मित्रों,लोकतंत्र में नाराज होना और उसे अभिव्यक्त करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है लेकिन उसका तरीका क्या होना चाहिए;विवादित है.वर्तमान काल में किसी बड़ी शख्शियत से अपना विरोध जताने के लिए लोग उसकी ओर जूते-चप्पल उछालना ज्यादा बेहतर मानते हैं.अगर जूते-चप्पल अवकाश-प्राप्ति की स्थिति में पहुँच गए हों तो यह तरीका और भी कारगर हो जाता है.
मित्रों,कई लोग अपनी नाराजगी दिखाने के लिए शारीरिक क्षति पहुँचाने से भी नहीं चूकते.पहले लक्षित व्यक्ति को और बाद में पुलिस के हाथों पिटकर खुद अपने-आपको को इस प्रक्रिया में भारी शारीरिक कष्ट उठाना पड़ता है.कभी-कभी गलती एक ही पक्ष यानि आक्रामक पक्ष की होती है तो कभी-कभी दोनों पक्षों की.
मित्रों,कुछ दिनों पहले प्रख्यात समाजसेवी,आर्यसमाजी और संन्यासी स्वामी अग्निवेश ने अमरनाथ यात्रा को लेकर अभद्र टिपण्णी की.भारत आदिकाल से ही सहअस्तित्व का समर्थक रहा है.सम्राट अशोक ने सवा दो हजार साल पहले अपने शिलालेखों और स्तम्भलेखों में उत्कीर्ण करवाया था कि किसी भी संप्रदाय को मानने वाला दूसरे संप्रदाय वालों की पूजा-पद्धति की निंदा नहीं करे अन्यथा वह राजदंड का भागी होगा.लगता है प्रसिद्धि के मद में स्वामी अग्निवेश सामान्य शिष्टाचार भी भूल गए है.हम मूर्तिपूजक भी आर्यसमाजियों की तरह भलीभांति जानते हैं कि मूर्ति या तस्वीर भगवान नहीं होता;वह सिर्फ एक प्रतीक होता है,माध्यम होता है.स्वामी जी को अगर मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ करना था तो वे अपनी ईच्छा जाहिर करते और तब अगर वे विजयी होते तो लोग उनका सम्मान करते न कि थप्पड़ मारते.लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अमरनाथ यात्रा पर सार्वजनिक रूप से उटपटांग बयान दे दिया.अगर कोई मूर्तिपूजा करता है तो वह उनका या किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ता,यह कार्य पूरी तरह से व्यक्तिगत और हिंसा या हानि से रहित है इसलिए भी स्वामी अग्निवेश जैसे बुद्धिजीवी को बेवजह इसकी आलोचना करना किसी भी दृष्टिकोण से शोभा नहीं देता.
दोस्तों,मैं स्वामी नित्यानंद ने स्वामी अग्निवेश के साथ जो कुछ भी किया उसका कतई समर्थन नहीं करता हूँ;उन्हें ऐसा हरगिज नहीं करना चाहिए था.उन्हें बात का जवाब बात से देना चाहिए था और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए था.यहाँ कोई ऐसी स्थिति नहीं थी कि हिंसा का प्रयोग अपरिहार्य हो जाए.भारत मुंडे मुंडे मति भिन्नाः का आदि प्रतिपादक रहा है अतः कम-से-कम आर्यावर्त की इस पवित्र धरती पर साम,दाम और दंड को छोड़कर सीधे भेद पर उतारू हो जाने को उचित नहीं ठहराया जा सकता.
दोस्तों,संन्यास आश्रम शास्त्रवर्णित चारों आश्रमों में सबसे कठिन और गरिमामय है.प्रत्येक संन्यासी से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इन्द्रियों के साथ-साथ मन पर भी नियंत्रण रखते हुए अपने जीवन को मानव-सेवा में लगाएंगे या फिर ईश्वराधना में.लगातार चिंतन-मनन करेंगे और अपने अनुभवों से अवगत कराके पूरी दुनिया को लाभ पहुँचाएंगे.मैं नहीं समझता कि स्वामी अग्निवेश जैसे प्रबुद्ध-विद्वान संन्यासी ने जो कुछ भी किया-कहा वह किसी भी तरह संन्यास की अतिकठिन कसौटी पर खरा उतरता है.मैंने माना कि गरीबों की मदद करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है लेकिन क्या दूसरों की धार्मिक भावनाओं का आदर करना भी एक महत्वपूर्ण नागरिक कर्त्तव्य नहीं है?धार्मिक आस्था और समाजसेवा दो अलग-अलग बातें हैं फिर भला दोनों को एक साथ जोड़कर बात करने की स्वामीजी की क्या मजबूरी थी?
मित्रों,मतभेद मतभेद तक ही सीमित रहे तो ठीक है उसका मनभेद में बदल जाना न तो समाज के लिए अच्छा है और न ही उस राष्ट्र के लिए जिसकी नींव ही प्रेम और सद्भाव पर टिकी हो इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि इस थप्पड़ की गूँज यहीं थम जाएगी और हमारे सामने फिर से उसकी प्रतिध्वनि सुनने का कुअवसर नहीं आएगा.नाराजगी या विरोध प्रकट करने के बहुत-से स्वस्थ तरीके भी हैं;लोग उनका ही प्रयोग करें तो बेहतर होगा हमारे समाज के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें