बिहार की ही तरह बिहार लोक सेवा आयोग का इतिहास भी दोनों तरह का रहा है:उज्ज्वल भी और काला भी.समाज में धन के बढ़ते प्रभाव से यह गौरवशाली संस्था भी अछूती नहीं रही है.इसके जीवनकाल में एक समय तो वह भी आया जब बीपीएससी द्वारा ली जानेवाली परीक्षाओं में पास करनेवालों में एक बड़ी संख्या मंत्रियों-विधायकों के नाते-रिश्तेदारों की होती थी.परीक्षाओं में पारदर्शिता का आलम यह था कि रात के अँधेरे में आयोग के स्ट्रौंग-रूम का ताला खुलने लगा.जो परीक्षा प्रत्येक वर्ष होनी चाहिए थी उसका पांच-पांच साल पर होना आम बात हो गयी.
मित्रों,अब आयोग फिर से तीन साल की परीक्षाएं एक साथ ले रहा है.प्रारंभिक परीक्षा सम्पन्न भी हो चुकी है;लेकिन जिस तरह से परीक्षा ली गयी उससे कई प्रश्न खड़े हो गए हैं.जहाँ पहले ली गयी परीक्षाओं में प्रश्न-पत्रों के पैकेट परीक्षा भवन में फाड़े जाते थे और गवाह के तौर पर उम्मीदवारों से हस्ताक्षर करवाया जाता था;इस बार प्रश्न-पत्र बिना पैकेट के थे और केन्द्राधीक्षकों द्वारा वीक्षकों को गिनकर दे दिए गए थे.इतना ही नहीं प्रश्न-पत्रों में सील भी लगा हुआ नहीं था.ऐसा क्यों हुआ,किन परिस्थितियों में हुआ और कैसे हुआ;कुछ कहा नहीं जा सकता है;लेकिन इससे इस परीक्षा की पारदर्शिता तो संशय के घेरे में आ ही जाती है.
मित्रों,इस बार जब परीक्षा-प्रपत्र भरवाया और जमा करवाया जा रहा था तब प्रत्येक उम्मीदवार से अपना पता लिखा दो लिफाफा जिनमें से प्रत्येक पर 25-25 रूपये के डाक टिकट लगे हुए थे;भी जमा करवाया गया था.लेकिन आश्चर्य की बात है कि बाद में आयोग ने अपनी वेबसाइट पर प्रवेश-पत्र डालकर विज्ञापन प्रकाशित करवा दिया कि उम्मीदवार कृपया आयोग की वेबसाइट से अपना प्रवेश-पत्र डाउनलोड कर लें क्योंकि आयोग डाक द्वारा प्रवेश-पत्र भेजने नहीं जा रहा है.जब प्रवेश-पत्र डाक द्वारा भेजना ही नहीं था तब फिर ५० रूपये का डाक-टिकट लगा लिफाफा लिया ही क्यों गया?क्या आयोग को उम्मीदवारों का ५०-५० रूपया लौटा नहीं देना चाहिए?अभी-अभी मैट्रिक की परीक्षा में बिहार में कई विषयों के प्रश्न-पत्र आउट हो गए.परीक्षार्थियों से दोबारा फॉर्म भरने को कहा गया और इसके लिए फिर से फीस की मांग की गयी जबकि प्रश्न-पत्रों के आउट होने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी.बाद में मुद्दा बिहार विधानं-सभा में उठा तब सरकार ने घोषणा की कि परीक्षार्थियों से दोबारा फीस नहीं ली जाएगी.क्या सरकार या आयोग इस मामले में भी पैसा लौटाने के लिए विधान-सभा में मुद्दे के उठाए जाने का इंतजार कर रहे हैं?
मित्रों,कुल मिलाकर इस बदनाम आयोग की स्थिति निजाम के बदलने के ६ साल बाद भी जस-की-तस बनी हुई है.न तो सत्र नियमित हो पा रहा है और न ही प्रश्नों के गलत होने का सिलसिला ही समाप्त हो रहा है.इस बार भी प्रारंभिक परीक्षा में कम-से-कम ४ प्रश्न ऐसे थे जिनका उत्तर विकल्पों में था ही नहीं.प्रश्न उठता है कि अगर आयोग के सभी सदस्य योग्य और विद्वान हैं तब फिर प्रश्न-पत्रों में ऐसी गलती लगातार कैसे हो रही है?प्रश्न-पत्रों का पैकेटों में नहीं होना और सील नहीं होना अगर आयोग में व्याप्त अव्यवस्था का परिचायक नहीं है तो फिर और क्या है?उस पर ५०-५० रूपये का डाक टिकट हड़प जाने के पीछे अगर कोई वित्तीय घोटाला हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.आखिर पहले बिहार घोटालों के लिए ही तो जाना जाता था.अंत में नीतीश कुमार जी से एक प्रश्न कि हे सुशासन बाबू!बिहार लोक सेवा आयोग में जो कुछ भी हो रहा है क्या वह आपके सुशासन की परिभाषा में आता है?अगर हाँ तब तो कोई बात नहीं परन्तु अगर ना तो फिर आप इसका नाम बेकार लोक सेवा आयोग क्यों नहीं कर देते?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें