गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

ब्लॉगिंग एक सामाजिक जिम्मेदारी

मित्रों,सफलता किसे अच्छी नहीं लगती और कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो बार-बार असफलता का कड़वा-तीखा स्वाद चखना चाहता हो? दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति सफल होना चाहता है। इसके लिए कुछ लोग शॉर्ट-कट (लघु-मार्ग) का सहारा भी लेते हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि सफलता का कोई शॉर्ट-कट होता ही नहीं है। गलत तरीके से सफल होनेवालों की खुशी स्थायी नहीं होती और वे कालान्तर में दीर्घकाल तक दुःख भोगते हैं।
               मित्रों,प्रत्येक युग में सफलता की परिभाषा बदलती रही है। आजकल सिर्फ आर्थिक-सफलता को ही सफलता मान लिया जाता है जो कि बिल्कुल भी उचित नहीं है। आर्थिक-विकास तो संपूर्ण विकास का एक अंग मात्र है। जीवन में पैसे के महत्त्व से ईन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन भौतिक उन्नति के साथ-साथ मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति भी होनी आवश्यक है। नैतिकविहीन धनपति असल में यह भी भूल जाता है कि वह एक मशीन नहीं है बल्कि भावनाओं से युक्त संवेदनशील मनुष्य है। वह यह भी भूल जाता है कि उस दुनिया से बदले में वही मिलेगा जो वह दुनिया को दे रहा है।
          मित्रों,इन दिनों हमारे बहुत-से भाई-बहन हिन्दी में ब्लॉगिंग कर रहे हैं। उनमें-से कुछ का लेखन तो वाकई उत्कृष्ट है कथ्य के दृष्टिकोण से भी,शिल्प की दृष्टि से भी और विषय-चयन के खयाल से भी। उनका कथ्य लाजवाब होता है,विषय समाजोपयोगी और शैली अद्भुत। परन्तु हमारे कुछ ब्लॉगर-बंधु ऐसे भी हैं जो बराबर या तो देश में नफरत फैलानेवाले आलेख लिखते हैं या फिर सेक्स से भरपुर अश्लील लेख। जाहिर है वे पाठकों में उत्सुकता पैदा कर जल्द-से-जल्द ज्यादा-से-ज्यादा पाठक बटोर लेना चाहते हैं। इन दोनों कैटगरी (कृपया वे बंधु खुद को इसमें शामिल न समझें जिनकी नीति और नीयत साफ है और जो स्वस्थ आलोचना और विवेचना में विश्वास करते हैं) में आ सकनेवाले लेखकों की रचनात्मकता विध्वंसात्मक है जिससे देश टूटता है,देशवासियों के दिलों के बीच की दूरियाँ बढ़ती हैं और समाज में अनियंत्रित भोगवाद को बढ़ावा मिलता है। जहाँ तक
मैं समझता हूँ कि इस तरह के लेखक यह भूल रहे हैं कि उनका लेखन बहुत-कुछ मसाला फिल्मों के समान है जो तत्काल सुपरहिट भले ही हो जाएँ दीर्घकाल तक याद नहीं की जातीं। कहना न होगा कि हमारे कई ब्लॉगरों की रचनाएँ इतनी अश्लील होती हैं जितनी शायद फुटपाथ पर बिकनेवाली अश्लील डाइजेस्ट भी नहीं होता होगा। अंत में मैं सभी ब्लॉगर-बंधुओं से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वे जो भी लिखें समाजोपयोगी लिखें,देश और विश्व के कल्याण के लिए लिखें क्योंकि इसी में आपका भी कल्याण निहित है। ईश्वर ने आपको समुचित सुविधाएँ और माहौल देकर इसलिए ज्ञानी और विद्वान नहीं बनाया कि आप उसका सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग करें। याद रखिए समाज तो जानबूझकर पथभ्रष्ट करना या उसमें फूट डालना एक आपराधिक कृत्य है और यह भी याद रखिए कि आप चाहे आस्तिक हों या नास्तिक आप कर्मफल के सार्वकालिक और सार्वदेशिक सिद्धांत से हमेशा बंधे हुए हैं।           

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

जबर्दस्ती की यौन-कुंठा

मित्रों,कई साल हुए उन दिनों मैं पटना,हिन्दुस्तान में कार्यरत था। बड़े मस्ती भरे दिन थे। उन दिनों मुझ पर हर पल बड़े-बड़े पत्रकारों से परिचय करने का जुनून सवार रहता था। उन्हीं दिनों मैं एक दिन दैनिक ****, पटना गया था एक पांडेजी से मिलने। पांडेजी उस अखबार में वरिष्ठ पद पर थे। बड़ी ही गर्मजोशी से उन्होंने मेरा स्वागत किया। उस समय वे चार-पाँच सहकर्मियों के साथ बैठे थे जिनमें से मैं किसी को भी नहीं पहचानता था। मैंने उनसे पत्रकारिता जगत की दशा और दिशा पर चर्चा छेड़ी लेकिन वे लगे नॉन स्टॉप नॉन भेज चुटकुले सुनाने। मैं पूर्णतया भेजीटेरियन हूँ भोजन से भी और बातों से भी परन्तु उनका तो प्रत्येक वाक्य शिश्न से शुरू होता था और योनि पर समाप्त। वे बार-बार न जाने क्यों अपनी नौकरानी की देहयष्टि का अश्लील वर्णन करते। उनका तो यहाँ तक दावा था कि वे उसके साथ संभोग भी करते हैं। मैं स्तब्ध था और अपने-आपको फँसा हुआ पा रहा था। कोई एक घंटा किसी तरह काटकर मैं वहाँ से भागा और फिर कभी उनसे मिलने की गुस्ताखी नहीं की। बाद में पता चला कि पांडेजी को अपने लिं* के आकार पर बड़ा अभिमान है और इसलिए उनके सहकर्मी उनकी अनुपस्थिति में उनको *डाधिपति कहकर बुलाते हैं। पांडेजी अधेड़ थे यही कोई 50-55 साल के और राम जी की देनी से शादी-शुदा और बाल-बच्चेदार भी थे परन्तु पटना में रहते थे अकेले ही।
                         मित्रों,उनसे मिलने के बाद मैं कई दिनों तक यही सोंचता रहा कि कोई व्यक्ति इस तरह का क्यों हो जाता है? पांडेजी पढ़े-लिखे थे और अपना भला-बुरा भलीभाँति समझते थे फिर भी वे लंपट थे। फिर शुरुआत हुई नवभारत टाइम्स पर ब्लॉगिंग की। मैंने भी लिखना शुरू किया और कई लेखकों की लेखनी से भी परिचित होने का अवसर भी मुझे यहाँ मिला। इन्हीं सुप्रसिद्ध लेखकों में से एक हैं नवभारत टाइम्स डॉट कॉम के संपादक श्री नीरेंद्र नागर जी। जाहिर है इतने बड़े समाचार-पत्र के ऑनलाईन संपादक हैं तो योग्य और विद्वान तो होंगे ही लेकिन न जाने क्यों वे अन्य या समसामयिक मुद्दों पर कम लिखते हैं और सेक्स पर खूब लिखते हैं। उनके ऐसे आलेखों के शीर्षक भी काफी सेक्सी होते हैं जैसे-यदि प्रज्ञा ठाकुर की यो* में पत्थर डाले गए होते?, उसने पाया कई 'पत्नियों' का प्यार..., सेक्स से वंचित क्यों रहें अनब्याही लड़कियां?, तृप्ता, क्या तुम अपने मन का कर पाई?, हुसेन की 'सरस्वती' पेंटिंग अश्लील थी, और ये?, काश कि इस देश में ऐसे करोड़ों दोगले होते..., मैं भी वेश्या, तू भी वेश्या..., न वे वेश्याएं हैं, न सेक्स की भूखी हैं..., 10 मिनट का सेक्स और 24 घंटों का प्यार, गे सेक्स अननैचरल है तो ब्रह्मचर्य क्या है?, तेरे लिए मज़ा था वह उसके लिए सज़ा बन गई, वह बोली, तुम तो बहुत गिरे हुए निकले...आदि। मेरी समझ में यह नहीं आता कि कोई स्वस्थ दिमागवाला व्यक्ति कैसे लगभग इतना ज्यादा और इस भाषा में सेक्स के बारे में लिख सकता है। मनोविज्ञान तो यही बताता है कि जो व्यक्ति लगभग हरदम सेक्स के बारे में ही सोंचता होगा वही ऐसा कर सकता है। तो क्या नीरेन्द्र नागर जी भी पटनावाले पांडेजी की तरह लगभग हमेशा सेक्स के बारे में ही सोंचते हैं? क्या उनके दिमाग में भी लगभग हमेशा सेक्स ही भरा होता है? जहाँ तक मैं समझता हूँ यौन-कुंठा का शिकार वैसे लोगों को होना चाहिए जिनकी ढलती उम्र तक शादी नहीं हुई है या जिनको सेक्स का अवसर नहीं मिला है। हमलोग जब माखनलाल में पढ़ते थे तब हमलोगों के बीच एक मुहावरा खूब लोकप्रिय हुआ करता था जिसका इस्तेमाल हम उन मित्रों के लिए करते थे जो अपनी बातों में बार-बार पुरूष जननांग का उल्लेख किया करते थे। हम उनके मुँह की उपमा अण्डरवीयर से देते और कहते कि उसका मुँह नहीं है अण्डरवीयर है जब भी खुलता है ** ही निकलता है। जाहिर है कि इनमें से लगभग सारे-के-सारे 30 साल से ज्यादा की आयु के थे और तब तक कुँआरे थे। परन्तु कोई भी ऐसा व्यक्ति जो रामजी की देनी से कई-कई बच्चों का पिता हो वो कैसे यौन कुंठित हो सकता है? क्या लालू प्रसाद जी यौन कुंठित हो सकते हैं? यह तो वही बात हो गई कि कोई व्यक्ति 100-50 रसगुल्ले खाने के बाद यह कहे कि उसे तो खाने में स्वाद ही नहीं मिला,मजा ही नहीं आया। तो फिर जनाब इतना दबा कैसे गए?
                मित्रों,आदरणीय नागर जी कभी समाज के सभी व्यक्तियों को वेश्या साबित करते हैं तो कभी आप उनको समलैंगिकता का सबसे बड़ा पैरोकार बनते देख सकते हैं। इतना ही नहीं कभी उनको साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की योनि की चिंता सताने लगती है तो कभी विवाह से वंचित लड़कियों को सेक्स का आनंद उपलब्ध करवाने की। कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह की जो यौन-कुंठा होती है वो जबर्दस्ती की यौन-कुंठा होती है और इसे मानसिक बीमारी की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। मैं मानता हूँ कि सेक्स मानव के लिए जरूरी होता है लेकिन एक सीमा तक ही। सेक्स जीवन के लिए जरूरी जरूर होता है लेकिन सेक्स जीवन तो नहीं हो सकता। यह मानव जीवन का एकमात्र उद्देश्य तो नहीं हो सकता। आयुर्वेद के अनुसार मानव को स्वस्थ जीवन के लिए संतुलित मात्रा में निद्रा,मैथुन और आहार का सेवन करना चाहिए। इसलिए मेरी समझ में न तो इनका पूर्ण परित्याग ही उचित है और न तो सिर्फ इनके लिए ही जीना अथवा इनको अपने जीवन का पर्याय बना लेना। मैं समझता हूँ कि जीवन जीने के लिए मध्यम मार्ग सर्वोत्तम मार्ग था और है। कहा भी गया है कि-अति रूपेण हृते सीता,अति गर्वेणहतः रावणः,अति दानात्बद्ध्यो बलि,अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति चाहे किसी भी चीज की हो कभी अच्छी नहीं होती।
                    मित्रों,हमारे समाज में हमारे पूर्वजों द्वारा हर चीज का एक वक्त निर्धारित है,व्यक्ति निर्धारित है और स्थान निर्धारित है। प्रत्येक काम तभी अच्छा लगता है जब उसका समय उचित हो,उसके लिए व्यक्ति नीतिसम्मत हो और उस काम को सही स्थान पर अंजाम दिया जाए। सेक्स से संबंधित बातें करने के लिए और सेक्स करने के लिए जब भगवान ने आपको जीवन साथी दिया ही है तो फिर आप समाज में क्यों गंध फैला रहे हैं? हर चीज की,हर संबंध की एक मर्यादा होती है। मैं नहीं जानता कि पटनावाले पांडे जी से श्री नीरेंद्र नागर जी का चरित्र कहाँ तक मिलता है लेकिन इतना तो निश्चित है कि नागर जी भी कुछ-न-कुछ उसी मानसिक रोग से ग्रस्त हैं जिससे कि पांडेजी ग्रस्त थे।
                        मित्रों,आचार्य चाणक्य ने कहा है कि काम (सेक्स) से बड़ी कोई बीमारी नहीं होती। अन्य बीमारियाँ तो जीवित व्यक्तियों को मारती हैं परन्तु यह रोग तो मरे को भी मारता है। चूँकि यह एक मानसिक बीमारी है इसलिए इस जबर्दस्ती की यौन-कुंठा का ईलाज भी मनोवैज्ञानिक ही हो सकता है। इस रोग के रोगियों को चाहिए कि वे अपने मन पर नियंत्रण पाने का कठोर अभ्यास करें। मन तो रस्सी में बंधे जानवर की तरह होता है इसलिए इसके लिए रस्सी (नियंत्रण) भी मजबूत चाहिए अन्यथा वह कभी भी रस्सी को तोड़ डालेगा और दूसरों के खेतों में घुस जाएगा। फिर क्या परिणाम हो सकता है यह आपलोग भी जानते हैं। मन पर नियंत्रण के लिए वे चाहें तो जैन ग्रंथों का गहरा अध्ययन कर सकते हैं या फिर किसी योग्य जैन मुनि से संपर्क कर उनके निर्देशन में मन को साधने का अभ्यास भी कर सकते हैं। अगर फिर भी काम वश में न आए तो आप किसी मनोचिकित्सक से भी परामर्श ले सकते हैं। हाँ,वे यह सब तभी करें जब उनमें मन को साधने की दृढ़ ईच्छा हो,सच्ची लगन हो अन्यथा मैंने कई शराबियों को कई-कई महीने पुनर्वास-गृहों में रहने पर भी शराब को नहीं छोड़ते भी देखा है।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

पत्रकारों पर कब नजरे इनायत करेंगे काटजू?

मित्रों,पिछले दो दशकों में भारत का ऐसा कोई भी सेक्टर नहीं है जो तथाकथित उदारीकरण और वास्तविक पूंजीवादी लूट के कारण प्रभावित नहीं हुआ हो। पत्रकारिता भी कोई अपवाद नहीं है। आज बहुसंख्य पत्रकारों की हालत बंधुआ मजदूरों से भी बदतर है। उनको वेतन नहीं मिलता अनुदान मिलता है। उनको सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाकर श्रमजीवी पत्रकार की निर्धारित परिभाषा से भी बाहर कर दिया गया है और न तो उनके काम के घंटे ही निश्चित हैं। उनका पूरा परिवार आमिर खान के विज्ञापन के ताबड़तोड़ प्रसारित किए जाने के बाबजूद कुपोषित है और अभावों की दुनिया में जी रहा है,चाक जिगर के सी रहा है। जहाँ पिछले दस सालों में ही वस्तुओं और सेवाओं के दामों में दोगुने से भी ज्यादा की वृद्धि हो चुकी है अधिसंख्य पत्रकारों का अनुदान यथावत है।

              मित्रों,भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना 1966 में इसलिए की गई थी कि प्रेस की स्वतंत्रता प्रत्येक स्थिति में अक्षुण्ण बनी रहे और पत्रकारों के आचरण पर निगाह रखी जा सके। लेकिन दुर्भाग्यवश हम पाते हैं कि भारतीय प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू वही सारे काम कर रहे हैं जो उनको परिषद के अध्यक्ष के तौर पर नहीं करना होता है। किसी पूर्व न्यायाधीश को इसलिए परिषद का अध्यक्ष नहीं बनाया जाता कि वो अपने निहित स्वार्थ को साधने लगे और निष्पक्षता का परित्याग कर दे। बल्कि किसी भी वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश से यह उम्मीद की जाती है वह किसी भी प्रकार के पक्षपात से दूर रहेगा। काटजू साहब फरमाते हैं कि बिहार,पश्चिम बंगाल जैसे गैर यूपीए राज्यों में राज्य सरकारों ने सरकारी विज्ञापनों का धौंस दिखाकर या लालच देकर समाचार-पत्रों को बंधक बना लिया है। मैं उनसे पूछता हूँ कि समाचार-पत्र-प्रबंधन धौंस या लालच में आता ही क्यों है? काटजू साहब अगर दर्पण चेहरे को गंदा बता रहा है तो आपको क्या करना चाहिए,उसे तोड़ देना चाहिए या अपने चेहरे को साफ करना चाहिए? क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि आपने अब तक लालच या दबाव में आ जानेवाले समाचार-पत्रों के विरूद्ध क्या कदम उठाए हैं? क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि इन समाचार-पत्रों में श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम,1955 का कहाँ तक पालन किया जा रहा है? क्या आपने यह पता लगाया है कि कितने समाचार-पत्रों ने मजीठिया वेतनमान को लागू किया और कितने ने नहीं और क्यों? क्या आपने यह मालूम किया है कि जबकि मीडिया हाऊसों के मुनाफे में हर साल अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है पत्रकारों का वेतन क्यों जस-का-तस है? आखिर आप मीडिया हाऊसों के प्रति इतने कृपालु क्यों बने हुए हैं और उनकी काली करतूतों के प्रति आपने आँखें बंद क्यों कर रखी हैं?

                       मित्रों,आश्चर्य है कि काटजू साहब को दूर की घटनाएँ या गड़बड़ियाँ तो दिख जाती हैं लेकिन खुद उनके चिराग तले कितना घना अंधेरा है नहीं दिख रहा। शायद श्रीमान् की दूर दृष्टि सही है और निकट दृष्टि कमजोर है। अगर पत्रकार कुपोषित हैं,शोषित हैं,दलित हैं और भूखे हैं तो काटजू साहब कैसे बनी रहेगी खबरों की गुणवत्ता और कैसे और कब तक उनकी कलम आजाद रह पाएगी? अगर आप पत्रकारों की दयनीय स्थिति पर भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष के रूप में कुछ नहीं कहना चाहते तो बतौर सामान्य नागरिक ही कुछ कह देते जैसा कि अभी आपने नरेंद्र मोदी के लिए कहा है। काटजू साहब भारतीय प्रेस परिषद के अधिकार क्षेत्र के बाहर की चीजों पर आप बाद में भी ध्यान दे सकते हैं पहले आप अपने घर प्रिंट मीडिया में जमी गंदगी को तो छुड़ाईए। अगर आप ऐसा कर सके तो आपको लाखों मीडियाकर्मी सपरिवार दुआएँ देंगे। उनका जीवन बदल जाएगा,सँवर जाएगा। मी लॉर्ड आप ऐसा आप कर सकते हैं,जरूर कर सकते हैं क्योंकि यह आपके अधिकार-क्षेत्र में आता है।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

सेक्स शिक्षा अच्छी, सूर्य नमस्कार बुरा?

मित्रों, कुछ चीजें इस धराधाम पर आज भी सिर्फ भारत में ही संभव है। जैसे हमारे भारत में ही अपेक्षाकृत एक बेकार-सी रचना जन गण मन धर्मनिरपेक्ष हो सकती है और स्वतंत्रता आंदोलन में फाँसी के फंदे को हँसकर स्वयं गले में पहन लेनेवाले शहीदों के गले का कंठहार जो दुनिया का उत्कृष्टतम मातृभूमि वंदना-गीत भी है सांप्रदायिक हो जाता है। धर्मनिरपेक्षता की किताबी परिभाषाओं के बारे में हमारे देश में इस समय बातें करना ही बेमानी है। कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों के अनुसार तो जो चीज मुसलमानों को पसंद है बस वही धर्मनिरपेक्ष है और जो उनको स्वीकार्य नहीं है बिना सोंच-विचार के वह सांप्रदायिक है।

           मित्रों,पिछले दिनों हमारे देख के सांस्कृतिक मंच पर दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। पहली घटना थी प्रखर संन्यासी स्वामी विवेकानंद की 150वीं सालगिरह के उपलक्ष्य में देशभर के स्कूलों में सूर्य नमस्कार का सामूहिक आयोजन और दूसरी घटना थी भारत सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री एम.एल. पल्लम राजू द्वारा इस बात की घोषणा का किया जाना कि भारत के स्कूलों में सेक्स शिक्षा दी जाएगी। पहली घटना को तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने सांप्रदायिक मान लिया और खूब हंगामा किया जबकि दूसरी घटना के विरोध में उनके बीच से कहीं से कोई स्वर नहीं उठा। इसी तरह एक समय बाबा रामदेव के योग को कुछ देशी-विदेशी मुस्लिम उलेमाओं ने सांप्रदायिक घोषित कर दिया था और तब से ही बाबा रामदेव कई तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं के लिए अस्पृश्य से हो गए। चाहे आसन-प्राणायाम हो या सूर्य नमस्कार ये व्यायाम-मात्र हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक भी हैं। जैसे फल मंदिरों में चढ़ाए जाएँ या मजारों पर वे एकसमान स्वास्थ्यवर्द्धक होते हैं वैसे ही इन व्यायामों का अभ्यास चाहे कोई हिन्दू करे या मुसलमान या कोई और इनसे सिर्फ स्वास्थ्य लाभ ही हो सकता है। समझ में नहीं आता कि कोई व्यायाम जो हिन्दुओं के लिए लाभदाय् हैं मुसलमानों के लिए कैसे हानिकारक हो जाएगा? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि ये दुनिया को हिन्दू-सनातन धर्म की अमूल्य देन हैं? क्या सूर्य नमस्कार को गैर-इस्लामिक कहनेवाले धर्मनिरपेक्षतावादी जन्मजात हिन्दू या मुसलमान यह नहीं जानते कि धरती की उत्पत्ति और धरती पर जीवन का एकमात्र कारण सूर्य है? यह धरती सूर्य से ही उत्पन्न हुई है और 5 अरब साल बाद फिर से सूर्य में ही समाहित हो जाएगी। क्या वे इस तथ्य को नकार सकते हैं कि सूर्य की रोशनी में विटामिन डी होती है जो हड्डियों के उत्तम स्वास्थ्य के लिए काफी जरूरी होती हैं और जिसके बिना मानव-शरीर में कैल्शियम की भी कमी हो जाती है? इस दुनिया का कोई भी व्यक्ति यदि सूर्य की रोशनी में सूर्य नमस्कार करेगा तो निश्चित रूप से उसके तन-मन में निखार तो आएगा ही उसे मुफ्त में इस जानलेवा महँगाई के युग मे विटामिन डी भी प्राप्त हो जाएगा। मुझे तो लगता है कि मुसलमान नमाज पढ़ते समय जो अलग-अलग शारीरिक मुद्राएँ धारण करते हैं उसका भी कोई-न-कोई संबंध योग से अवश्य है।

              मित्रों,मुझे तो यह भी लगता है कि हमारी राजमाता-त्यागावतार श्रीमती सोनिया गांधी भारत को जल्द-से-जल्द इटली बना देना चाहती हैं। तभी तो उनके सभासद मंत्री कभी सेक्स-व्यापार को कानूनी बनाने का खटराग अलापने लगते हैं तो कभी समलैंगिकता का समर्थन करते पाए जाते हैं। उन बेदिमागियों को क्या यह भी पता नहीं है कि भारत विवेकानंद जैसे अखंड ब्रह्मचारियों का देश रहा है न कि सेक्स करते समय जान से हाथ धोनेवाले कम-से-कम दो रोमन कैथोलिक पोपों का? भारत के युवा पहले से ही अनियंत्रित और अश्लील संचार-क्रांति के कारण अश्लीलता की गिरफ्त में हैं और अगर ऊपर से उनको नीम पर करेला सेक्स-शिक्षा दी जाती है तो वह उनकी यौनाकांक्षा को उद्दीप्त ही करेगी। कथित भगवान रजनीश भले ही संभोग से समाधि तक जैसी लाखों पुस्तकें लिख डालें संभोग द्वारा समाधि की प्राप्ति पहले भी असंभव थी और आगे भी असंभव ही रहनेवाली है। क्या आग में पेट्रोल डाल देने से आग बुझ जाती है जो संभोग द्वारा समाधि की प्राप्ति हो जाएगी? आज अगर भारतीय समाज में यौन-हिंसा की बेमौसमी आँधी उठ रही है तो उसका ईलाज ऐलोपैथिक पश्चिमी सेक्स-शिक्षा नहीं हो सकती और न ही सबको एक-एक कंडोम बाँट देने से यह आँधी थम जाएगी। उसका ईलाज दुनिया में सिर्फ भारत के पास ही है और इसके लिए हमें हिन्दू-मुसलमान सहित सबको गीता-रामायण-उपनिषद के साथ यम और नियम का पाठ पढ़ाना पड़ेगा। इंटरनेट पर उपलब्ध शराब के सेना को छोड़कर अन्यत्र क्रय-विक्रय को,अश्लील फिल्मों,गीतों,वेबसाइटों और अश्लील सीडी के व्यापार को पूरी तरह से प्रतिबंधित और दंडनीय करना पड़ेगा। सेक्स शिक्षा देना तो वही बात हो जाएगी कि जो रोगी को भाये वही वैद्य फरमाये फिर चाहे रोगी मरे या जिए अपनी बला से। अंत में हम परमादरणीय राजमाता जी से करबद्ध प्रार्थना करते हैं कि वे कृपया भारत को भारत ही रहने दें। हो सके तो मुझ नाचीज के सुझावों पर अमल करते हुए भारत को और भी पक्का भारत बनाएँ उसे कृपया इटलीनुमा इंडिया बनाने की कोशिश न करें क्योंकि यह सिर्फ बर्बादी-ही-बर्बादी का मार्ग है। फिर भी अगर वे सेक्स-शिक्षा देने पर आमादा ही हैं तो कृपया वे पहले उन जिलों और प्रखंडों के स्कूलों में इसे लागू करने का कष्ट करें जहाँ मुसलमानों की आबादी अन्य धर्मवालों से ज्यादा है। आखिर पता तो चले कि धर्मनिरपेक्षता के लिटमस टेस्ट में सेक्स शिक्षा पास होती है या नहीं।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

बिहार कर्मचारी चयन आयोग है या बिहार कुर्मी चयन आयोग

मित्रों,वर्ष 2007 से 2009 तक मैं हिन्दुस्तान,पटना में नौकर हुआ करता था। उन दिनों हमारे स्थानीय संपादक हुआ करते थे सुनील दूबेजी। कद के छोटे,दिनभर पान चबाते रहते। गुस्सा तो जैसे उनकी नाक पर ही सवार रहता था। किस दिन किसकी शामत आ जाए कोई नहीं जानता था। वे थोड़े-से जातिवादी भी थे। हम सब पीड़ित मनाते रहते कि दूबेजी जाएँ और कोई दूसरा संपादक आए। हमें न जाने क्यों यह उम्मीद थी कि नया संपादक अच्छा होगा। फिर 2009 में सचमुच संपादक जी की छुट्टी हो गई और अकु श्रीवास्तव संपादक बनकर आ गए। अब हमारी हालत पहले से भी खराब हो गई।

             मित्रों,ठीक यही हालत बिहार में आयोजित होनेवाली प्रतियोगिता परीक्षाओं की है। पहले भी बिहार में दशकों से उम्मीदवार दो तरीके से नौकरी पाते रहे हैं। पहले तरीके में लोग अपने मेरिट से पास होते हैं और दूसरे तरीके में परीक्षा लेनेवालों की डिमेरिट से। जैसे-जैसे वक्त गुजरता रहा मेरिट से पास होनेवालों की संख्या कम होती गई और डिमेरिट से पास होनेवालों की संख्या बढ़ती गई। अभी कुछ ही दिनों पहले कहीं यह पढ़ने को मिला कि लालू ने बिहार में किसा के लिए कुछ नहीं किया। हालाँकि यह सर्वविदित तथ्य है कि लालू के समय में भी दारोगा,प्रोफेसर और यहाँ तक कि बिहार प्रशासनिक सेवकों की बहाली में भी यादवों के पक्ष में जमकर धांधली की गई। 1993-94 में दारोगा में बहाली के लिए चयनित कुल 1400 अभ्यर्थियों में से 400 ऐसे पाए गए थे जिनकी न तो लंबाई ही और न ही सीना निर्धारित मानदंडों को पूरा करता था। धांधली से प्रभावित उम्मीदवारों ने बीपीएससी के कार्यालय पर जमकर हंगामा भी किया था परन्तु वे परिणाम को बदलवा नहीं सके थे। इसी प्रकार लालू-राबड़ी के शासन में विश्वविद्यालय शिक्षकों की बहाली में जहां 100 अंकों की लिखित परीक्षा ली गई वहीं 200 अंकों का साक्षात्कार लिया गया और जब अंतिम परिणाम निकला तो सूची में कई बाहुबली मंत्री,विधायक और उनके परिजन उत्तीर्ण घोषित किए गए थे।

          मित्रों,कहने का तात्पर्य यह है कि सत्ता बदलने से डिमेरिट से लाभान्वितों की जातियाँ भी बदलती रहीं। कांग्रेस राज में ब्राह्मण लाभान्वित हो रहे थे तो लालू-राबड़ी राज में यादव और अब नीतीश राज में कुर्मी लाभान्वित हो रहे हैं। बिहार कर्मचारी चयन आयोग के सूत्र मुझे पहले भी बता रहे थे कि इस बार सचिवालय सहायक की परीक्षा में कुर्मियों के पक्ष में धांधली की पूरी तैयारी है। इसी बीच वर्ष 2012 में एसटीएफ ने कुछ लोगों को कर्मचारी चयन आयोग के भवन में घुसकर रात के 12 बजे काँपियों में हेराफेरी करते हुए पकड़ा था। सचिवालय सहायक की पीटी परीक्षा में कई छात्रों ने जब उत्तर-पत्रक को सादा छोड़ दिया था तब भी हमारा माथा ठनका था। फिर भी हमें न जाने क्यों नीतीश जी की ईमानदारी भरी बातों पर भरोसा बना रहा परंतु अब जबकि सचिवालय सहायक परीक्षा का परिणाम आ गया है यह भरोसा भी टूट गया है।

                  मित्रों,पहले तो मुख्य परीक्षा में कम-से-कम 5 प्रश्न ही गलत थे फिर जब मॉडल उत्तर आया तो 5 उत्तर भी गलत पाए गए और इसके साथ ही उम्मीदवारों की योग्यता जाँचने वाले कर्मचारी चयन आयोग की योग्यता ही सवालों के घेरे में आ गई। फिर आयोग ने अप्रत्याशित जल्दीबाजी दिखाते हुए एक हफ्ते में ही 06-02-2013 को परिणाम घोषित कर दिया जैसे कि रिजल्ट पहले से ही तैयार करके रखा गया हो। रिजल्ट भी ऐसा जिससे मुख्य परीक्षा का कोई औचित्य ही नहीं रह जाए। मुख्य परीक्षा में शामिल 26078 उम्मीदवारों में से 25792 को सफल घोषित कर दिया गया जबकि रिक्तियाँ सिर्फ 3285 थीं। कर्मचारी चयन आयोग की 06-02-13 को जारी अधिसूचना के अनुसार जिन भी उम्मीदवार ने राज्य सरकार द्वारा निर्धारित उत्तीर्णांक को प्राप्त कर लिया है उन सबको मुख्य परीक्षा में सफल घोषित कर दिया गया है। आश्चर्य की बात है कि परीक्षा का आयोजन किया बिहार कर्मचारी चयन आयोग ने और उत्तीर्णांक का निर्धारण बिहार सरकार कर रही है। फिर कैसे परीक्षा की पवित्रता बनी रहेगी? फिर तो यह भी असंभव नहीं कि परिणाम भी आयोग के बदले राज्य सरकार ने ही तैयार किया हो।

                     मित्रों,परीक्षा परिणाम घोषित हुए आज 14 दिन हो चुके हैं लेकिन काफी रहस्यमय तरीके से अब तक सफल घोषित उम्मीदवारों द्वारा हल प्रश्नों की संख्या,सही उत्तरों की संख्या,गलत उत्तरों की संख्या और उनके द्वारा प्राप्त प्राप्तांक को वेबसाईट पर प्रदर्शित नहीं किया गया है जो सीधे तौर पर परीक्षा-परिणाम में हुई धांधली की ओर संकेत करती है। इसी बीच फिर से जल्दीबाजी दिखाते हुए कल 19 तारीख को काउन्सिलिंग का कार्यक्रम भी घोषित कर दिया गया है जिसमें कुल सीट जितना ही 3285 उम्मीदवारों को काउन्सिलिंग के लिए आमंत्रित किया गया है परनतु अभी भी उम्मीदवारों का प्राप्तांक घोषित नहीं किया गया है और शायद कभी घोषित किया भी नहीं जाएगा क्योंकि ऐसा करने से धांधली के उजागर हो जाने का खतरा है।

                 

मित्रों,मैं नीतीश सरकार से मांग करता हूँ कि काउन्सिलिंग को अविलंब स्थगित करते हुए वह मेरिट लिस्ट में सफल सभी उम्मीदवारों के प्राप्तांक के साथ-साथ उनकी जाति को भी वेबसाईट पर प्रदर्शित करे जिससे यह पता चल सके कि इनमें से उनके स्वजातीय अर्थात् कुर्मी जाति से आनेवाले कितने उम्मीदवार शामिल हैं। आखिर नीतीश कुमार को किसने हक दिया कि वे बिहार कर्मचारी चयन आयोग को अघोषित रूप से बिहार कुर्मी चयन आयोग में बदल दें? मैं तो यह भी कहता हूँ कि संविधान की प्रस्तावना के एक बार फिर से संशोधन किया जाए और उसमें भारत को धर्मनिरपेक्ष के साथ-साथ जातिनिरपेक्ष घोषित करते हुए जातिनिरपेक्ष शब्द जोड़ा जाए। दोस्तों, कुल मिलाकर मेरे इस आलेख का लब्बोलुआब यह है कि कथित सुशासन ने सचिवालय सहायक परीक्षा के वैसे उम्मीदवारों को घनघोर रूप से निराश किया है जो मेरिट वाली श्रेणी से आते हैं और जहाँ तक डिमेरिट श्रेणी वालों का प्रश्न है तो वे तो प्रत्येक शासन में मजे में थे,मजे में हैं और मजे में रहेंगे।

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

हमें तो लूट लिया मिल के कांग्रेस वालों ने

मित्रों,वर्ष 2004 में जब कांग्रेस की मनमोहिनी सरकार सत्ता में आई थी तो आपको याद होगा (क्योंकि जनता की याद्दाश्त कतई कमजोर नहीं होती है) कि तय हुआ था कि हर 100-200 दिनों पर प्रधानमंत्री मंत्रियों की कक्षा लगाएंगे और उनको बताएंगे कि मंत्री के काम में कहाँ कमी रह गई। इतना ही नहीं यह तय हुआ था कि मंत्रियों के कामकाज का मूल्यांकन कर उनको अंक भी दिए जाएंगे। परन्तु मंत्रियों की कक्षाएं तो कभी ली ही नहीं गई अंक जरूर दे दिए गए और सबको एकसिरे से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण घोषित कर दिया गया। शुरू में जब तक सरकार साम्यवादी वैशाखी का उपयोग कर रही थी तब तक उसका कामकाज अगर अच्छा नहीं था तो बुरा भी नहीं था। हालाँकि तभी मनमोहन सिंह ने यह प्रदर्शित करना शुरू कर दिया था कि वे मजबूत नहीं मजबूर प्रधानमंत्री हैं और इस तरह निरीह सलाहकार की तरह बोलना शुरू कर दिया था जैसे वे भारत के नहीं अन्यत्र के प्रधानमंत्री हैं।

                        मित्रों,फिर जब एक बार सरकार साम्यवादी शिकंजे से आजाद हुई तो कप्तान कम स्वघोषित रेफरी मनमोहन ने अपने खिलाड़ियों (मंत्रियों) को खुलकर फाउल खेलने की पूरी और बुरी छूट दे दी। फिर तो मंत्री जनता के (अपने ही) पाले में जमकर गोल करने लगे। कई बार तो राजा जैसे खिलाड़ियों ने खेल के नियम भी बदल डाले। किसी ने विश्व रिकार्ड बनाते हुए 1 लाख 75 हजार करोड़ गोल किए तो किसी ने 10-20 बीस हजार करोड़। राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता की ऐसी की तैसी ही नहीं की गई बार-बार उनकी माँ-बहन को भी एक किया गया। वो कहते हैं न कि कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,कहाँ तो चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। इस बीच बार-बार रह-रहकर यह अफवाह भी उड़ती या उड़ाई जाती रही कि वली अहद राहुल बाबा अब माबदौलत बने कि तब बने। उनके लिए यह काम था भी बड़ा आसान। उतना ही आसान जैसे कि हमारे लिए सुबह-सुबह टहलना या ब्रश करना होता है। लेकिन अफवाहें तो अफवाहें ही होती हैं सो न तो राहुल बाबा को प्रधानमंत्री बनना था और न ही वे बने।

                       मित्रों,आजकल जब राहुल बाबा को पार्टी में कथित प्रोन्नति दे दी गई है और उनको कांग्रेस की तरफ से अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार बताया जा रहा है तब भी वे प्रधानमंत्री बनने को लेकर न केवल घोर उदासीनता बरत रहे हैं बल्कि प्रदर्शित भी कर रहे हैं। उनके किसी चमचे ने जहाँ उनकी ठकुरसोहाती की रौ में उनको प्रधानमंत्री बनाने की मांग रखी नहीं कि सिरिमान (श्रीमान) इस तरह भड़क उठते हैं जैसे वर्णांध सांढ़ लाल कपड़े को देखकर। जिस पद पर चंद दिनों के लिए भी बैठने के लिए या जिस कुर्सी पर बैठकर सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए भारत के सारे राजनेता व्याकुल रहते हैं वही कुर्सी राहुल बाबा को काँटों की सेज नजर आती है। ऐसा क्यों है,क्या रहस्य है इसमें? क्या राहुल गांधी मनमोहन सिंह के कुराज में जनता के दुःखों-कष्टों के प्रति तनिक भी संवेदनशील नहीं हैं? अगर हैं तो क्यों वे खुद प्रधानमंत्री नहीं बन रहे और अगर नहीं हैं तो इसके पीछे क्या-क्या कारण हो सकते हैं? जैसे कि नपुंसक वर विवा���� के नाम से ही हड़कता है राहुल गांधी का रोम-रोम क्यों प्रधानमंत्री बनने की बात सुनकर ही सिहरने लगता है? क्या वे डरते हैं कि अगर वे प्रधानमंत्री बने तो बाप और दादी की ही तरह उनकी भी हत्या हो जाएगी? तो फिर वे राजनीति में आए ही क्यों? अगर वे यह समझते हैं कि वे और उनके बनाना गणतंत्र के मैंगो जीजाश्री सत्ता में न आकर भी सत्ता का निर्बाध आनंद अनंत काल तक लेते रहेंगे और केंद्रीय मंत्रियों की तरह मलाई चाभते रहेंगे,भूमि और अन्य घोटाला करते रहेंगे और फिर भी बोतलबंद पानी पी-पीकर सत्ता को जहर कहकर गालियाँ देते रहेंगे तो वे भारी मुगालते में हैं। ऐसा गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज सिर्फ तभी तक हो पाएगा जब तक जनता उनकी पार्टी की सरकार को उसके लूटराज से उबकर सत्ता से हटाती नहीं है। अगर राहुल बाबा में योग्यता है तो उनको देश की बागडोर सीधे अपने हाथों में ले लेनी चाहिए और अगर उनमें योग्यता नहीं है तो देश की जनता से हाथ जोड़कर माफी मांग लेनी चाहिए जनता अन्य विकल्पों पर खुद ही विचार कर लेगी। राहुल जब अभी सुबह के नाश्ते से पहले या डिनर के बाद कभी भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो फिर उनको आगामी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना क्या हास्यास्पद नहीं है? दुर्भाग्यवश राहुल बाबा न तो यह कर रहे हैं और न ही वह। वे तो बस अभी भी न जाने क्यों राजनीति के टेढ़े आंगन में नाचने के बदले पौआ-पौआ चलना सीख रहे हैं,गुड्डे-गुड़ियों (छोटे-मोटे घोटालों) से खेलने और खेलते ही रहने की जिद कर रहे हैं। इस बीच सत्ता चाहे उनके लिए भले ही जहर न हो जनता के लिए उनकी पार्टी का सत्ता में होना जरूर प्राणघातक साबित हो रहा है।

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

क्या संन्यास आश्रम भी भ्रष्ट नहीं हो गया है?


 

मित्रों,यह दौर बड़ा ही संक्रमण भरा है। प्राचीन काल में जहाँ हिन्दू-सनातन समाज में चार आश्रम हुआ करते थे-ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास वहीं कालान्तर में व्यावहारिक कठिनाइयों के चलते सिर्फ दो आश्रम ही शेष बचे हैं-गृहस्थ और संन्यास। परन्तु आज के समय में ये दोनों आश्रम भी संकट में हैं। गृहस्थाश्रम को शास्त्रों में जहाँ धर्म-प्राप्ति का माध्यम माना गया है वहीं संन्यास को मोक्ष-प्राप्ति का लेकिन हम देखते हैं कि आज हिन्दू-गृहस्थ और संन्यासी दोनों ही पथ-भ्रष्ट हो रहे हैं,उनमें से कई तो अपने मार्ग से भटक भी गए हैं। पहले जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर के पद पर परम-ग्लैमरस राधे माँ को बिठाने और अब महानिर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर के पद पर नित्य कुकर्म में रत रहनेवाले नित्यानंद को बिठा देने से संन्यास-आश्रम और संन्यासियों के अखाड़ों के औचित्य पर ही प्रश्न-चिन्ह लग गया है। प्रश्न उठता है कि इन अखाड़ों में बहुमत किस तरह के संन्यासियों का है? क्या इनके सदस्यों में बहुमत नित्यानंद और राधे माँ जैसे संन्यासियों का है,उनकी तरह की सोंच रखनेवाले संन्यासियों का है? अगर हाँ तो फिर क्या औचित्य है ऐसे अखाड़ों का और अगर नहीं तो फिर नित्यानंद और राधे माँ कैसे महामंडलेश्वर के महान पद पर काबिज हो गए? मुझे संन्यासियों के अखाड़ों की परंपरा से कोई निजी शत्रुता नहीं है मगर जब संन्यासी आध्यात्मिक चिंतन और भगवद्भक्ति को त्याग कर अनैतिक आमोद-प्रमोद में संलिप्त हो रहे हैं तो सिर्फ ढोंग के लिए संन्यास-आश्रम और अखाड़ों को बनाए रखने की क्या आवश्यकता है? अगर किसी संन्यासी से ब्रह्मचर्य नहीं संभल पा रहा है तो उसे गृहस्थ बन जाना चाहिए। भारत में इस तरह की परंपरा भी रही है। इससे दोनों ही आश्रमों की गरिमा बनी रहेगी। यह क्या कि धर्मभीरू लोगों की मूर्खता का लाभ उठाते हुए सामान्य गृहस्थों के लिए दुर्लभ आराम की ऐश्वर्यपूर्ण जिन्दगी भी बिता रहे हैं और फिर उसी पैसों के बल पर गृहस्थों की बेटी-बहुओं का शीलहरण भी कर रहे हैं? एकसाथ दोनों ही आश्रमों को पतन के गर्त में धकेलते इन संन्यासियों को शर्म भी नहीं आ रही है।
                   मित्रों,इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर कोई संन्यासी अनैतिक कर्म में रत पाया जाए तो हिन्दू-समाज को जबरन उसकी शादी कर देनी चाहिए और अगर फिर भी वो नहीं सुधरे तो उसको सूली पर चढ़ा देना चाहिए या फिर उससे ऐसा व्रत करवाना चाहिए जिससे उसका प्राणान्त हो जाए क्योंकि इस तरह के लोग समाज के लिए किसी भी तरह से लाभदायक नहीं हो सकते। मैं देखता हूँ कि जिस भी व्यक्ति को किसी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया जाता है अखाड़े में भगवान के साथ-साथ उसकी भी मूर्तियाँ लगाई जाती हैं और उसको भी भगवान का दर्जा दे दिया जाता है। मेरे हिसाब से ऐसा करना पूरी तरह से अनुचित है। कोई भी ईन्सान सिर्फ ईन्सान है वह किसी पद पर जाने मात्र से कैसे भगवान हो जाएगा जबकि उसका मन अब भी पूरी तरह से पाप में डूबा हुआ होता है? मैं अपने पहले के एक आलेख में अर्ज कर चुका हूँ कि गरिमा व्यक्ति में निहित होती है न कि पद में। इसलिए महामंडलेश्वरों की मूर्ति लगाकर पूजने का पाखंड भी तत्क्षण बंद होना चाहिए क्योंकि पाखंड से धर्म को नुकसान ही होता है कभी लाभ नहीं हो सकता। तुलसी ने रामचरितमानस में कहा भी है कि हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें लुप्त होहिं सदपंथ॥ (मैंने यहाँ गुप्त को लुप्त और सदग्रंथ को सदपंथ कर दिया है)

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

हम जानते हैं नरक का पता

नोट-इस आलेख को पढ़ने से पहले कृपया नोबेल विजेता क्विस्त की कहानी नरक की ओर जानेवाली लिफ्ट को पढ़ लें जिसमें नायक को सिर्फ मानसिक यातना झेलनी पड़ती है क्योंकि तब आपको मेरे द्वारा भोगे गए नरक का सही-सही अंदाजा हो पाएगा।
मित्रों,आपका परलोक अर्थात् स्वर्ग और नरक में कितना विश्वास है मुझे नहीं पता। मेरा भी परलोक में विश्वास नहीं है परन्तु इस बात में मेरा पक्का विश्वास है कि हम जैसे किराएदारों के लिए स्वर्ग और नरक दोनों इसी धरती पर हैं। जब मकान-मालिक अच्छा मिल जाए तो समझिए कि आप स्वर्ग में हैं और अगर खराब मिल गया तो समझिए कि आपने पूर्व में कभी कोई--कोई महापाप किया है यानि आप नरक में हैं। अभी-अभी जिस मकान को छोड़कर मैं और मेरा परिवार आया है उसको अगर मुगल बादशाह जहाँगीर ने देखा होता तो मुझे पूरा यकीन है कि वे कश्मीर को भूल गए होते और कहा होता कि अगर इस धरती पर कहीं नरक है तो यहीं पर है,यहीं पर है, यहीं पर है।
               मित्रों, पिछले साल 5 अप्रैल को जब हम ठेले पर अपनी खानाबदोश गृहस्थी को लादे हुए इस मकान में पहली बार पधारे तो मकान-मालिक जो रसायन-विज्ञान के अवकाश-प्राप्त प्रोफेसर थे को पिताजी के साथ सोफे पर विराजमान पाया। अपने संस्कारोनुरूप मैंने उनके चरण-स्पर्श किए और बताया कि मैं एक नामी लेकिन बिना आमदनीवाला पत्रकार हूँ। शाम में उनकी पत्नी भी आई परन्तु वे कुछ खुश नहीं दिख रही थीं। उनका मानना था कि हमारे पास सामान ज्यादा था। हालाँकि मैंने उनको समझाना चाहा कि घबराने की कोई बात नहीं सामान सेट हो जाने के बाद आपको ऐसा नहीं लगेगा परन्तु तो उनका मूड ही बदला और ही उन्होंने इस बात की रट लगानी बंद ही की कि हमारे पास सामान ज्यादा है। फिर कई दिनों तक हम सामान सजाने में व्यस्त रहे। इस बीच में देख चुका था कि किचेन के सिंक में पानी नहीं आता है और ही निकासी पाईप ही लगाई गई है। वायरिंग की हालत भी कुछ ज्यादा ही खराब थी। शौचालय की टंकी शायद ऊपर तक भरी हुई थी जिससे पानी ऊपर तक भर जाता था और लैटरिन भीतर जाता ही नहीं था। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि मकान में जो सुविधाएँ नहीं हैं हमेशा से नहीं हैं और पिछले बीस वर्षों में एक दर्जन से ज्यादा किराएदारों के आने और चले जाने के बावजूद भी स्थिति जस-की-तस हैं। फिर भी हमने मकान-मालिक को बुलाकर जब समस्याएँ बताईँ तो उन्होंने बड़े मीठे स्वर में कहा कि अभी तक आपलोगों ने एडवांस नहीं दिया है। दे देंगे तो समाधान भी हो जाएगा। हमने तत्काल तत्क्षण एक महीने का किराया दे दिया। फिर तो कई दिन बीत गए। इस बीच एक नई समस्या शुरू हो गई। मेरे मकान-मालिक कभी भी बिना दरवाजे पर दस्तक दिए धमक जाते और बार-बार यह बल्ब क्यों जल रहा है,पंखा क्यों चल रहा है,घर में झाड़ू क्यों नहीं पड़ा जैसे सवाल ठोंकने लगते। एक-दो दिन तो मैंने बर्दाश्त किया फिर कहा कि श्रीमान् आप तो अपनी ही हाँके जा रहे हैं हमारी समस्याओं का समाधान तो आपने किया ही नहीं जबकि एडवांस दिए कई दिन हो गए। बस फिर क्या था बुजुर्गवार जोर-जोर से चीखने लगे और पूरे मोहल्ले को जमा कर लिया। आपने फरमाया कि आप मकान पर एक पैसा भी खर्च नहीं करने जा रहे हैं। चूँकि हम उनके निर्देशानुसार नहीं रहे हैं सो हमें अभी घर खाली कर देना होगा। मैं तो सुनकर हैरान रह गया। अभी तो हमें आए हुए सात दिन भी नहीं हुए थे। उस पर बिहार लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा और अधीनस्थ न्यायालय का साक्षात्कार सिर पर था। अब मुझे भी तैश गया और मैंने कहा कि मकान में जब सुविधाओं की भारी कमी थी तो किराया पर लगाया ही क्यों तो उनका जवाब था कि आपको पहले आकर सबकुछ देख लेना चाहिए था। तब मैंने कहा कि तब भी मुझे कैसे पता लगता कि आप झूठ बोल रहे हैं कि सच?  
          मित्रों,कुछ ही दिनों बाद नलों में पानी का प्रवाह कम हो गया। मैंने जब इसकी शिकायत की और कहा कि आपलोगों ने पानी का प्रवाह ऊपर टंकी के पास से तो कम नहीं किया है तो मकान-मालकिन जो एक शिक्षिका रह चुकी हैं झूठी कसमें खाने लगीं। फिर तो पूरे प्रवाह में कभी पानी आया ही नहीं। अगर 12 बजे नहाना हो तो 10 बजे से ही नल खोल दीजिए तब जाकर बाल्टी भर पाती थी। बर्तन धोने के लिए पीछे गलियारे में जाना पड़ता था और वहाँ भी पानी के कम फ्लो की समस्या थी। एक दिन फिर मकान-मालिक धमके और कहा कि पीछे के गलियारे में साइकिल नहीं रखनी चाहिए क्योंकि यह तो उनके मतानुसार बाथरूम था। मैं भौंचक्का रह गया उनके इतिहास-ज्ञान पर कि श्रीमान् कहीं मोहनजोदड़ो की यात्रा करके तो नहीं आए हैं जहाँ कभी बड़े-बड़े खुले स्नानागार थे। इसी बीच एक दिन सुबह-सुबह शौचालय ने और अधिक शौच को समाहित करने से मना कर दिया। उस पर गजब यह कि उस दिन मेरा और मेरे पिताजी का एकसाथ पेट खराब हो गया। अब हम कितनी देर तक चपक धिन्न चाँप के रक्खो करते। आखिर चाहते हुए भी मकान-मालिक जी को बुलाया। उन्होंने एक गदानुमा उपकरण उपलब्ध करवाया और बताया कि जब भी लैटरिन जाम हो जाए तो इसका इस्तेमाल किया जाए। फिर तो दोस्तों बार-बार उस गदा का कपड़ा सड़ता रहा और खुलकर लैटरिन के बेसिन में गिरता रहा और हम अपने करकमलों से निकालते रहे और नया कपड़ा उस पर लपेटते रहे। इस बीच मोहल्ले के कई लोगों ने अपनी लैटरिन की टंकी को साफ करवाया मगर इन श्रीमान् को करवाना था सो नहीं करवाया।
              मित्रों, इसी बीच एक नए संकट से भी हमें जूझना पड़ा। श्रीमान् ने सीढ़ी पर चेंजर लगा रखा था सो जब मन करे बिजली काट देते थे। चूँकि शुरू में हम समझ नहीं पाए इसलिए बिजली जाने पर यही समझते रहे कि पूरे मोहल्ले की बिजली गई होगी। बाद में जब बात समझ में आई और हमने शिकायत की तो उन्होंने फरमाया कि उनके निवास का तार कमजोर है सो ज्यादा देर तक लगातार बिजली रहने पर गलने लगता है। उस समय भीषण गर्मी पड़ रही थी मगर हम लाचार थे। रात को छत पर वे खुद सपरिवार कब्जा जमा लेते थे इसलिए हम छत पर भी सोने के लिए नहीं जा पाते थे और इस तरह जाने कितनी रातें हमने जागकर बिता दीं। कई बार हमने कपड़ा धोकर छत पर सूखने को डाला तो बाद में अलगनी से गिरा हुआ पाया हालाँकि हम चाँप लगा देते थे। फिर तो हमने कपड़ा छत पर डालना भी बंद कर दिया। इस बीच हमारा नल दो-चार बाल्टी पानी देने के बाद बंद हो जाने लगा। अब हमें सारा काम चापाकल से पानी लाकर करना था। एक बार चापाकल पर बर्तन धोने लगा तो मकान-मालिक धमके और पुलिस को बुलाने की धमकी दे डाली। मैंने भी बड़े ही विनम्र स्वरों में कहा कि श्रीमान् आपकी बड़ी कृपा होगी। जेल में भी शायद इस मकान से ज्यादा सुविधा मिलती होगी।
          मित्रों, कुल मिलाकर उस मकान में सुविधाओं का अभाव ही नहीं अकाल था। हमारे मकान-मालिक हमें यानि किराएदारों को आदमी समझते ही नहीं थे। हालाँकि इस मकान में आने से पहले पिताजी उनके लिए बड़े ही आदरणीय थे लेकिन मकान में आते ही जाने क्यों वे उनकी नजरों में आदमी भी नहीं रह गए थे। पैसों के बारे में श्रीमान् बड़े काईयाँ किस्म के थे। एक बार फ्यूज में खराबी जाने पर हमने मैकेनिक बुलवाया मगर श्रीमान् ने उसका पैसा हमें आज तक नहीं दिया। इसी तरह एक बार जब चापाकल खराब हो गया तो उन्होंने कृपापूर्वक उसे कई सप्ताहों तक खराब ही छोड़ दिया और हम कई सप्ताहों तक पड़ोसियों के चापाकल से पानी लाकर काम चलाते रहे। बिजली के मामले में पहले तो उन्होंने कहा कि हमलोगों का अलग मीटर है और उसी के अनुसार बिजली का पैसा देना होगा लेकिन बाद में कहा कि जो भी कुल बिल उठेगा उसमें से हमें आधा देना होगा। हमने जब कहा कि आप हमारे मीटर से पैसा क्यों नहीं लेते बिजली को लेकर झिक-झिक की जरूरत ही क्या है? तो फिर से एक बार फिर वही धमकी कि जैसे हम कहते हैं रहिए वरना आपसे दो मिनट में हम डेरा खाली करा लेंगे। कहने को तो श्रीमान् सपत्निक गायत्री परिवार के सदस्य थे और दरवाजे पर लिखवा भी रखा था कि सभ्यता का स्वरूप है सादगी, अपने लिए कठोरता और दूसरों के लिए उदारता परंतु उनका व्यवहार इसके ठीक उलट था। घर के बाहर लिखी ईबारत को देखकर ही तो हम धोखा खा बैठे थे और समझा था कि हम एकदम सही जगह पर रहने आए हैं।
                मित्रों,इस तरह किसी तरह उस नरक में हमने 10 महीने बिताए और अब इसी 1 फरवरी को खाली किया है। वैसे अगर आप भी नरक का मोल देकर मजा लेना चाहते हैं,अगर आप भी विद्वान मगर ईन्सानियत से पूर्णतया रिक्त मकान-मालिक का आनंद लेना चाहते हैं तो इस अवसर को बिल्कुल भी हाथों से नहीं जाने दीजिए। वह मकान फिर तो बस आपके लिए ही खाली है। पता मैं वता देता हूँ-प्रोफेसर एस. पांडे, प्रोफेसर कॉलोनी, आर.एन. कॉलेज के पास, हाजीपुर (वैशाली) अब कुछेक सवाल अपनी सरकारों से। श्रीमान् नीतीश कुमार जी क्या किरायेदारों का कोई कानूनी या मानवाधिकार नहीं होता? जब जी चाहे भाड़ा में मकानमालिक बढ़ोत्तरी कर देते हैं,नहीं बढ़ाने पर तुरंत खाली करने का फरमान जारी कर देते हैं,क्या इनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं होना चाहिए और अगर ऐसे कानून हैं तो क्या उनका जोर-शोर से प्रचार-प्रसार नहीं होना चाहिए? क्या किराएदार भी उपभोक्ता नहीं होते और इसलिए उनको भी उपभोक्ता-कानूनों का लाभ नहीं मिलना चाहिए? मनमोहन सिंह जी भारत में करोड़ों लोग किराएदार के रूप में रहने को अभिशप्त और मजबूर हैं। क्या इतनी बड़ी जनसंख्या को अत्याचार और जुल्म सहने के लिए यूँ ही अपने हाल पर छोड़ देना उचित है? क्या शासन-प्रशासन को आगे बढ़कर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि अधिकतर किराएदारों का मतदाता-सूची में नाम नहीं होता? क्या शासन-प्रशासन को आगे बढ़कर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करनी चाहिए? मैं पूछता हूँ कि चंद हजार वार्षिक कमानेवाले नौकरीपेशा लोगों पर तो आयकर विभाग का कोड़ा खूब चलता है लेकिन लाखों रूपये मासिक की आमदनीवाले मकान और दुकान-मालिक 1 पैसे का भी अतिरिक्त कर नहीं भर रहे हैं फिर भी सरकार मूकदर्शक क्यों है? क्या यही कानून और कानून का शासन है? वैसे दोस्तों जब आप उक्त मकान में नरकवासी बनने को आ जाएँ तो कृपया अपने अनुभवों से मुझे भी समय-समय पर अवगत करवाईएगा। अपने पड़ोसियों से पूछ लीजिएगा वे लोग जानते हैं कि मैं इस समय कहाँ स्वर्गवास कर रहा हूँ। मैं आपका सबसे बड़ा शुभचिंतक आपका बेसब्री से इंतजार करूंगा।