मित्रों,किसी ने क्या खूब कहा है-’यहाँ किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता;जमीं मिलती है तो आसमां नहीं मिलता.बचपन में शिक्षकों ने हमसे कौन क्या बनना चाहता है;जानने के लिए बहुत-से निबंध लिखवाए.कई बार तो निबंध लिखते समय तक के लिए हमें प्रधानमंत्री तक बना दिया गया और कहा गया कि ‘अगर मैं प्रधानमंत्री होता’ विषय पर निबंध लिखो.परन्तु क्या कुछ बन जाना या हो जाना इतना आसान है?क्या हम जो बनना चाहते हैं वही बन पाते हैं?अगर ऐसा संभव होता तो आज अपने देश भारत में अनगिनत प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं होते?
दोस्तों,आप जानते हैं कि मैं अभी एक स्वतंत्र (सरल शब्दों में बेरोजगार) पत्रकार हूँ.मैं जो कुछ भी हूँ वह हरगिज नहीं बनना चाहता था.सच्चाई तो यह है कि मैं एक आईइएस अधिकारी बनना चाहता था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.एक-एक करके मेरे चारों अवसर समाप्त हो गए और मैं मुख्य परीक्षा से आगे बढ़ ही नहीं पाया.थक-हारकर मुझे पत्रकारिता से एमए करने का निर्णय लेना पड़ा और भगवान की अकृपा से मैं आज एक पत्रकार हूँ.
मित्रों,भले ही इस जन्म में मेरा सपना आईएएस बनने का रहा हो अगले जन्म में मैं हरगिज आईएएस बनना नहीं चाहूँगा.बल्कि अगले जन्म में मैं अंकेक्षक या ऑडिटर बनना चाहूँगा.गजब पेशा है ऑडिटिंग;हर्रे लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा होए.इस व्यवसाय का भविष्य भी काफी उज्ज्वल है.जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में निजी कम्पनियों की भागेदारी बढती जाएगी ऑडिटरों का महत्त्व लगातार बढ़ता ही जाएगा.क्या फर्जीवाड़ा है कि कम्पनी दिवालियेपन की ओर बढ़ रही होती है और ऑडिटर पैसे लेकर लिख देता है कि कंपनी की तो बीसों ऊँगलियाँ घी में है और सिर कड़ाही में.क्या बिडम्बना है कि जिस संस्था का जन्म आर्थिक गड़बड़ियों को रोकने के लिए हुआ वही स्वयं इसे बढ़ावा दे रही है.हू विल गार्ड द गार्ड्स?ऐसा सिर्फ अपने भारत में नहीं हो रहा है बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी निजीकरण का जोर है;हो रहा है.भारत में सत्यम घोटाला और अमेरिका में एनरौन घोटाला तो ऑडिटरों की बेईमानी की जिंदा मिसालें बन चुकी हैं.
दोस्तों,मैं पिछले साल एक कंगाल एनजीओ का अवैतनिक अध्यक्ष भी रहा.जब भी कहीं टेंडर प्राप्त करने या भरने का प्रयास करता;पता चलता कि सरकार ने इस काम के लिए इच्छुक एनजीओ के लिए पिछले तीन सालों में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम ३ लाख या कभी-कभी तो इससे भी अधिक का काम करवाने या सरकारी टेंडर प्राप्त करने की पात्रता निर्धारित करके रखी है.बार-बार समस्या खड़ी हो जाती कि टेंडर लेने की पात्रता कैसे प्राप्त की जाए जबकि सच्चाई तो यह थी कि हमारे एनजीओ को तो पिछले ३ वर्षों में दस-बीस हजार का भी सरकारी काम या टेंडर नहीं मिला था.मैंने जब सचिव महोदय से समस्या बताई तो वे बोले कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है;चलिए किसी प्राईवेट ऑडिटर से प्रमाण-पत्र ले लेते हैं.जब हम ऑडिटर के पास गए तो पाया कि श्रीमान ऑडिटर महोदय ने तो एनजीओ और कम्पनियों के लिए खुलेआम घूस की रेटलिस्ट बना रखी है;जैसे १०० रूपये में १ लाख,२०० रूपये में २ लाख रूपये का प्रमाण-पत्र या फिर इतने रूपये में कंपनी या फर्म की बैलेंस-शीट में इतने की हेराफेरी.
मित्रों,आप शायद नहीं जानते होंगे कि हमारा शहर हाजीपुर बिहार विश्वविद्यालय में आता है.इस समय इस विश्वविद्यालय के सभी २३०० पेंशनधारी शिक्षक परेशान हैं.एक तरफ सभी गुरुजनों के बकाए और अवकाश-प्राप्ति लाभ का निपटारा होना है वहीं दूसरी ओर नए वेतनमान के निर्धारण का काम भी चल रहा है.अभी यहाँ जो स्थिति है वह ‘सब शुभकाम ऑडिटर के हाथा’ वाली है.जिन शिक्षकों ने विश्वविद्यालय के ऑडिटरों की मुट्ठी गरम कर दी है उनकी तो पौ-बारह है लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया है वे परेशान-ही-परेशान हैं.उनमें से एक तिहाई तो घूस देने में बेवजह की हिचक के चलते पटना उच्च न्यायलय भी पहुँच गए हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें न्यायालय जाने का भी कोई लाभ नहीं हो रहा है और उनकी फाइलें अंत में भूदेव ऑडिटरों के पास जाकर अँटक जा रही है.उच्च न्यायालय इनकी जूती की नोंक पर है.ऑडिटर उनसे बार-बार बेतुके कागजात मांग रहे हैं.कई बार तो ऐसे कागजातों की मांग भी की जाती है जो विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को भेजता ही नहीं है.मजबूरी में कोई १० हजार तो कोई २० हजार या इससे भी ज्यादा देकर अपना कल्याण करवा रहा है.इसलिए मेरी ईच्छा के भीतर एक और ईच्छा है कि मैं अगले जन्म में ऑडिटर तो बनूँ ही साथ ही बिहार विश्वविद्यालय का ऑडिटर बनूँ.
दोस्तों,इस समय पूरी दुनिया के लोग निजी और सरकारी क्षेत्रों में बढ़ते घोटालों से चिंतित है और इससे पार पाने का उपाय खोज रहे हैं.मेरी नजर में उपाय एकदम सरल है.बस ऑडिटरों के स्क्रू को टाईट कर दिया जाए;सारे घपले-घोटाले खुद-ब-खुद रूक जाएँगे.सोंचिए अगर भारत का सीएजी ईमानदार नहीं होता तो क्या कभी घोटालों का राजा ए. राजा दुनिया का दूसरा सबसे भ्रष्ट महापुरुष बनने का गौरव प्राप्त कर पाता?खैर जब मेरे सुझाव पर अगले सौ-दो सौ सालों में अमल होगा तब होगा फिलहाल तो जो स्थिति है उसमें भगवान से यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हे सर्वशक्तिमान मेरी ईच्छा पूर्ण करो.हे अंतर्यामी;मैं अगले जन्म में सिर्फ और सिर्फ ऑडिटर ही बनना चाहता हूँ.
दोस्तों,मैं पिछले साल एक कंगाल एनजीओ का अवैतनिक अध्यक्ष भी रहा.जब भी कहीं टेंडर प्राप्त करने या भरने का प्रयास करता;पता चलता कि सरकार ने इस काम के लिए इच्छुक एनजीओ के लिए पिछले तीन सालों में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम ३ लाख या कभी-कभी तो इससे भी अधिक का काम करवाने या सरकारी टेंडर प्राप्त करने की पात्रता निर्धारित करके रखी है.बार-बार समस्या खड़ी हो जाती कि टेंडर लेने की पात्रता कैसे प्राप्त की जाए जबकि सच्चाई तो यह थी कि हमारे एनजीओ को तो पिछले ३ वर्षों में दस-बीस हजार का भी सरकारी काम या टेंडर नहीं मिला था.मैंने जब सचिव महोदय से समस्या बताई तो वे बोले कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है;चलिए किसी प्राईवेट ऑडिटर से प्रमाण-पत्र ले लेते हैं.जब हम ऑडिटर के पास गए तो पाया कि श्रीमान ऑडिटर महोदय ने तो एनजीओ और कम्पनियों के लिए खुलेआम घूस की रेटलिस्ट बना रखी है;जैसे १०० रूपये में १ लाख,२०० रूपये में २ लाख रूपये का प्रमाण-पत्र या फिर इतने रूपये में कंपनी या फर्म की बैलेंस-शीट में इतने की हेराफेरी.
मित्रों,आप शायद नहीं जानते होंगे कि हमारा शहर हाजीपुर बिहार विश्वविद्यालय में आता है.इस समय इस विश्वविद्यालय के सभी २३०० पेंशनधारी शिक्षक परेशान हैं.एक तरफ सभी गुरुजनों के बकाए और अवकाश-प्राप्ति लाभ का निपटारा होना है वहीं दूसरी ओर नए वेतनमान के निर्धारण का काम भी चल रहा है.अभी यहाँ जो स्थिति है वह ‘सब शुभकाम ऑडिटर के हाथा’ वाली है.जिन शिक्षकों ने विश्वविद्यालय के ऑडिटरों की मुट्ठी गरम कर दी है उनकी तो पौ-बारह है लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया है वे परेशान-ही-परेशान हैं.उनमें से एक तिहाई तो घूस देने में बेवजह की हिचक के चलते पटना उच्च न्यायलय भी पहुँच गए हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें न्यायालय जाने का भी कोई लाभ नहीं हो रहा है और उनकी फाइलें अंत में भूदेव ऑडिटरों के पास जाकर अँटक जा रही है.उच्च न्यायालय इनकी जूती की नोंक पर है.ऑडिटर उनसे बार-बार बेतुके कागजात मांग रहे हैं.कई बार तो ऐसे कागजातों की मांग भी की जाती है जो विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को भेजता ही नहीं है.मजबूरी में कोई १० हजार तो कोई २० हजार या इससे भी ज्यादा देकर अपना कल्याण करवा रहा है.इसलिए मेरी ईच्छा के भीतर एक और ईच्छा है कि मैं अगले जन्म में ऑडिटर तो बनूँ ही साथ ही बिहार विश्वविद्यालय का ऑडिटर बनूँ.
दोस्तों,इस समय पूरी दुनिया के लोग निजी और सरकारी क्षेत्रों में बढ़ते घोटालों से चिंतित है और इससे पार पाने का उपाय खोज रहे हैं.मेरी नजर में उपाय एकदम सरल है.बस ऑडिटरों के स्क्रू को टाईट कर दिया जाए;सारे घपले-घोटाले खुद-ब-खुद रूक जाएँगे.सोंचिए अगर भारत का सीएजी ईमानदार नहीं होता तो क्या कभी घोटालों का राजा ए. राजा दुनिया का दूसरा सबसे भ्रष्ट महापुरुष बनने का गौरव प्राप्त कर पाता?खैर जब मेरे सुझाव पर अगले सौ-दो सौ सालों में अमल होगा तब होगा फिलहाल तो जो स्थिति है उसमें भगवान से यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हे सर्वशक्तिमान मेरी ईच्छा पूर्ण करो.हे अंतर्यामी;मैं अगले जन्म में सिर्फ और सिर्फ ऑडिटर ही बनना चाहता हूँ.
मित्रों,किसी ने क्या खूब कहा है-'यहाँ किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता;जमीं मिलती है तो आसमां नहीं मिलता.बचपन में शिक्षकों ने हमसे कौन क्या बनना चाहता है;जानने के लिए बहुत-से निबंध लिखवाए.कई बार तो निबंध लिखते समय तक के लिए हमें प्रधानमंत्री तक बना दिया गया और कहा गया कि 'अगर मैं प्रधानमंत्री होता' विषय पर निबंध लिखो.परन्तु क्या कुछ बन जाना या हो जाना इतना आसान है?क्या हम जो बनना चाहते हैं वही बन पाते हैं?अगर ऐसा संभव होता तो आज अपने देश भारत में अनगिनत प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं होते?
दोस्तों,आप जानते हैं कि मैं अभी एक स्वतंत्र (सरल शब्दों में बेरोजगार) पत्रकार हूँ.मैं जो कुछ भी हूँ वह हरगिज नहीं बनना चाहता था.सच्चाई तो यह है कि मैं एक आईइएस अधिकारी बनना चाहता था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.एक-एक करके मेरे चारों अवसर समाप्त हो गए और मैं मुख्य परीक्षा से आगे बढ़ ही नहीं पाया.थक-हारकर मुझे पत्रकारिता से एमए करने का निर्णय लेना पड़ा और भगवान की अकृपा से मैं आज एक पत्रकार हूँ.
मित्रों,भले ही इस जन्म में मेरा सपना आईएएस बनने का रहा हो अगले जन्म में मैं हरगिज आईएएस बनना नहीं चाहूँगा.बल्कि अगले जन्म में मैं अंकेक्षक या ऑडिटर बनना चाहूँगा.गजब पेशा है ऑडिटिंग;हर्रे लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा होए.इस व्यवसाय का भविष्य भी काफी उज्ज्वल है.जैसे-जैसे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में निजी कम्पनियों की भागेदारी बढती जाएगी ऑडिटरों का महत्त्व लगातार बढ़ता ही जाएगा.क्या फर्जीवाड़ा है कि कम्पनी दिवालियेपन की ओर बढ़ रही होती है और ऑडिटर पैसे लेकर लिख देता है कि कंपनी की तो बीसों ऊँगलियाँ घी में है और सिर कड़ाही में.क्या बिडम्बना है कि जिस संस्था का जन्म आर्थिक गड़बड़ियों को रोकने के लिए हुआ वही स्वयं इसे बढ़ावा दे रही है.हू विल गार्ड द गार्ड्स?ऐसा सिर्फ अपने भारत में नहीं हो रहा है बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी निजीकरण का जोर है;हो रहा है.भारत में सत्यम घोटाला और अमेरिका में एनरौन घोटाला तो ऑडिटरों की बेईमानी की जिंदा मिसालें बन चुकी हैं.
दोस्तों,मैं पिछले साल एक कंगाल एनजीओ का अवैतनिक अध्यक्ष भी रहा.जब भी कहीं टेंडर प्राप्त करने या भरने का प्रयास करता;पता चलता कि सरकार ने इस काम के लिए इच्छुक एनजीओ के लिए पिछले तीन सालों में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम ३ लाख या कभी-कभी तो इससे भी अधिक का काम करवाने या सरकारी टेंडर प्राप्त करने की पात्रता निर्धारित करके रखी है.बार-बार समस्या खड़ी हो जाती कि टेंडर लेने की पात्रता कैसे प्राप्त की जाए जबकि सच्चाई तो यह थी कि हमारे एनजीओ को तो पिछले ३ वर्षों में दस-बीस हजार का भी सरकारी काम या टेंडर नहीं मिला था.मैंने जब सचिव महोदय से समस्या बताई तो वे बोले कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है;चलिए किसी प्राईवेट ऑडिटर से प्रमाण-पत्र ले लेते हैं.जब हम ऑडिटर के पास गए तो पाया कि श्रीमान ऑडिटर महोदय ने तो एनजीओ और कम्पनियों के लिए खुलेआम घूस की रेटलिस्ट बना रखी है;जैसे १०० रूपये में १ लाख,२०० रूपये में २ लाख रूपये का प्रमाण-पत्र या फिर इतने रूपये में कंपनी या फर्म की बैलेंस-शीट में इतने की हेराफेरी.
मित्रों,आप शायद नहीं जानते होंगे कि हमारा शहर हाजीपुर बिहार विश्वविद्यालय में आता है.इस समय इस विश्वविद्यालय के सभी २३०० पेंशनधारी शिक्षक परेशान हैं.एक तरफ सभी गुरुजनों के बकाए और अवकाश-प्राप्ति लाभ का निपटारा होना है वहीं दूसरी ओर नए वेतनमान के निर्धारण का काम भी चल रहा है.अभी यहाँ जो स्थिति है वह 'सब शुभकाम ऑडिटर के हाथा' वाली है.जिन शिक्षकों ने विश्वविद्यालय के ऑडिटरों की मुट्ठी गरम कर दी है उनकी तो पौ-बारह है लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया है वे परेशान-ही-परेशान हैं.उनमें से एक तिहाई तो घूस देने में बेवजह की हिचक के चलते पटना उच्च न्यायलय भी पहुँच गए हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें न्यायालय जाने का भी कोई लाभ नहीं हो रहा है और उनकी फाइलें अंत में भूदेव ऑडिटरों के पास जाकर अँटक जा रही है.उच्च न्यायालय इनकी जूती की नोंक पर है.ऑडिटर उनसे बार-बार बेतुके कागजात मांग रहे हैं.कई बार तो ऐसे कागजातों की मांग भी की जाती है जो विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को भेजता ही नहीं है.मजबूरी में कोई १० हजार तो कोई २० हजार या इससे भी ज्यादा देकर अपना कल्याण करवा रहा है.इसलिए मेरी ईच्छा के भीतर एक और ईच्छा है कि मैं अगले जन्म में ऑडिटर तो बनूँ ही साथ ही बिहार विश्वविद्यालय का ऑडिटर बनूँ.
दोस्तों,इस समय पूरी दुनिया के लोग निजी और सरकारी क्षेत्रों में बढ़ते घोटालों से चिंतित है और इससे पार पाने का उपाय खोज रहे हैं.मेरी नजर में उपाय एकदम सरल है.बस ऑडिटरों के स्क्रू को टाईट कर दिया जाए;सारे घपले-घोटाले खुद-ब-खुद रूक जाएँगे.सोंचिए अगर भारत का सीएजी ईमानदार नहीं होता तो क्या कभी घोटालों का राजा ए. राजा दुनिया का दूसरा सबसे भ्रष्ट महापुरुष बनने का गौरव प्राप्त कर पाता?खैर जब मेरे सुझाव पर अगले सौ-दो सौ सालों में अमल होगा तब होगा फिलहाल तो जो स्थिति है उसमें भगवान से यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हे सर्वशक्तिमान मेरी ईच्छा पूर्ण करो.हे अंतर्यामी;मैं अगले जन्म में सिर्फ और सिर्फ ऑडिटर ही बनना चाहता हूँ.
दोस्तों,मैं पिछले साल एक कंगाल एनजीओ का अवैतनिक अध्यक्ष भी रहा.जब भी कहीं टेंडर प्राप्त करने या भरने का प्रयास करता;पता चलता कि सरकार ने इस काम के लिए इच्छुक एनजीओ के लिए पिछले तीन सालों में प्रत्येक वर्ष कम-से-कम ३ लाख या कभी-कभी तो इससे भी अधिक का काम करवाने या सरकारी टेंडर प्राप्त करने की पात्रता निर्धारित करके रखी है.बार-बार समस्या खड़ी हो जाती कि टेंडर लेने की पात्रता कैसे प्राप्त की जाए जबकि सच्चाई तो यह थी कि हमारे एनजीओ को तो पिछले ३ वर्षों में दस-बीस हजार का भी सरकारी काम या टेंडर नहीं मिला था.मैंने जब सचिव महोदय से समस्या बताई तो वे बोले कि इसमें कौन-सी बड़ी बात है;चलिए किसी प्राईवेट ऑडिटर से प्रमाण-पत्र ले लेते हैं.जब हम ऑडिटर के पास गए तो पाया कि श्रीमान ऑडिटर महोदय ने तो एनजीओ और कम्पनियों के लिए खुलेआम घूस की रेटलिस्ट बना रखी है;जैसे १०० रूपये में १ लाख,२०० रूपये में २ लाख रूपये का प्रमाण-पत्र या फिर इतने रूपये में कंपनी या फर्म की बैलेंस-शीट में इतने की हेराफेरी.
मित्रों,आप शायद नहीं जानते होंगे कि हमारा शहर हाजीपुर बिहार विश्वविद्यालय में आता है.इस समय इस विश्वविद्यालय के सभी २३०० पेंशनधारी शिक्षक परेशान हैं.एक तरफ सभी गुरुजनों के बकाए और अवकाश-प्राप्ति लाभ का निपटारा होना है वहीं दूसरी ओर नए वेतनमान के निर्धारण का काम भी चल रहा है.अभी यहाँ जो स्थिति है वह 'सब शुभकाम ऑडिटर के हाथा' वाली है.जिन शिक्षकों ने विश्वविद्यालय के ऑडिटरों की मुट्ठी गरम कर दी है उनकी तो पौ-बारह है लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया है वे परेशान-ही-परेशान हैं.उनमें से एक तिहाई तो घूस देने में बेवजह की हिचक के चलते पटना उच्च न्यायलय भी पहुँच गए हैं लेकिन समस्या यह है कि उन्हें न्यायालय जाने का भी कोई लाभ नहीं हो रहा है और उनकी फाइलें अंत में भूदेव ऑडिटरों के पास जाकर अँटक जा रही है.उच्च न्यायालय इनकी जूती की नोंक पर है.ऑडिटर उनसे बार-बार बेतुके कागजात मांग रहे हैं.कई बार तो ऐसे कागजातों की मांग भी की जाती है जो विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को भेजता ही नहीं है.मजबूरी में कोई १० हजार तो कोई २० हजार या इससे भी ज्यादा देकर अपना कल्याण करवा रहा है.इसलिए मेरी ईच्छा के भीतर एक और ईच्छा है कि मैं अगले जन्म में ऑडिटर तो बनूँ ही साथ ही बिहार विश्वविद्यालय का ऑडिटर बनूँ.
दोस्तों,इस समय पूरी दुनिया के लोग निजी और सरकारी क्षेत्रों में बढ़ते घोटालों से चिंतित है और इससे पार पाने का उपाय खोज रहे हैं.मेरी नजर में उपाय एकदम सरल है.बस ऑडिटरों के स्क्रू को टाईट कर दिया जाए;सारे घपले-घोटाले खुद-ब-खुद रूक जाएँगे.सोंचिए अगर भारत का सीएजी ईमानदार नहीं होता तो क्या कभी घोटालों का राजा ए. राजा दुनिया का दूसरा सबसे भ्रष्ट महापुरुष बनने का गौरव प्राप्त कर पाता?खैर जब मेरे सुझाव पर अगले सौ-दो सौ सालों में अमल होगा तब होगा फिलहाल तो जो स्थिति है उसमें भगवान से यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि हे सर्वशक्तिमान मेरी ईच्छा पूर्ण करो.हे अंतर्यामी;मैं अगले जन्म में सिर्फ और सिर्फ ऑडिटर ही बनना चाहता हूँ.
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