है कि मैं तो अवर्णों को बराबरी का दर्जा नहीं दूंगा बाँकी गांववालों को देना है तो दें.१९९० के बाद से ही पूरे भारत की स्थिति बदलने लगी.देश के विभिन्न राज्यों के बीच उदार शर्तों पर ज्यादा-से-ज्यादा घरेलू और विदेशी निवेश को आकर्षित करने की होड़ लग गयी लेकिन बंगाल के साम्यवादी अपनी जिद पड़ अड़े रहे कि हमारी शर्तों को जो मानेगा वही बंगाल में उद्योग बिठाएगा या चलाएगा.बाँकी प्रदेशों में अप्रासंगिक हो चुके श्रमिक संगठनों और कानूनों का यहाँ ९० के बाद भी जोर बना रहा.परिणाम यह हुआ कि राज्य में नई पूँजी तो नहीं ही आई पुरानी पूँजी भी दूसरे उन राज्यों;जो उदारवादी रवैय्या अपना रहे थे;की ओर पलायन कर गयी.स्थिति इतनी बद-से-बदतर होती गयी कि जो बंगाल कभी दूसरे प्रदेशों वालों को नौकरी देने के लिए प्रसिद्ध था अब उसकी बेटी-बहुएँ दिल्ली आदि महानगरों में बर्तन मांजने का काम करने लगीं.
           मित्रों,हालाँकि वहां ममता को लम्बे संघर्ष के बाद सत्ता मिल गयी है परन्तु यह ताज वास्तव में फूलों से नहीं काटों से भरा ताज है.जिस तरह उन्होंने अल्पकालिक राजनैतिक लाभ के लिए सिंगूर और नंदीग्राम में भूमि-अधिग्रहण और वृहत उद्योग स्थापना का विरोध किया अब वैसी ही स्थिति उनके समक्ष भी आ सकती है.उनका किया खुद उनके लिए ही परेशानियाँ पैदा कर सकता है.नए उद्योग जमीन पर ही लगेंगे आसमान में नहीं.फिर अब तक जो असामाजिक तत्व साम्यवादियों के साथ थे उन्होंने भी पाला बदल लिया है और ममता की ठंडी छाँव में आ गए हैं;उन्हें नियंत्रण में रखना भी उनके लिए काफी मुश्किल होनेवाला है.जिस तरह की अकर्मण्यता उन्होंने रेल मंत्रालय चलाने में दिखाई है अब उन्हें उससे भी ऊपर उठना होगा अन्यथा जनता एक झटके में उन्हें फिर से विपक्ष में पहुंचा सकती है.वैसे भी जनता ३४ साल के शासन को ५ सालों में भूलनेवाली नहीं है.ममता का रवैय्या भी साम्यवादियों वाला ही है तानाशाहीपूर्ण.इससे भी नहीं लगता कि बंगाल में सत्ता बदल जाने से व्यवस्था भी बदल जाएगी.ममता बनर्जी मन-मिजाज और चाल-ढाल से कम्युनिस्ट हैं और नीतिगत तौर पर कॉंग्रेसी;जिसकी सरकार के वे केंद्र में हिस्सा भी हैं.
           मित्रों,सुदूर दक्षिणी प्रदेश तमिलनाडु में शुरू से ही क्रमिक परिवर्तनवाला प्रदेश रहा है.वहां प्रत्येक चुनाव में सत्ता बदल जाती रही है.वहां इस बार भी मुकाबला पिछली बार की ही तरह जयललिता और करूणानिधि के बीच था.अन्य चारों राज्यों की ही तरह वहां भी धड़ल्ले से मतदाताओं के बीच पैसों और महंगी वस्तुओं का वितरण किया गया.पहले जहाँ सिर्फ जयललिता भ्रष्ट मानी जाती थी इस बार जनता के भ्रष्टाचार-प्रिय वर्ग के समक्ष एक विकल्प और बढ़ गया और पूरा करूणानिधि परिवार २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जद में आ गया.परिवार में से कोई जेल जा चुका है तो कोई बेचैनी से अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा है.इस प्रकार वहाँ एक महाभ्रष्ट जयललिता ने जनता की मजबूरी का फायदा उठाकर दूसरे करूणानिधि को बाहर का रास्ता दिखा दिया है.
           मित्रों,पांडिचेरी एक छोटा-सा केंद्र-शासित प्रदेश है और वहां की हवा तमिलनाडु के हिसाब से बदलती रहती है.इस बार भी वहां यही हुआ और अन्नाद्रमुक ने द्रमुक को शिकस्त दी.
          दोस्तों,केरल ने भी सत्ता को भी पटखनी दी है लेकिन साम्यवादियों की प्रतिष्ठा को बहुत ज्यादा आघात भी नहीं दिया है.वहां दोनों कांग्रेस और साम्यवादी लगभग बराबरी पर हैं.केरल के साम्यवादियों ने कभी जड़ श्रमिक आन्दोलनों और कानूनों का दुरुपयोग कर राज्य के औद्योगिकीकरण में बाधा नहीं डाली.साथ ही वहां भी तमिलनाडु की ही तरह लगातार सत्ता बदलती रही है.चूंकि वहां कांग्रस और साम्यवादियों में कोई नीतिगत अंतर नहीं है इसलिए सत्ता के बालने से वहां के जनजीवन में कोई अंतर नहीं आनेवाला.
              मित्रों,असम में दुर्भाग्यवश फिर से कांग्रेस जीत गयी है.वहां पूरा शासन-प्रशासन उग्रवादियों और भ्रष्टाचारियों की गिरफ्त में है;जो विकल्प था वह भी दूसरे प्रकार का नहीं था.फिर भी अगर सत्ता में बदलाव आता तो बेहतर होता.तब सत्ता बदलने से आनेवाला आवश्यक बदलाव भले ही कम महत्वपूर्ण होता लेकिन शासन-प्रशासन की जड़ता को कुछ तो कम करता ही.अब पहले की ही तरह केंद्र राज्य को विकास के नाम पर धड़ल्ले से पैसे देगा और वह पैसा पहुँच जाएगा भारत विरोधी उग्रवादियों के हाथों में.यह एक कटु सत्य है कि पूरे पूर्वोत्तर में जिलाधिकारी तक को उग्रवादियों को रंगदारी टैक्स देना पड़ता है.
                     मित्रों,इस प्रकार पाँचों राज्यों के चुनाव-परिणामों का संक्षिप्त विश्लेषण करते हुए हमने पाया कि पाँचों राज्यों में नीतिगत तौर पर जीतनेवाला और हारनेवाला दोनों एक ही था;जित देखूं तित तूं.जनता के सामने जो विकल्प थे उसे उसी में से एक को चुनना था.उसे चुनना था दो महाभ्रष्टाचारियों में से एक को;उसे चुनना था दो तानाशाहों में से एक को.अब तक उसे नकारात्मक मतदान का विकल्प दिया नहीं गया है.ऐसी स्थिति में माना जाना चाहिए कि इन चुनावों से एक बार फिर सिर्फ सत्ता बदली है,व्यवस्था नहीं.वह ऐसे धनबल और पशुबल के भोंडा प्रदर्शन वाले चुनावों द्वारा बदल भी नहीं सकती.इसके लिए तो जनता को सड़कों पर संघर्ष करना पड़ेगा;फिर से राष्ट्रव्यापी अहिंसक आन्दोलन खड़ा करना पड़ेगा.ऐसे हालात बन भी रहे हैं.कुछ अच्छे लोग नेतृत्व देने को भी तैयार हैं परन्तु क्या हम भारत की जनता कटिबद्ध हैं उनके पीछे चलकर पूरी व्यवस्था को बदल देने के लिए?

सोमवार, 9 मई 2011

हिटलर की अवतार मायावती

noton kii mala

मित्रों,जब हिटलर को मरे कई साल बीत गए तब उसकी शासन-प्रणाली पर आदत से लाचार भाई लोगों ने शोध करना शुरू किया.अब तक बेचारे नाख़ून क्यों बढ़ते है,हजामत का पैसा कैसे बचाया जाए;जैसे बेकार के विषयों पर शोध करते चले आ रहे थे.हिटलर का शासन नया विषय तो था ही रोमांचक भी था.लेकिन हर किसी के पास पैसा होता कहाँ है जो जर्मनी की अध्ययन-यात्रा कर सके और हर किसी की सत्ता तक पहुँच भी नहीं होती जिससे सरकारी पैसों पर बर्लिन में बैठकर गुलछर्रे उड़ा सके.मैं बचपन से ही सुनता आ रहा था कि ईश्वर बड़ा दयालु है.अब विश्वास भी करने लगा हूँ.क्यों न करूँ विश्वास?अगर वह दयालु नहीं होता तो गरीब शोधार्थियों पर कृपा करके भारत में हिटलर का अवतरण नहीं करवाता.आप सोंच रहे होंगे कि वर्तमान भारत के किस महामानव को स्वनामधन्य हिटलर का अवतारी होने का सौभाग्य प्राप्त है तो इसके लिए दिमाग के न्यूरोन्स पर ज्यादा दबाव डालने की जरुरत बिलकुल भी नहीं है.हिटलर का भारतीय संस्करण होने का सौभाग्य किसी और को नहीं मिला है;मिल भी नहीं सकता.वे महामहिला हैं बहुजनवाद से सर्वजनवाद तक सारे वादों की तेज राजनैतिक यात्रा करनेवाली माननीया मायावती.
                  मित्रों,मायावती भी हिटलर की तरह जनमत के कन्धों पर सवार होकर मुख्यमंत्री बनी हैं.हमारे सभी नेता कुर्सी का दुरुपयोग करते हैं लेकिन इस मामले में सबसे आगे हैं बहन मायावती.उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के सभी कार्यालयों को वसूली केंद्र बना दिया है.बिना घूस दिए आप दफ्तरों में कोई वाजिब काम भी नहीं करवा सकते.यू.पी. सरकार का ऐसा कोई अधिकारी नहीं जो बहनजी के एजेंटों को रंगदारी देने से मना करने के बाद जीवित रह गया हो.आपने अभी-अभी देखा होगा कि यू.पी. सरकार के एक ईन्जीनियर मनोज गुप्ता का ऐसी जुर्रत करने पर क्या हस्र हुआ?अगर आप यू.पी. के हैं और आपकी बेईमानीवाली फ़ाइल किसी ईमानदार अधिकारी के टेबल पर जाकर अटक गयी है तो परेशां होने की बिलकुल भी जरुरत नहीं है.बस इंतजार करिए और मायावतीजी को वोट देते रहिए.निश्चित रूप से यू.पी. सरकार में नौकरी करनेवाले ईमानदारी के सारे नुमाइंदे एक-न-दिन मारे जाएँगे इसी तरह धीरे-धीरे;साल के मध्य में अगर कोई बच भी गया तो बहनजी के जन्मदिन पर तो मरेगा ही मरेगा.दरअसल जन्मदिन के निकट आने पर मायावतीजी की पैसों की भूख बढ़ जाती है बहुत ज्यादा;कुम्भकर्ण से भी ज्यादा.कभी-कभी तो दलितों की यह मसीहा,लोकतंत्र की यह देवी पैसों की माला भी पहनती हैं वो भी पूरी दुनिया को दिखा कर.बाल-बच्चेदार नेता तो देश को लूटते हैं अपने उत्तराधिकारियों के लिए यह कुंवारी कन्या क्यों धन जमा कर रही है यह भी शोध का अच्छा विषय हो सकता है.
               मित्रों,भारतीय गणतंत्र के सभी राज्यों को संविधान की नौवीं अनुसूची और प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा यह अधिकार प्राप्त है कि राज्य सरकार जब चाहे जनहित में किसी की भी जमीन का अधिग्रहण कर सकती है.यह अधिकार अपरिमित है और इसे न्यायालय में चुनौती भी नहीं दी जा सकती.सौभाग्यवश आज तक सारी राज्य सरकारें इसका उपयोग सिर्फ जनहित में करती आ रही थी.बहनजी की बड़ी-सी खोपड़िया में यह आईडिया सबसे पहले आया कि इस अधिकार का दुरुपयोग कर अगर कृषि-योग्य भूमि को बिल्डरों के हाथों में सौंप दिया जाए तो बहुत सारा माल बनाया जा सकता है.सो लगा दी बुद्धि और छीन ली नोयडा से आगरा तक सड़क किनारे बसे सभी किसानों की जमीन कौड़ियों के सरकारी दाम पर और दे दिया जे.पी. कंपनी को बाजार भाव पर बेचने के लिए.कहना न होगा कि बढती जनसँख्या के चलते इस समय रियल स्टेट क्षेत्र सबसे ज्यादा फायदा पहुँचाने वाला क्षेत्र बन चुका है.अब दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी पैसा कमाने के लिए इस फ़ॉर्मूले का उपयोग करते हैं या नहीं यह तो समय ही बताएगा.इस महाघमंडी नेता को जनता की रत्ती-भर भी चिंता नहीं है.यह सरकारी दाम पर अधिग्रहण का विरोध करने पर किसानों पर गोलियां चलवा देती हैं;घरों और खेतों को जलवा देती है.यहाँ तक कि इसके पुलिसवाले घायल किसानों की तस्वीर लेने की कोशिश करने पर बी.बी.सी. रिपोर्टर राजेश जोशी पर भी राईफल तान देते हैं.यानि यह माया के पीछे भागनेवाली स्वनामधन्य देवी सत्ता के बल पर किसानों से जीने का अधिकार तो छीन ही रही है;पत्रकारों की अभिव्यक्ति के अधिकार का भी इसके मन में कोई सम्मान नहीं.
          मित्रों,मैंने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि एक बार किसी राज्य की रानी नदी किनारे स्नान करने जाती है.जाड़े का समय रहता है इसलिए खुले में नहाने के चलते थर-थर कांपने लगती है.वह बिना कुछ सोंचे-विचारे अपने अंगरक्षकों को नदी किनारे स्थित झोपड़ियों में आग लगाने का आदेश देती है और उसके ताप से अपने को सेंकती है.जब राजा को इस घटना के बारे में पता चलता है तो वह आगबबूला हो जाता है और दंडस्वरूप रानी को झोपड़ियों के निर्माण में श्रम करने की आज्ञा देता है.इस कहानी में तो रानी को नियंत्रित करने के लिए एक राजा था लेकिन इस लोकतंत्र की बेलगाम देवी को कौन दंड देगा?प्रजातंत्र में राजा तो होता ही नहीं और प्रजा अगर इतनी ही समझदार होती तो इसे कुर्सी पर बिठाती ही क्यों?उधर केंद्र सरकार भी जानबूझकर कुछ न देख पाने का बहाना कर रही है;न तो भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित संवैधानिक धाराओं में ही संशोधन कर रही है और न ही उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन ही लगा रही है.वह ऐसा कर भी कैसे सकती है?उसकी सरकार को समय-समय पर बचाने में यह जालिम मदद जो करती रही है.अभी पी.ए.सी. रिपोर्ट मामले में भी तो बसपा ने केंद्र की भ्रष्टतम सरकार का साथ दिया.ऐसे में उत्तर प्रदेश के लोगों को इस अत्याचारी से सिर्फ नारायण ही बचा सकते हैं.हाँ,जो भाई अर्थाभाव के कारण जर्मनी जाकर हिटलर के शासन और उसके शासन में जनता की स्थिति का अध्ययन कर सकने में असमर्थ हैं वे निश्चित रूप से एक बार यथाशीघ्र उत्तर प्रदेश की शोध-यात्रा कर लें;यक़ीनन उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा.

रविवार, 8 मई 2011

घघ्घो रानी कितना पानी

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घघ्घो रानी कितना पानी?इतना;नहीं इतना.मित्रों,एक समय था जब बिहार के गांवों के बच्चे काल्पनिक नदी के पानी की थाह लगानेवाला यह खेल खूब खेला करते थे.तब बिहार में बरसात भी खूब हुआ करती थी.गांवों में कुओं-तालाबों की भी कोई कमी नहीं थी.
         मित्रों,फिर समय आया जब आजादी के बाद वैज्ञानिक कृषि के नाम पर चारों तरफ बोरिंग गाड़े जाने लगे और कुएँ-तालाबों को भरने का काम शुरू हुआ.फिर भी स्थिति नियंत्रण में थी क्योंकि अब भी इन्द्रदेव मेहरबान बने हुए थे और पाताल का पानी प्राकृतिक रूप से ही रिचार्ज हो जा रहा था.
          मित्रों,एक समय यह भी है जो अभी हमारे साथ-साथ गुजर रहा है.पिछले दो सालों से बिहार की प्यासी धरती बरसात की एक-एक बूँद के लिए तरस रही है.कुएँ-तालाब जैसे पारंपरिक जलस्रोत जैसा कि मैंने ऊपर बताया है कि कबके इतिहास का विषय बन चुके हैं.लगातार पाताल से पानी खींचने के चलते जलस्तर में तेजी से कमी आ रही है.पिछले २ सालों में लगभग पूरे बिहार में भूमिगत जल के स्तर में १० से २० फीट की कमी आई है.हुआ तो ऐसा भी है कि जिन लोगों ने पिछले साल बोरिंग करवाई इस साल उन्हें पाईप को और धंसवाना पड़ा.दोनों तरह के सरकारी चापाकल यानि एक तो वे जिनमें निर्धारित लम्बाई का पाईप सचमुच में गाड़ा गया है और दूसरे वे जिनको निर्धारित लम्बाई से कम पाईप लगाकर ही चालू कर दिया गया (बांकी का पाईप अधिकारी गटक गए);सूखने लगे हैं या फिर बहुत कम पानी दे रहे हैं.
             मित्रों,बिहार के २० से भी अधिक जिलों में बड़े-बड़े वृक्ष तक सूख रहे हैं.बिहार का तीव्र गति से राजस्थानीकरण हो रहा है.लेकिन बिहार और राजस्थान में बहुत अंतर है.बिहार की आबादी बहुत घनी है.साथ ही यहाँ की अर्थव्यवस्था भी कृषि-आधारित है.सोंचिए स्थिति कितनी खतरनाक हो सकती है?जब पीने के पानी की ही किल्लत होने लगी है तब फिर खेती के लिए पानी कहाँ से आएगा?उधर बिहार की नदियों में भी पानी नहीं है.आप चाहें तो कहीं-कहीं भारत की सबसे बड़ी नदी गंगा को भी बिना तैरे पार कर सकते हैं.नदियों में पानी भी नहीं है और नहर-प्रणाली भी कुछेक जिलों को छोड़कर ध्वस्त है.सरकारी नलकूप पहले से ही बंद हैं और दो-चार चालू हैं भी तो भूमिगत जलस्तर भागने के प्रभाव से अछूते नहीं हैं.
              मित्रों,दक्षिण बिहार के कई जिलों में तो स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि गरीब गांववाले गड्ढों का गन्दा पानी पीने को विवश हो रहे हैं और जिनके पास पैसा है वे बोतलबंद पानी पीकर दिन काट रहे हैं और पानी का बाजारीकरण करनेवाली कम्पनियों को लाभ पहुंचा रहे हैं.आप सोंच रहे होंगे कि मैंने राज्य सरकार का तो जिक्र किया ही नहीं.क्या बिहार में इस समय सरकार नहीं है?है भाई है;सरकार है और खूब घोषणाएं करनेवाली सरकार है.
            मित्रों,घोषणावीर बाबू की सरकार अपनी आदत के अनुसार इस साल भी;इस आपदा के समय भी देर से जागी है.जो काम मार्च में ही शुरू हो जाना चाहिए था;अब उसकी घोषणा होनी शुरू हुई है.सरकार ने कहा है कि जिस गाँव में भी पानी की किल्लत है वहां के लोग निर्दिष्ट नंबर पर फोन करके पानी का टैंकर मंगवा सकते हैं.लेकिन सरकार के पास इतने टैंकर हैं ही कहाँ?इतनी देरी से टैंकर के लिए निविदा भी आमंत्रित की गयी है कि जब तक प्रक्रिया पूरी होगी गर्मी का मौसम जा चुका होगा.यानि तब जागे जब अंधेरा.हमारी सरकार नदियों को जोड़ने की बात कर रही है लेकिन अगर ऐसा हो भी गया तो इसका लाभ हम तभी प्राप्त कर पाएँगे जब हमारी नहर-प्रणाली दुरुस्त होगी.हमारी लगभग सारी नहरें गाद भरने की समस्या के चलते दशकों पहले ही निष्प्रभावी हो चुकी हैं;पहले तो उन्हें दुरुस्त करना होगा.साथ ही करना होगा पारंपरिक जल-संग्रहण प्रणाली का पुनरुद्धार.इसके अलावा सरकार को रियल स्टेट क्षेत्र द्वारा ६ ईंच या इससे मोटी बोरिंग धंसाने पर रोक लगानी होगी.तब जाकर बिहार के बच्चे फिर से खेल पाएँगे घघ्घो रानी कितना पानी का वास्तविक खेल असली पानी में.

शुक्रवार, 6 मई 2011

काहे को भेजे विदेश

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आज सुबह जब मैं जगा तो पड़ोसी की लड़की की विदाई हो रही थी.मैं पाषाण-ह्रदय हूँ.मेरी आँखें रोना नहीं जानतीं.फिर भी आँखें गीली हो गईं और याद आने लगी दीदी और उसकी विदाई.दीदी की शादी को २४ साल हो चुके हैं.अब उसके बच्चे शादी-योग्य हो चुके हैं लेकिन वो पिछले २४ सालों से हमारे घर में नहीं होते हुए भी हर पल हमारे साथ है.कोई कुछ भी करता है तो जुबान हठात कह उठती है कि दीदी यहाँ होती तो यह करती,वह करती,ऐसा कहती;वैसा कहती.
      जब मैं चलने लगा और कुछ-कुछ समझ विकसित होने लगी तब मैंने खुद को दीदी की गोद में पाया.दीदी मुझसे उम्र में १२ साल बड़ी है.वह दूध-रोटी कटोरे में ले लेती और घर के पिछवाड़े में स्थित कटहल के विशाल पेड़ के नीचे ले जाती.चाँद आसमान में पूरी तरुणाई में चमकता रहता.मैं दूध-रोटी खाने में बहुत नानुकुर करता;तब वह मुझे डराती;खा लो नहीं तो चाँद खा जाएगा.एक कौर मैं खाता और एक कौर वह खाती.
             फिर जब मैं स्कूल जाने लगा तब वह मेरे लम्बे-लम्बे बालों को संवारती और रिबन व रूमाल लगाकर सिख बच्चों की तरह बांध देती.उस समय मैं कपड़ों को लेकर बिलकुल ही बेपरवाह था.बरसात में जब घर लौटता तब मेरे कपड़े कीचड़ और काई से सने होते लेकिन दीदी ने कभी मुझे इसके लिए मीठी झिड़की तक नहीं सुनाई.हमेशा उसके ह्रदय में मेरे लिए स्नेह का अजस्र स्रोत बहता रहता.मुझे उसकी गोद और साथ हमेशा अच्छा लगता सिर्फ नहाने के समय को छोड़कर.दीदी घर के पिछवाड़े वाले कुएँ पर मुझे स्नान कराती,रगड़-रगड़ कर.इस प्रक्रिया में कम-से-कम १ घंटा लगता था.एक तो मैं ज्यादा समय लगने के कारण उब जाता तो वहीं दूसरी तरफ मुझे उस समय न जाने क्यूं ठण्ड भी बहुत लगती थी.मैं कई-कई दिनों तक बिना स्नान किये रह जाता;यहाँ तक कि गर्मियों में भी.बाद में जब मैं सरपट दौड़ने लगा तो कभी-कभी अवसर देखकर नंग-धड़ंग खेतों में भाग जाता.पहले कुछ देर तो सोंचता कि घर छोड़कर ही भाग लिया जाए.उस समय गाँव में बच्चों के भागने की घटनाएँ बहुत घट रही थीं.फिर कहीं बीच खेत में बैठ जाता और इन्तजार करता रहता कि कब कानों में दीदी के पुकारने की आवाज सुनाई दे.तब तक भूख भी लग चुकी होती थी.
              दीदी मेरे टिफिन में कुछ ज्यादा ही रोटियाँ रख देती और जब मैं स्कूल से लौटकर आता तो देखती कि कुछ बचा भी है क्या.वह टिफिन में बचे मेरे जूठन को इतना मगन होकर खाती कि मैं बस देखता ही रह जाता.उसके हाथों में मानों जादू था.उसके हाथों का बना पराठा-भुजिया इतना स्वादिष्ट होता कि उसकी शादी के २४ साल बाद आज तक मैं उस स्वाद की तलाश में हूँ.जब मैं बच्चा था तो बड़ा सीधा था.कई बार मेरे हमउम्र बच्चों ने मेरी बेवजह पिटाई की.मैं रोता हुआ जब घर आता तब दीदी उस बच्चे को कुछ कहने के बजाए उल्टे मुझे ही पीटती.फिर तो डर के मारे मैंने उसे बताना ही छोड़ दिया और जिससे भी निबटना होता;घटनास्थल पर ही निबट लेता.मैं हमेशा उससे छुट्टियों के दिनों में कहाँ-कहाँ भटका छिपाने की कोशिश करता लेकिन न जाने उसे कैसे पहले से ही सबकुछ पता होता.जब भी मैं बीमार हो जाता दीदी परेशान हो जाती.दिन-रात मेरे पास ही बैठी रहती और बैठे-बैठे ही सो जाती.
      मैंने कभी सोंचा भी नहीं था कि मेरी दीदी एक दिन हमें छोड़कर ससुराल चली जाएगी.उसकी शादी के समय मेरा किशोर मन चमक-दमक में खोया रहा.तब मैं सातवीं में पढ़ता था.लेकिन जब वह डोली में बैठने लगी तब जैसे मुझ पर वज्रपात ही हो गया.मैं दीदी की डोली के साथ-साथ दौड़ रहा था,दहाड़ें मारता.उधर दीदी भी रो रही थी और बार-बार मेरा नाम पुकार रही थी.लेकिन इसका कोई लाभ नहीं.गाँव के सिमाने तक जाकर मेरे पांव थम गए और डोली धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गयी.उसके बाद कई दिनों तक घर मानो काटने को दौड़ता.मैं कई दिनों तक रोता रहा,बस रोता रहा.फिर मैं इंतजार करने लगा कि कब दीदी वापस आएगी.आज भी मेरे लिए सर्वाधिक ख़ुशी के दिन वही होते हैं जब दीदी ससुराल से हमारे घर आती है.आज भी वापसी के समय उसकी आँखें गीली हो जाती हैं लेकिन मेरी नहीं होती.अब मैं बड़ा जो हो गया हूँ,बहुत बड़ा.

बुधवार, 4 मई 2011

लोहा गरम है चोट करे भारत

krishna


मित्रों,अगर आप वर्तमान सरकार की पाकिस्तान नीति पर नजर डालें तो आप उस पर बिना हँसे नहीं रह सकेंगे.आप चाहें तो अपना सिर भी पीट सकते हैं लेकिन वह निश्चित रूप से आपके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं रहेगा.जब दुनिया २६/११ के बाद पाक समर्थित आतंकवाद के मुद्दे पर भारत की आपबीती सुनने को तैयार नहीं थी तब तो हमने खूब शोर मचाया और आज जब भारत का सबसे बड़ा दुश्मन पाकिस्तान उसकी सरजमीं पर दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी लादेन की बरामदगी और मौत के बाद पूरी दुनिया के सीधे निशाने पर है तब पाक समर्थित आतंकवाद का सबसे बड़ा और बुरा शिकार भारत;उसके प्रति नरमी बरत रहा है.
              मित्रों,भारत सरकार इस समय पाकिस्तान के प्रति अजीबोगरीब नरम-गरम खेल खेल रही है.एक तरफ उसके गृह मंत्री पी.चिदंबरम जिन पर आतंरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी है मुखर हैं वहीं विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा आश्चर्यजनक तरीके से चुप हैं.क्या उन्हें पता नहीं है कि वे किस विभाग के मंत्री हैं और उन्हें क्या करना होता है?अगर यह सच भी हो तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए क्योंकि ये वही महाशय हैं जो कुछ महीने पहले ही संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने बदले पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढने लगे थे.प्रधानमंत्री जो खुद भी शाहे बेखबर हैं या दिखते हैं;ने एकदम अपनी बिरादरी के व्यक्ति को ही विदेश मंत्री बनाया है.
             मित्रों,भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी को मुगालते में रहने की पुरानी आदत है.शायद ये लोग यह समझ रहे हैं कि आतंकवादी ओसामा को ओसामाजी कहने से या पाकिस्तान के प्रति इस समय नरमी बरतने से मुस्लिम समाज खुश होगा.यह मुगालता भी तब है जबकि भारतभर के सभी मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने एक स्वर में भारत सरकार से वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए पाकिस्तान के प्रति कठोर रवैय्या अपनाने का अनुरोध किया है.क्या आपको पता है कि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह से खूंखार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन का क्या रिश्ता था जिसके चलते वे उसे कैमरे के सामने ओसामाजी कहते और उसके अंतिम संस्कार करने के तरीके पर प्रश्न-चिन्ह लगाते फिर रहे हैं?क्या वह उनका बहनोई था या समधी था?ऐसा होने की जब दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है तो शायद दोनों के बीच मित्रता जैसा कोई अन्तरंग सम्बन्ध हो?
           मित्रों,हमारे गाँव में कहावत है कि चोट तभी करनी चाहिए जब लोहा गरम हो;जब लोहा ठंडा पड़ जाता है तब उस पर हथौड़ा मारने से कोई फायदा नहीं होता.अभी जब पूरी दुनिया पाकिस्तान से आतंकवाद के प्रति उसके दोहरे रवैय्ये पर कैफियत मांग रही है तब उचित ही नहीं भारत सरकार के लिए एकमात्र करणीय कर्म यही रहेगा कि वह दुनिया के सामने पाकिस्तानी सरकार समर्थित आतंकवाद का मुद्दा और भी जोर-शोर से उठाए.अभी जोर लगाने से संभव है कि पाकिस्तान को आतंकवाद की सभी नर्सरियों को अपनी जमीन पर से उजाड़ना पड़े और भारत को इस समस्या से स्थाई रूप से निदान मिल जाए.अगर भारत सरकार इस समय नरमी बरतती है और दुनिया के सुर में सुर नहीं मिलाती है तो बाद में २६/११ जैसी किसी घटना के घटने के बाद वह किस मुंह से दुनिया को पाकिस्तान पर दबाव डालने के लिए कहेगी?
           मित्रों,इतिहास की पुस्तकों के काले पन्ने इस बात के साक्षी हैं कि पाकिस्तान ने न तो कभी भारत को अपना मित्र माना है और न ही आगे कभी मानने ही वाला है;इसलिए हमें शठं शठे समाचरेत की नीति अपनाते हुए ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुए इस सुअवसर को भुनाना चाहिए.कहते हैं कि अवसर के सिर में सिर्फ आगे से ही बाल होते हैं;पीछे से नहीं होते इसलिए जो व्यक्ति मिले हुए अवसर का लाभ समय पर नहीं उठा पाता बाद में उसके पास सिर्फ हाथ मलते रहने के और कोई विकल्प नहीं रह जाता.इसलिए अंत में मैं भारत सरकार से भारत की सवा अरब जनता की ओर से अनुरोध करता हूँ कि वह वोट बैंक की सोंच से ऊपर उठाते हुए अभी नहीं तो कभी नहीं की नीति पर चलते हुए पाकिस्तान को आतंकी ट्रेनिग कैम्पों को नष्ट करने के लिए और अपनी नीतियाँ बदलने के लिए मजबूर करे नहीं तो वह वक्त भी जल्दी ही आ जाएगा जब उसके और उसके निकम्मे मंत्रियों के पास गलतियाँ करने का अधिकार भी नहीं रह जाएगा.आखिर उसे चुनाव तो लड़ना है ही;एक माघ के कट जाने से जाड़ा हमेशा के लिए समाप्त थोड़े ही हो जाता है.   

सोमवार, 2 मई 2011

व्यक्ति नहीं विचारधारा है ओसामा

osama

मित्रों,१० साल के लम्बे संघर्ष के बाद आखिरकार अमेरिका ओसामा बिन लादेन को मारने में सफल हो गया.ओसामा जिस तरह का व्यक्ति था;उसकी मौत पर निश्चित रूप से दुनिया-भर में खुशियाँ मनाई जानी चाहिए.लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ओसामा एक व्यक्ति-मात्र नहीं था बल्कि वह एक विचारधारा था जिसकी जड़ें कोई माने या न माने इस्लाम धर्म के पवित्र ग्रन्थ कुरान शरीफ में है.इसलिए तब तक हम मुसलमानों की सोंच और विचारधारा में मौलिक परिवर्तन नहीं कर देते मुस्लिम आतंकवाद चलता रहेगा.हम एक ओसामा को मारेंगे तो रक्तबीज की तरह उसके रक्त से दस ओसामा पैदा हो जाएँगे.
           मित्रों,ओसामा कोई असमान से टपका हुआ परग्रहीय प्राणी नहीं था.वह भी कभी एक आम इन्सान था,दया और धर्म के रास्ते पर चलने वाला.उसे आतंकवादी बनाया उसी अमेरिका ने जो आज उसकी मौत पर जश्न मना रहा है.उसी अमेरिका ने उसे धन और हथियार उपलब्ध करवाए क्योंकि तब ओसामा और अमेरिका का एक ही दुश्मन था और वह था सोवियत रूस.मैंने संस्कृत में एक कहानी पढ़ी है जिसमें सांप से परेशान एक पक्षी-दम्पति सांप के कोटर से नेवले के कोटर तक मांस के टुकड़े बिछा देता है.नेवला पक्षियों की योजनानुसार सांप को तो मार देता है लेकिन उसके बाद उसकी नजर में आने से पक्षियों का आशियाना नहीं बच पाता और इस तरह उन पक्षियों की गति ताड़ से गिरे और खजूर पर अंटके वाली हो जाती है.कुछ ऐसा ही ओसामा के मामले में अमेरिका के साथ हुआ.
         मित्रों,सोवियत रूस के खिलाफ अमेरिका ने जो षड्यंत्र रचा उसमें पाकिस्तान उसका सामरिक साझेदार था.अमेरिकी धनबल के बल पर पाकिस्तान में जेहादी आतंकवादियों के हजारों ट्रेनिंग कैम्प लगाए गए जिनमें से अधिकतर आज भी मौजूद हैं और उनमें से कई दुर्भाग्यवश भारत के खिलाफ सक्रिय हैं.बाद में स्थितियां बदलीं और अमेरिका को अफगानिस्तान पर हमला करना पड़ा.एक दौड़ में दाँतकटी मित्रता वाले अमेरिका और लादेन एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए.ऐसी स्थिति में महाबली अमेरिका के लिए यह स्वाभाविक था कि वह इस लडाई में पाकिस्तान से सहायता की उम्मीद करे.पाकिस्तान ने अमेरिका की सहायता की ही;उसने ओसामा की भी भागने और छिपने में भरसक मदद की.वह एक साथ दूल्हा और दुल्हन दोनों का चाचा बना रहा.ओसामा मारा भी गया है तो पाकिस्तान की ही धरती पर जिससे पाकिस्तान पर अब भी आतंकियों का पनाहगाह होने का भारत और कुछ अन्य देशों द्वारा लगाए जाने वाले आरोपों की पुष्टि ही होती है.हद तो यह है कि जहाँ ओसामा रह रहा था वह स्थान पाकिस्तानी मिलिटरी अकादमी से मात्र ८०० मीटर दूर था.ऐसे में यह संभव ही नहीं कि वह कहाँ है और क्या कर रहा है;का पता पाकिस्तान सरकार को नहीं हो.
         मित्रों,ओसामा के मारे जाने से अमेरिका को भले ही कोई लाभ हो;मुझे नहीं लगता कि इससे भारत को कोई फायदा होने वाला है.हालाँकि भारत भी अमेरिका की ही तरह पाक समर्थित आतंकवाद का शिकार है लेकिन अमेरिका या कोई भी अन्य देश भारत के लिए पाकिस्तान पर दबाव नहीं डालने वाला.आपने अपने गाँव-समाज में भी देखा होगा कि कोई दूसरा दूसरे की लडाई नहीं लड़ता.ठीक उसी तरह भारत को आतंकवाद के खिलाफ अपनी लडाई खुद ही लडनी पड़ेगी.यह लडाई कूटनीतिक,आर्थिक,राजनीतिक,आन्तरिक प्रत्येक मोर्चे पर लड़नी होगी.जब तक सीमा पार से संचालित आतंकवाद को अपने देश में समर्थन मिलता रहेगा तब तक भारत पर आतंकी हमले होते रहेंगे.इसलिए हमें जेहादी आतंकवाद के भारतीय कनेक्शन को काटना होगा और इसके लिए पुचकार के साथ-साथ कड़े कदम भी उठाने पड़ेंगे.केंद्र सरकार की अल्पसंख्यकवाद की नीति और दिग्विजय सिंह और अमर सिंह की आतंकवादियों को शहीद घोषित करने के प्रयासों से जेहादी आतंकवाद को समाप्त करने में कोई मदद नहीं मिलेगी.बल्कि मदद मिलेगी मुसलमानों के उदार धड़े के नेताओं को बढ़ावा देने से और छोटे-छोटे मासूम मुसलमान बच्चों को आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा देने से;सर्वधर्मसमभाव,सहिष्णुता और सहस्तित्व की शिक्षा देने से.मित्रों,कुछ ऐसा ही प्रयास मुस्लिमों के मन से कट्टरपंथ को समाप्त करने के लिए वैश्विक स्तर पर भी करने होंगे.
     मित्रों,मौत व्यक्ति की होती है विचारधारा की नहीं.व्यक्ति के तौर पर ओसामा भले ही मारा गया हो विचारधारा के तौर पर वह जिन्दा है और तब तक जिन्दा रहेगा जब तक मुसलमानों के मन में जेहादी मानसिकता जिंदा रहेगी,जब तक मुसलमान पिछड़े और अनपढ़ रहेंगे.भारत हमेशा से विश्व को संकट की स्थितियों में मार्ग दिखाता रहा है.भारत हमेशा से शांति और अहिंसा का पुजारी रहा है इसलिए सम्राट अशोक जैसी शख्सियत सिर्फ भारत में देखने को मिलती है.बांकी दुनिया में अनगिनत सिकंदर और तैमूर मिलते हैं पर अशोक एक भी नहीं मिलता.हम भारतवासी जानते हैं और मानते भी हैं कि चाहे रास्ते कितने भी अलग-अलग क्यों न हों सभी सम्प्रदायों की मंजिल एक हैं;इस दुनिया को बनानेवाला दो नहीं एक है.बांकी दुनिया भी जिस दिन इस सार्वभौम सत्य को तहे दिल से स्वीकार कर लेगी उसी दिन दुनिया से साम्प्रदायिकता और इससे उत्पन्न होने वाली सभी प्रकार की हिंसा समाप्त हो जाएगी.लेकिन क्या ऐसा हो सकेगा?क्या अमेरिका और दुनिया के अन्य नीति-निर्धारक देश ऐसा होने देंगे?क्या वे अपने फायदे के लिए आगे कोई और ओसामा पैदा नहीं करेंगे?

रविवार, 1 मई 2011

अनगिनत घूंघटों वाला चेहरा

congress party

मित्रों,पिछले दिनों अन्ना एंड फ्रेंड्स के ऊपर उन्हें बदनाम करने की नियत से जब कांग्रेस के बडबोले नेताओं ने आरोपों के सच्चे-झूठे गोले दागने शुरू कर दिया और जवाब में अन्ना ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी को पत्र लिखकर इसकी शिकायत की और सोनिया गाँधी ने पत्रोत्तर में मजबूरी दिखाई कि उनका उनकी ही पार्टी के अस्तित्वहीन नेताओं द्वारा लगाए जा रहे आरोपों से कुछ भी लेना-देना नहीं है,तब देश की बहुसंख्यक जनता को उनकी सफाई पर बिलकुल भी यकीन नहीं हुआ.आखिर वन मैन,वन फैमिली पार्टी में ऐसा कैसे संभव है कि बिना सोनिया-राहुल के इशारे और अनुमति के पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की ओर से इतना बड़ा अभियान चलाया जाए?
      मित्रों,इस समय कांग्रेस नेतृत्व डबल या ट्रिपल नहीं बल्कि कई-कई दर्जन भूमिकाओं वाला किरदार निभाने में लगी है.अद्भूत बात तो यह है कि वह अपने प्रत्येक किरदार का ठीक विपरीत किरदार भी एक ही साथ;एक ही दृश्य में निभाता हुआ नजर आ रहा है.इतनी विविधता तो एक ही फिल्म नौ दिन ओर नौ रातें में ९ रोल निभानेवाले संजीव कुमार के अभिनय में भी नहीं थी.उसका पहला रोल तो वह है जिसमें वह प्रधानमंत्री पद का त्याग करके त्याग की प्रतिमूर्ति बन जाता है.दूसरा रोल वह है जिसमें वह केंद्र की सरकार को बचाने के लिए सांसदों को घूस देने और भ्रष्ट लोगों को मंत्री बनाने से भी परहेज नहीं करता.हद तो तब हो जाती है जब उसका प्रधानमंत्री पहले तो अपने भ्रष्ट मंत्री को पाक-साफ साबित करने के लिए अपनी कथित क्लीन-मैन वाली छवि को दांव पर लगा देता है;लेकिन जब मंत्री न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद जेल चला जाता है;तब वह गठबंधन सरकार की मजबूरी का रोना रोने लगता है.
     मित्रों,कांग्रेस नेतृत्व का तीसरा चेहरा वह है जिसके द्वारा वह भ्रष्टाचार को कतई बर्दाश्त नहीं करने की बात करता है और इसके ठीक विपरीत उसका चौथा चेहरा वह है जिसके द्वारा वह भ्रष्टाचार रोकने के लिए काम करने वाली सबसे बड़ी सरकारी एजेंसी केंद्रीय सतर्कता आयोग के मुखिया के पद पर विपक्ष की नेता के घोर प्रतिरोध के बावजूद एक अति-भ्रष्ट अफसरशाह को बैठा देता है.कांग्रेस नेतृत्व का पांचवां किरदार वह है जिसमें वह महंगाई कम करने के लिए लगातार तारीखों की घोषणा करता रहता है और छठे किरदार में इसके ठीक विपरीत उसकी सरकार का वित्त मंत्री ऐसा बजट पेश करता है जो महंगाई की आग में घी का नहीं बल्कि सीधे किरासन तेल का काम करता है.
        मित्रों,उसका सातवाँ रोल है केंद्रीय मंत्रिमंडल जिसमें आप घोर भ्रष्ट और कथित ईमानदार लोगों को एक साथ काम करता हुआ देख सकते हैं.उसका आठवां चेहरा घोर धर्मनिरपेक्ष (सही शब्द पंथनिरपेक्ष है) है जिसके जरिए वह सर्वधर्मसमभाव की बातें करता है और ठीक इसके विपरीत उसका नौवां चेहरा है अति-सांप्रदायिक जिसके माध्यम से वह देश को एक और विभाजन की ओर धकेल रहा है.उसका दसवां चेहरा है उसकी विरोधाभासी और देशविरोधी विदेश नीति.वह मुंबई हमलों के समय स्पष्ट घोषणा करता है कि इस बार पाकिस्तान को आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करनी ही पड़ेगी और जब तक पाकिस्तान ऐसा नहीं करता है तब तक उसकी सरकार उसके साथ किसी तरह की बातचीत ही नहीं करेगी.लेकिन अचानक ५ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों के एक वर्ग को खुश करने के लिए वह पाकिस्तान के साथ बिना शर्त बातचीत के लिए उतावला हो उठता है.
              मित्रों,अब आते हैं कांग्रेस नेतृत्व के उस चेहरे पर,उस बात पर जिससे हमने इस लेख की शुरुआत की थी यानि भारत की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम उठाने के मामले में कांग्रेस नेतृत्व की कथनी और करनी में अंतर पर.सबसे पहले राष्ट्रमंडल खेल घोटाले की बात करते हैं.अभी-अभी आपने देखा,सुना और पढ़ा होगा कि घोटाले में शामिल कई अधिकारी सरकारी वाच डॉग (या कुत्ता) सी.बी.आई. द्वारा समय पर चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाने के कारण जेल से बाहर आ गए.मतलब साफ़ है कि इस मामले में जो भी गिरफ़्तारी की गयी थी;दिखावा मात्र थी.खेल अधिकारियों की रिहाई के कल होकर ही सी.बी.आई. घोटाले के कथित मुख्य अभियुक्त सुरेश कलमाड़ी को गिरफ्तार करती है.टाईमिंग पर ध्यान दिया आपने?कलमाड़ी की गिरफ़्तारी के शोर में किस तरह खेल अधिकारियों की रिहाई दबकर रह गयी;देखा आपने?यहाँ मैंने कलमाड़ी को कथित मुख्य अभियुक्त इसलिए कहा क्योंकि जो प्रमाण सामने आ रहे हैं उनके अनुसार इस महाघोटाले में सबसे प्रमुख भूमिका प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की थी,कलमाड़ी बेचारा तो एक छोटा-सा मोहरा था.आपको याद होगा कि जेपीसी का जब तक गठन नहीं हुआ था कांग्रेस नेतृत्व बार-बार यह कहने में लगा हुआ था कि भारत में घोटालों के इतिहास में मील का पत्थर दूरसंचार घोटाले की जाँच करने में पीएसी ही सक्षम है और अब जब पीएसी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी जांच रिपोर्ट सौंपना चाह रहे हैं तब सरकार लेने को ही तैयार नहीं है;उस पर कार्रवाई करने की तो कल्पना करना भी बेकार है.
      मित्रों,वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व के और भी चेहरे हैं.मैं जनता हूँ कि लेख अभी अधूरा है लेकिन इस अकिंचन के सोंचने और लिखने की अपनी सीमा है;जो बहुत-ही छोटी है.आखिर यहाँ मैं वेदव्यास भी हूँ और गणेश भी.एक तरफ कांग्रेस नेतृत्व के चेहरे और किरदार अनंत हैं वहीँ दूसरी तरफ मेरी क्षमता अत्यंत सीमित.कांग्रेस नेतृत्व द्वारा तैयार स्क्रिप्ट,उसका अभिनय,उसके द्वारा तैयार संवाद सभी कुछ लाजवाब हैं;हॉलीवुड से लेकर बालीवुड तक उसकी प्रतिभा का कोई जोड़ नहीं.वो कहते हैं न मिला न जोड़ा रे वसुधा में.भारत की सत्ता पक्ष की राजनीति का रंगमंच भी कांग्रेस नेतृत्व है,अभिनेता-अभिनेत्री भी,स्क्रिप्ट और डायलोग राईटर भी और निर्माता-निर्देशक तो वह है ही.इस मंच पर जो कुछ भी घटित हो रहा है;सब आभासी है,नाटक-मात्र है.
           मित्रों,हिंदी के महान उपन्यासकार अमृत लाल नागर जो चेहरों को पढने में मुझसे कई गुना ज्यादा सक्षम थे,अपने उपन्यास सात घूंघटों वाला चेहरा में नायिका के सात चेहरों को अनावृत करने में ही थक गए थे.कांग्रेस के तो विशालकाय प्याज की तरह अनंत चेहरे हैं.उसके सभी चेहरों का गुणगान तो शायद शेषनाग भी नहीं कर पाएँगे.इसलिए यह जानते हुए कि मेरा यह लेख अधूरा है;मैं अपनी लेखनी को विराम दे रहा हूँ.फिर भी अगर आप पाठकों को लगे कि कांग्रेस नेतृत्व के किसी अतिमहत्वपूर्ण चेहरे या किरदार का जिक्र यहाँ नहीं हो पाया है तो बेझिझक सुझाव दीजिए;उसे इस लेख में निश्चित रूप से शामिल कर लिया जाएगा.यह किसी नेता या राजनैतिक दल का कोरा आश्वासन नहीं है बल्कि एक मित्र से दूसरे मित्र का वादा है.