यह युग चयन की समस्या का युग है.जरुरत होने का नहीं जरुरत पैदा करने का समय है.आप कोई भी सामान खरीदने जाईए सेल्समैन आपके सामने उत्पादों का ढेर लगा देगा और सबमें अलग-अलग विशेषता होगी.क्या ऐसी ही समस्या कमोबेश हमारे मतदाताओं के सामने नहीं है?कमोबेश इसलिए क्योंकि उपभोक्ता के रूप में जो व्यक्ति संतुष्टि नहीं होने पर सारे उत्पादों को एकसाथ नकार दे सकता है मतदाता के रूप में उसके समक्ष यह नकारने का विकल्प नहीं होता.जब संविधान का निर्माण चल रहा था तब शायद हमारे तपोपूत पूर्वजों ने यह सोंचा भी नहीं होगा कि मतदाताओं के समक्ष कभी इस तरह की समस्या भी उत्पन्न होगी और उन्हें सांपनाथ और नागनाथ के बीच में से किसी एक को चुनना होगा.
मित्रों,सबसे पहले बात करते हैं उस राज्य की;उत्सवधर्मिता जिसके खून में है.वहां लगातार रिकार्ड ३४ सालों तक सत्ता में रहने के बाद साम्यवादियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा है.इसलिए उनकी यह हार बेशक महान हार है;शायद जीतने वाले की जीत से भी ज्यादा महान.साम्यवाद ने बंगाल के निवासियों को बराबरी दी लेकिन उनकी समृद्धि नष्ट कर दी;सबको गरीब बना दिया.आज भी कोलकाता गरीबों के लिए सबसे मुफीद शहर है.आप वहां २० रूपये में भरपेट गुणवत्तापूर्ण खाना खा सकते हैं,दस रूपये में पूरे महानगर की सैर कर सकते हैं.लेकिन सैर करते समय आपको वह शहर अपने पुराने वैभव को खोता हुआ-सा दिखेगा.बंद कल-कारखानों,ढहते महलों वाला शहर.कमोबेश ऐसी ही स्थिति राज्य के बाँकी हिस्सों की भी है.दरअसल वहां के साम्यवादियों की स्थिति धीरे-धीरे गाँव के उस जमींदार वाली हो गयी थी जो बदलते समय से सीख नहीं लेने की जिद पर अड़ा है और कहता है कि मैं तो अवर्णों को बराबरी का दर्जा नहीं दूंगा बाँकी गांववालों को देना है तो दें.१९९० के बाद से ही पूरे भारत की स्थिति बदलने लगी.देश के विभिन्न राज्यों के बीच उदार शर्तों पर ज्यादा-से-ज्यादा घरेलू और विदेशी निवेश को आकर्षित करने की होड़ लग गयी लेकिन बंगाल के साम्यवादी अपनी जिद पड़ अड़े रहे कि हमारी शर्तों को जो मानेगा वही बंगाल में उद्योग बिठाएगा या चलाएगा.बाँकी प्रदेशों में अप्रासंगिक हो चुके श्रमिक संगठनों और कानूनों का यहाँ ९० के बाद भी जोर बना रहा.परिणाम यह हुआ कि राज्य में नई पूँजी तो नहीं ही आई पुरानी पूँजी भी दूसरे उन राज्यों;जो उदारवादी रवैय्या अपना रहे थे;की ओर पलायन कर गयी.स्थिति इतनी बद-से-बदतर होती गयी कि जो बंगाल कभी दूसरे प्रदेशों वालों को नौकरी देने के लिए प्रसिद्ध था अब उसकी बेटी-बहुएँ दिल्ली आदि महानगरों में बर्तन मांजने का काम करने लगीं.मित्रों,हालाँकि वहां ममता को लम्बे संघर्ष के बाद सत्ता मिल गयी है परन्तु यह ताज वास्तव में फूलों से नहीं काटों से भरा ताज है.जिस तरह उन्होंने अल्पकालिक राजनैतिक लाभ के लिए सिंगूर और नंदीग्राम में भूमि-अधिग्रहण और वृहत उद्योग स्थापना का विरोध किया अब वैसी ही स्थिति उनके समक्ष भी आ सकती है.उनका किया खुद उनके लिए ही परेशानियाँ पैदा कर सकता है.नए उद्योग जमीन पर ही लगेंगे आसमान में नहीं.फिर अब तक जो असामाजिक तत्व साम्यवादियों के साथ थे उन्होंने भी पाला बदल लिया है और ममता की ठंडी छाँव में आ गए हैं;उन्हें नियंत्रण में रखना भी उनके लिए काफी मुश्किल होनेवाला है.जिस तरह की अकर्मण्यता उन्होंने रेल मंत्रालय चलाने में दिखाई है अब उन्हें उससे भी ऊपर उठना होगा अन्यथा जनता एक झटके में उन्हें फिर से विपक्ष में पहुंचा सकती है.वैसे भी जनता ३४ साल के शासन को ५ सालों में भूलनेवाली नहीं है.ममता का रवैय्या भी साम्यवादियों वाला ही है तानाशाहीपूर्ण.इससे भी नहीं लगता कि बंगाल में सत्ता बदल जाने से व्यवस्था भी बदल जाएगी.ममता बनर्जी मन-मिजाज और चाल-ढाल से कम्युनिस्ट हैं और नीतिगत तौर पर कॉंग्रेसी;जिसकी सरकार के वे केंद्र में हिस्सा भी हैं.
मित्रों,सुदूर दक्षिणी प्रदेश तमिलनाडु में शुरू से ही क्रमिक परिवर्तनवाला प्रदेश रहा है.वहां प्रत्येक चुनाव में सत्ता बदल जाती रही है.वहां इस बार भी मुकाबला पिछली बार की ही तरह जयललिता और करूणानिधि के बीच था.अन्य चारों राज्यों की ही तरह वहां भी धड़ल्ले से मतदाताओं के बीच पैसों और महंगी वस्तुओं का वितरण किया गया.पहले जहाँ सिर्फ जयललिता भ्रष्ट मानी जाती थी इस बार जनता के भ्रष्टाचार-प्रिय वर्ग के समक्ष एक विकल्प और बढ़ गया और पूरा करूणानिधि परिवार २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जद में आ गया.परिवार में से कोई जेल जा चुका है तो कोई बेचैनी से अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा है.इस प्रकार वहाँ एक महाभ्रष्ट जयललिता ने जनता की मजबूरी का फायदा उठाकर दूसरे करूणानिधि को बाहर का रास्ता दिखा दिया है.
मित्रों,पांडिचेरी एक छोटा-सा केंद्र-शासित प्रदेश है और वहां की हवा तमिलनाडु के हिसाब से बदलती रहती है.इस बार भी वहां यही हुआ और अन्नाद्रमुक ने द्रमुक को शिकस्त दी.
दोस्तों,केरल ने भी सत्ता को भी पटखनी दी है लेकिन साम्यवादियों की प्रतिष्ठा को बहुत ज्यादा आघात भी नहीं दिया है.वहां दोनों कांग्रेस और साम्यवादी लगभग बराबरी पर हैं.केरल के साम्यवादियों ने कभी जड़ श्रमिक आन्दोलनों और कानूनों का दुरुपयोग कर राज्य के औद्योगिकीकरण में बाधा नहीं डाली.साथ ही वहां भी तमिलनाडु की ही तरह लगातार सत्ता बदलती रही है.चूंकि वहां कांग्रस और साम्यवादियों में कोई नीतिगत अंतर नहीं है इसलिए सत्ता के बालने से वहां के जनजीवन में कोई अंतर नहीं आनेवाला.
मित्रों,असम में दुर्भाग्यवश फिर से कांग्रेस जीत गयी है.वहां पूरा शासन-प्रशासन उग्रवादियों और भ्रष्टाचारियों की गिरफ्त में है;जो विकल्प था वह भी दूसरे प्रकार का नहीं था.फिर भी अगर सत्ता में बदलाव आता तो बेहतर होता.तब सत्ता बदलने से आनेवाला आवश्यक बदलाव भले ही कम महत्वपूर्ण होता लेकिन शासन-प्रशासन की जड़ता को कुछ तो कम करता ही.अब पहले की ही तरह केंद्र राज्य को विकास के नाम पर धड़ल्ले से पैसे देगा और वह पैसा पहुँच जाएगा भारत विरोधी उग्रवादियों के हाथों में.यह एक कटु सत्य है कि पूरे पूर्वोत्तर में जिलाधिकारी तक को उग्रवादियों को रंगदारी टैक्स देना पड़ता है.
मित्रों,इस प्रकार पाँचों राज्यों के चुनाव-परिणामों का संक्षिप्त विश्लेषण करते हुए हमने पाया कि पाँचों राज्यों में नीतिगत तौर पर जीतनेवाला और हारनेवाला दोनों एक ही था;जित देखूं तित तूं.जनता के सामने जो विकल्प थे उसे उसी में से एक को चुनना था.उसे चुनना था दो महाभ्रष्टाचारियों में से एक को;उसे चुनना था दो तानाशाहों में से एक को.अब तक उसे नकारात्मक मतदान का विकल्प दिया नहीं गया है.ऐसी स्थिति में माना जाना चाहिए कि इन चुनावों से एक बार फिर सिर्फ सत्ता बदली है,व्यवस्था नहीं.वह ऐसे धनबल और पशुबल के भोंडा प्रदर्शन वाले चुनावों द्वारा बदल भी नहीं सकती.इसके लिए तो जनता को सड़कों पर संघर्ष करना पड़ेगा;फिर से राष्ट्रव्यापी अहिंसक आन्दोलन खड़ा करना पड़ेगा.ऐसे हालात बन भी रहे हैं.कुछ अच्छे लोग नेतृत्व देने को भी तैयार हैं परन्तु क्या हम भारत की जनता कटिबद्ध हैं उनके पीछे चलकर पूरी व्यवस्था को बदल देने के लिए?
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